कुल पेज दृश्य

शनिवार, 20 अगस्त 2011

क्या है भारतीय होने का मतलब

- देवाशीष प्रसून

कौन है भारतीय और क्या है भारतीय होने का मतलबसवाल अहम है और जवाब परेशान करने वाला। दो घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगा। पहली तब की है, जब मैं आठवीं कक्षा में था। एक शिक्षक थे। वह बार-बार विद्यार्थियों को असल भारतीय होने की दुहाई देते थे। कहते थे अगर तुम असल भारतीय हो तो तुम्हें कर्मठ, ईमानदार, नेक और सच्चा होना चाहिए। गो कि जो कामचोर, बेईमान, बुरा और झूठा है, वह भारत का नागरिक तो हो सकता है, पर उसे असल भारतीय नहीं कहा जा सकता। बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह सोच एक राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा थी, लेकिन असल भारतीय होने का क्या मतलब है, यह गुत्थी अब तक अनसुलझी है। दूसरी घटना पिछले महीने की है, मैं एक मित्र से बात कर रहा था। बातों-बातों में भारतीयता को परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी। मोटे तौर पर जो बात सामने आई वह यह थी कि जो भारत में रहता है, वह भारतीय है। यही कारण है कि भारतीय होने का डोमेन या फलक बड़ा है, जिसमें संस्कृतियों का वैविध्य शामिल है, भाषाओं की बहुलता का भी समावेश है और जहां एक नहीं; धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर कई पहचान हैं।

जाहिर-सी बात है, जहाँ हम रहते हैं, वह जगह धीरे-धीरे हमारी पहचान का हिस्सा भी बन जाती हैं। इलाहाबाद की कोई लड़की लखनऊ चली जाती है, तो भले उसका कोई अच्छा और प्यारा-सा नाम हो, लेकिन उसे जानने-पहचाने वालों की नजरों में उस लड़की का एक बड़ा परिचय यह भी रहता है कि फलां लड़की इलाहाबाद की है। कई बार आप जाहिर न करे कि आप मन में किसी की छवि कैसे बनाते हैं, पर अवचेतन में उस व्यक्ति का इलाका उसकी पहचान का एक घटक जरूर होता है। कुछ समय पहले तक कुछ इलाकों में बहुओं को उसके शहर, जवार आदि के नाम से ही बुलाया जाता रहा है और आज भी कई जगहों पर परंपरा बरकरार है। यही कारण था कि ब्याह के बाद मिथिला से अवध आई सीता को मैथिली कहने वाले लोगों की कमी नहीं है। ऐसा सिर्फ औरतों के साथ ही नहीं होता, पुरुषों के लिए भी उसका इलाका उसकी पहचान का बड़ा आधार बनता है। आपने दाग देहलवी, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़ लखनवी, साहिर लुधियानवी जैसे कई अज़ीम शायरों के नाम के साथ उस शहर का तखल्लुस लगाते सुना होगा, जहां के वो हैं।
दरअसल, आप जहां रहते है, वहां की एक खास रहन-सहन का आप हिस्सा होते हैं। आप अपने इलाके में रचे-बसे खास तरह के संस्कारों को आत्मसात करते हैं। खास तरह की भाषा बोलते हैं और बातचीत का लहजा भी खास होता है। आपकी मान्यताओं में भी आपके क्षेत्र की झलक दिख सकती है। कहना यह है कि वह ठौर जहां से आप आते हैं, जहां आपका पालन-पोषण हुआ और आपकी मुकम्मल शख्सियत तैयार हुई, वहां की छाप जाने-अनजाने में आपकी पहचान का हिस्सा बन जाती हैं। पहचान का मतलब है, वो खास बात जो किसी एक को दूसरे से अलग बताती हो। भारतीयता अगर एक पहचान है तो भारतीयों में ऐसी क्या खास बात है, जो उसे दूसरों से अलग करती है?

फिर, सवाल घूम-फिर कर वही है कि भारतीय होने का क्या मतलब है भारत लाखों वर्ग मील में फैला वो भूखंड है, पर यहां एक तरह के लोग नहीं रहते। कुछ लोग आर्य नस्ल से ताल्लुक रखने का दावा करते हैं तो कुछ द्रविड। इनके अलावा आदिवासियों की भी अच्छी संख्या है। असलियत तो यह भी है कि सदियों से साथ रहते कई नस्लों आपस में इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचाना भी नहीं जा सकता। उत्तर में हिमालय में रहने वालों की अलग संस्कृति है तो सिंधु और गंगा के मैदानी इलाकों में कई तरह के लोग रहते हैं। दक्षिण भारत में अलग रहन-सहन है और पूर्वी व उत्तर पूर्वी भारत की अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें। भाषाओं की बात करें तो 29 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें बोलने वाले दस लाख से अधिक भारतीय हैं। 60 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें कम से कम लाख लोग तो बोलते ही हैं। यही नहीं, इनसे इतर 122 वो भाषाएं जिसे बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हजार है। यानी भाषा के आधार पर भारतीयता की कोई एक पहचान नहीं बनती है। ज्यादातर हिंदू मान्यताओं को मानने वाले भारतीयों की बड़ी के बावजूद हिंदू होना भी भारतीय होना नहीं है, क्योंकि मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध व जनजातीय मान्यताओं में आस्था रखने वाले भी भारतीय हैं। इनके अलावा लाखों नास्तिक लोगों से भी भारतीय होने की पहचान जुड़ी है।

तो फिर हमें उन मूल्यों व गुणों को तलाशना होगा जो कमोबेश सभी भारतीय में विद्यमान है। चरित्र का ऐसा गढ़न जो राष्ट्रीय नीतियों, बाज़ार और संस्कृति में होते फेरबदल के साथ लगभग सभी लोगों में आया हो। एक खास सामाजिक मूल्य की खोज, जिसका होना किसी के भारतीय होने को परिभाषित कर सके। भारत को अगर हम तीन अलग कालखंडों में बांटकर देखें तो बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आती है कि भारतीयता का विकास कैसे हुआ है।

अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भारत कई छोटी-छोटी हुकुमतों में बंटा था और सबकी अपनी-अपनी पहचान थी। क्षेत्र, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर इन छोटी हुकुमतों और इनमें रहने वाले लोगों को पहचाना जाता रहा होगा। उस समय भारत का आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में विकास नहीं हुआ था। फिर भी, एक खास बात थी जो उस वक्त के लोगों का एक पहचान निर्मित करती थी, वो था समाज का तानाबाना। समाज में उपस्थित सत्ता संबंध और परंपराएं। लेनदेन के पारंपरिक तरीके और विवाह संस्था। समाज की ये सारी चीजें राजा और उसकी शासन व्यवस्था के मुकाबिले अधिक स्थिर थी। सुनील खिलनानी द आइडिया ऑव इंडिया नामक किताब में लिखते हैं कि भारत में औपनिवेशिक सत्ता के जड़ जमाने से पहले राज्य की अवधारणा नहीं थी, उपमहाद्वीप में नाना प्रकार की संस्कृतियां और अर्थ-व्यवस्थाएं उपलब्ध थीं। भारतीय समाज व्यवस्था ने एक ऐसा ढांचा विकसित कर लिया था, जिसके लिए पूरे भारत में एक राज-सत्ता का बनना कोई मायने नहीं रखता था। खिलनानी का मानना है कि ऐसी स्थिति समाज में पैवस्त जातियों के मजबूत जड़ों के कारण थी। कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों के शासन से ठीक पहले भारतीय होने का मतलब यहां के बाशिंदे होने के साथ धर्म व जाति में अगाध श्रद्धा का होना और परंपराओं से अपना जीवन संचालित करना भर था।

