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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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बुधवार, 5 मई 2010

भारतीय रेल का वर्ग चरित्र

- देवाशीष प्रसून
यह पिछले के पिछले सदी की बात है, जब दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास करमचंद गांधी को प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे से धक्के मार कर निकाल फेंका गया था, क्योंकि वह एक अश्वेत होने के साथ-साथ एक गुलाम देश  से आया आदमी था। मोहनदास के जीवन की इस घटना ने उसे सामाजिक विषमता के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दी और सफर शुरू हुई एक मामूली से इंसान के महात्मा बनने की। जितना मुझे मालूम है, इससे पहले गांधी की अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति आस्तिकता थी। बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने तक की यात्रा तमाम अन्य संघर्षों के साथ-साथ मोहनदास के लिए अपनी मानसिकता को संस्कारगत गुलामी से मुक्त कराने का संघर्ष भी था।

आज भारत को आज़ाद हुए तिरसठ सालों से अधिक का समय बीत चुका है। आज़ाद ख्याली के नाम पर पश्चिमी उपभोक्तावादी-पूंजीपरस्त संस्कृति का अंधा नक़ल करने में देश में बड़ी तादात माहिर हो चुकी है। लेकिन, क्या संस्करगत गुलामी से अब भी इस देश की जनता को आज़ादी मिली है? कई उदाहारण हैं, इसे परखने को। क्यो न, उसी रेल की बात करें, जिसने गांधी के अंदर पल रहे संस्कारगत गुलामी को झकझोक कर रख दिया था।
रेल का अपना वर्ग चरित्र है और यह वर्ग-चरित्र बहुत जाहिर है। जैसे रेल कैंटीन में आपको जनता खाना मिल जाएगा। जनता से यहाँ आशय सर्वहारा से है, क्योंकि जनता खाना के नाम पर सबसे सस्ता खाना परोसा जाता है। गो कि देश के सत्ता की नज़र में इलीट जनता कोई जनता नहीं, ईश्वर का सीधा अवतार हो। रेल में इस्तेमाल की जाने वाली ऐसी शब्दावलियाँ घोर भेदभावपूर्ण व आपत्तिजनक हैं। वहीं, रेल में पेंट्री आपूर्ति द्वारा जो खाने-पीने की चीज़े बेची जाती है, उसकी क़ीमत इतनी ज्यादा होती है, कि कोई निम्न मध्य वर्ग या उससे कम हैसियत रखने वाला इंसान भले भूखा पेट उसे देख कर ललचाता रहे, लेकिन यह खाना खरीद कर खाना उसके सामर्थ्य में नहीं होता।
हर साल रेल मंत्री रेल विकास के आँकड़ेबाज़ी का खेल खेलते रहते हैं। हर कोई नयी गाड़ियाँ चलाता हैं। यात्री भाड़ा नहीं बढ़े, यह कोशिश की जाती है। यात्री सुविधाओं के नाम पर आरक्षण प्राप्त करने के बेहतर विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं, नयी गाड़ियाँ चलाई जाती हैं। लेकिन, यह सवाल क्यों नहीं उठता कि सामान्य श्रेणी के रेल डिब्बों और उसमें सफर करने वाले यात्रियों की स्थिति में सुधार कैसे की जाये। इन रेलमंत्रियों को अगर किसी सामान्य स्थिति में बिना यह जाहिर किये कि वो मंत्री हैं, सामान्य श्रेणी के डिब्बे में सफर करना पड़ जाये तो यकीनन ऐसी स्थिति में वो अपने प्राण त्याग दें। वहाँ पेशाब-पखाना से फारिग होने के लिए जो स्थान नियत है, उसकी भी सफाई यात्रा शुरू से पहले बस एक बार होती है। लंबे सफर वाली गाडियों में भी इसका ख्याल नहीं रखा जाता है कि सामान्य श्रेणी के डिब्बे, जहाँ यात्रियों की संख्या अन्य डिब्बों से अधिक होती है, वहाँ साफ़-सफ़ाई और सुविधाओं का अधिक ध्यान रखा जाये। सामान्य श्रेणी के यात्रियों के बारे में कोई नहीं सोचता, जबकि वातानुकुलित डिब्बे में नियत समय पर सफाई होती है और सुगंधियों का छिड़काव होता रहता है। भारतीय रेल ने इंसानी गरिमा को उसके ज़ेब और बटुए से जोड़ रक्खा है।

