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मंगलवार, 25 जनवरी 2011

जैतापुर के बहाने जनता के लोकतंत्र की बात...

-  देवाशीष प्रसून
आबादी के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा हम करते हैं। लेकिन हमारी आबादी का एक हिस्सा आने वाले गणतंत्र दिवस का विरोध करने वाला है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जैतापुर इलाके में सत्तर स्कूलों के लगभग ढ़ाई हज़ार विद्यार्थियों ने वहाँ बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरोध में ऐसा निर्णय लिया है। पिछले दिनों इन विद्यार्थियों ने स्कूल नहीं जाने का निर्णय तब लिया जब जिला प्रशासन ने शिक्षकों को विद्यार्थियों के समक्ष परमाणु ऊर्जा का गुणगान करने के निर्देश दिए थे। पूरे देश में एक बड़ा संघर्ष हर तरफ़ चल रहा है। एक ऐसा संघर्ष, जिसमें आमलोग अपना लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे हैं तो सरकार अपने लोकतंत्र की दुहाई दे रही है। जनता और सरकार के लोकतंत्र में एक बुनियादी फ़र्क़ है। जनता के लिए लोकतंत्र का मतलब मूल्यों पर आधारित वह सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें भलाई बिना भेदभाव के हमेशा आमलोगों की होती है। लेकिन, इसके ऊलट सरकार के लिए लोकतंत्र का मतलब बस अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए चुनावी राजनीति के गुणा-गणित तक ही सीमित होकर रह गया है। सरकार कोई भी हो, उनके लिए मुख्य मुद्दा है विकास। और, विकास की अंधी दौड़ ने हमारे समय में समाज के तमाम घटकों और खासतौर से शासन व्यवस्था से लोकतांत्रिक मूल्यों को बड़े जबर्दस्त तरीके से ग़ायब किया है। यक़ीनन यह लोगों के लिए चिंता का एक गंभीर विषय बनकर रह गया है। इस दौड़ में अब तक किन लोगों का विकास हुआ है और किनका विनाश, यह बात अब किसी से छुपी हुई नहीं है। तथाकथित विकास की राह पर जनहित के परखच्चे उड़ाते हुए सरकारों को लोकतंत्र की कोई परवाह नहीं है।
आज देश में अलग-अलग तरीकों से लोग अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लड़ रहे हैं। जैतापुर के लोगों के बीच भड़के गुस्से का कारण यह है कि सरकार जैतापुर में दुनिया में सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने वाले संयंत्रों को लगवाने वाली है। जहाँ-जहाँ पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लगाए जा रहे हैं या लगाने की योजना है, वहाँ के लोगों के बीच अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा का एक भयानक माहौल गहराया हुआ है। इन इलाकों में परमाणु ऊर्जा के लिए संयंत्र लगाने से रोकने का मामला यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए अपने जीवन की रक्षा के साथ-साथ अपने लोकतंत्र की रक्षा करने का भी है। यह कौन भूला होगा कि किस तरह से सन २००७ में देश की बड़ी आबादी भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के ख़िलाफ़ थी। वामदलों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और संसद में लगभग ४८ फीसदी से अधिक सांसदों के मुख़ालफ़त के बाद भी सरकार ने परमाणु-ऊर्जा के लिए अमेरिका के साथ समझौते किए। पर लोग महसूस करते है कि संसद में बैठे मुट्ठी भर लोग उन लोगों की ज़िंदगी के बारे में फैसले नहीं ले सकते है। उन्हें पता है कि लोकतंत्र का अस्तिव केवल संसदीय शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि अधिक से अधिक लोगों के हित में ही ज़िंदा रह सकता है।
लोग लड़ इसलिए रहे हैं कि क्योंकि उन्होने देखा हैं कि कैसे कालापक्कम, तारापुर, बुलंदशहर और कोटा में स्थापित परमाणु बिजली संयंत्रों में दुर्घटनाएँ हुईं। जिससे मोटे तौर पर आजतक लगभग ९१० मिलियन अमेरिकी डॉलर के नुक़सान का बोझ देश के सार्वजनिक ख़ज़ाने को झेलना पड़ा। और तो और, इसके अलावा जनजीवन, पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर पड़ रहे दूरगामी कुप्रभावों की गणना की जानी तो अब तक बाकी है। इससे सबक लेने के बजाय सरकार देश में कई जगहों पर परमाणु ऊर्जा से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को स्थापित व क्रियाशील करने के लिए जी-जान से जुटी हुई है। तमिलनाडु के कुडानकुलम और कालापक्कम, गुजरात के काकरापाड़ व राजस्थान के रनाटभाटा और बांसवारा में कई संयंत्र निर्माणाधीन हैं। कुडानकुलम, कर्नाटक के कैगा और महाराष्ट्र के जैतापुर में और २१ संयंत्रों को लगाने की योजना स्वीकृत की गई है। कई अन्य इलाकों व संयंत्रों के लिए भी योजनाएँ प्रस्तावित हैं।

