कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

पितृसत्ता यों ही नहीं क़ायम है अब तक....

- देवाशीष प्रसून


यह एक ऐसा समय है, चारों ओर जब, स्त्री को उसके अपने अधिकारों से तआरुफ़ करवाने की मुहिम चल रही है, विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों के जरिए समाज में समतामूलक हालातों के निर्माण के लिए ज़मीन-आसमान एक किए जा रहे हैं, महिलाओं को समाज के दक़ियानूसी बंधनों से मुक्त करवाने के लिए नारीवादी संगठनों ने जंग छेड़ रखी है और स्त्री-उत्थान व समतामूलक समाज के निर्माण के लिए सरकारों द्वारा भी योजनाओं, आरक्षण और क़ानूनी प्रावधानों का सुरसार देखने को मिलते रहता है। आधी आबादी के सदियों से दमित और शोषित जीवन को मुख्यधारा में लाकर उन्हें एक मुकम्मल इंसानी रुतबा देने के लिए ऐसे कई प्रयास चल रहे हैं और विडंबना यह है कि ऐसे ही इस समय में ’नया ज्ञानोदय’ नाम की हिंदी साहित्यिक पत्रिका बेवफ़ाई पर विमर्श चला रही है। और तो और, इस विमर्श के दरमियाँ एक ऐसा बयान आता है जो घोर स्त्री-विरोधी होने के साथ-साथ समाज में चल रहे तमाम मुक्तिगामी और प्रगतिशील स्त्री-विमर्शों को गाली देता है। एक लेखक, जो पूर्व पुलिस अधिकारी और वर्तमान में कुलपति भी है, अपने साक्षात्कार में कहता है कि हिंदी लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग है, जिनमें होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनमें सबसे बड़ी ’छिनाल’ कौन है। हदें लांघते हुए उसने यह भी कहा कि नारीवाद का विमर्श अब बेवफ़ाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।


यह बयान सड़क पर यों ही आवारागर्दी करते, नशे में धुत्त, किसी कुंठित इंसान की ओर से नहीं आया है, आता तो शायद, पूरा समाज इसे नज़रअंदाज़ कर देता, लेकिन यह बयान था विभूति नारायण राय का, जो सन ७५ बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के भारतीय पुलिस सेवा से संबद्ध रहे हैं। पूरा का पूरा हिंदी समाज इस बदतमीज़ी व अश्लिल बयानबाज़ी से भड़क उठा है और राय पर कार्रवाई की माँग तेज़ हो गयी है। साल २००८ की बात है, राय को महात्मा गांधी के आदर्शों पर स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालय – महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा का कुलपति नियुक्त किया गया था। महात्मा गांधी आज अगर ज़िंदा होते और सुनते कि उनके परंपरा के एक वाहक ने यों महिलाओं का अपमान किया है तो यक़ीनन शर्म से गढ़ जाते! लेकिन सरकार अब तक इस मामले में नरमी ही दिखा रही है। नौकरी से निकाले जाने के डर के मारे और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की डाँट-डपट के बाद राय ने माफी माँगते हुए कहा कि एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर मुझे ऐसे ’अनुपयुक्त शब्दों’ का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था, जिनसे लेखिकाओं की भावनाओं के ठेस पहुँची। माफीनामे से ज़ाहिर है कि राय को स्त्रियों के प्रति अपने दुर्भावनापूर्ण और दुराग्रहग्रस्त सोच के लिए कोई पछतावा नहीं है।


बहरहाल, यहाँ सोचने वाली बात है कि विभूति नारायण राय के इस बयान के जड़ में किस तरह की मनःस्थिति काम कर रही है? ग़ौरतलब है कि हमारे समाज में यह पुरानी धारणा रही है कि जो लड़कियाँ पढ़ती-लिखती है, अपने अधिकारों को समझने–बूझने लगती हैं और पुरूषप्रधान समाज के सनातनी परंपरा के दायरों को तवज्जह नहीं देतीं, उनका चरित्र अच्छा नहीं माना जाता। औरतें घर की दहलीज़ में रहे तो सती, वर्ना कुलक्षणी। लेकिन आधुनिक वैचारिकी ने इस सोच को नकारा है और स्त्री-मुक्ति के संघर्ष और विमर्श का लंबा इतिहास रचा है। सही है कि स्त्री-विमर्श सिर्फ़ देह-विमर्श नहीं है, लेकिन स्त्री-विमर्श से देह-विमर्श को पूरी तरह ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता है। वर्ग और जाति विभाजित समाज में स्त्री का सर्वहारा वर्ग और दलित जाति से भिन्न होने के पीछे उसका देह ही तो विद्यमान है। तो ऐसे में लेखिकाएँ अपने संघर्षों में सामाजिक वर्जनाओं से बाहर निकलेंगी ही, पर साँकलों का यह टूटना राय जैसे पुरोधाओं को कैसे हज़म हो? राय अगर विक्टोरियन मूल्यों के अवमूल्यन को ही छिनाल होना कहते हैं तो वो यह भी बतायें कि इसी समाज में सत्ताधारी पुरुष लेखकों द्वारा नई लेखिकाओं का यौन-शोषण होता रहा है कि नहीं? अगर हाँ, तो ऐसे संबंधों के संदर्भ का आत्मकथा में ज़िक्र न करते हुए उसे दफ़न कर दिया जाये? ताकि इससे उन चरित्रहीन मर्दों की सामाजिक इज़्ज़त बनी रहे।


एक बात और, न्यूज़ चैनलों पर राय सफ़ाई देते हुए फिर रहे हैं कि ’छिनाल’ शब्द के प्रयोग में ऐसी क्या आपत्ति? यह तो लोक का एक प्रचलित शब्द है। कोई बताए उनको कि हमारा लोक कितना मर्दवादी रहा है और इस लोक में सबसे ज़्यादा प्रचलित शब्दों में वो शब्द आते हैं, जिनका ज़िक्र माँ-बहन की गालियों के लिए होता है। तो ऐसे शब्दों का सरेआम सभ्य समाज में प्रयोग कितना बर्दाश्त-ए-क़ाबिल है?


अंत में सबसे महत्वपूर्ण सोचना यह है कि राय पर क्या कार्रवाई होगी? माफी माँग लेने के बाद ऐसे लोग, जो वाचिक रूप में बलात्कार करते फिरते हैं, उन्हें क्या हमारा समाज कभी माफ कर पायेगा? भूलना नहीं चाहिए कि यह ऐसे स्त्री-विरोधी लोगों और उनका बचाव करने वाले लोगों के सत्ता में क़ाबिज़ रहने के बदौलत ही है कि समाज में पितृसत्ता अब तक क़ायम है।


----