अंग्रेजों ने जब भारत में अपना पैर जमाया तो सबसे बड़ा काम यह किया कि भारत को राष्ट्र के रूप में विकसित किया। पहली बार यहां के लोगों का सामना सदियों से सर्वशक्तिमान रहे जातीय समाज व्यवस्था से अधिक मजबूत राज्य सत्ता से हुआ। अंग्रेजों ने एक पूरे तंत्र का निर्माण किया, जिसमें न्यायालय, पुलिस व्यवस्था, स्कूल-कॉलेज, प्रशासनिक ढ़ांचा और समेकित अर्थव्यवस्था शामिल थी। इसने धर्म और जाति से इतर भी यहां लोगों की पहचान गढ़ने का काम किया। व्यवस्था जब पश्चिमी समाज से आयातित थी तो इसमें कौन शक कि नई भारतीयता पर पश्चिमी समाज का छाप न हो, लेकिन इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था। आधुनिकीकरण का एक दौर चला और कुछ लोगों को यूरोपीय ज्ञान को पढ़ने-समझने का मौका मिला। लोकतांत्रिक व समतामूलक समाज के सपने देखे जाने लगे और लोगों की अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी। भारत में जातीयता की शिकंजे कुछ कमजोर हुए, जिनसे देश में गिने-चुने लोगों की ही भले एक नए भारतीयता ने जन्म लिया। कमोबेश यही भारतीयता अब तक कायम है, अंतर बस इतना है कि धीरे-धीरे जातीय बंधनों के तार ढीले होते जा रहे हैं, समाज रूढ़ियों को नकारने लगा है। आज बतौर भारतीय अदिक विवेकी और संवेदनशील हो रहे हैं, लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि समाज अब अमेरीकी संस्कृति के अंधानुकरण में फंसता जा रहा है। बड़े पैमाने पर आज भी भारतीय मानस अंग्रेजों द्वारा बोई गुलाम संस्कृति से मुक्त नहीं हो पाया है। निष्कर्षतभारतीय होने का मतलब सामंती और जातीवादी मूल्यों से मुक्त होने की प्रक्रिया में लगा, एक विकासशील समाज का हिस्सा है। पुरातनपंथी बंधन अभी टूटे नहीं है, लेकिन कमजोर तो हुए हैं। उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते हुए भी आज का भारतीय अपने से इतर संस्कृति की नक़ल करने के भाव से उबर नहीं पाया है।

बहरहाल, पहचान निर्मिति के समाजशास्त्र को दूसरे तरीके भी समझा जा सकता है। इसे 'स्व' और 'अन्य' में बांटकर भी समझा जा सकता है। 'स्व' का मतलब मैं और मेरे अलावा बाकी सब 'अन्य'। भारतीय होने का मतलब है कि वह अंग्रेज या अमेरीकी या रूसी नहीं है। याने भारतीय 'स्व' में वे सारे गुण होंगे, जो उसे दूसरे देशों के लिए 'अन्य' बनाएंगे। इसमें काबिल-ए-गौर है कि भारत के संदर्भ में बाकी 'अन्य' में से एक ऐसा एक 'अन्य' होता है, जिससे या तो वह प्रेरणा ग्रहण करता है या बैर निभाता है। दोनों ही स्थितियों में 'स्व' याने भारतीयता का चरित्र प्रभावित होता है। अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय 'स्व' का 'अन्य' कोई नहीं था। भले ही बाहरी दुनिया के साथ कारोबार होते रहे हो, वृहतर समाज पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कटा था। ऐसे में भारतीयों का 'अन्य' परलोक या ईश्वर से संबंधित था, तभी तो धर्म और जातियां इतनी हावी थी। अंग्रेजों के समय 'अन्य' अंग्रेज बने। फलतअंग्रेजी सभ्यता का भारतीयता पर गजब का प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के जाने के बाद याने भारत के स्वाधीन होने के बाद भारत के 'स्व' में कई 'अन्य' आए और उनका प्रभाव भारतीयता पर स्पष्ट दिखता है। मसलन, शुरूआती दौर में भारतीयता ने रूस से प्रेरणा ग्रहण की, तो इसका अमेरीका विरोधी चरित्र उभरा। फिर एक समय आया जब भारत पाकिस्तान से दुश्मनी निभा रहा था, उस वक्त के भारतीय अपनी तुलना पाकिस्तान से करते हैं। उदारीकरण के बाद भारत का प्रेरक 'अन्य' अमेरीका बना, इसलिए भारतीय  'स्व' में अमेरीका के प्रति सद्भाव झलकता है।

'स्व' और 'अन्य' के आधार पर परिभाषित भारतीयता भी उसी ओर इशारा करती है, जहां हम पहले निष्कर्ष पर पहुंचे थे। लेकिन संपूर्णता में अगर कहे तो कई पिछड़ी संस्कृतियों के अवशेषों के बावजूद कुछ तो है, जो भारतीय होने को सम्मान का विषय बनाती है। यह वही बात है जो आठवीं कक्षा में मेरे शिक्षक सिखाया करते थे। मैं इसे यों कहूंगा कि भारतीय होने में जितनी भी खामी है, वह एक तरह का भटकाव है और हमेशा ही सकारात्मक धारा मौजूद रही है, जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और समतामूलक भारतीयता के निर्माण के लिए प्रयासरत रही है। उसी धारा के बदौलत कई भारतीय मिल जाएंगे जो मानवीय जीवन का आदर्श स्थापित कर रहे हैं।

अहा! ज़िंदगी (अगस्त 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। 
इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें- 
अहा! ज़िंदगी, 
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग, 
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 

शनिवार, 23 जुलाई 2011

खूबसूरती, इंसानियत के हक में


- देवाशीष प्रसून -

शायद खूबसूरत दिमाग का होना अच्छा है, 
लेकिन इससे अज़ीम तोहफा खूबसूरत दिल का होना है।
साल 2001 में आई हॉलीवुड की एक बेजोड़ फिल्म ए ब्यूटीफुल माइंड का यह संवाद बताता है कि विलक्षण और प्रखर बुद्धि के साथ संवेदनशील दिल का मौज़ूद होना ही खूबसूरत दिमाग को बनाता है। रॉन हॉवॉर्ड निर्देशित यह फिल्म अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित, मशहूर गणितज्ञ जॉन फोर्ब्स नैश पर बनी थी। फिल्म 1998 में आई पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित इसी नाम की एक किताब पर आधारित है। फिल्म में बखूबी दिखाया गया है कि शिजोफ्रेनिया जैसी गंभीर दिमागी बीमारी से पीड़ित नैश नेकी और विलक्षण मेधा के कारण बस इसलिए खूबसूरत दिमाग वाला इंसान कहलाता है, क्योंकि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी वह इंसानियत की भलाई और उन्नति के लिए अपने दिमाग का लगातार इस्तेमाल करता रहा है। दिमाग की खूबसूरती, चतुराई और तिकड़मों में नहीं है, खूबसूरती, उसकी सीरत में है, इस बात में है कि कोई मानवता के हित में कितने बड़े पैमाने पर तीक्ष्ण बुद्धि का इस्तेमाल कर रहा है। 

