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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

कॉमनवेल्थ खेलों का क्या है औचित्य?

-    देवाशीष प्रसून

उन्नीसवां कॉमनवेल्थ खेल दिल्ली में होने वाला है। काफी तैयारियाँ चल रही हैं। बड़े पैमाने पर पुराने भवनों का मरम्मत और रंग-रोगन कई दिनों से हो रहा है। दिल्ली को बिल्कुल उस तरह से सजाने की कवायद है, जिससे दिल्ली के स्थापत्य का ऐतिहासिक उपनिवेशकालीन रुतबा फिर से दैदिप्तमान हो सके। कॉमनवेल्थ की अवधारणा औपनिवेशिक इतिहास के महिमामंडन से अधिक कुछ नहीं है। यह बरतानिया गुलामी को इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय बनाकर प्रस्तुत करने का तरीका है बस। एक सवाल का दिमाग़ में कौंधना स्वभाविक है कि क्यों देश की राजनीति का कमान संभालने वाले पुरोधा आज भी औपनिवेशिक मूल्यों को ओढ़ कर गौरवांवित महसूस कर रहे हैं?  दरअसल, मामला यह भी है कि इन खेलों का आयोजन कुछ संबंधित उद्योगों को भरपूर लाभ पहुँचाने का माध्यम हो। वैसे भी, कॉमनवेल्थ खेलों से और कुछ हो, न हो, निर्माण, पर्यटन, होटल व यात्रा आदि के कारोबार से जुड़े चंद लोग चाँदी तो ज़रूर काटेंगे।

विडंबना है कि एक तरफ जहाँ भारत सरकार केवल दस दिनों तक चलने वाले कॉमन्वेल्थ खेलों पर मात्र सत्रह खेलों के लिए केंद्रीय बज़ट में लगभग आठ हज़ार करोड़ रूपये से अधिक का इन्तेज़ाम किया है, वहीं वर्ष २०१०-११ में भारत सरकार ने पूरे देश में खेलकूद के मद में किए जाने वाले खर्च में कटौती करते हुए साल भर के लिए कुल ३५६५ करोड़ रूपये की राशि ही आवंटित की है। हैरानी होगी कि खेल बजट की इस राशि में से भी २०६९ करोड़ रूपये कॉमन्वेल्थ खेलों में ही खर्च किया जायेगा। कई सूत्रों से पता चलता है कि कॉमनवेल्थ खेलों में जनता के खजाने से उक्त राशि से कहीं अधिक खर्च होने की संभावना है। इस आयोजन को सफल बनाने का सरकारी मशीनरी का जुनून देखने लायक है।

भारत की आम जनता की जमापूँजी से सरकारी खजाना बनता है और उन्हें ही सरकार ने अब तक यह नहीं बताया है कि कॉमनवेल्थ खेलों से उनका किस तरह से कल्याण हो रहा है। इन खेलों में देशी खिलाड़ियों के प्रशिक्षण व प्रोत्साहन की कोई भी प्रयास अब तक नहीं दिख पाया है। इस आयोजन में हमारे सरकार की एकमात्र भूमिका मेज़बानी की ही रह गई है। यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत के खिलाड़ी भी इस आयोजन में सहभागिता करेंगे? अगर भारत के खिलाड़ी-दल इन खेलों में बेहतर प्रदर्शन न कर सके, तो इसकी नैतिक जिम्मेवारी भी इसी सरकार की ही होगी।

सवाल यह भी है कि इस तरह के खेल दिल्ली में ही क्यों करवाये जा रहे हैं? स्टेडियम के निर्माण के नाम पर दिल्ली की ज्यादातर पुराने स्टेडियमों को ही दुरुस्त करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया है। जबकि हो यह भी सकता था कि इतने पैसे में एक ऐसे इलाके को विकसित किया जाता जो खेल-कूद की आधुनिक ज़रूरतों से लैश होता। दिल्ली तो देश की राजधानी है, लेकिन देश में खेल-कूद का केंद्र अलग से तैयार किया जाना चाहिए था।

दिल्ली को अत्याधुनिक दिखाने के चक्कर में दिल्ली सरकार ऑटो रिक्शा के चलन पर लगाम कसने की तैयारी में है। कोई उनसे पूछे कि ट्रांसपोर्ट की वैकल्पिक व्यवस्था हो भी जाये,पर ऑटो चालकों के पेट पर लात मारने की इस सरकारी नीति से किसका भला होगा?

चलते-चलते एक गंभीर विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि कॉमनवेल खेलों के मद्देनज़र जो कामकाज चल रहे हैं, उनमें मज़दूरों का शोषण का बड़े पैमाने पर हो रहा है। एक तरफ़ जहाँ उनको न्यूनतम दिहाड़ी नहीं मिल रही है, वहीं दूसरी तरह उनके रहने, स्वास्थ्य, दुर्घटनाओं से सुरक्षा और अन्य सुविधाओं की अनदेखी हो रही है।

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दूरभाष:  09555053370 (दिल्ली)
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1 टिप्पणी:

Sudha & Mrigank ने कहा…

देंखे: http://nbsdelhi.wordpress.com/