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गुरुवार, 27 मई 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

देवाशीष प्रसून

समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।


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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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बुधवार, 5 मई 2010

भारतीय रेल का वर्ग चरित्र

- देवाशीष प्रसून
यह पिछले के पिछले सदी की बात है, जब दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास करमचंद गांधी को प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे से धक्के मार कर निकाल फेंका गया था, क्योंकि वह एक अश्वेत होने के साथ-साथ एक गुलाम देश  से आया आदमी था। मोहनदास के जीवन की इस घटना ने उसे सामाजिक विषमता के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दी और सफर शुरू हुई एक मामूली से इंसान के महात्मा बनने की। जितना मुझे मालूम है, इससे पहले गांधी की अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति आस्तिकता थी। बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने तक की यात्रा तमाम अन्य संघर्षों के साथ-साथ मोहनदास के लिए अपनी मानसिकता को संस्कारगत गुलामी से मुक्त कराने का संघर्ष भी था।

आज भारत को आज़ाद हुए तिरसठ सालों से अधिक का समय बीत चुका है। आज़ाद ख्याली के नाम पर पश्चिमी उपभोक्तावादी-पूंजीपरस्त संस्कृति का अंधा नक़ल करने में देश में बड़ी तादात माहिर हो चुकी है। लेकिन, क्या संस्करगत गुलामी से अब भी इस देश की जनता को आज़ादी मिली है? कई उदाहारण हैं, इसे परखने को। क्यो न, उसी रेल की बात करें, जिसने गांधी के अंदर पल रहे संस्कारगत गुलामी को झकझोक कर रख दिया था।
रेल का अपना वर्ग चरित्र है और यह वर्ग-चरित्र बहुत जाहिर है। जैसे रेल कैंटीन में आपको जनता खाना मिल जाएगा। जनता से यहाँ आशय सर्वहारा से है, क्योंकि जनता खाना के नाम पर सबसे सस्ता खाना परोसा जाता है। गो कि देश के सत्ता की नज़र में इलीट जनता कोई जनता नहीं, ईश्वर का सीधा अवतार हो। रेल में इस्तेमाल की जाने वाली ऐसी शब्दावलियाँ घोर भेदभावपूर्ण व आपत्तिजनक हैं। वहीं, रेल में पेंट्री आपूर्ति द्वारा जो खाने-पीने की चीज़े बेची जाती है, उसकी क़ीमत इतनी ज्यादा होती है, कि कोई निम्न मध्य वर्ग या उससे कम हैसियत रखने वाला इंसान भले भूखा पेट उसे देख कर ललचाता रहे, लेकिन यह खाना खरीद कर खाना उसके सामर्थ्य में नहीं होता।
हर साल रेल मंत्री रेल विकास के आँकड़ेबाज़ी का खेल खेलते रहते हैं। हर कोई नयी गाड़ियाँ चलाता हैं। यात्री भाड़ा नहीं बढ़े, यह कोशिश की जाती है। यात्री सुविधाओं के नाम पर आरक्षण प्राप्त करने के बेहतर विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं, नयी गाड़ियाँ चलाई जाती हैं। लेकिन, यह सवाल क्यों नहीं उठता कि सामान्य श्रेणी के रेल डिब्बों और उसमें सफर करने वाले यात्रियों की स्थिति में सुधार कैसे की जाये। इन रेलमंत्रियों को अगर किसी सामान्य स्थिति में बिना यह जाहिर किये कि वो मंत्री हैं, सामान्य श्रेणी के डिब्बे में सफर करना पड़ जाये तो यकीनन ऐसी स्थिति में वो अपने प्राण त्याग दें। वहाँ पेशाब-पखाना से फारिग होने के लिए जो स्थान नियत है, उसकी भी सफाई यात्रा शुरू से पहले बस एक बार होती है। लंबे सफर वाली गाडियों में भी इसका ख्याल नहीं रखा जाता है कि सामान्य श्रेणी के डिब्बे, जहाँ यात्रियों की संख्या अन्य डिब्बों से अधिक होती है, वहाँ साफ़-सफ़ाई और सुविधाओं का अधिक ध्यान रखा जाये। सामान्य श्रेणी के यात्रियों के बारे में कोई नहीं सोचता, जबकि वातानुकुलित डिब्बे में नियत समय पर सफाई होती है और सुगंधियों का छिड़काव होता रहता है। भारतीय रेल ने इंसानी गरिमा को उसके ज़ेब और बटुए से जोड़ रक्खा है।

लालू यादव ने अपने कार्यकाल में यह भ्रम बनाये रखा कि यात्री भाड़ा में बढ़ोत्तरी नहीं होने से उनका समय जनपक्षधर रेल का समय था। पर, कई तिकड़मों से गरीब जनता पर अत्याचार किये गये। जैसे, यात्री भाड़ा तो स्थिर रखा, लेकिन गाड़ियों की क्षमता बढ़ाये बगैर उसे सुपरफ़ास्ट घोषित करते हुये सुपरफ़ास्ट चार्ज़ वसूले गये। इसी सिलसिले में हुआ यह कि बगल की दो सीटों की संख्या को बढ़ाकर तीन कर दिया गया। ऐसा करना जीते जागते इंसानों के साथ बड़ा अमानवीय व्यवहार था। यह इंसानों के साथ कबूतरों सा बर्ताव करते हुये उनके लिए दरबा बनाने जैसा था। ममता बैनर्जी आयीं, तो बगल के डिब्बों की संख्या तीन से फिर दो हुयी, लेकिन अफ़सोस यह कि इस सुधार में ऊपर वाले सीट, जहाँ बैठना बिल्कुल असंभव है, आप वहाँ एक ही स्थिति में लेटे रहने के लिए अभिशप्त रहते हैं, उसे वैसे का वैसा ही रहने दिया गया और बीच वाले सीट को, जो अपेक्षाकृत बेहतर था, उखाड़ फेंका गया। नतीजतन यात्रियों की असुविधा जस की तस रही।
सवाल है कि यात्रियों को इन सब पर गुस्सा क्यों नहीं आता? आज ये सारी समता विरोधी स्थितियाँ व नीतियाँ किसी मोहनदास को बदलाब का महात्मा बनने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करती?
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