बात खूबसूरत दिमाग वाले एक अर्थशास्त्री से शुरू हुई है। पर, अर्थशास्त्र के क्षेत्र में और भी कई महान लोगों ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, जिनके ज़हीन दिमागों ने दुनिया भर के लोगों की ज़िंदगी खुशनुमा बनाने की खूब सारी कोशिशें की हैं। ऐसे में हम, खूबसूरत दिमाग वाले एडम स्मिथ, एल्फ्रेड मार्शल, कार्ल मार्क्स, कीन्स और डेविड रिकॉर्डो को कैसे भूल सकते हैं, जिन्होंने अपने अध्ययनों के जरिए अर्थशास्त्र की ऐसी नींव तैयार की, जिस पर आधुनिक अर्थशास्त्र का पूरा ढ़ाँचा टिका हुआ है।

बात सिर्फ अर्थशास्त्र की नहीं है। जिनके दिमाग खूबसूरत होते हैं, वे मानव जाति के कल्याण के लिए हर हालत में प्रयासरत रहते हैं। दरअसल, किसी की दिमागी खूबसूरती के चिर-यौवन के लिए हमेशा लोगों का भला सोचते रहना जरूरी है। अब देखिए न! विज्ञान, राजनीति, कला, दर्शन और साहित्य के क्षेत्रों में भी अपने सुंदर दिमाग से लोगों की ज़िंदगी आरामदेह और आसान बनाने वाले लोगों की लंबी फेहरिस्त है। इस फेहरिस्त में सबसे पहले अरस्तु का नाम आता है। अरस्तु को सिर्फ भौतिकी, जीवविज्ञान और जंतुविज्ञान जैसे विज्ञान के विषयों में ही महारत नहीं थी, बल्कि वह दर्शनशास्त्र, तत्वमीमांसा, तर्कशास्त्र, भाषाविज्ञान, संप्रेषण, संगीत, कविता, रंगमंच, नीतिशास्त्र और राजनीति जैसे विषयों में भी पारंगत थे। इन विषयों के बारे में अरस्तु ने प्रारंभिक स्तर पर खूब अध्ययन और लेखन कर एक तरह से इन विषयों के अध्ययन के लिए ज़मीन तैयार की है।

सिर्फ वैज्ञानिकों की बात करें तो सबसे पहले सर आइजेक न्यूटन याद आते हैं, जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण के नियमों और गति के तीन सिद्धांतों की खोज करके विज्ञान को समझने की दिशा ही बदल दी थी। न्यूटन भौतिकी के अध्येता होने के साथ-साथ गणित, खगोलशास्त्र, रसायन और प्राकृतिक दर्शन में भी अधिकार रखते थे। खगोलशास्त्र के पिता कहे जाने वाले गैलेलिओ गैलिली भी खूबसूरत दिमाग के मालिक थे। उन्होंने दूरबीन का ही निर्माण नहीं किया, बल्कि खगोलशास्त्र को समझने के लिए महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किए। मानव अस्तित्व के बारे वैज्ञानिक सोच को चिंतन के केंद्र में लाने का अहम काम चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन ने किया था। खूबसूरत दिमाग वाले एक और वैज्ञनिक थे - अलबर्ट आइंस्टाइन, जिन्होंने सापेक्षता के सिद्धांत को लाकर भौतिकी की दुनिया में क्रांति ही ला दी। विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले कई और खूबसूरत दिमाग हैं। सबका नाम लेना संभव नहीं है, लेकिन थॉमस एडिशन, स्टीफन हॉकिन्स, लुई पाश्चर, जगदीश चंद्र बोस, और मारकोनी पहली कतार में खड़े लोग हैं।

मानव हित में जितनी मेहनत विज्ञान में दिमाग लगाने वाले लोगों ने की है, राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का योगदान उनसे कम नहीं है।  इस क्षेत्र के काम में जुटे खूबसूरत दिमाग वाले लोगों में संयुक्त राज्य अमेरीका के सोलहवें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन याद आते हैं, जिनका नाम लोकतांत्रिक राजनीति में आज भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। लिंकन के साथ-साथ जिस राजनीतिज्ञ को खूबसूरत दिमाग के लिए पूरी दुनिया में याद किया जाता है, वह कोई और नहीं, हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हैं। गाँधी के अलावा भारत के जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह और वल्लभ भाई पटेल को दक्षिणी एशिया की राजनीति में काम करने वाले, खूबसूरत दिमाग वाले लोगों की श्रेणी में रखा जा सकता है। बर्तानिया राजनीति के बड़े नाम विस्टन चर्चिल भी दुनिया भर के लोगों के हित में काम करने वाले खूबसूरत दिमाग के मालिक थे। इनके अलावा, राजनीति में व्यापक जन समुदाय का हित सोचने का काम करने वाले लोगों में लेनिन, वाशिंग्टन, रूज़वेल्ट और माओ के साथ-साथ फिदेल कास्ट्रो, कोफी अन्नान, नेल्सन मंडेला, आन सान सू की और यासर अराफात आदि का भी नाम लिया जा सकता है। इनमें से कई नेताओं का चित्रण नायकों के रूप में होता है और कइयों का खलनायक के रूप में, परंतु यह अपनी-अपनी समझदारी पर निर्भर है कि किसको कोई कैसा मानें। जो भी हो, तमाम राजनीतिक समर्थन या विरोध के बावजूद ये दुनिया में राजनीतिक काम करने वाले खूबसूरत दिमाग रहे हैं।

विज्ञान और राजनीति से इतर खूबसूरत दिमाग वाले लोगों ने रंग, मिट्टी और पत्थरों में खूबसूरती भरने का काम भी किया है। जी हाँ, इंसानों के बेहतर जीवन के लिए कला का अपना विशेष महत्व है। चित्रकला या मूर्तिकला के क्षेत्र में खूबसूरत दिमाग वाले लोगों की कमी नहीं है। इन लोगों की लंबी फेहरिस्त में प्रमुखता से आने वाले नाम हैं – माइकल एंजेलो, रिज्न, पाब्लो पिकासो, लिओनार्डो द विंसी, वॉन गॉग और जेएमडब्यू टर्नर। इसी तरह संगीत की दुनिया में काम करने वाले बीथोवन, मोजार्ट और बाख को नहीं भूला जा सकता, जिन्होंने अपने खूबसूरत दिमाग के बदौलत महान संगीत की रचना की। भारत में भी संगीत की महानता छूने वाले लोगों की परंपरा रही है। मध्यकाल के तानसेन और बैजू बावरा के अलावा संगीतज्ञों की एक आधुनिक परंपरा भी भारत में रही है, जिसने अपने सुमधुर संगीत से लोखों-करोड़ो लोगों का मन मोहा है।

कला का एक ऐसा क्षेत्र है, जो विचारवान लोगों के बीच अहम भूमिका रखता है, वह है साहित्य। साहित्य कला के साथ नए विचारों को प्रस्तुत करने और पुराने विचारों के बारे में फिर से सोचने-समझने का मंच रहा है। साहित्य की दुनिया भी खूबसूरत दिमाग वाले लोगों से भरी पड़ी है। कुछ का नाम लेने का मतलब बाकियों को कम आंकना है, फिर भी कुछ नाम ऐसे हैं जिनके दिमाग की खूबसूरती पर किसी को संदेह न होगा। साहित्य में विशेष स्थान रखने वाले - विलियम शेक्सपीयर, कालिदास, रविंद्रनाथ ठाकुर, जॉर्ज बर्नाड शॉ, खलील जिब्रान, मैक्सिम गोर्की, बरतोल्त ब्रेख़्त, फ्रांज काफ्का, डी.एच. लॉरेंस, जैक लंडन, मोहम्मद इक़बाल, नज़ीम हिक़मत, लोर्का, गैबरियल गार्सिआ मार्ख़ेज, व्लादीमीर नावोकोव, वी. एस. नाइपॉल, आग्डेन नैश, पाब्लो नेरूदा, ओरहाम पामुक, हैराल्ड पिंटर, रिल्के, सलमान रुश्दी, एच. जी, वेल्स और स्टीपन ज़्विग जैसे सैकड़ों नाम हैं।