सत्तारूढ़ काँग्रेस ने लोगों के गुस्से को ठंडा करने के लिए एक दल को जैतापुर भेजने का फैसला लिया था, लेकिन वे उन गड़बड़ियों के कैसे सुधार पायेंगे, जो सरकार ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाने के लिए की हैं। अध्ययनों के आधार पर यह खुलासा किया गया कि इसके लिए गलत तरीके से बंज़र बता कर लगभग हज़ार एकड़ उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। दूसरा, जैतापुर पूरी तरह से एक भूकंप संभावित इलाका है, यानि भूकंप आने पर रेडियोधर्मी रिसाव से भयानक जान-माल का नुक़सान लंबे समय तक होता रहेगा। दुर्घटना के कारण नियंत्रित नाभिकीय अभिक्रियाएँ यदि अनियंत्रित हो गई तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के तर्ज़ पर ये संयंत्र अपने देश में फटने वाले परमाणु बम सरीखे हो सकते हैं। डर और बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि जिस फ्रांसिसी कंपनी के गठजोड़ से यह परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा रहे है, सुरक्षा को लेकर उनका रिकॉर्ड बुरा रहा है। तीसरा, यह पर्यावरण और इससे जुड़े जीव और वनस्पति को भी यह बुरी तरह प्रभावित करेगा। इसका समुद्र से बहुत अधिक मात्रा में पानी लेना और उपयोग के बाद खौलते हुए पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से कोंकण से सटा हुआ पूरा समुद्री इलाका समुद्री-जीवों के श्मशान में तब्दील हो जायेगा और इससे कोंकण का मौज़ूदा प्राकृतिक स्वरूप भहरा जायेगा। मतलब यह है कि वहाँ, भविष्य में, किसान और समुद्र पर आश्रित लोगों का, खासकर मछुआरों का भूखों मरना साफ़ दिख रहा है। चौथा, सरकार ने परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी कचरे से निबटारे का कोई ऐसा सूत्र जनता को नहीं बताया, जिससे लोग सहज महसूस कर सकें। जैतापुर में परमाणु संयंत्रों को असुरक्षित बताने पर देश-विदेश में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस को दिए जाने वाले सहायता राशि पर एनपीसीआईएल ने रोक लगा दिया है। विरोध के सभी स्वरों को सरकार अपने संरचनात्मक और राजकीय हिंसा का शिकार बना रही है। जो लोग सरकार की राय से सहमत नहीं हैं, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है, उन पर फर्जी मुकदमे थोपे जा रहे हैं।
परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए यों जनता के लोकतंत्र पर सरकार के जो हमले हो रहे हैं, उनके कारणों को समझना ज़रूरी है। कौन नहीं जानता कि पेट्रोल और कोयले दुनिया से जल्द ही खत्म हो जायेंगे? ग़ौरतलब है कि बिजली और पेट्रोल की खोज से पहले भी मानव-समाज, संस्कृति और उसकी इहलीला तो फल-फूल ही रही थी और आज भी दुनिया भर की एक बड़ी आबादी इन सुविधाओं से महरूम है। भविष्य में भी रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों जैसे कि पवन ऊर्जा या सौर्य ऊर्जा से काम लिया जा सकता है। लेकिन, छोटे-बड़े कल-कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा की माँग बिना पेट्रोल और कोयला के पूरी नहीं हो पायेगी और ऊर्जा के बड़े स्रोतों के अभाव में मौज़ूदा व्यवस्था पूरी तरह ढ़ह जायेगी। ऐसे में पूँजीपतियों का दुनिया भर में फैला गोरखधंधा और विश्व राजनीति में गहरी पैठ को हवा होने से कोई नहीं रोक पायेगा। तो ऊर्जा को लेकर पूँजीवाद की चिंता उनकी पूरी वज़ूद से जुड़ी हुई है। अगर वे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की एक क़ामयाब संरचना नहीं खड़ी कर पाए तो उनकी सत्ता का बिला जाना तय है। उन्हें परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प दीख रहा है। परमाणु ऊर्जा परियोजना शुरू करने की सरकारी छटपटाहट ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत की संरचना को जैसे तैसे, बड़ी जल्दबाज़ी में खड़ा करने की ज़द्दोज़हद है और इसके बरअक्स बेचारी मज़लूम, पर मेहनतकश आवाम अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए है।
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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

रविवार, 16 जनवरी 2011

हिंसा एक बहुआयामी मसला है...

