देवाशीष प्रसूननक्सलवाद के नाम पर सरकार तमाम तरह की असहमतियों के स्वर पर निशाना साध रही है। सरकारें कुछ ऐसे चीज़ों का हौआ बना कर रखती हैं जिन्हें वो किसी भी गंभीर असहमति या असहमति से उपजे प्रतिरोध के स्वर के विरोध में खड़ा कर सकें। ऐसा करने के बाद प्रतिरोधी लोगों की सारी लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों को ख़त्म मान लिए जाता है। फिर सरकारों को मनमाने तरीके से अपने विरोधियों को चुप कराने में आसानी होती है। जैसे, अमरीका के पास आतंकवाद नाम का हौआ है, जिसे वह उन देशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता है, जो अमरीका के वर्चस्व को नहीं स्वीकारते हैं। भारतीय सत्ता तंत्र के पास भी नक्सलवाद नाम का एक ऐसा ही हौआ है, जिसे वह तमाम असहमतियों के स्वर के विरोध में इस्तेमाल कर धड़ल्ले से उनका दमन करता फिरता है।
छत्तीसगढ़ के पीयूसीएल, वनवासी चेतना आश्रम, दांतेवाड़ा और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क, दिल्ली के पीयूडीआर, मल्कानगिरी के मन्नाधिकार व ज़िला आदिवासी एकता संघ और उड़िसा के एक्शन एड के संयुक्त 15 सदस्यीय जाँच दल द्वारा हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ नक्सल विरोधी अभियान ग्रीन हंट के तहत 17 सितंबर को दांतेवाड़ा के गचनपल्ली में 6 लोगों की कोबरा, स्थानीय पुलिस, विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) और सलवा जुडूम के कार्यकर्त्ता बोड्डू राजा के नेतृत्व में हत्याएँ की गई। दांतेवाड़ा के ही गोमपद और चिंतागुफा में 1 अक्टूबर को फर्जी मुठभेड़ में भी कई हत्याएँ हुई। पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के हवाले से पता चलता है कि 8 नवंबर को रोहतास जिले से पाँच लोगों को पुलिस ने उठाया और इनमें से किसी को भी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने अगले दिन सोनभद्र के चोपन जंगलों में उनमें से एक कमलेश चौधरी को सीपीआई(माओवादी) का एरिया कमांडर बताकर फर्ज़ी मुठभेड़ में मार गिराया। बाकी चार लोग अब तक लापता हैं। ऐसी सैन्य कार्रवाईयों का सिलसिला पूरे देश में लगातार चल रहा है।
बीते दिनों, पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेन समिति(पीसीएपीए) ने पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जबरन भू-अधिग्रहन के ख़िलाफ़ हल्ला बोला था। इस जन आंदोलन को कई जाने-माने बुद्धिजिवियों के साथ-साथ ममता बैनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस और सीपीआई(माओवादी) का भी समर्थन प्राप्त है। इसके नेता छत्रधर महतो को मुख्यमंत्री की हत्या के कोशिश और सीपीआई(माओवादी) से संबंध के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। इस गिरफ़्तारी के विरोध में पीसीएपीए कार्यकर्ताओं ने झाड़ग्राम में भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन को चार घंटे तक घेरे रखा। उनकी संख्या इतनी थी कि अगर वे हिंसा पर उतारू होते तो रेल का एक भी यात्री या कर्मचारी ज़िंदा न बचने पाता। उन्हें रोकने के लिए न कोई सेना थी न कोई पुलिस। लेकिन किसी को हताहत करने के बजाय इस दौरान उन्होंने सरकार से उनके साथी छत्रधर महतो को रिहा करने की माँग रखी। एक ओर जहाँ, देश में रेल का घेराव विरोध प्रदर्शन का आम तरीका रहा है, वहीं सरकार ने इसे माओवादियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा और तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियारों से लैस इन आदिवासियों को नक्सली समझा। अगर सच में वे नक्सली ही हैं, जैसा कि सरकार का मानना है, तो इस पूरे प्रकरण ने यह स्थापित किया है कि देश में माओवादियों की एक सामर्थ्यपूर्ण राजनीतिक और सैन्य स्थिति है। साथ ही यह भी संदेश पुरज़ोर तरीके से गया है कि देश के कुछ हिस्सों में गृहयुद्ध की स्थिति है। हालांकि, सरकार ही स्वयं, स्पष्ट शब्दों में गृहयुद्ध की स्थिति से इंकार करती है।
भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक प्रतिवेदनों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के मध्य विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति व जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति मौज़ूद है। दरअसल इस स्वीकारोक्ति के बाद भी सरकार का अपनी अकर्मण्यता से उबरने का कोई प्रयास नहीं दिखता है। इसके बजाय, वो यथास्थिति बनाये रखने के सारे संभंव प्रयास में लिप्त है। कोई अगर सरकार की मनमानियों का गंभीर विरोध करे, तो पूरा सरकारी तंत्र उसको नक्सली सिद्ध करने पर तुल जाता है।
पूरी सरकारी मशनरी ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा मान लिया है और ऐसा मानना, उनके लिए आप्तवचन है। वर्ष 2005-06 में सरकार ने कई महत्वाकांक्षी विकास परियोजनाओं के मद्देनज़र कुछ अहम फैसले लिए। इसी वर्ष नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा संबंधी व्यय स्कीम में केन्द्र सरकार ने नक्सली राजनीति के असर वाले प्रदेशों के लिए प्रतिपूर्ति की दर पचास प्रतिशत से बढ़ाकर शत- प्रतिशत कर दिया गया। इस राशि के अग्रिम भुगतान की व्यवस्था की गई। राज्यों की सरकारों को पुलिस आधुनिकीकरण स्कीम के तहत आधुनिक हथियारों, मोबीलिटी, संचार उपकरण और प्रशिक्षण के आधारभूत ढाँचे के उन्नयन हेतु खर्च राशि के कम से कम तीन-चौथाई प्रतिपूर्ति का इंतज़ाम किया गया। साथ ही, नौ राज्यों के 76 नक्सल प्रभावित जिलों को प्रति जिला दो करोड़ रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से पुलिसिया ढाँचे को मज़बूत करने के लिए मिलनी शुरू हुई। नक्सल प्रभावित राज्यों में, प्रत्यक्ष तौर पर, युवाओं को रोज़गार प्रदान करने के लिए इंडिया रिज़र्व बटालियनों के गठन का फैसला लिया गया। लेकिन, असलियत यह थी यह राज्यों में पीड़ित जनता के असहमति के स्वर को दबाने के लिए पीड़ित लोगों में ही कुछ को सुरक्षा व्यवस्था में शामिल करना के जुगाड़ था । छत्तीसगढ़ में ’सलवा जुडूम’, झारखंड में ’नागरिक सुरक्षा समिति’, तथा बंगाल के जंगल महल क्षेत्र में ’संत्रास प्रतिरोध समिति’, ’घोस्कर वाहिनी’ और ’हरमद बलो’ जैसे ग्राम सुरक्षा या नागरिक सुरक्षा समितियों के लिए केन्द्र सरकार की ओर से एकमुश्त अनुदान और विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के लिए मानदेय का प्रबंध किया गया। फलस्वरूप आमलोगों पर अत्याचार बढ़ा। “फूट डालो, शासन करो” की नीति अपनाते हुए सरकार ने किसानों-आदिवादियों को अपनी ज़मीन और रोज़गार से विस्थापित करने के लिए उनमें से ही कुछ लोगों का इस्तेमाल किया। लोगों के मन आतंक पैदा करने के लिए जनसंहार, आतंक, बलात्कार तथा घरों को जलाने की कई वारदातें हुईं।
वर्ष 2005-06 में किए गये इन सब इंतज़ामात का सबसे बड़ा कारण बड़े संख्या में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) की स्थापना करने हेतु तैयारियाँ थी। किसानों के लिए ज़मीन और आदिवासियों के लिए जंगल उनके जीवन और आजीविका का आधार है। सरकार सेज़ों, बाँधों और औद्योगिकरण के जरिए जिस विकास का सपना देखती है, उसमें किसानों को ज़मीन से और आदिवासियों को जंगल से महरूम होना पड़ता है। किसी की चाहे कोई भी विचारधारा हो, लेकिन जब उससे उसके जीवन का आधार छीना जायेगा तो वह इसका आखिरी दम तक विरोध करेगा। इन विरोधों पर काबू करने के लिए सरकार ने नक्सलवाद का एक ऐसे