लालू यादव ने अपने कार्यकाल में यह भ्रम बनाये रखा कि यात्री भाड़ा में बढ़ोत्तरी नहीं होने से उनका समय जनपक्षधर रेल का समय था। पर, कई तिकड़मों से गरीब जनता पर अत्याचार किये गये। जैसे, यात्री भाड़ा तो स्थिर रखा, लेकिन गाड़ियों की क्षमता बढ़ाये बगैर उसे सुपरफ़ास्ट घोषित करते हुये सुपरफ़ास्ट चार्ज़ वसूले गये। इसी सिलसिले में हुआ यह कि बगल की दो सीटों की संख्या को बढ़ाकर तीन कर दिया गया। ऐसा करना जीते जागते इंसानों के साथ बड़ा अमानवीय व्यवहार था। यह इंसानों के साथ कबूतरों सा बर्ताव करते हुये उनके लिए दरबा बनाने जैसा था। ममता बैनर्जी आयीं, तो बगल के डिब्बों की संख्या तीन से फिर दो हुयी, लेकिन अफ़सोस यह कि इस सुधार में ऊपर वाले सीट, जहाँ बैठना बिल्कुल असंभव है, आप वहाँ एक ही स्थिति में लेटे रहने के लिए अभिशप्त रहते हैं, उसे वैसे का वैसा ही रहने दिया गया और बीच वाले सीट को, जो अपेक्षाकृत बेहतर था, उखाड़ फेंका गया। नतीजतन यात्रियों की असुविधा जस की तस रही।
सवाल है कि यात्रियों को इन सब पर गुस्सा क्यों नहीं आता? आज ये सारी समता विरोधी स्थितियाँ व नीतियाँ किसी मोहनदास को बदलाब का महात्मा बनने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करती?
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संप्रति: पत्रकारिता एवं शोध
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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मजदूरों का बंधुआ बनना जारी है...

- देवाशीष प्रसून
अगर भारत सरकार या देश के किसी भी राज्य सरकार से पूछा जाये कि क्या अब भी हमारे देश में मजदूरों को बंधुआ बनाया जा रहा है, तो शायद एक-टूक जबाव मिले - नहीं, बिल्कुल नहीं। सरकारे अपने श्रम-मंत्रालयों के वार्षिक रपटों के जरिए हमेशा ऐसा ही कहती हैं। सन 1975 से देश में बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन का कानून लागू है। इस कानून के लागू होने के बाद से सरकारों ने अपने सतत प्रयासों के जरिए बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंका है, सरकारी सूत्रों से बस इस तरह के दावे ही किए जाते हैं। हालाँकि, हकीकत इसके बरअक्स कुछ और ही है।

गौर से देखें तो आज ठेके पर नौकरी का मतलब ही बंधुआ मजदूरी है। कारपोरेट जगत में भी एक नियत कालावधि के लिए कांट्रेक्ट आधारित नौकरी में अपने नियोक्ता के बंधुआ बनते हुये कई पढ़े-लिखे अतिदक्ष प्रोफेसनल्स देखने को मिल जायेंगे। क्योंकि एक तो उनके पास विकल्पों का आभाव है और दूसरा नौकरी छोड़ने पर एक भाड़ी-भड़कम रकम के भुगतान की बाध्यता। लेकिन श्रम के असंगठित क्षेत्रों में बंधुआ मजदूरी व्यवस्था का होता नंगा नाच दिल दहला देने वाला है।

बीते दिनों, बीस राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के कई शहरों में हुये एक सर्वेक्षण आधारित अध्ययन ने देश में बंधुआ मजदूरी के मामले में सरकारी दावों की पोल खोल रख दी है। असंगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिये बनायी गई राष्ट्रीय अभियान समिति के अगुवाई में मजदूरों के लिए काम कर रहे कई मजदूर संगठनों व गैर-सरकारी संगठनों के द्वारा किये गये इस राष्ट्रव्यापी अध्ययन से पता चलता है कि देश में बंधुआ मजदूरी अब तक बरकरार है। भले ही इसका स्वरूप आज के उद्योगों की नयी जरूरतों के हिसाब से बदला है, लेकिन असंगठित क्षेत्रों में हो रहा ज्यादातर श्रम, किसी न किसी रूप में, बंधुआ मजदूरी का ही एक रूप है। बार-बार यह तथ्य सामने आया है कि आज देश के ज्यादातर इलाकों में बंधुआ मजदूरी की परंपरा के फिर से जड़ पकड़ने के पीछे पलायन और विस्थापन का अभिशाप निर्णायक भूमिका निभा रहा है।

