देवाशीष प्रसून
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में असंतोष की स्थिति में प्रतिरोध व जनांदोलनों के लिए कोई जगह नहीं है। उलटे हमारी सरकार प्रतिरोधों और जनांदोलनों के प्रति हमेशा प्रतिक्रियावादी रही, जिनमें प्रतिरोधों के दमन के लिए असंतुष्ट जनता को झूठे कानूनी पचड़ों में फँसाने से लेकर उनको कैद करने, मारने-पीटने, फर्जी मुठभेड़ों में हत्या करने के साथ-साथ औरतों का यौन उत्पीड़न करना भी शामिल रहा है। देश में जहाँ-जहाँ असंतोष बढ़ा है और लोग अपनी असहमति जाहिर करते हुए सरकारी नीतियों और रवैये का प्रतिरोध कर रहे हैं, उन जगहों को सरकार ने धीरे-धीरे तनावग्रस्त घोषित कर दिया गया है। जब तमाम तरह के बुद्धिजीवी लोग इन इलाकों की स्थितियों की खुद पड़ताल करना चाहते हैं तो उन्हें उनके ही सुरक्षा के नाम पर रोका जाता है। भारत सरकार या राज्य सरकारें, जो आंतरिक सुरक्षा पर अकूत पैसा खर्च करती है, वो स्वतंत्र जाँचकर्ताओं के सुरक्षा के सवाल पर अपने हाथ खड़े कर देती है। सरकारी तंत्र इन क्षेत्रों में निष्पक्ष, गैर-सरकारी जाँच से हमेशा बचता है। बचता ही नहीं, इन मामलों में जाँचों को रोकने के लिए वो अपना पूरा बल लगा देता है। ऐसा करना सरकारी दमन की खबरों पर शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता।
उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक में चासी मुलिया आदिवासी संघ के नेतृत्व में आदिवासी अपनी ज़मीन हासिल करने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे। पुलिस ने इस मामले में गैर-आदिवासियों का पक्ष धरते हुए आंदोलन को छितर-बितर करने की पूरी कोशिश की। आदिवासियों की धर-पकड़ शुरू हुई। आदिवासी महिलाओं पर हुए बलात्कार के वारदातों की खबरें भी सुनने में आयी। नारायणपटना थाने के ओआइसी ने लोगों के शिकायत पर यह दिलासा दिया कि यह सब माओवादियों से निपटने के लिए किया जा रहा है और अब चासी मुलिया आदिवासी संघ को परेशान नहीं किया जायेगा। लेकिन जब दमन का सिलसिला नहीं रूका तो लोगों ने फिर थाने पहुँच कर अपनी सुरक्षा की गुहार लगानी चाही। ऐन वक्त पर पुलिस ने वहाँ पहुँचे लोगों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसायी, जिसमें दो लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। २३ नवंबर को सच्चाई सच्चाई का पता लगाने बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक दल जब नारायणपटना पहुँचा तो इस इलाके में घुसने से रोकने के लिए पुलिस ने पूरे दल को बहुत परेशान किया। यहाँ तक की पुलिस द्वारा इस दल के लोगों को पीटे जाने की बात भी सामने आयी। ९ दिसंबर को देश के कई हिस्सों से आयीं सामाजिक कार्यकत्ताओं के एक और दल ने हालात का पूरा जायजा लेने के ख्याल से नारायणपटना जाने का फैसला लिया। जमींदारों के गुंडों ने इस शिष्टमंडल के साथ भी दुर्व्यवहार किया और यह सब पुलिस के इशारे पर और उनके संरक्षण में किया गया। तो फिर, ऐसा क्यों न माना जाए कि पुलिस ने ये सब अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए किया है?
१४ दिसंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देश भर से आयीं लगभग पच्चीस महिला अधिकार व मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नेंड्रा गाँव में बलात्कार पीड़ित महिलाओं से मिलकर उनसे सहानुभूति प्रकट करने फैसला लिया। रायपुर से चले ३४ महिलाओं और ५ पुरुषों के इस शिष्टमंडल को कांकेर के चारामा बस पड़ाव पर रोका गया। मामूली बहानों के आधार पर वहाँ से उनके द्वारा किराये पर ली गयी चार गाड़ियों में से एक को पुलिस ने आगे नहीं बढ़ने दिया गया। हालाँकि अन्य वाहन चालकों को भी इतना डराया गया कि कुछ ही दूर पर माकड़ी इलाके तक पहुँचने के बाद चालकों ने आगे जाने इंकार कर दिया। मजबूरन इस दल के सदस्यों को बसों का सहारा लेना पड़ा, लेकिन जिन बसों पर इस दल के लोग सवार थे, उसको बार-बार नियमित पुलिस जाँच के नाम पर घंटों रोका जाने लगा। बस के अन्य सवारों को कहा गया कि जब तक ये बाहरी लोग बस में रहेंगे, बस को ऐसे ही रोका जायेगा। ऐसे में त्रस्त आकर शिष्टमंडल को बस्तर जिले के कोंडागांव में बस से उतरना पडा। कई कोशिशों के बावजूद उन्हें आगे दंतेवाड़ा नहीं जाने दिया गया। पुलिस ने यह इशारा भी किया गया कि रास्ते में आगे दो-तीन हजार लोगों की भीड़ ने रास्ता जाम कर रखा है और पुलिस उनसे कार्यकर्त्ताओं की रक्षा नहीं कर पायेगी। शिष्टमंडल पुलिस की मंशा से परिचित हो चुकी थी। दंतेवाड़ा जाकर पीड़ित महिलाओं को सांत्वना देने निकले शिष्टमंडल को आखिरकार भय के माहौल में रायपुर वापस लौटना पड़ा।
ये घटनाएँ तो बस बानगी हैं। ऐसी खबरें देश के हर तनावग्रस्त क्षेत्र से आ रही हैं। सवाल यह उठता है कि कोई इलाका जब तनावग्रस्त घोषित हो जाता है तो पूरी शासन व्यवस्था वहाँ के प्रतिरोधों को कुचलने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाती है। और अगर सच में दमन की ऐसी कोई स्थिति नहीं है तो सरकार स्वतंत्र पर्यवेक्षण से क्यों बचना चाहती है? ऐसा करना क्या उन जगहों पर हो रहे मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन और यौनात्याचारों पर पर्दा डाल कर आम लोगों पर हो रहे जुल्म-ओ-सितम का नंगा नाच यों ही जारी रखने का षड़यंत्र तो नहीं है? अगर इन इलाकों से सरकारी दमन की रिस-रिस कर आती खबरों में कोई सच्चाई नहीं है और ये एक मिथ्या प्रचार है तो सरकार को देश-विदेश के किसी भी स्वतंत्र पर्यवेक्षकों को तनावग्रस्त इलाकों की सच्चाई को उजागर करने से रोकना बंद ही नहीं करना चाहिए, बल्कि ऐसा करने में पर्यवेक्षकों की सुरक्षा की भी पूरी व्यवस्था करनी चाहिए।
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