अर्थशास्त्र, विज्ञान, राजनीति, कला और साहित्य जैसे मानव जीवन को संचालित करने वाले तमाम विषयों में सबसे खास उस विषय के अध्ययन का नज़रिया होता है। इसी नज़रिए को दर्शनशास्त्र के रूप मे व्याख्यायित किया जाता है। वैसे तो अरस्तु, प्लेटो और सुकरात को पाश्चात्य दर्शन के पिता के रूप में देखा जाता है, लेकिन आधुनिक पश्चिमी समाज में दर्शनशास्त्र का आधार स्तंभ डेसकार्टेस को माना जाता है। इनके अलावा दर्शन का अध्ययन करने वाले खूबसूरत दिमाग रहे हैं- हीगल, नीत्शे और कांट के। पूरब के दार्शनिकों में खूबसूरत दिमाग वाले लोगों की लंबी परंपरा रही है, जिन्होंने आस्तिकता और भौतिकता, दोनों ही का मार्गों में पर्याप्त ज्ञान बटोरना का काम किया। गौतम बुद्ध को पूरबी दुनिया के दार्शनिकों का एक व्यापक असर रखने वाला व्यक्ति माना जा सकता है। 

कुल मिलाकर फिर वही बात दोहरानी पड़ेगी कि चाहे कोई समय रहा हो या कोई देश, दुनिया को बेहतर बनाने वाले दिमाग जन्म लेते रहे हैं और उनकी दुनिया को बेहतर बनाने की कवायद ही उन्हे खूबसूरत दिमाग का मालिक बनाती हैं। क्योंकि, खूबसूरती इंसानियत को बचाए रखने की संभावना का ही नाम है। 

एक बार एक लड़की ने अपने पुरुष मित्र से पूछा कि मुझमें वह कौन-सी बात है, जो तुम्हें सबसे ज्यादा पसंद है? लड़के ने कहा तुम्हारे ज़ेहन की खूबसूरती, जो हर वक्त आसपास उजाला किए रहती है। वह समझी नहीं कि ज़ेहन की खूबसूरती का क्या मतलब था। लड़के ने समझाया कि आज की इस मतलबपरस्त दुनिया में ख़ुद के अलावा किसी और की भलाई के लिए सोचना ही जेहन की खूबसूरती है। वह दिमाग ही खूबसूरत है, जो मानवता के हित में सोचते रहता है, बिल्कुल तुम्हारी तरह। फिर लड़के ने बड़े प्यार से कहा कि तुम मुझे पसंद हो, क्योंकि तुम में इंसानियत को बचाए रखने की संभावनाएँ बची हुई हैं।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

ख़ूबसूरती जीने की ललक है...

देवाशीष प्रसून

अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के  भोर की नीहारन्हायी कुंई,
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि  मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं  कूच।