किसी मजदूर को अपना गाँव-घर छोड़ कर दूसरी जगह मेहनत करने इसलिये जाना पड़ता है, क्योंकि उसके अपने इलाके में आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते हैं। कहीं सूखा, कहीं बाढ़ और तो किसी के पास खेती के लिए अनुपयुक्त या नाकाफी जमीन, ऐसे में, वे लोग, जो बस खेतिहर मजदूर हैं, अपने इलाकों में खेती के बदतर स्थिति के कारण एक तो मजूरी बहुत कम पाते हैं और दूसरे समाज में विद्यमान सामंती मूल्यों के अवशेष भी उन्हें बार-बार कुचलते रहते हैं। बेहतरी की उम्मीद में ही वे पलायन करने को मजबूर होते हैं। बंधुआ मजदूरी का नया स्वरूप जो सामने आया है, उसमें मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा पलायन किये हुये मजदूरों का है।

खेती, ईंट-भट्टा, निर्माण-उद्योग और खदानों जैसे कई व्यवसायों में अपना खून-पसीना एक करने वाले मजदूरों को बडे ही सुनियोजित तरीके से बंधुआ बनाया जाता हैं। मजदूरों को नियुक्त करवाने वाले दलाल शुरुआत में ही थोड़े से रूपये बतौर पेशगी देकर लोगों को कानूनन अपना कर्जदार बना देते हैं। रूपयों के जाल में फँसकर मजदूर अपने नियोक्ता या इन दलालों का बंधुआ बन कर रह जाता है। अधिकतर मामलों में, ये दलाल संबंधित उद्योगों के नजर में मजदूरों के ठेकेदार होते हैं। इन ठेकेदारों से प्रबंधन अपनी जरूरत के मुताबिक मजदूरों की आपूर्ति करने को कहता है और मजदूरों के श्रम का भुगतान भी आगे चलकर इन्हीं ठेकेदारों के द्वारा ही किया जाता है। बाद में ये ठेकेदार या दलाल, आप इन्हें जो भी संज्ञा दें, मजदूरों के श्रम के मूल्यों के भुगतान में तरह तरह की धांधलियाँ करते हैं। नियोक्ता और श्रमिक के बीच में दलालों की इतनी महत्वपूर्ण उपस्थिति मजदूरों के शोषण को और गंभीर बना देती है। दलाल मजदूरों का हक मारने में किसी तरह का कोई गुरेज नहीं करते है, उन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देना तो दूर की बात है। मजदूरों का मारा गया हक ही इन दलालों के लिए मुनाफा है। ऐसी स्थिति में मजदूरों के प्रति
किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी, जैसे कि रहने और आराम करने के जगह की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं, बीमा, खाने के लिए भोजन और पीने के लिए पानी को सुलभ बनाना और दुर्घटनाओं के स्थिति में उपचार आदि से अमूमन नियोक्ता अपने आप को विमुख कर लेता है। नियोक्ता इन सब के लिए ठेकेदारों को जिम्मेवार बताता है तो ठेकेदार नियोक्ता को और ऐसे में मजदूर बेचारे बडे बदतर स्थिति में यों ही काम करने को विवश रहते हैं।