हथियार के रूप में चिह्नित किया, जिसके नाम पर सारी असहमतियों को निर्ममता से दबाया जा सके। वक्त आने पर हुआ भी ऐसा ही। सिंगूर, नंदीग्राम, कलिंगनगर और लालगढ़ जैसे कई जगह पर देश में सेज के विरोध में लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण तरीकों से संघर्षरत आम भुक्त-भोगी जनता को नक्सली या नक्सल समर्थित बताकर निशाना बनाया गया। संभव है कि बाद में मजबूरन, उनमें से कई लोगों को आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाया हो, लेकिन इसके लिए सरकार ने ही उन्हें उकसाया। हिंसा जायज नहीं है, लेकिन क्या उसे सहना भी वाजिब है? परंतु सरकार ने पूर्णत: अहिंसक असहमतियों पर नक्सलवाद के नाम पर निशाना साधने से भी कोई गुरेज नहीं किया है। छत्तीसगढ़ में कार्यरत गांधीवादी एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम को ही बतौर उदाहरण लें, जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलवा जुडूम के बाद हुए विस्थापित आदिवासियों के पुनर्वास के सिफारिशों को लागू करवाने के लिए काम करती है। यह काम उन्हें तब मँहगा पड़ा, जब आश्रम के ढाँचे को गिरवाया दिया गया। सरकार ने इस आश्रम के लोगों द्वारा लिंगागिरी, बासगुडा और नेंद्रा में आदिवासियों के लिए भेजे जाने वाले चावल को यह आरोप लगाते हुए अपने कब्जे में ले लिया कि यह चावल नक्सलियों के लिए भेजे जा रहे थे। इस संगठन के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। याद ही होगा कि इसी सरकार ने आदिवासियों के स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए समर्पित चिकित्सक डॉ. बिनायक सेन पर भी नक्सली डाकिया का आरोप मढ़ कर लगभग दो सालों तक उन्हें सलाखों के पीछे रखा था।
छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2005 में अंत तक राज्य के औद्योगिक विकास के लिए एस्सार और टाटा उद्योग समूह के साथ गुप्त समझौते किये। सरकार इन औद्योगिक घरानों को ज़रूरी ज़मीन, खदानों का पट्टा, बिजली और पानी की सुविधा उपलब्ध करवाने को प्रतिबद्ध थी। टाटा के लिए लोहांडीगुडा में और धुरली व भंसी में एस्सार के लिए भू-अधिग्रहण होना तय था। इन जगहों पर इसका घोर विरोध हुआ। साथ ही, जगदलपुर, दांतेवाड़ा एवं अधिग्रहण के अन्य प्रस्तावित इलाकों में भी विरोध-प्रदर्शन हुए। पेसा क़ानून के अनुसार इन सारी ज़मीनों के बारे में फैसला लेने का अधिकार ग्राम सभा को है। ग्राम सभा के रजिस्टरों के छेड़छाड़ की गयी, जिसके कारण जनता का सरकार के प्रति गुस्सा भड़का। प्रतिरोध लगातार जारी रहा। जबावन, सरकार ने सलवा जुडूम के ज़ोर पर नक्सलियों का हौआ खड़ा करते हुए हज़ारों आदिवासियों को गाँवों खाली करने पर मज़बूर किया। बहाना बनाया गया कि यह शांति स्थापना के लिए जनता का स्वतः स्फूर्त प्रयास है, जिसमें आदिवासियों की नक्सलियों से रक्षा के लिए उन्हें गाँव से बाहर निकाला जा रहा है। लेकिन, हुआ यह कि फिर आदिवासियों को अपने गाँव लौटने से मनाही हो गयी। अगर फिर भी अब कोई अपने घर लौटने की, अपने खेतों में काम करने और शिविरों की अमानवीय ज़िंदगी से छुटकारा पाने की हिम्मत करता है तो उसे नक्सली घोषित कर दिया जाता है।
आदिवासी देश की ज़्यादातर खनिज संपदा के रखवाले रहे हैं। सरकार के नज़रों में आज इस संपदा की ज़रुरत वैश्विक पूँजी को फलने-फूलने के लिए है। ऐसी स्थिति में सरकारों की नज़रें आदिवसियों की पारंपरिक संपत्तियों पर गड़ी हुई है। सरकारें औद्योगीकरण के लिए निगमों के साथ गुप्त समझौते कर रही है। आदिवासियों से बेशक़ीमती ज़मीन छीन कर निगमों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। जल, जंगल और ज़मीन का अंधाधून लूट जारी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ते या मुफ़्त में ही बिजली, पानी, खनिज और सुरक्षा मुहैय्या कराने में सरकारें प्रतिबद्ध है। विकास के प्रति सरकार की यह सनक भारतीय लोकतंत्र के धराशाही होने की ओर इशारा करता है। विरोध और असहमतियों की सभी आवाज़ों को दबाने के लिए नए-नए हथकंडे तैयार किये जा रहे हैं। (समाप्त)