अज्ञेय ने अपने समय की ही नहीं, बल्कि बाद की पीढ़ियों की अनुभूतियों को भी शब्द देने का काम किया है, तभी तो जब बात सुंदरता की शुरू करनी थी तो सहसा उनके ये शब्द दिमाग के तहख़ानों से निकल कर सबसे पहले सामने आए। हो सकता है कि इस कविता का संदर्भ दूसरा रहा हो, लेकिन अहम बात है कि कवि ने बख़ूबी यह कहा है कि ख़ूबसूरती को हम प्रतीकों में पहचानते आए हैं और यह प्रतीक देश-काल, समाज-संस्कृति और आर्थिक-राजनीतिक माहौल के साथ बदलते रहते हैं। गो कि इनमें से किसी एक ने अपना जरा-सा भी रंग बदला कि जनमानस में व्याप्त ख़ूबसूरती के पैमाने ख़ुद-ब-ख़ुद बदलने लगे।
इंसान हो या कोई जानवर, सभी की अपनी पसंद-नापसंद होती है। किसी को कोई ख़ूबसूरत लगता है; तो किसी और को कोई दूसरा। इंसान मूलतः एक खोजी जीव है, जो हमेशा कारणों की खोज करते रहा है। तभी तो, तमाम तरह की जिज्ञासाओं को शांत करने के साथ-साथ, इंसान ने अपनी अनुभूतियों के भी कारणों को खोजने का प्रयास किया है। दुनिया के सभी देशों, तमाम समयों और संस्कृतियों में ख़ूबसूरती के अपने मानक रहे हैं और इन सभी मानकों की दार्शनिक व्याख्या भी रही है। अगरचे, मोटे तौर पर पूछें कि ख़ूबसूरती क्या है, तो एक सीधा-साधा और सर्वमान्य-सा ज़वाब होगा कि वह कुछ भी जो दिखने-सुनने में अच्छा लगे या उसके बारे में सोचने आदि से इंद्रियों और दिमाग को आनंद मिलता हो या अंतरात्मा को संतोष की अनुभूति होती है, वह ख़ूबसूरत है। लेकिन, अहम सवाल यह है कि ऐसा क्या है और किस कारण वह ऐसा है कि उसमें किसी की इंद्रियों और दिमाग को आनंद देने की क्षमता विकसित हो गई है? जाहिर-सी बात है कि इसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं, जो अलग-अलग देशों और अलग-अलग समयों के कारण अपना एक अलग स्वरूप रचते हैं।
भारत की बात करें तो यहाँ पौराणिक और दार्शनिक तौर पर सुंदरता के बारे में सत्यम् शिवम् सुंदरम्का दर्शन प्रचलित रहा है। मतलब यह है कि जो सत्य है, वही शिव है, यानी शुभ है और सही अर्थ में वही सुंदर भी है। भारतीय चिंतन परंपरा में सुंदरता की पूरी अवधारणा भाव और रस के रूप में व्याख्यायित होती रही है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र के छठे और सातवें अध्याय में इसके बारे में विस्तारपूर्वक लिखा और इससे ही, भारतीय सौंदर्यशास्त्र की आधारभूत अवधारणाएँ बनीं। भरत मुनि के मुताबिक किसी भी कला की सुंदरता उसके भाव और रस पर आधारित रहती है।
यह तो बात भारत की रही, पर यूनानी सभ्यता में भी ख़ूबसूरती के बारे में ख़ूब चिंतन हुआ है। पायथागोरस सुकरात के समय से पहले के दार्शनिक हैं। वह एक जाने-माने गणितज्ञ और दार्शनिक थे। यह वही पायथागोरस हैं, जिनके नाम से त्रिकोणमिति का पायथागोरस थेओरम आज भी मशहूर है। उनका मानना था कि ख़ूबसूरती और गणित के बीच में गहरा रिश्ता होता है। मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति या वस्तु के अस्तित्व का गणितीय आयाम अगर सटीक है तो वह चीज़ ख़ूबसूरत होगी। उन्होंने कहा था कि जिन चीज़ों का निर्माण समरूपता और सममिति के सुनहरे अनुपात के अनुरूप होता है, वे चीज़ें ज़्यादा आकर्षक दिखती हैं। प्राचीन यूनानी स्थापत्य का निर्माण, पायथागोरस के इसी सौंदर्य-सिद्धांत को ध्यान में रख कर किया गया। समय बीतने पर, ख़ूबसूरती के बारे में यूनानी दर्शन के आधार-स्तंभ प्लेटो ने सुझाया कि ख़ूबसूरती एक ऐसा ख़याल है, जो दूसरे सभी ख़यालों से परे है। इसका आशय यह लगाया जा सकता है कि प्लेटो का मानना था कि ख़ूबसूरती को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। लेकिन, प्लेटो की यह अवधारणा अरस्तू के पल्ले नहीं पड़ी। अरस्तू प्लेटो का प्रमुख आलोचक और उनका सबसे क़ाबिल शिष्य था। अरस्तू की नज़रों में ख़ूबसूरती का रिश्ता सीधे-सीधे सदाचार और नेक-नियत होने से है। जाहिर है कि अरस्तू इंसानी ख़ूबसूरती के बारे में यह कह रहे होंगे।
कुछ दूसरे देशों और अलग समयों की बात करते हैं। स्कॉटलैंड के दार्शनिक फ्रैंसिस हचशियन ने ज़ोर देते हुए कहा था कि सुंदरता विविधता में एकता और एकता में विविधता का ही दूसरा नाम है। यह एक बड़ा दर्शन है, जो कहता है मानवीय वैविध्य के तमाम घटकों के बीच सह-अस्तित्व की धारणा ही ख़ूबसूरती का मूल भाव है। कहने का मतलब, ऐसी कोई भी चीज़ सुंदर है, जो आसपास की चीज़ों को अपने में शामिल करने के बाद भी अपनी सभी इकाईयों के विशिष्ट चरित्र और गुणों को नष्ट नहीं करती है। लेकिन इसके विपरीत, उत्तर-आधुनिक संदर्भों में अंग्रेज दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे की मानें तो ख़ूबसूरती दरअसल शक्तिशाली और प्रभावशाली होने की प्रबल इच्छा का परावर्तन है। बाद के दिनों में, रोजर स्क्रहन और फ्रेडरिक टर्नर ने सुंदरता को एक अहम मानवीय मूल्य माना, जबकि इलेन स्कैरी ने इसे हमेशा न्याय और समरसता से जोड़ कर देखा।
ख़ूबसूरती के पैमाने देश, समाज और समय के साथ-साथ धार्मिक मान्यताओं से भी प्रभावित होते रहे हैं। इसका एक अहम नमूना इस्लामी सौंदर्यबोध है, जिसके तहत वही चीज़ें ख़ूबसूरत हैं, जिनका रिश्ता ख़ुदा या उनके बंदों से है। इसी तरह से जापान में भी ख़ूबसूरती के मानक कई तरह के दर्शनों से प्रभावित होते हैं। सिंटो बौद्ध का दर्शन बौद्ध धर्म पर आधारित है। इसके अलावा, जापान में और भी कई तरह के सौंदर्यबोध हैं, जैसे कि वबी-सबी, मियाबी, शिबुई, इकी, जो-हा-क्यू, यूगेन, गेरडो, इनसो और कवाई। इन सभी दर्शनों पर विस्तार से अलग बात से की जा सकती है।
भारतीय, इस्लामी, जापानी, पुरातन यूनानी और यूरोप के आधुनिक व उत्तर-आधुनिक दार्शनिकों के साथ-साथ चीन का भी सौंदर्य के बारे में सधा हुआ दर्शन रहा है। हालाँकि चीन का जनजीवन हमेशा बाहरी दुनिया को एक पहेली ही लगा, फिर भी चीन के लोगों का अपना एक सौंदर्यबोध है, जो उनकी सांस्कृतिक पहचान भी है। चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं कि सुंदरता मानव स्वभाव को विस्तार देने वाला वह भाव है, जो लोगों को मानवता की ओर वापस लौटने को प्रेरित करता है।
कुल मिलाकर विभिन्न देशों और संस्कृतियों में ख़ूबसूरती के बारे में जो पैमाने विकसित हुए हैं, वह वहाँ की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितयों का सह-उत्पाद ही रहे हैं। इंसानी जरूरतों के मुताबिक ही उनके रूझान बनते हैं और यह रूझान ही तय करता है कि किस व्यक्ति को क्या ख़ूबसूरत लगेगा और किस को क्या नहीं। दरअसल, ख़ूबसूरती जीने की ललक है।
अफ्रीका के लोगों का रंग अमूमन काला होता है और हिंदुस्तान में गोरे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है। यही कारण है कि अफ्रीका और हिंदुस्तान में अलग-अलग ढ़ंग से ख़ूबसूरती के पैमाने विकसित हुए हैं। अफ्रीकी देशों में लड़कों का दिल ब्लैक ब्यूटी फिदा होता है और इसके उलट, हिंदुस्तानी छोरे की पसंद ऐसी है कि वह गोरी लड़कियों पर अपनी जान छिड़कते हैं। लेकिन, फिर ऐसे भी प्रेमी-युगलों को आपने देखा होगा, जिनके मन में सुंदरता का पैमाना रंग-रूप नहीं, बल्कि मन-मस्तिष्क रहता है। याने जितने लोग, उतने ही पैमाने हैं ख़ूबसूरती के इस दुनिया में।


अहा! ज़िंदगी खूबसूरती विशेषांक (जुलाई 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें- 
अहा! ज़िंदगी, 
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग, 
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 (राजस्थान)

सोमवार, 27 जून 2011

बदला रेतघड़ी के संग सिनेमा

- देवाशीष प्रसून


साहित्य और कलाएँ अपने समय, समाज और संस्कृति की तमाम अभिव्यक्तियों का ख़ूबसूरत जरिया होती हैं। कोई भी कलाकार अपनी कलाकृतियों के जरिए अपने समय के द्वंद्वों, लोगों की आकांक्षाओं और सांस्कृतिक उथल-पुथल को उकेरने की कोशिश भर करता है। साहित्य, संगीत, नृत्य, नाट्य, मूर्तिकला, चित्रकला आदि-आदि इन कलाओं की चाहे एक लंबी-चौड़ी सूची बन जाए, फिर भी मूलतः ये सारी की सारी कलाएँ अपने समय में व्याप्त तमाम तरह के अंतर्द्वंद्वों का अनेक ऊपायों से इज़हार करने का बस एक तरीक़ा हैं।

सिनेमा अपने स्वरूप और बनावट में कोई एक खास कला नहीं है, बल्कि विभिन्न कलाओं से सिंचित एक बहु-आयामी और जटिल संयोग है। साथ ही, बदलते समय के ढर्रे पर सिनेमा का बदलना अन्य कलाओं के बनिस्पत अधिक तेज़ और बारंबार घटने वाली बात रही है। अपने समय से चूका हुआ सिनेमा आम दर्शकों को पल के लिए भी नागवार गुज़रता है। यहाँ समय से चूकने से मतलब फिल्म निर्माण में तकनीकों का इस्तेमाल, भाषा का प्रवाह और दृश्य संयोजन की शैली आदि का नए ज़मानों के दर्शकों के सौंदर्यबोध के दायरे से बाहर होना है। फिल्मों की सफलता के लिए ज़रूरी है कि कला के तमाम पक्षों के साथ-साथ फिल्मों की अंदाज़-ए-बयानी अपने समय के हामी बनी रहे। कोई कला का पारखी व्यक्ति या अध्येता अपने समय से इतर के सिनेमा का आनंद ले सकता है, लेकिन खालिस मनोरंजन के लिए फिल्में देखने गया औसत समझदारी वाले एक दर्शक के लिए वह सिनेमा उबाऊ हो सकती है, जिसकी भाषा, तकनीक और दृश्यों को वह समझ नहीं पा रहा हो, याने वह उसके समय के अनुरूप संप्रेषण नहीं कर रही हो। शरतचंद के उपन्यास देवदास पर हिंदी में तीन फिल्में बनी, तीनों को दर्शकों ने ख़ूब सराहा। लेकिन खास बात यह कि तीनों देवदास का फॉरमेट अपने-अपने समय के अनुसार अलग-अलग था, जिस कारण से एक ही कहानी बार-बार दर्शकों के सामने आने पर भी वह पसंद की गई और उसकी जीवंतता बनी रही। ऐसा ही कुछ फिल्म डॉन के साथ भी हुआ। कई और भी उदाहरण हैं।