सबसे पहले, महानगरों में काम करने वाली घरेलू नौकरानियों का उदाहरण लें। गरीबी और भूख के साथ-साथ विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित हो रहे छत्तीसगढ़ और झाड़खंड के आदिवासी रोजी-रोटी के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं। ऐसे में आदिवासी लड़कियों को श्रम-दलाल महानगरों में ले आते हैं। उन्हें प्रशिक्षित करके दूसरों के घरों में घरेलू काम करने के लिए भेजा जाता है। इन घरों में ऐसी लड़कियों की स्थिति बंधुआ मजदूरों से इतर नहीं होती। अठारह से बीस घंटे रोज मेहनत के बाद भी नियोक्ता का व्यवहार इनके प्रति अमूमन अमानुष ही रहता है और इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन महिला मजदूरों का यौन शोषण भी होता होगा। इतने प्रतिकूल परिस्थिति में भी इनके बंधुआ बने रहने का मुख्य कारण आजीविका के लिए विकल्पहीन होने के साथ-साथ नियोक्ता के चाहरदीवारी के बाहर की दुनिया से अनभिज्ञता भी है। मजबूरन अत्याचार सहते रहने के बाद भी घरेलू नौकरानियाँ अपने नियोक्ता के घर में कैद रह कर चुपचाप खटते रहने के लिए बाध्य रहती हैं, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं है।

श्रमिकों पर होने वाला शोषण यहाँ रुकता नहीं है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों में महिलाओं के साथ-साथ पुरूष और बच्चे भी काम करते हैं। इन्हें भी काम दिलाने वाले दलाल गाँवों-जंगलों से कुछ रूपयों के बदौलत बहला फुसला कर काम करवाने के लिए लाते हैं। ईंट भट्टे का काम एक मौसमी काम है। पूरे मौसम इन श्रमिकों के साथ बंधुआ के तरह ही व्यवहार किया जाता है और इन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देने का चलन नहीं है। और तो और, अध्ययन के अनुसार महिलाओं के प्रति यौन-हिंसा ईंट भट्टों में होने वाली आम घटना है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों की खस्ताहाल स्थिति पूरे देश में एक सी है।

अति तो तब है, तब मजदूरों पर यह होता अन्याय एक तरफ सरकारों को सूझता नहीं, दूसरी ओर, खुलेआम सरकार अपने कुछ योजनाओं के जरिए बंधुआ मजदूरी को प्रश्रय भी देती हैं। बतौर उदाहरण लें तो बंधुआ मजदूरी का एक स्वरूप तमिलनाडु में सरकार के प्रोत्साहन पर चल रहा है। बंधुआ मजदूरी का यह भयंकर कुचक्र सुमंगली थित्ताम नाम की योजना के तहत चलाया जाता है। इस योजना को मंगल्या थित्ताम, कैंप कूली योजना या सुबमंगलया थित्ताम के नामों से भी जाना जाता है। इसके तहत 17 साल या कम उम्र की किशोरियों के साथ यह करार किया जाता है कि वह अगले तीन साल के लिए किसी कताई मिल में काम करेगी और करार की अवधि खत्म होने पर उन्हें एकमुश्त तीस हजार रूपये दिये जायेंगे, जिस राशि को वह अपनी शादी में खर्च कर सकती हैं। तमिलनाडु के 913 कपास मिलों में 37000 किशोरियों का इस योजना के तहत बंधुआ होने का अंदाजा लगाया गया है। इनके बंधुआ होने का कारण यह है कि करार के अवधि के दौरान अगर कोई लड़की उसके नियोक्ता कपास मिल के साथ काम न करना चाहे और मुक्त होना चाहे तो उसके द्वारा की गयी अब तक की पूरी कमाई को मिल प्रबंधन हड़प कर लेता है। साथ ही, कैंपों में रहने को विवश की गयी इन लड़कियों के साथ बड़ा ही अमानवीय व्यवहार होता है। इन्हें बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग रखा जाता है, किसी से मिलने-जुलने की इजाजत नहीं होती है। एक दिन में 17-18 घंटों का कठोर परिश्रम करवाया जाता है। हफ्ते में बस एक बार चंद घंटे के लिए बाजार से जरूरी समान खरीदने के लिए छूट मिलती है। इनके लिए न तो कोई बोनस है, न ही किसी तरह की बीमा योजना और न ही किसी तरह की स्वास्थ्य सुविधा। दरिंदगी की हद तो तब है, जब एकांत में इन अल्पव्यस्कों को यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक में आयी एक खबर के मुताबिक शांति नाम की गरीब लड़की को ढ़ाई साल मिल में काम के बाद भी बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिली। उलटे, मिल के मशीनों ने उसे अपाहिज बना दिया और प्रबंधन का यह बहाना था कि दुर्घटना के बाद शांति के इलाज में उसकी
पूरी कमाई खर्च हो गई।