(डॉ. इलीना सेन ने अपने जीवन का लंबा अरसा महिला अधिकारों को हासिल करने के संघर्ष और वंचितों के शिक्षा के लिए खर्च किया है और वर्तमान में वह वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग का नेतृत्व कर रही हैं। इस आलेख को प्रो. सेन से हुई बातचीत के आधार पर देवाशीष प्रसून ने लोकमत समाचार के दीपावली विशेषांक २०१० के लिए लिपिबद्ध किया था।)
मुझसे यह कहा जाना कि जब मैं 'किसकी हिंसा, कैसी हिंसा?' पर टिप्पणी करूँ तो लिंग आधारित हिंसा के मद्देनज़र करूँ, अनुचित है। मेरा मानना है कि हिंसा के कई आयाम हैं और सभी आयामों पर बातचीत होनी चाहिए। जहाँ तक बात लिंग आधारित हिंसा की है तो उस पर हर किसी को बात करनी चाहिए और चूँकि मैं एक महिला हूँ और स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत रही हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मुझसे बस इसी संदर्भ में बातचीत की जाए। बहरहाल, हम मुख्य विषय की ओर लौटें।
सवाल है कि हिंसा में जिस बढ़ोत्तरी की बात हो रही है, उसे कौन बढ़ा रहा है? मेरा मानना है कि मौज़ूदा हालातों में राष्ट्र-राज्य भी टूटने के कगार पर है और जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें सत्ता का केंद्रीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विश्व व्यापार को चलाने वाली शक्तियों के हक में हो रहा है। राष्ट्र-राज्य का स्वरूप हमेशा से बदलता रहा है। हमारे बचपन के समय की बात करें तो उस वक्त राष्ट्र-राज्य का स्वरूप सैद्धांतिक तौर पर निर्विवादित रूप से कल्याणकारी था। कल्याण के बारे में निश्चित तौर पर विकसित और अवकसित देशों में अपने-अपने पैमाने रहे हैं, लेकिन भारत जैसे देश में भी अपने हर नागरिक को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करना राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य माना जाता था। अब इस कर्तव्य का पालन हुआ, नहीं हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। लेकिन अब जो व्यवस्था जड़ जमा रही है, उसके प्रभाव में राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। जाहिर-सी बात है कि नई व्यवस्था जिनके हित में काम कर रही है, वे ही इस बढ़ते हुए हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। वैश्विक वित्तीय पूँजी के फलने-फूलने के लिए तमाम तरह की कोशिशें की जा रही है, जो कि कई तरह के हिंसाओं का मूल कारण है। अपनी ज़िंदगी में और ऐतिहासिक याददाश्त से भी हमने जाना है कि मंदियों और महामंदियों की न जाने कितनी सारी विफलताओं के बाद भी पूँजीवादी व्यवस्था बार-बार उठकर खड़ा हुआ है दुनिया पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में हिंसा और दमन का लंबा दौर देखने को मिलता है। यहाँ पर मैं जिक्र करना चाहूँगी पितृसत्ता का, क्योंकि पितृसत्ता के बारे में मेरी जो समझ है कि यह उन लोगों की सत्ता है जो नैतिकताओं को अपने हित में परिभाषित करते हैं और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हर प्रकार से प्रपंच, बल और हिंसा का प्रयोग करते हैं।
हिंसा का ताना-बाना बहुत जटिल है। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हिंसक शक्तियाँ कई अन्य सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का भी सहारा लेती हैं। अब बस्तर की ही बात करें। बस्तर में जिस तरह से कंपनियों ने अपना पैर पसारना चाहा, वहाँ अपने खास तरह की हिंसा को स्थापित करने के लिए उन्होंने राज्य सत्ता का सहारा लिया। जबकि अगर आप संविधान को देख लें तो ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है। मेरा मानना है कि भारत का संविधान एक बहुत ही प्रगतिशील दस्तावेज़ है, लेकिन व्यवस्था पर काबिज़ लोग हमेशा उसकी गलत व्याख्या करते रहे हैं। राज्य सत्ता के साथ-साथ इन ताक़तों ने पितृसत्ता का भी सहारा लिया। जब मूल निवासियों को गाँव से खदेड़ा जाता है या औद्योगिक हितों के लिए उन्हें अपने ज़मीन से विस्थापित किया जाता है तो निश्चित तौर से हिंसा की सबसे बड़ी शिकार औरतें होती हैं। ऐसा आदिम काल से भी चलता आ रहा है कि अपनी सत्ता और वर्चस्व को स्थापित करने के लिए हमलावर औरतों पर यौन-हिंसा करते रहे है। बलात्कार तो एक चरम है, लेकिन बाहरी सत्ता के आक्रमण में औरतें यौन-हिंसा के कई चरणों से होकर गुज़रती हैं। इस तरह की हिंसा सिर्फ़ औरतों के ख़िलाफ़ नहीं होती, बल्कि ऐसा करना इन औरतों से संबंधित पूरे के पूरे समुदाय को कमज़ोर बताकर उन्हें अपमानित करने की एक युक्ति बनकर सामने आता है। विस्थापन और उससे संबंधित हिंसा के अलावा भी और कई अन्य क्षेत्र हैं, जहाँ इन बड़ी पूँजी वाली कंपनियों ने हिंसा में कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
गरीबी भी हिंसा का भयावह चेहरा है। आम धारणा है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, लेकिन मैं इसे मुख्य कारण नहीं मानती। मुझे लगता है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण उपलब्ध संसाधनों के वितरण में पाँव पसारी हुई निर्मम कुव्यवस्था कारगार है। हालाँकि जनसंख्या एक मसला तो है, लेकिन अपने आप में वह गौण है और भारत में गरीबी को लेकर जनसंख्या जिम्मेवार नहीं है। आप टेलीविज़न में आ रही समाचारों और बहसों को देखिए। देश में कई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं। देश में अब तक अनाजो को बाँटने के सही तरीकों को विकसित नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री का मानना है कि अनाज मुफ़्त में नहीं दिए जा सकते हैं, क्योंकि इससे लोगों की आदतें खराब हो जायेंगी। आप मुफ़्त में नहीं देंगे, आपके पास बाँटने का भी कोई तरीका नहीं है और आप केवल खरीद रहे हैं! यह एक गज़ब विडंबना है। देश में अनाज के उत्पादन और वितरण के बीच कोई रिश्ता समझ में नहीं आता है। हालिया, मैंने एक टेलीविज़न कार्यक्रम में देखा कि पंजाब सरकार के जानिब से एक महिला बोल रही थी कि गोदाम में पड़े अनाज भले ही पंजाब की धरती हो, लेकिन वह भारतीय खाद्य निगम की संपत्ति हैं, पंजाब का उससे कोई लेना देना नहीं है। लोग भूखे हैं, अनाज गोदाम में सड़ रहा है और सरकारी प्रतिष्ठान बाल की खाल निकालने में मशगूल हैं। इतिहासकारों ने बंगाल के ऐतिहासिक अकाल के कारणों को शोध किया तो यह पाया था कि वहाँ तब खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं थी, बस उसे लोगों तक पहुँचने से रोका गया था। मेरी माँ बताती है जोकि उस वक्त स्कूल या कॉलेज पढ़ती रही होगी कि अकाल खत्म होने के बाद के दिनों में गोदामों में बंद अनाजों को नदी में बहाया गया, क्योंकि वह सड़ गए थे। सन बयालिस से आज तक इस स्थिति में कोई अमूलचूल बदलाव नहीं आया है। संसाधनों का वितरण इतना असमान है कि कुछ लोगों के पास इतना कुछ है कि वह इतने खाए-अघाए हैं, उन्हें समझ नहीं आता कि वह इन चीज़ों का क्या