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छत्तीसगढ़ के पीयूसीएल, वनवासी चेतना आश्रम, दांतेवाड़ा और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क, दिल्ली के पीयूडीआर, मल्कानगिरी के मन्नाधिकार व ज़िला आदिवासी एकता संघ और उड़िसा के एक्शन एड के संयुक्त 15 सदस्यीय जाँच दल द्वारा हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ नक्सल विरोधी अभियान ग्रीन हंट के तहत 17 सितंबर को दांतेवाड़ा के गचनपल्ली में 6 लोगों की कोबरा, स्थानीय पुलिस, विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) और सलवा जुडूम के कार्यकर्त्ता बोड्डू राजा के नेतृत्व में हत्याएँ की गई। दांतेवाड़ा के ही गोमपद और चिंतागुफा में 1 अक्टूबर को फर्जी मुठभेड़ में भी कई हत्याएँ हुई। पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के हवाले से पता चलता है कि 8 नवंबर को रोहतास जिले से पाँच लोगों को पुलिस ने उठाया और इनमें से किसी को भी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने अगले दिन सोनभद्र के चोपन जंगलों में उनमें से एक कमलेश चौधरी को सीपीआई(माओवादी) का एरिया कमांडर बताकर फर्ज़ी मुठभेड़ में मार गिराया। बाकी चार लोग अब तक लापता हैं। ऐसी सैन्य कार्रवाईयों का सिलसिला पूरे देश में लगातार चल रहा है।
बीते दिनों, पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेन समिति(पीसीएपीए) ने पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जबरन भू-अधिग्रहन के ख़िलाफ़ हल्ला बोला था। इस जन आंदोलन को कई जाने-माने बुद्धिजिवियों के साथ-साथ ममता बैनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस और सीपीआई(माओवादी) का भी समर्थन प्राप्त है। इसके नेता छत्रधर महतो को मुख्यमंत्री की हत्या के कोशिश और सीपीआई(माओवादी) से संबंध के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। इस गिरफ़्तारी के विरोध में पीसीएपीए कार्यकर्ताओं ने झाड़ग्राम में भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन को चार घंटे तक घेरे रखा। उनकी संख्या इतनी थी कि अगर वे हिंसा पर उतारू होते तो रेल का एक भी यात्री या कर्मचारी ज़िंदा न बचने पाता। उन्हें रोकने के लिए न कोई सेना थी न कोई पुलिस। लेकिन किसी को हताहत करने के बजाय इस दौरान उन्होंने सरकार से उनके साथी छत्रधर महतो को रिहा करने की माँग रखी। एक ओर जहाँ, देश में रेल का घेराव विरोध प्रदर्शन का आम तरीका रहा है, वहीं सरकार ने इसे माओवादियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा और तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियारों से लैस इन आदिवासियों को नक्सली समझा। अगर सच में वे नक्सली ही हैं, जैसा कि सरकार का मानना है, तो इस पूरे प्रकरण ने यह स्थापित किया है कि देश में माओवादियों की एक सामर्थ्यपूर्ण राजनीतिक और सैन्य स्थिति है। साथ ही यह भी संदेश पुरज़ोर तरीके से गया है कि देश के कुछ हिस्सों में गृहयुद्ध की स्थिति है। हालांकि, सरकार ही स्वयं, स्पष्ट शब्दों में गृहयुद्ध की स्थिति से इंकार करती है।
भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक प्रतिवेदनों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के मध्य विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति व जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति मौज़ूद है। दरअसल इस स्वीकारोक्ति के बाद भी सरकार का अपनी अकर्मण्यता से उबरने का कोई प्रयास नहीं दिखता है। इसके बजाय, वो यथास्थिति बनाये रखने के सारे संभंव प्रयास में लिप्त है। कोई अगर सरकार की मनमानियों का गंभीर विरोध करे, तो पूरा सरकारी तंत्र उसको नक्सली सिद्ध करने पर तुल जाता है।
पूरी सरकारी मशनरी ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा मान लिया है और ऐसा मानना, उनके लिए आप्तवचन है। वर्ष 2005-06 में सरकार ने कई महत्वाकांक्षी विकास परियोजनाओं के मद्देनज़र कुछ अहम फैसले लिए। इसी वर्ष नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा संबंधी व्यय स्कीम में केन्द्र सरकार ने नक्सली राजनीति के असर वाले प्रदेशों के लिए प्रतिपूर्ति की दर पचास प्रतिशत से बढ़ाकर शत- प्रतिशत कर दिया गया। इस राशि के अग्रिम भुगतान की व्यवस्था की गई। राज्यों की सरकारों को पुलिस आधुनिकीकरण स्कीम के तहत आधुनिक हथियारों, मोबीलिटी, संचार उपकरण और प्रशिक्षण के आधारभूत ढाँचे के उन्नयन हेतु खर्च राशि के कम से कम तीन-चौथाई प्रतिपूर्ति का इंतज़ाम किया गया। साथ ही, नौ राज्यों के 76 नक्सल प्रभावित जिलों को प्रति जिला दो करोड़ रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से पुलिसिया ढाँचे को मज़बूत करने के लिए मिलनी शुरू हुई। नक्सल प्रभावित राज्यों में, प्रत्यक्ष तौर पर, युवाओं को रोज़गार प्रदान करने के लिए इंडिया रिज़र्व बटालियनों के गठन का फैसला लिया गया। लेकिन, असलियत यह थी यह राज्यों में पीड़ित जनता के असहमति के स्वर को दबाने के लिए पीड़ित लोगों में ही कुछ को सुरक्षा व्यवस्था में शामिल करना के जुगाड़ था । छत्तीसगढ़ में ’सलवा जुडूम’, झारखंड में ’नागरिक सुरक्षा समिति’, तथा बंगाल के जंगल महल क्षेत्र में ’संत्रास प्रतिरोध समिति’, ’घोस्कर वाहिनी’ और ’हरमद बलो’ जैसे ग्राम सुरक्षा या नागरिक सुरक्षा समितियों के लिए केन्द्र सरकार की ओर से एकमुश्त अनुदान और विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के लिए मानदेय का प्रबंध किया गया। फलस्वरूप आमलोगों पर अत्याचार बढ़ा। “फूट डालो, शासन करो” की नीति अपनाते हुए सरकार ने किसानों-आदिवादियों को अपनी ज़मीन और रोज़गार से विस्थापित करने के लिए उनमें से ही कुछ लोगों का इस्तेमाल किया। लोगों के मन आतंक पैदा करने के लिए जनसंहार, आतंक, बलात्कार तथा घरों को जलाने की कई वारदातें हुईं।
वर्ष 2005-06 में किए गये इन सब इंतज़ामात का सबसे बड़ा कारण बड़े संख्या में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) की स्थापना करने हेतु तैयारियाँ थी। किसानों के लिए ज़मीन और आदिवासियों के लिए जंगल उनके जीवन और आजीविका का आधार है। सरकार सेज़ों, बाँधों और औद्योगिकरण के जरिए जिस विकास का सपना देखती है, उसमें किसानों को ज़मीन से और आदिवासियों को जंगल से महरूम होना पड़ता है। किसी की चाहे कोई भी विचारधारा हो, लेकिन जब उससे उसके जीवन का आधार छीना जायेगा तो वह इसका आखिरी दम तक विरोध करेगा। इन विरोधों पर काबू करने के लिए सरकार ने नक्सलवाद का एक ऐसे हथियार के रूप में चिह्नित किया, जिसके नाम पर सारी असहमतियों को निर्ममता से दबाया जा सके। वक्त आने पर हुआ भी ऐसा ही। सिंगूर, नंदीग्राम, कलिंगनगर और लालगढ़ जैसे कई जगह पर देश में सेज के विरोध में लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण तरीकों से संघर्षरत आम भुक्त-भोगी जनता को नक्सली या नक्सल समर्थित बताकर निशाना बनाया गया। संभव है कि बाद में मजबूरन, उनमें से