बंधुआ मजदूरी की चक्कर में फँसने वाले अधिकतम लोग या तो आदिवासी होते हैं या दलित। आदिवासियों का बंधुआ बनने का कारण उनके पारंपरिक आजीविका के उन्हें महरूम करना है। तमिलनाडु की एक जनजाति है इरुला। ये लोग पारंपरिक रूप से सपेरे रहे हैं, लेकिन साँप पकड़ने पर कानूनन प्रतिबंध लगने के बाद से कर्ज के बोझ तले दबे इस जनजाति के लोगों को बंधुआ की तरह काम करने के लिए अभिसप्त होना पड़ा है। चावल मिलों, ईंट-भट्टों और खदानों में काम करने वाली इस जनजाति को हर तरह के अत्याचारों को चुपचाप सहना पड़ता है। तंग आकर जब रेड हिल्स के चावल मिलों में बंधुआ मजदूरी करने वाले लगभग दस हजार लोगों ने अपना विरोध दर्ज किया तो उन्हें मुक्त कराने के बजाए एक सक्षम सरकारी अधिकारी ने उन्हें नियोक्ता से कह कर कर्ज की मात्रा कम करवाने के आश्वासन के साथ वापस काम पर जाने को कहा। सरकारी मशीनरी की ऐसी भूमिका मिल मालिकों और अधिकारियों की साँठ-गाँठ का प्रमाण है।

कुल मिला कर देखे तो बंधुआ मजदूरी के पूरे मामले में एक बहुत बड़ा कारण आजीविका के लिए अन्य विकल्पों और अवसरों का उपलब्ध नहीं होना है। साथ ही, अब तक जो हालात दिखे हैं, उनके आधार पर सरकारी लालफीताशाही के मंशा पर भी कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। बंधुआ मजदूरी का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण स्थायी नौकरी के बदले दलालों के मध्यस्था में मजदूरों के श्रम का शोषण करने की रणनीति अंतर्निहित है। ऐसे में संसद और विधानसभा में बैठ कर उन्मूलन के कानून बनाने के अलावा सरकार को इसके पनपने और फलने-फूलने के कारणों पर भी चोट करना पड़ेगा।
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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

कॉमनवेल्थ खेलों का क्या है औचित्य?

-    देवाशीष प्रसून

उन्नीसवां कॉमनवेल्थ खेल दिल्ली में होने वाला है। काफी तैयारियाँ चल रही हैं। बड़े पैमाने पर पुराने भवनों का मरम्मत और रंग-रोगन कई दिनों से हो रहा है। दिल्ली को बिल्कुल उस तरह से सजाने की कवायद है, जिससे दिल्ली के स्थापत्य का ऐतिहासिक उपनिवेशकालीन रुतबा फिर से दैदिप्तमान हो सके। कॉमनवेल्थ की अवधारणा औपनिवेशिक इतिहास के महिमामंडन से अधिक कुछ नहीं है। यह बरतानिया गुलामी को इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय बनाकर प्रस्तुत करने का तरीका है बस। एक सवाल का दिमाग़ में कौंधना स्वभाविक है कि क्यों देश की राजनीति का कमान संभालने वाले पुरोधा आज भी औपनिवेशिक मूल्यों को ओढ़ कर गौरवांवित महसूस कर रहे हैं?  दरअसल, मामला यह भी है कि इन खेलों का आयोजन कुछ संबंधित उद्योगों को भरपूर लाभ पहुँचाने का माध्यम हो। वैसे भी, कॉमनवेल्थ खेलों से और कुछ हो, न हो, निर्माण, पर्यटन, होटल व यात्रा आदि के कारोबार से जुड़े चंद लोग चाँदी तो ज़रूर काटेंगे।