करें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जिनके पास कुछ नहीं है। विकास के मौज़ूदा स्वरूप की बात करें तो यह भी गरीबी का एक बड़ा कारण है। एक तरफ़ देश में ऐसी जगहें भी हैं, जहाँ बस पकड़ने के लिए लोगों पंद्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और दूसरी ओर देश में स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग भी बने हैं, जहाँ बिना रूके आप अपनी मंजिल तक अपनी गाड़ियाँ दौड़ा सकते हैं। विकास के नाम पार जो तकनीकों और संयंत्रों को आयातित किया जाता है, वह भी जिम्मेवार हैं गरीबी के लिए। आप बिजली, डीज़ल और पेट्रोल जैसे ईंधन पर चलने वाले संयंत्रों का सस्ता भी नहीं मान सकते, क्योंकि ये ईंधन जल्दी ही इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने वाले है। लेकिन आयातित संयंत्रों के इस्तेमाल की इस प्रक्रिया से बहुतायत में उपलब्ध मज़दूरों को खलिहर रहना पड़ता है, जो कि घूम-फिर कर गरीबी जैसी हिंसा का कारण बनता है। इसके तर्कों के आधार पर मैं कहना चाहूँगी कि जिस तरह से जनसंख्या को गरीबी का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, यह अनुचित है। हालाँकि सरकार ने इसे गरीबी का सबसे बड़ा कारण मानते हुए परिवार नियोजन को कार्यक्रमों को खूब तबज्जो दिया है।
परिवार नियोजन के कार्यक्रमों में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्त्री के स्वास्थ्य को केवल उसके प्रजनन क्षमता के साथ जोड़ कर देखा जाता है और यह बहुत ही हिंसात्मक तरीका है औरतों के बारे में सोचने का। औरतों की, मर्दों की तरह, कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं, लेकिन स्त्री स्वास्थ्य के मुद्दों को हमेशा बच्चों के साथ जोड़ कर या प्रजनन के साथ जोड़ कर देखा जाते रहा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत को जो बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय अनुदान मिले, उसमें जनसंख्या का नियंत्रण एक महत्वपूर्ण शर्त रही है और ऐसे में औरतों का शरीर प्रजनन नियंत्रण तकनीकों का शिकार बनता है। इस मामले में भी भेदभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। स्त्री नसबंदी, पुरूष नसबंदी की तुलना में खतरनाक है, मगर फिर भी ज्यादातर मामलों में नसबंदी स्त्रियाँ ही करवाती हैं। सरकारें भी भ्रामक प्रचार करवाने से गुरेज नहीं करती है कि गर्भनिरोधक गोलियों का महिलाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। जबकि सच यह है कि गर्भनिरोधक गोलियों का स्त्री हॉरमोन पर गंभीर और लंबे समय पर पता चलने वाला दुष्प्रभाव होता है। देश में पुरुषों की तुलना में महिलाएँ बहुत कम हैं। कारण कई हैं। बालिकाओं के देखरेख में लापरवाही या नहीं तो कोख में ही उनकी हत्या हो जाती है। क़ानूनों को धत्ता बताते हुए धड़ल्ले से महिला भ्रूण हत्या का अपराध होते रहता है। यह भी हिंसा का एक विभत्स चेहरा है। इसे विज्ञान द्वारा किए गए हिंसा के रूप में देखा जा सकता है।
नौकरीपेशा या मध्य-आय वाले लोगों का एक ऐसा तबका है, जो एक साथ इन कंपनियों के लिए आवश्यक मानव संसाधन की भी पूर्ति करता है और इनके उत्पादों का बाज़ार भी बनता है। लेकिन गौर करें तो हम देखेंगे, कि यहाँ भी एक अलग तरह की हिंसा होती है। तरह तरह की युक्तियों का इस्तेमाल किया जाता है। गो कि लोगों में खास चीज़ों के लिए अलग किस्म की एक चाहत पैदा करना, यह भी एक हिंसात्मक कार्रवाई है। किसी लड़के या लड़की के व्यक्तित्व को स्वभाविक तरीके से विकसित नहीं होने दिया जाता है। जिस तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है कि उसमें व्यक्तित्व निर्माण के बदले उनमें बाज़ार के हित में काम करने वाली खास तरह की इच्छाएँ जन्म लेती हैं, जो आगे चल कर कुंठाओं को पैदा करती हैं। इसे भी हिंसा माना जा सकता है, जिसके कारण लोगों की शख़्सियत का सकरात्मक विकास नहीं हो पाता है और इंसान चाहतों का दास बनकर रह जाता है। जहाँ तक महिलाओं या लड़कियों का सवाल है तो मामला थोड़ा और गंभीर हो जाता है। जिस तरह के टेलीविज़न शो आजकल आ रहे हैं, उसमें आप देख सकते हैं कि किस तरह से औरतों को या तो वस्तुओं का उपभोग करने वाली अन्यथा उपभोग करने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महंगे लिबास में सजी-सँवरी आकर्षक, पर अपने अधिकारों से विमुख महिलाएँ। अगर स्त्रियों को मौका मिले तो उनका व्यक्तित्व पुरुषों के समकक्ष निखर सकता है, लेकिन इस तरह से उनके मौके ही खत्म कर दिए जाते हैं। यह भी उतना ही हिंसात्मक है पर दिखता बहुत मनोरम है।
अगला सवाल यह है कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृति ने तो क्या हिंसा को नहीं बढ़ाया है? मैं इस बात से सहमत हूँ कि हिंसा के बढ़ने का कारण केंद्रीकरण की प्रवृति है। खास कर मैं सूचना तकनीकी के क्षेत्र में हो रहे केंद्रीकरण की बात करना चाहूँगी। एक कोने से कहीं कानाफूसी चालू हुई और यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है और इस बात को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि वो सत्य हो। सच को झूठ और झूठ को सच बनाना आसान हुआ है। हिंसात्मक विचारों का संक्रमण बढ़ा है। इसके लिए वो लोग जिम्मेवार हैं जो बड़े स्तर सूचनाओं के प्रवाह को संचालित करते हैं। सूचना तकनीक के अलावा भी अन्य कई क्षेत्र हैं , जहाँ केंद्रीकरण की प्रक्रिया ने हिंसा की आग को हवा दिया है। जैसे कि हम खेती-किसानी की बात कर लें। छ्त्तीसगढ़ में कुछ तीन हज़ार किस्म के धान के बीज पाए जाते थे, जिनमें यह खास बात थी वह अलग-अलग प्रकार के जलवायु के मुताबिक उपयोगी हुआ करते थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के झासे में आकर हमारे देशी वैज्ञानिकों ने अपने जैव विविधता को दरकिनार करते हुए कुछ चुनिंदा कृत्रिम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया। इसका नतीजा आज यह है कि हमारे पारंपरिक बीज लुप्त हो रहे हैं और एक बहुत बड़े धरोहर से हमने हाथ धो दिया। एक ऐसा धरोहर जिसको न तो रासायनिक खादों की जरूरत थी, न ही कीटनाशकों की। कुल मिलाकर यह खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करके उसके केंद्रीकरण का मामला है। कुछ लोगों का अपने ज्ञान को बेहतर बताकर ज्ञान की पुरानी परंपरा को नष्ट करना भी हिंसा को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार केंद्रीकरण का नमूना है।
अंतिम सवाल कि संगठित हिंसा की समाप्ति किस संगठित प्रयास से संभव है के जवाब में मुझे कहना है कि इसके लिए लोगों के बीच संवाद और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने पर काफी ज़ोर देना पड़ेगा। कुल मिलाकर समाज को बनाने वाले और चलाने वाले तमाम घटकों को व उनके बीच के परस्पर रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है।
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रविवार, 9 जनवरी 2011