समय के साथ बदलते सिनेमा को समझने और इनके कारकों की पड़ताल करने का एक आसान तरीका हिंदी सिनेमा के इतिहास को गहराई से देखना हो सकता है। इस बात को कुछ उदाहरणों से परखा जा सकता है।

अलग-अलग समयों में हिंदी सिनेमा

कुछ पुरानी यादों से ही बात शुरू करें। 1957 में फिल्म निर्देशन के कारोबार से जुड़े ऋषिकेश मुखर्जी अपने समय के बेहतरीन फिल्म निर्देशक रहे हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान हिंदी सिनेमा के फेहरिस्त में एक से बढ़कर एक उम्दा फिल्मों को दर्ज किया। चाहे उनका शुरूआती दौर रहा हो, जब वह राज कपूर को लेकर अनाड़ी बनाते हैं, बलराज साहनी के साथ उनकी फिल्म अनुराधा आती है और देव आनंद अभिनित असली-नक़ली रिलीज होती है। इसी दौरान वह गुरू दत्त को फिल्म सांझ और सवेरा में फिल्माते हैं और धर्मेंद्र और शर्मिला टैंगोर को लेकर बनी उनकी फिल्म सत्यकाम भी आती है। सुनील दत्त की गबन या अशोक कुमार अभिनित आशीर्वाद जैसी फिल्मों को भी ऋषि दा उसी वक्त दर्शकों के सामने ले कर आते हैं। इन सभी एक खास तरह की संज़ीदा फिल्मों को उस समय के दर्शकों ने ख़ूब सराहा। पर फिर उन्होंने बदलते समय के नब्ज़ को पहचाना, जब देश में आज़ादी का उत्साह ठंडा पड़ने लगा था, नेहरू का समय जा चुका है और नई पीढ़ी के पास एक नया समाज बनाने का काम जस का तस पड़ा है। ऋषि दा ने समय की सच्चाईयों को पहचाना और इसलिए उनके सिनेमा में भी एक गज़ब का बदलाव देखा गया, जिसमें संज़ीदगी सिर्फ़ कहानी के मूल भाव में दिखती है और अंदाज़-ए-बयां पूरी तरह से हास्य-विनोद के रस में डूबा मिलता है। उनके ऐसी फिल्मों का अगला दौर था- आनंद, गुड्डी, बावर्ची, अभिमान, नमक हराम, चुपके-चुपके, मिली, गोलमाल, ख़ूबसूरत, नरम-गरम और रंग-बिरंगी का। कहानियों में नयापन और ताज़गी थी। नए-नए उभरते मध्यम वर्गीय परिवार और इससे बावस्ता एक बदलते हुए समाज में परंपराओं में चले आ रहे मूल्यों में से क्या कुछ संजोया जाए और किन-किन रूढ़ियों को झिड़क दिया जाए, इन्हीं कशमकश से जूझती ऋषि दा की ये फिल्में अपने समय और समाज का आईना बन जाती हैं। लेकिन फिर क्या हुआ कि सन बिरासी-तेरासी के बाद से यह माहिर फिल्म निर्देशक चूक गया। उनकी लगभग हर फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। मामला साफ था कि बदलते समय के अनुसार वह खुद को ढाल नहीं पाए। ऐसा सिर्फ ऋषिकेश मुखर्जी के साथ नहीं हुआ। देव आनंद के पूरे करियर में भी लगभग ऐसा ही कुछ चला जो साफ-साफ हर किसी को दिखता है। देव आनंद की कंपनी नवकेतन ने सन पचास से तिहत्तर के बीच हिंदी सिनेमा को बाज़ी, फंटूश, कालापानी, काला बाज़ार, हम दोनों, तेरे घर के सामने, गाइड, प्रेम पुजारी, तेरे मेरे सपने, हरे रामा हरे कृष्णा और हीरा पन्ना सरीखे कई लाज़बाव व हिट फिल्में दी, लेकिन सन तिहत्तर के बाद से नवकेतन की फिल्में लगातार फ्लॉप होती रही। कारण वही था, देव की बाद की फिल्मों ने अपने समय के लोगों तक संवाद करना बंद कर दिया था। जाहिर सी बात है कि ऋषिकेश या देव की तरह के दिग्गज निर्माता या निर्देशक जो एक समय में अपने काम में माहिर रहे थे लेकिन समय के बहाव के अनुरूप अपने फिल्मों का रुख तय नहीं कर पाने के कारण अगले समय के लोगों ने उनकी फिल्मों को ख़ारिज़ कर दिया।

ऐतिहासिक तौर पर हिंदी सिनेमा में होने वाले बदलावों को दूसरे नज़रिए से भी देखा जा सकता है। देश के राजनीतिक फेरबदल को केंद्र में रखकर देखें तो मामला बिल्कुल साफ हो जाएगा कि हर समय में बदलते सियासी माहौल ने सिनेमा को किस क़दर प्रभावित किया है। बरतानी हुक़ुमत के दौरान जो ज्यादाकर फिल्में आयीं, उसने या तो समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया, या नहीं तो उसके केंद्र में धार्मिक कथाएँ और मिथकीय फंतासियाँ रहीं। प्रतिनिधि के तौर पर देखिए कि 1931 की बनी हिंदी की पहली बोलती फिल्म आलम आरा किसी पौराणिक व काल्पनिक राजा-रानी की कहानी है, लेकिन फिल्म के निहितार्थ सत्ता के अंतर्विरोधों को ही दर्शाते हैं, जो मूल रूप से बरतानी सरकार के छत्रछाया में पर रहे राजे-रजवाड़ों पर एक सांकेतिक हमला था। इस तरह की फिल्में उस समय के लोगों की पसंद तो थी ही पर इससे अहम बात यह थी कि इन फिल्मों का केंद्रीय चरित्र तत्कालीन मौजूदा राजशाही और उसके अंतर्विरोधों का सांस्कृतिक उत्पाद था। आलम आरा ही क्यों, उस दौर की अछूत कन्या, देवदास, जीवन नैया, दुनिया न माने, किसान कन्या जैसी और अन्य फिल्में भी इसका नमूना हैं। प्रेम विषयक फिल्मों का बोलबाला सिनेजगत में हमेशा रहा, लेकिन फिर भी अलग अलग समय में प्रेम को भी फिल्मों ने अलग अलग तरीके से दिखाया और परिभाषित किया है। मसलन फौरी तौर पर आलम आरा भी एक प्रेम कहानी है, पर इसका अंदाज़-ए-बयां या जिसे ट्रीटमेंट कहते हैं, आज के प्रेम कथाओं से कितना अलग और कभी-कभी तो कुछ मामलों में परस्पर विरोधी भी दिखता है।