विडंबना है कि एक तरफ जहाँ भारत सरकार केवल दस दिनों तक चलने वाले कॉमन्वेल्थ खेलों पर मात्र सत्रह खेलों के लिए केंद्रीय बज़ट में लगभग आठ हज़ार करोड़ रूपये से अधिक का इन्तेज़ाम किया है, वहीं वर्ष २०१०-११ में भारत सरकार ने पूरे देश में खेलकूद के मद में किए जाने वाले खर्च में कटौती करते हुए साल भर के लिए कुल ३५६५ करोड़ रूपये की राशि ही आवंटित की है। हैरानी होगी कि खेल बजट की इस राशि में से भी २०६९ करोड़ रूपये कॉमन्वेल्थ खेलों में ही खर्च किया जायेगा। कई सूत्रों से पता चलता है कि कॉमनवेल्थ खेलों में जनता के खजाने से उक्त राशि से कहीं अधिक खर्च होने की संभावना है। इस आयोजन को सफल बनाने का सरकारी मशीनरी का जुनून देखने लायक है।

भारत की आम जनता की जमापूँजी से सरकारी खजाना बनता है और उन्हें ही सरकार ने अब तक यह नहीं बताया है कि कॉमनवेल्थ खेलों से उनका किस तरह से कल्याण हो रहा है। इन खेलों में देशी खिलाड़ियों के प्रशिक्षण व प्रोत्साहन की कोई भी प्रयास अब तक नहीं दिख पाया है। इस आयोजन में हमारे सरकार की एकमात्र भूमिका मेज़बानी की ही रह गई है। यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत के खिलाड़ी भी इस आयोजन में सहभागिता करेंगे? अगर भारत के खिलाड़ी-दल इन खेलों में बेहतर प्रदर्शन न कर सके, तो इसकी नैतिक जिम्मेवारी भी इसी सरकार की ही होगी।

सवाल यह भी है कि इस तरह के खेल दिल्ली में ही क्यों करवाये जा रहे हैं? स्टेडियम के निर्माण के नाम पर दिल्ली की ज्यादातर पुराने स्टेडियमों को ही दुरुस्त करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया है। जबकि हो यह भी सकता था कि इतने पैसे में एक ऐसे इलाके को विकसित किया जाता जो खेल-कूद की आधुनिक ज़रूरतों से लैश होता। दिल्ली तो देश की राजधानी है, लेकिन देश में खेल-कूद का केंद्र अलग से तैयार किया जाना चाहिए था।

दिल्ली को अत्याधुनिक दिखाने के चक्कर में दिल्ली सरकार ऑटो रिक्शा के चलन पर लगाम कसने की तैयारी में है। कोई उनसे पूछे कि ट्रांसपोर्ट की वैकल्पिक व्यवस्था हो भी जाये,पर ऑटो चालकों के पेट पर लात मारने की इस सरकारी नीति से किसका भला होगा?

चलते-चलते एक गंभीर विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि कॉमनवेल खेलों के मद्देनज़र जो कामकाज चल रहे हैं, उनमें मज़दूरों का शोषण का बड़े पैमाने पर हो रहा है। एक तरफ़ जहाँ उनको न्यूनतम दिहाड़ी नहीं मिल रही है, वहीं दूसरी तरह उनके रहने, स्वास्थ्य, दुर्घटनाओं से सुरक्षा और अन्य सुविधाओं की अनदेखी हो रही है।

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बुधवार, 24 मार्च 2010

बाटला हाउस में हुए कत्लों की सच्चाई?

- देवाशीष प्रसून

बाटला हाउस में मुठभेड़ के नाम पर मारे गए लोगों की पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट बड़ी शिद्दत के बाद सूचना के अधिकार के जरिए अफ़रोज़ आलम साहिल के हाथ लग पायी है।पोस्ट मार्टम रिपोर्ट इसे कत्ल बता रही है।जबकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने तो दिल्ली पुलिस के ही दलीलों पर हामी भरी थी। बिना घटनास्थल पर पहुँचे और आसपास व संबंधित लोगों से बातचीत किए बगैर ही इस मामले को सही में एक मुठभेड़ मानते हुए आयोग ने दिल्ली पुलिस को बेदाग़ घोषित कर दिया था। और तो और, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पूरे मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के रपट पर आँखें मूंद कर विश्वास करते हुए किसी तरह के भी न्यायिक जाँच से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से पुलिस का मनोबल कमज़ोर होगा। यह चिंता का गंभीर विषय है कि किसी भी लोकतंत्र में मानवीय जीवन की गरिमा के बरअक्स पुलिस के मनोबल को इतना तवज्जो दिया जा रहा है। बहरहाल, आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट पर से पर्दा उठने के कारण नए सिरे से बाटला हाउस में पुलिस द्वारा किए गए नृशंस हत्याओं पर सवालिया निशान उठना शुरू हो गया है।