एक डॉक्टर से बिनायक सेन तक...

डॉ. बिनायक सेन पिछले तीन-चार दशकों से छत्तीसगढ़ के ग़रीब और मज़लूम आदिवासी जनता के डॉक्टर ही नहीं, बल्कि उनके सच्चे हमदर्द भी रहे हैं। डॉ. सेन को अमरीका के ग्लोबल हेल्थ काउंसिल द्वारा स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के लिये वर्ष २००८ का जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया था। विडंवना यह रही कि इस पुरस्कार को स्वीकार करने के लिये स्वयं वाशिंगटन डी.सी जाने की अनुमति भारतीय राजसत्ता और न्याय तंत्र द्वारा उन्हें नहीं दी गई। वह उस वक्त रायपुर के जेल में बंद थे। आश्चर्य इस बात का है कि डॉ. सेन पर यह पाबंदियां उन्हीं कामों के लिये लगायी गयी है जिन कामों लिये इस विश्वविख्यात संस्था ने एशिया के किसी व्यक्ति को पहली बार सम्मानित किया था। चाहे जिस तरह भी छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने का आरोप मढ़ते रहे, लेकिन असल मामला जगजाहिर है कि डॉ. सेन ने जिस तरह से छत्तीसगढ़ सरकार के प्रोत्साहन पर हो रहे बेशक़ीमती ज़मीन के कॉरपोरेट लूट और सलवा जुडूम के गोरखधंधे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, सरकार इसी बात का बदला उनसे ले रही है।

जब वे सलाखों के पीछे थे तो ग़रीब, मज़दूर व आदिवासी ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के कई तेजस्वी लोगों ने डॉ. सेन के रिहाई के लिए हल्ला बोल दिया। एक व्यापक जन-आंदोलन के चलते उनको जमानत पर रिहा किया गया। पर, २४ दिसंबर, २०१० को रायपुर की निचली अदालत ने डॉ. सेन को राजद्रोह का दोषी क़रार दिया। भूलना नहीं चाहिए कि इसी न्याय व्यवस्था ने सन १९२२ में महात्मा गाँधी को भी राजद्रोही माना था। भारत में राज भले ही बदल गया हो, लेकिन न्यायिक व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर अब भी चल रही है। कौन सा व्यक्ति राजद्रोही है और कौन देशभक्त, इस सवाल के अदालती जवाब को पहले भी शक सी नज़रों से देखा जाता था और आज भी। लेकिन इतिहास हमेशा याद रखता है कि समाज में किस व्यक्ति की क्या भूमिका रही है। डॉ. सेन को मिले ताउम्र कैद-ए-बामशक़्क़त की सज़ा से भारत ही नहीं, दुनिया भर का नागरिक समाज सकते में आ गया है। देश-विदेश के सभी विचारवान लोग, अपने अलग-अलग राजनीतिक विविधताओं के साथ रायपुर न्यायालय के इस फैसले को लोकतंत्र की अवमानना के तौर पर देख रहे हैं।

जमानत के दौरान डॉ. सेन जब जेल से बाहर थे तो उनसे बातचीत करने का मौका मिला, जिसका सारांश हमे डॉ. बिनायक सेन की शख़्सियत को समझने में मदद करता है। इस बातचीत में मैंने डॉ. सेन से उनके जीवन के उन संदर्भों को जानने का प्रयास किया है, जिसके बाद से उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह से जन-कल्याण के कामों में लगा दिया। उक्त बातचीत के आधार पर डॉ. बिनायक सेन के जीवन वृत्त का एक खाका खींचने की कोशिश की गई है।