कई लोगों को आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाया हो, लेकिन इसके लिए सरकार ने ही उन्हें उकसाया। हिंसा जायज नहीं है, लेकिन क्या उसे सहना भी वाजिब है? परंतु सरकार ने पूर्णत: अहिंसक असहमतियों पर नक्सलवाद के नाम पर निशाना साधने से भी कोई गुरेज नहीं किया है। छत्तीसगढ़ में कार्यरत गांधीवादी एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम को ही बतौर उदाहरण लें, जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलवा जुडूम के बाद हुए विस्थापित आदिवासियों के पुनर्वास के सिफारिशों को लागू करवाने के लिए काम करती है। यह काम उन्हें तब मँहगा पड़ा, जब आश्रम के ढाँचे को गिरवाया दिया गया। सरकार ने इस आश्रम के लोगों द्वारा लिंगागिरी, बासगुडा और नेंद्रा में आदिवासियों के लिए भेजे जाने वाले चावल को यह आरोप लगाते हुए अपने कब्जे में ले लिया कि यह चावल नक्सलियों के लिए भेजे जा रहे थे। इस संगठन के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। याद ही होगा कि इसी सरकार ने आदिवासियों के स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए समर्पित चिकित्सक डॉ. बिनायक सेन पर भी नक्सली डाकिया का आरोप मढ़ कर लगभग दो सालों तक उन्हें सलाखों के पीछे रखा था।
छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2005 में अंत तक राज्य के औद्योगिक विकास के लिए एस्सार और टाटा उद्योग समूह के साथ गुप्त समझौते किये। सरकार इन औद्योगिक घरानों को ज़रूरी ज़मीन, खदानों का पट्टा, बिजली और पानी की सुविधा उपलब्ध करवाने को प्रतिबद्ध थी। टाटा के लिए लोहांडीगुडा में और धुरली व भंसी में एस्सार के लिए भू-अधिग्रहण होना तय था। इन जगहों पर इसका घोर विरोध हुआ। साथ ही, जगदलपुर, दांतेवाड़ा एवं अधिग्रहण के अन्य प्रस्तावित इलाकों में भी विरोध-प्रदर्शन हुए। पेसा क़ानून के अनुसार इन सारी ज़मीनों के बारे में फैसला लेने का अधिकार ग्राम सभा को है। ग्राम सभा के रजिस्टरों के छेड़छाड़ की गयी, जिसके कारण जनता का सरकार के प्रति गुस्सा भड़का। प्रतिरोध लगातार जारी रहा। जबावन, सरकार ने सलवा जुडूम के ज़ोर पर नक्सलियों का हौआ खड़ा करते हुए हज़ारों आदिवासियों को गाँवों खाली करने पर मज़बूर किया। बहाना बनाया गया कि यह शांति स्थापना के लिए जनता का स्वतः स्फूर्त प्रयास है, जिसमें आदिवासियों की नक्सलियों से रक्षा के लिए उन्हें गाँव से बाहर निकाला जा रहा है। लेकिन, हुआ यह कि फिर आदिवासियों को अपने गाँव लौटने से मनाही हो गयी। अगर फिर भी अब कोई अपने घर लौटने की, अपने खेतों में काम करने और शिविरों की अमानवीय ज़िंदगी से छुटकारा पाने की हिम्मत करता है तो उसे नक्सली घोषित कर दिया जाता है।
आदिवासी देश की ज़्यादातर खनिज संपदा के रखवाले रहे हैं। सरकार के नज़रों में आज इस संपदा की ज़रुरत वैश्विक पूँजी को फलने-फूलने के लिए है। ऐसी स्थिति में सरकारों की नज़रें आदिवसियों की पारंपरिक संपत्तियों पर गड़ी हुई है। सरकारें औद्योगीकरण के लिए निगमों के साथ गुप्त समझौते कर रही है। आदिवासियों से बेशक़ीमती ज़मीन छीन कर निगमों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। जल, जंगल और ज़मीन का अंधाधून लूट जारी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ते या मुफ़्त में ही बिजली, पानी, खनिज और सुरक्षा मुहैय्या कराने में सरकारें प्रतिबद्ध है। विकास के प्रति सरकार की यह सनक भारतीय लोकतंत्र के धराशाही होने की ओर इशारा करता है। विरोध और असहमतियों की सभी आवाज़ों को दबाने के लिए नए-नए हथकंडे तैयार किये जा रहे हैं। (समाप्त)
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