यह 13 सितंबर, 2008 के शाम की बात है, जब दिल्ली के कई महत्वपूर्ण इलाके बम धमाके से दहल गए थे। इसके बाद जो दिल्ली पुलिस के काम करने की अवैज्ञानिक कार्य-पद्धति दिखने को मिली, वह पूरी तरह से पूर्वाग्रह और मनगढ़ंत तर्कों पर आधारित है। बम धमाकों के तुरंत बाद ही पुलिस ने जामिया नगर के मुस्लिम बहुल बाटला हाउस इलाके के निवासियों को किसी पुख्ता सबूत के बगैर ही शक के घेरे में लेना और उनसे जबाव-तलब करना शुरू कर दिया था। अगले दिन ही, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल राशीद अगवाँ और तीस साल के अदनान फ़हद को पुलिस के विशेष दस्ते के द्वारा पूछताछ के लिए उठा लिया गया और फिर बारह घंटे के ज़ोर-आज़माइश के बाद उन्हें छोड़ा गया। 18 तारीख़ को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एक शोध-छात्र मो. राशिद को भी पूछताछ के लिए ले जाया गया और उसे ज़बरन यह स्वीकारने के लिए बार-बार बाध्य किया गया कि उसके संबंध आतंकियों से हैं। इस दौरान पुलिस ने उसे नंगा करके कई बार पीटा और तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। बाद में उसे 21 तारीख़ को छोड़ दिया गया।

इसी बीच 19 तारीख़ को दिल्ली पुलिस के विशेष दस्ते ने आनन-फानन में बाटला हाउस इलाके के एल -18 बिल्डिंग को चारों तरफ़ से घेर लिया। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक फ्लैट संख्या 108 के रहने वालों पर पुलिस ने गोलियाँ बरसायी गयीं। बाद में पुलिसिया सूत्रों से पता चला कि उक्त फ्लैट में इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकियों ने ठिकाना बनाया हुआ था, जिन्होंने पुलिस को आते ही उन पर गोलियां चलायी थी। जबाव में पुलिस के गोली से उन में से दो आतिफ़ अमीन और मो. साजिद की मौत हो गयी, दो लोग फरार हो गए और मो. सैफ़ को गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस के अनुसार बाटला हाउस के एल-18 में रहने वाले सभी लोग दिल्ली बम धमाके के लिए कथित तौर पर जिम्मेवार इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े हुए थे। इस कथित मुठभेड़ में घायल हुए इंस्पैक्टर मोहन चंद्र शर्मा को भी जान से हाथ धोना पड़ा।

लेकिन, गौरतलब है कि पूरे मामले में पुलिस, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और न्यायालयों के अपारदर्शी रवैये से यह मामला साफ़ तौर पर मुठभेड़ से इतर मासूम लोगों को घेर कर उनकी क्रूर हत्या करने का प्रतीत होता है। विभिन्न मानवाधिकार संगठनों के इस शक को बाटला हाउस में मारे गए लोगों के पोस्ट मार्टम की रपट ने और पुख्ता किया है।

पोस्ट मोर्टम के रपट के मुताबिक आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के शरीरों पर मौत से पहले किसी खुरदरी वस्तु या सतह से लगी गहरी चोट विद्यमान है। सवाल उठना लाजिमी है कि अगर दोनों ओर से गोलीबारी चल रही थी तो दोनों के शरीर पर मार-पीट के जैसे निशान कैसे आये? ध्यान देने वाली बात है कि दोनों ही मृतकों ने अगर पुलिस से मुठभेड़ में आमने-सामने की लड़ाई लड़ी होती, तो उनके शरीर के अगले हिस्से में गोली का एक न एक निशान तो होता, जो कि नहीं था। आतिफ़ और साजिद के अन्त्येष्टि के समय मौज़ूद लोगों के मुताबिक दोनों शवों के रंग में फर्क था, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि उन दोनों की मौत अलग-अलग समय पर हुई थी। प्रश्न है कि क्या उन्हें पहले से ही प्रताड़ित किया जा रहा था और बाद में उन पर गोलियाँ दागी गयी?