डॉ बिनायक सेन कहते हैं कि सन ७६ के आसपास जब वो क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज़ में पढ़ाई कर रहे थे, उस समय चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए पैसा कमाने से अधिक रुझान नए-नए तकनीकों के जरिए विज्ञान की गूढ़ता से साबिका करना था। डॉक्टर अकसर अपने देश से पलायन करके समृद्ध देशों में अपनी सेवाएँ देने को लालायित रहते थे। जहाँ उन्हें तकनीक से और अधिक रू-ब-रू होने मौका मिलने की उम्मीद थी। यह दौर तकनीकी चकाचौंध का दौर था। तकनीक विज्ञान का पर्याय होता दिख रहा था।

लेकिन इसी दौर में कुछ और भी था, जिसने बिनायक के ध्यान को विदेशी तकनीकों के तरफ़ नहीं, बल्कि अपने देश के झुग्गियों और ग़रीब मोहल्लों की ओर मोड़ा। बाल चिकित्सा में एम.डी. करते वक्त उनका उठना-बैठना ऐसे शिक्षकों के साथ हुआ, जो आमलोगों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे थे। उनमें से एक थी – डॉ. शीला परेरा। डॉ. परेरा पोषण विज्ञान की जानकार थी और उन्होंने बिनायक को ग़रीब बच्चों के पोषण संबंधित विषय पर काम करने को प्रोत्साहित किया। बिनायक का यह काम उनके एम.डी. के लघु-शोध की शक्ल में था। पहली बार अस्पताल और मेडिकल कॉलेज से निकल कर उन्हें मरीज़ों के मर्ज़ और मर्ज़ के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समझने का मौका मिला। धीरे-धीरे वो समझने लगे कि किसी रोग को समझने के लिए बस जीव-वैज्ञानिक व्याख्या ही महत्वपूर्ण नहीं, अपितु रोगों के मूल में मौज़ूद सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्याख्याएँ भी समझना ज़रूरी है।

बाल चिकित्सा में विशेषज्ञता हासिल करने के बजाय बिनायक को एक ऐसी नौकरी की तलाश थी, जहाँ वो रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों को बेहतर समझ सकें। साथ ही, वह सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए भी काम करना चाहते थे। उनकी तलाश दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्गत चल रहे सामाजिक औषधि व सामुदायिक स्वास्थ्य अध्ययन केंद्र पर जा कर थमीं। इसी बीच कुछ प्रगतिशील चिकित्सकों ने मिलकर मेडिको फ्रेंड्स सर्कल का गठन किया। इसका उद्देश्य बीमारियों और जनस्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल करना था। बिनायक इन दोनों मंचों के जरिए समाज में व्याप्त रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का अध्ययन कर रहे थे। मेडिको फ्रेंड्स सर्कल की कोई खास राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। उनमें से कुछ चिकित्सक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहे छात्र संषर्ष वाहिणी के समर्थक थे तो कुछ मार्क्सवादी। पर एक बात जो सामान्य थी वो यह कि सब यह मानते थे कि रोग के इलाज़ में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारकों का निपटारा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

यह एक ऐसा समय था, जब सरकारें सभी दिक़्क़तों का हल तकनीकों के जरिए ही संभव होते देख रही थी। जैसे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए उन्हें एकमात्र विकल्प हरित क्रांति के रूप में सूझा। या जैसे, मलेरिया के रोकथाम में उन्होंने डीडीटी को कारगार पाया। लेकिन, सरकारों ने इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि ये सारे तकनीकी उपाय लंबे समय तक नहीं टिकेंगे। इस विकास में पुनरुत्पादन की गंभीर समस्या थी। तकनीकों के जरिए कृत्रिम विकास ही संभव है, जो विकास की एक मुसलसल प्रक्रिया को जारी नहीं रख सकता। तकनीक बस वे कृत्रिम हालात तैयार कर सकती है, जिससे हालात खास परिस्थियों में सुधरते नज़र आते हैं। असल में हालत सुधरते नहीं, तकनीकों के हटते ही, स्थितियाँ और बुरी हो जाती हैं। तकनीकों के मुकाबिले तमाम समाजिक समस्याओं, रोगों और विपन्नता को हराने के लिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उपाय ही महत्वपूर्ण है, ऐसा सरकारें अब तक नहीं समझ पायीं हैं।

सन ’७८ में बिनायक का पत्नी इलीना के साथ मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले में आना हुआ, जहाँ उन्होंने गाँवों में घूम-घूम कर तपेदिक के ग़रीब मरीज़ों का इलाज़ किया। सन ’८१ में बिनायक और इलीना पीयूसीएल से जुड़े। यह वो समय था जब दल्ली राजहरा में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों का मज़बूत संगठन अस्तित्व में आ चुका था। इस मज़दूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ था। नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया। पीयूसीएल ने इस गिरफ़्तारी की जाँच के लिए एक दल को दल्ली राजहरा भेजा। बिनायक इस जाँच-दल के सदस्यों में से एक थे।

बिनायक को जब इस इलाके की असलियत का पता चला तो उन्होंने यहीं रह कर लोगों के स्वास्थ्य के लिए काम करने का फ़ैसला लिया। नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों द्वारा संचालित अस्पताल में वे नियमित रूप से अपनी सेवाएँ देने लगे। इलीना भी स्त्री अधिकारों और शिक्षा के लिए काम करने लगीं। सन ’८८ में इन दोनों का रायपुर आना हुआ। जहाँ बिनायक ने तिलदा के एक ईसाई मिशनरी में काम किया। इलीना ने रूपांतर नाम से एक ग़ैर सरकारी संगठन की स्थापना की, जो मूलतः कामकाजी बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता था। ’९१ से बिनायक भी रूपांतर के साथ काम करने लगे।