आज़ादी के बाद से सन सत्तर तक एक दूसरा दौर था, जिसमें एक आज़ाद मुल्क़ अपने आप को राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सतहों पर गढ़ रहा था। इस गढ़न में फिल्में भी अपना योगदान कर रही थीं। इस दौर की फिल्मों में तकनीकी स्तर पर लोगों के पसंद को और ज़हीन बनाया था। इस दौर की क़ाबिल-ए-ग़ौर फिल्में रहीं- दो बीघा ज़मीन, बूट पॉलिश, जागृति, झनक झनक पायल बाजे, मदर इंडिया, मधुमति, सुजाता, मुग़ल-ए-आज़म, जिस देश में गंगा बहती है, साहब, बीबी और ग़ुलाम, बंदिनी, दोस्ती, हिमालय की गोद में, गाइड, उपकार, ब्रह्मचारी, अराधना, खिलौना, आनंद, बेईमान, अनुराग और रजनीगंधा। यह उस दौर की सबसे अधिक लोकप्रिय फिल्में थीं। इन फिल्मों ने कहानी, तकनीक, संगीत, कथ्य के स्तर पर कहें तो कुल मिलाकर हिंदी सिनेमा को एक आकार प्रदान किया। ज़रा कल्पना किजीए, अगर आर्देशिर ईरानी सत्तर के दशक में जब गज़ब की तकनीकी समझदारी के साथ फिल्में बन रही थी तब आलम आरा को बिल्कुल वैसे बनाते जैसे उन्होंने सन ’31 में बनाई थी तो नए सौंदर्यबोध वाले दर्शकों में से कौन होता जो पुरानी तकनीकी से बनी फिल्म देखने के लिए अधन्नी खर्च करता। शायद कोई नहीं। बहरहाल, बात का सिलसिला आगे बढ़ाते है तो दिखता है कि सन सत्तर के बाद से हिंदी सिनेमा में एक समांतर धारा बहती है, जो व्यवस्था के विरुद्ध सवाल उठाना शुरू करती है। हिंदी फिल्मों के इतिहाल में बड़ा परिवर्तन सन ‘90 – ’91 के बाद से दिखना शुरू होता है।

भारत का खुलता बाज़ार और सिनेमा

भारत में सन ’91 के बाद समाज के कई पहलूओं में अमूलचूल बदलाव आए। कारण था देश का आर्थिक उदारीकरण। सन ’47 के बाद से अब तक भारत का बाज़ार सरकार के नियंत्रण में था। इसका मतलब यह है कि विदेश से कौन सी चीजें, कितनी मात्रा में आयातित करनी है और कौन सी चीजें बिल्कुल नहीं आयातित करनी है, यह सरकार तय करती थी। भारतीय अर्थव्यवस्था का अपने आप में स्वतंत्र इकाई थी और बाज़ारों पर सरकार का बहुत हद तक नियंत्रण था। लेकिन, सन ‘91 में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत की अर्थव्यवथा को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ दिया गया। यह भारत में बाज़ार के उदारीकरण और अर्थव्यवस्शा के वैश्वीकरण की शुरूआत थी। इसका राजनीति, समाज, संस्कृति और जनमानस पर दूरगामी और गहरा छाप पड़ा, जिसका परावर्तन स्वतः ही हिंदी फिल्मों में देखने को मिलता है।

सन ’92 में खास यह हुआ कि भारत में पहली बार भारत में विदेशी टेलीवीज़न चाइनलों का प्रवेश हुआ। यह अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के नतीज़न प्रसारण नीतियों में आए बदलावों के कारण संभव हुआ। सबसे पहले भारत में लोगों को रुपर्ट मर्डोक की कंपनी स्टार टीवी नेटवर्क के स्टार प्लस, स्टार मूवीज़ और एमटीवी आदि से साबिका पड़ा। कालांतर में इन विदेशी चाइनलों ने बड़े ज़ोर शोर और योजनाबद्ध तरीक़े से लोगों के पसंद को प्रभावित करने का काम किया। इन्हीं चाइनलों के साथ आया ज़ीटीवी भी दर्शकों के मन में एक अलग और उदारीकरण का हमराही टेस्ट विकसित कर रहा था। उपभोक्तावादी समाज बनाने की क़वायद इन चाइनलों का मुख्य एजेंडा थी, यह बात समझ में आती है। हॉलीवुड की फिल्में पहले जहाँ सरकारी छन्नियों से छन कर भारतीय दर्शकों तक पहुँचती थीं, वहीं अब इन विदेशी चाइनलों ने हॉलीवुड के फिल्मों की बाढ़ सी ला दी थी। और तो और, नक़ली विडियो कसैट की आसान और प्रचुर उपलब्धता ने भी भारतीय जनमानस को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। हॉलीवुड की फिल्मों का भारतीय सिनेदर्शकों और सिनेबाज़ार पर ख़ासा असर तो पड़ा ही, साथ ही, हॉलीवुड की फिल्मों की सफलता के वशीभूत होकर बॉलीवुड में भी विदेशी तकनीकों और दृश्य संयोजन की अनुकरण शुरू हो गया।

इन सबके साथ बदलते समय के साथ लोगों के पसंद का बदलना और इस कारण हिंदी सिमेना का बदलने में जो एक बड़ा कारण था, वह था भारतीय मध्यवर्ग का निर्माण और विस्तार। भारत में उदारीकरण के मद्देनज़र ऐसे लोगों का एक वर्ग तैयार हुआ, जिनके खीसे में लाखों-करोड़ों की रक़म और मन में अरबों-खरबों रुपए का सपना था। ऐसा ही एक विशाल आयवर्ग हिंदी सिनेदर्शकों का लक्षित दर्शक बना, क्योंकि इनके पास पूँजीवादी उत्पादन तंत्र, जिसका वे अंग है, से स्वभाविक रूप से उपजने वाले जीवन के उबाऊपन से उबरने के लिए एक सपने की ज़रूरत थी। यह सपना दिखाने का काम सिनेमा कर रहा था। सन ’91 के बाद आई फिल्मों के चरित्र पर ग़ौर करें तो यह बात और स्पष्ट हो जाएगी।

चाहे जो जीता वही सिकंदर हो या हम हैं राही प्यार के या बाज़ीग़र, इन फिल्मों में कई सपने हैं, भारतीय मध्यवर्ग की जो और अधिक जीतना चाहता है। जीत को ज़िंदगी का रूप में परिभाषित करती हैं, इस समय की हिंदी फिल्में। सच्चाई, प्रेम, ईमानदारी और नैतिकता जैसे मानवीय मूल्य इस जीतने की प्रबल इच्छा के बाद दिखते हैं। उस समय की सबसे पसंद की गई सन ’94 की फिल्म हम आपके हैं कौन...! सन ’82 की सुपरहिट फिल्म नदिया के पार का रिमेक थी। दोनों फिल्मों का एक ही निर्माता कंपनी ने बनाई थी। पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि कहानी में समय के अनुसार फेरबदल किए गए, गो कि नदिया के पार जहाँ मध्यवर्ग किसान परिवार की कहानी है तो हम आपके हैं कौन...! एक अमीर उद्योगपति परिवार की कहानी। आप तकनीक के स्तर पर हम आपके हैं कौन...! में एक भव्यता का एहसास कर सकते हैं, जो हम आपके हैं कौन...! के समय को परिभाषित करता है।

सन ’97 तक यह भव्यता और अभिजात्यता दिल तो पागल है में और आगे चल कर कुछ कुछ होता है, कभी खुशी कभी ग़म आदि महंगी बजट या प्रवासी भारतीयों पर बनी फिल्मों में अधिक गहरी होती दिखाई देती है। यही सिलसिला धीरे-धीरे और गहराते जाता है और आज के फिल्मों का चेहरा तैयार होता हो। एक ख़ास बात यह है कि आज का हिंदी सिनेमा उदारीकरण के तुरंत बाद वाला सिनेमा नहीं है, जिसमें तकनीकों का अंधानुकरण दिखता है, बल्कि आज हिंदी सिनेमा में अंतर्वस्तु के स्तर पर भी परिपक्वता देखी जा सकती है। इसका उदाहरण, हम तुम, ब्लैक, बंटी और बबली, पेज़ थ्री, लगे रहो मुन्नाभाई, चक दे इंडिया, जब वी मेट, तारे ज़मीन पर और थ्री इडिएट जैसी हिंदी फिल्में हैं। कुल मिला कर इन सब कारकों ने मिलकर हिंदी सिनेदर्शक के टेस्ट में पहले के बरअक्स बहुत बदलाव लाए हैं और अब हिंदी सिनेमा के दर्शकों की पसंद वैश्विक हो गया है। एक साथ कई संस्कृतियों की फिल्मों तक उसकी पहुँच है। वह कई तरह के सिनेमा को समझने का माद्दा रखता है। उसके पसंद का बहुत फलक चौड़ा हुआ है।

बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है और हिंदी सिनेमा की कहानी में बदलता हुआ बहुत कुछ है, जो अभी कहना बाकी है। यह सिलसिला फिर कभी आगे बढ़ाएंगे...