चार पन्नों के रपट में साफ़ तौर पर लिखा है कि आतिफ़ अमीन की मौत का कारण सदमा और कई चोटों की वजह से खून बहना है। चौबीस साल के आतिफ़ के शरीर में कुल मिलाकर इक्कीस ज़ख्म थे। उस के शरीर में हुए ज्यादातर ज़ख्म पीछे की तरफ़ से किए गए थे, वह भी कंधों के नीचे और पीठ पर। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि, आतिफ़ पर पीछे की ओर से कई बार गोलियाँ चलायी गयीं।

सत्रह साल के मो. साजिद की लाश के पोस्ट मोर्टम से पता चलता है कि उसके सिर पर गोलियों के तीन ज़ख्मों में से दो उसके शरीर में ऊपर से नीच की ओर दागे गए हैं। ये भी प्रतीत होता है कि साजिद को जबरदस्ती बैठा कर ऊपर से उसके ललाट, पीठ और सिर में गोलियाँ दागी गयीं।

साजिद और आतिफ़ की हत्या को मुठभेड़ के नाम पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पूरे मामले में सीधे रूप से जुड़ा हुआ मो. सैफ़ अब तक पुलिस हिरासत में है। अगर पुलिस की मानें तो मो. सैफ़ को वहीं से गिरफ़्तार किया गया, जहाँ आतिफ़ और साजिद की मौत हुई थी। ऐसे में उसके बयान का महत्व बढ़ जाता है, जिसे को पुलिस ने अब तक बाहर नहीं आने दिया है। साथ ही, इस मामले पर दिल्ली पुलिस का ’मुठभेड़ कैसे हुआ’ के बारे में बार-बार बदलता स्टैंड भी यह स्वीकारने नहीं देता है कि मृतकों की मौत किसी मुठभेड़ में हुई है। अपितु लगता यह है कि मृतक निहत्थे थे और उन्हें घेर कर वहशियाना तरीके से मारा गया।


तालिका 1: आतिफ़ की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या (रपट के मुताबिक) ज़ख्म का आकार ज़ख्म कहाँ पर है

14 1 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

9 2X1 सेमी, 1 सेमी घर्षण और गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

13 9.2 सेमी घर्षण और 3x1 सेमी गहरा गड्ढा पीठ की मध्य रेखा, गर्दन के नीचे

8 1.5 x1 सेमी गहरा गड्ढा दायें कंधे पर की हड्डी का हिस्सा, मध्य रेखा से 10 सेमी दूर और दायें कंधे से 7 सेमी नीचे

15 0.5 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा निचले पीठ की मध्य रेखा, गर्दन से 44 सेमी नीचे

6 1.5 X1 सेमी, आकार में अंडाकार बायीं जांघ का अंदरूनी हिस्सा (ऊपर की ओर), बाये चूतड़ों पर ज़ख्म संख्या 20 जहाँ से धातु का एक टुकड़ा मिला से जुड़ा हुआ। बंदूक की गोली का निशान संख्या 20 आश्चर्यजनक रूप बहुत बड़ा 5x2.2 सेमी का है।

10 1x0.5 सेमी दायें कंधे से 5 सेमी नीचे और बीच से 14 सेमी नीचे

11 1x0.5 सेमी कंधे के हड्डी के बीच, मध्य रेखा के 4 सेमी दायें

12 2x1.5 सेमी पीठ के दायीं ओर, मध्य रेखा से 15 सेमी, दायें कंधे से 29 सेमी नीचे

16 1 सेमी व्यास दायीं बांह की कलाई और पिछला बाहरी हिस्सा


तालिका 2: साजिद की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या 1 दायें तरफ़ माथे पर आगे के ओर(ललाट पर)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 2 दायें तरफ़ ललाट पर

बंदूक की गोली का निशान संख्या 5 दायें कंधे की ऊपरी किनारा (नीचे की तरफ जा रहा)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 8 बायीं छाती के पीछे( गर्दन से 12 सेमी )

बंदूक की गोली का निशान संख्या 10 सिर के पिछले हिस्से का बायां भाग



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