छत्तीसगढ़ में महानदी बाँध के बनने से आदिवासियों का विस्थापन शुरू हो गया था। विस्थापित आदिवासी जनता जीवन-यापन के लिए जंगल में जाकर बस्तियाँ बसाने लगे। सरकार ने इसे आदिवासियों द्वारा जंगल का अतिक्रमण माना। ये बस्तियाँ सरकार के नज़र में ग़ैर-क़ानूनी व अनाधिकृत थी। इस कारण इन इलाकों में रहने वाले लोगों को सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रखा गया था। नगरी सेवा इलाके में भी कुछ ऐसे ही गाँव शामिल थे। सुखलाल नागे के बुलावे पर बिनायक ने यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराई।

पुलिसिया दमन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। ग़रीब और ग़रीब होते जा रहे थे। औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापन को आम जनता पर लादा जाने लगा। बस्तर में पीने के पानी का आभाव था, गंदा पानी पीने से लोगों के बीच हैजा फैल गया। सरकारी नीतियों से लोग त्रस्त होकर विरोध और प्रतिरोध करने लगे, तो उनके दमन के लिए उनका फर्ज़ी मुठभेड़ में विरोध करने वालों की लाश बिछाने की घटना आम हो गयी। लोगों के मानवीय अधिकारों के लिए आवाज़ बलंद करने और इन सभी परिस्थितियों से सामना करते हुए बिनायक ने अपने अंदर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता का विकास किया।

जैसे-जैसे समय बीतते गया, इलाके में कॉरपोरेट लूट बढ़ती गई। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से सरकार की ताक़तों में और भी इज़ाफ़ा हुआ। सन २००५ की बात है देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम को लागू किया। ग़ौर करें तो दोनों ही क़ानून जनविरोधी ही नहीं थे, बल्कि इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों व असहमतियों की स्वरों का गला घोंटने के लिहाज़ से बनाया गया था। एक लोकतांत्रिक समाज की एक जनतांत्रिक छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार जैसे व्यापारिक प्रतिष्ठान से गुप्त समझौता करती है। इसके बाद से यही सरकार आम जनता के सैन्यीकरण को प्रोत्साहित करने लगी। लक्ष्य था आदिवासियों की बेशक़ीमती ज़मीनों को इन कम्पनियों के लिए हथियाना। सलवा जुडूम के नाम को आम असैनिक जनता के सैन्यीकरण को नैतिक, आर्थिक. सामरिक और हथियारों से मदद कर के छत्तीसगढ़ में सरकार ने गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि बनाना शुरू किया। डॉ. सेन ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते उन्होंने देश भर के जागरूक लोगों को छत्तीसगढ़ में रहे इस अन्याय के प्रति आगाह किया और कालांतर में छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम को प्रश्रय देने के लिए शर्मिंदा होना पड़ा।

डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने के आरोप है, लेकिन डॉ. सेन का इस विषय पर बहुत पहले से स्पष्ट रूख रहा है। वे कहते हैं कि वह नक्सलियों की अनदेखी नहीं करते लेकिन उनके हिंसक तरीकों का समर्थन भी नहीं करते हैं। वह ज़ोर देते हुए कहते है कि मैंने हिंसा की बार-बार मुख़ालफ़त की है, चाहे वह हिंसा किसी ओर से की जा रही हो।


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पुराने घरों को उजाड़ कर बसता लवासा

- देवाशीष प्रसून


सरकार ने अपने कामों की फेहरिस्तों में विकास को सबसे अव्वल रखा है। देश में होने वाले विकास का सुख चाहे कोई भी उठाए, पर हम देख सकते हैं कि इसका मूल्य समाज का कमज़ोर तबके को ही चुकाता पड़ता है। मामला बाँध बनाने का हो, औद्योगिकरण या सेज़ का या शहरीकरण का, इसके लिए आवश्यक ज़मीने अक्सर ग़रीबों और आदिवासियों से ही अधिग्रहित की जाती हैं। इसके विरोध में, हमारे सामने लालगढ़, नंदीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर, रायगढ़ और नर्मदा बचाओ जैसे जन-आंदोलनों के कई उदाहरण मौज़ूद हैं। इन आंदोलनों को विकास के अंतर्विरोध के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो देश में गरीबों, दमितों व आदिवासियों के हित के लिए, मानवाधिकार की रक्षा के लिए और जनकल्याण को ध्यान में रख कर कई क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन असल धरातल पर बड़े-बड़े निगमों के हित के सामने ये अमूमन धरे के धरे रह जाते हैं।

देशभर में रफ़्तार पकड़ रही विकास की गाड़ी न जाने कितने गरीबों के घरों को हमेशा-हमेशा के लिए रौंद कर बेरोक-टोक आगे बढ़ रही है। नियमों को सरमायापरस्त ताक़तों के हक में तोड़ना-मरोड़ना और इसका विरोध करने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की ख़बरे आना आम बात हैं। जहाँ-तहाँ अंधाधूंध चल रहे कई विकास परियोजनाओं में से एक है पुणे और मुंबई के बीच बसाया जा रहा हिल स्टेशन लवासा। इसमें हो रही अनियमितताओं के बारे में शिक़ायते होनी तो शुरू हो गई है, पर चंद लोग इसकी गंभीरता को अपने पैसे और पहुँच के बदौलत कुचलना चाहते हैं।


लवासा वरसगाँव बांध के नज़दीकी इलाकों में फैला हुआ लगभग पच्चीस हज़ार एकड़ ज़मीन का वो टुकड़ा है, जिस पर कुछ बिल्डरों, नेताओं और मुट्ठी भर ताक़तवर लोगों के द्वारा भविष्य के एक पहाड़ी शहर का सपना संजोया जा रहा है। पर, खेती-किसानी के लिए उर्वर यह ज़मीन और सदियों से आदिवासियों-किसानों का बसेरा रहे इस वनक्षेत्र का लवासा शहर में तब्दील होना कई अनियमितताओं, स्थानीय लोगों के साथ हुई ज्यादतियों और उनको विस्थापित करने की कई साजिशों व अनदेखियों से पटा पड़ा है। २००१ में काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र में सत्ता में आने के बाद द लेक सीटी कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के जानिब से आए इकलौते प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाते लवासा नाम से अत्याधुनिक हिल स्टेशन विकसित करने का ठेका बिना किसी निविदा आमंत्रित किए उक्त कंपनी को दे दिया था। जाने-माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे की माने तो इस हिल स्टेशन के चलते महाराष्ट्र सरकार ने कई नियमों को ताक पर रखते हुए क़ानून-व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाया है व वहाँ पर पीढ़ियों से गुज़र-बसर कर रहे हज़ारों आम आदिवासी लोगों के वाजिब अधिकारों का लगातर हनन किया है।

ग़ौरतलब है कि केंद्र की सरकार में कृषि मंत्री व महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता शरद पवार का सीधे तौर पर हित लवासा कारपोरेशन के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनकी बेटी सुप्रिया सुळे और दामाद सदानंद सुळे की इस कंपनी में अच्छी हिस्सेदारी रही है। सुळे दंपत्ति को लवासा निगम में मालिकाना हिस्सेदारी दिए जाने के बाद से इस प्रोजेक्ट ने तूफ़ान से तेज़ रफ़्तार हासिल किया है।

१९७४ की बात है कि सार्वजनिक हित के काम के लिए बनाए जा रहे वरसगाँव बांध के लिए सरकार ने भू-अधिग्रहण किया, जिसके कुछ हिस्सा अब तक परती था। उच्च न्यायालय ने इस ज़मीन को इसके पुराने मालिकों को लौटाने के बजाए सार्वजनिक हित के काम में ही लगाने का फैसला लिया था। राज्य के जल संसाधन निगम के मातहत काम करने वाले महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम ने मनमाने तरीकों से लवासा के मालिकों को ज़मीन का यह १४१.१५ हेक्टेयर का टुकड़ा बहुत सस्ते दर पर उपलब्ध करा दिया। यही नहीं, देखने वाली बात यह भी है कि लवासा को वरसगाँव बांध से ३.०३ टीएमसी पानी देने का फैसला भी लिया गया। इस बांध के पानी से पुणे शहर की तमाम ज़रूरतें पूरी होती हैं और पिछले कुछ सालों से पुणेवासियों को पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। बावज़ूद इसके सरकार ने यह फैसला पुणे की ज़रूरतों के बारे में सोचे बिना ही ले लिया। शक की सूईयाँ फिर शरद पवार की ओर घूमती हैं, क्योंकि ये सारे फैसले उनके भतीजे अजीत पवार ने लिए थे। चिंता का विषय यह है कि अजीत को अब महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया है, याने पवार लवासा मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।

तत्कालिक राज्स्व मंत्री नारायण राणे का बयान आया कि इस मामले में कुछ अनियमितताएँ तो हैं, लेकिन इन अनियमितताओं को हर्ज़ाने वगैरह से नियमित कर लिया जाएगा। माने इरादा सफ़्फ़ाक़ साफ़ है कि कुछ भी हो जाए, भले नियमों और आमलोगों के हितों की धज्जियाँ ही क्यों न उड़ा दी जाए, लवासा तो बन कर ही रहेगा। लेकिन, पर्यावरण सुरक्षा की अनदेखियाँ को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त लगीं और तब से वहाँ के कामकाज को ठप्प किए जाने का आदेश है। देखने वाली बात है कि अब पर्यावरण मंत्रालय को लवासा कंपनी के लोग कब और कैसे मैनेज करेंगे।

प्रधानमंत्री को लिखे एक चिट्ठी में अन्ना हज़ारे ने ज़िक्र किया है कि इस प्रोजेक्ट के नाम पर बीस भली-भांति बसे हुये गाँवों को तबाह और हज़ारों लोगों को बेघर किया जा रहा है। सोचने वाली बात है कि अगर सरकार चुनिंदा लोगों के लिए नए अत्याधुनिक मानकों पर आधारित कई शहरें बसा भी ले तो उन गरीबों का क्या होगा जिनको अपने जगहों से बेघर कर दिया गया हो। इतनी ज़्यादतियों के बाद भी वे रहेंगे तो इसी देश, इसी समाज में। लेकिन जब हज़ारों को उजाड़ कर कुछ सौ के एहतिआत का क्या ख्याल रखा जाएगा, तो इससे पैदा हुई असमानताओं का सरकार किन तर्कों से बचाव करेगी। देश में अट्टालिकाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन विश्व बैंक के मुताबिक भारत की कुल चौदह फीसदी शहरी आबादी अब तक झुग्गियों में रहती है। जाहिर है लवासा जैसे शहरीकरण और विकास योजनाओं के चलते देश में अब तक चिह्नित कुल ५२००० झोपड़पट्टियों में कुछ इज़ाफा ही हो होगा। जाहिर सी बात है सामाजिक विषमता कोई प्रेम और सौहार्द का माहौल तो बनाएगी नहीं, इस भेदभाव से वैमनस्य ही भड़केगा।

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