अहा! ज़िंदगी सिनेमा विशेषांक (जून 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें-
अहा! ज़िंदगी,
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग,
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 (राजस्थान)

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो!

- देवाशीष प्रसून


कुछ बातें
किताबों को पढ़कर
नहीं समझी जा सकती।
पनियाई आँखों में दुःख हरदम नहीं है
अपने प्रियतम से विछोह की वेदना।
फिर भी, हृदय में उठती हर हूक से
न जाने, संवेदनाओं के कितने
थर्मामीटर चटक जायें।
और यह टीस
किसी का मंज़िल से
बस कदम-दो कदम की दूरी पर
बिछड़ जाने भर का
अफ़सोस भी नहीं है।
प्रेम है एक एहसास -
माथे पर पड़ते बल और पसीने की धार के बीच
अपने साथी के साथ
एक खुशनुमा ज़िंदगी जीने का।

प्रेम की बात चली है तो सबसे पहले उन एहसासों की बात की जाए जो अपनी जीवनसंगिनी फगुनी के मन को पढ़ते हुए दशरथ माँझी के दिल को छू गए थे। गांव की दूसरी औरतों के ही तरह फगुनी भी पहाड़ी लांघ कर पानी लाने जाया करती थी। रास्ता आने-जाने के लिए बिल्कुल भी सही नहीं था। लेकिन, गांव वालों के पास हर छोटी-बड़ी चीज़ों को लाने के लिए पहाड़ी के पार जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। पानी लाने गई फगुनी लौटते हुए एक बार इस दुरूह रास्ते का शिकार हो कर ज़ख्मी हो गई। ज़ख्मी फगुनी की तक़लीफ़ सिर्फ़ फगुनी की ही नहीं थी, दशरथ भी इस दर्द से तड़प रहा था। मोहब्बत का जन्म संवेदनाओं से होता है, लेकिन संवेदनाओं के स्तर पर केवल ऐक्य स्थापित करना ही दशरथ के लिए आशिक़ी नहीं थी। उसके लिए प्रेम के जो मायने थे, उसे पूरा करने के लिए उसने इतिहास के पन्ने पर मोहब्बत की वह किताब लिखी, जिसमें प्रेम समाज में प्रचलित मोहब्बत के तमाम बिंबों को पीछे छोड़ देता है। बिहार के गया जिले के सुदूर गाँव गहलौर में सन १९३४ में जन्में समाज के अतिवंचित तबके से आने वाले महादलित मुसहर जाति के इस अशिक्षित श्रमजीवी को इतना ज्ञान तो था ही कि असल मोहब्बत तन्हाईयों में आहे भरने और एक-दूसरे को रिझाने के लिए की जाने वाली लफ़्फ़ाजियों से इतर जीवन का एक महान लक्ष्य होता है। ऐसा लक्ष्य जिसे महसूस करते ही दशरथ ने यह प्रण लिया कि अब कुछ भी हो जाए, जिस पहाड़ के कारण उसकी प्राणप्रिया तकलीफ़ में है, उस पहाड़ को खोद कर वह उसमें एक रास्ता बना देगा। और फिर क्या था? सन १९६० में शुरू कर १९८२ तक बाइस साल के अपने अथक मेहनत के बदौलत दशरथ ने सिर्फ़ हथौड़ी और छेनी की मदद से गहलौर घाटी के पहाड़ी के ओर-छोड़ तीन सौ साठ फीट लंबा, पच्चीस फीट ऊँचा और तीस फीट चौड़ा रास्ता खोद डाला। पटना से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पर बसे हुए गया जिला के अतरी और वज़ीरगंज़ ब्लॉक के बीच की दूरी दशरथ के इस प्रेम के कारण पचहत्तर किलोमीटर से कम होकर जब एक किलोमीटर हो गई तो दुनिया भर की निग़ाहें इस असल जीवन के नायक पर पड़ीं, जिसने हक़ीक़त में अपने महबूब की तक़लीफ़ों के मद्देनज़र पहाड़ को हिला कर रख दिया था। असल में मोहब्बत का उफ़ान यही है और हक़ीकत भी। राधा-कृष्ण की कहानी में प्रेम कम, कभी उत्सव है तो कभी विलगाव। हीर-रांझा की कहानी का केंद्रीय भाव भी विछोह की वेदना से अधिक कुछ नहीं है। मोहब्बत के इन दोनों महान कहानियों में व्यक्तिगत प्रेम का उत्थान समाज के हित में कभी नहीं उभरता है। आमतौर पर लोग आशिक़ी में मर्दानगी साबित करने के लिए, भले करने की कूवत किसी के पास न हो, पर चांद-तारे तोड़ लाने की कसमें खाते हैं और औरतें अपना सर्वस्व निछावर करने का वादा करती हैं। लेकिन, दशरथ का यों पहाड़ खिसका देना मोहब्बत में वो मायने भरता है, जो निजी संवेदनाओं से जन्म लेकर मेहनत के रास्ते से होकर महान मानवीय संवेदनाओं की ओर बढ़ता है और समाज और सभ्यता के लिए वरदान बन जाता है।

आम धारणा के विपरीत मोहब्बत का मसला निजी तो बिल्कुल नहीं होता है। जो लोग इश्क़ को व्यक्तिगत मसला कहते है, यकीन मानिए वो अब तक इश्क़ के हक़ीकत से अंजान हैं। असलियत में यह पूरे समाज और सभ्यता का मसला है और साथ में सियासी भी। जो कि अलग-अलग मनोवैज्ञानिक और आर्थिक माहौल में अलग अलग तरीकों से निकल कर अपना एक खास चेहरा अख़्तियार करता है। एक ज़माना था जब मोहब्बत की तुलना इबादत से की जाती थी। सूफी संतों ने मोहब्बत को भली भांति समझा और दुनिया भर में इसका पैग़ाम दिया। कुछ सूफ़ी संतों ने खुदा को मोहब्बत माना तो कुछ ने मोहब्बत को ही खुदा समझा। अमीर खुसरो ने सीधे-सीधे कहा कि किस तरह से प्रेम में धर्म और रीति-रीवाज़ पीछे छूट जाता है। इस बात की सच्चाई इस बदौलत आँकी जा सकती है कि कई सदियों बाद आज भी हम उनकी पंक्तियाँ गाते और गुनगुनाते है। छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाइके...प्रेम भटी का मदवा पिलाइके...मतवारी कर लीन्ही मोसे नैना मिलाइके...। फिर एक दौर वह भी था जब आशिक़ी में मर्द अपनी ताक़त, कठोरता और हासिल करने के हुनर को साबित करते फिरता था। औरतों के लिए हुस्न, नखरे और समर्पण को ही इश्क़ के मतलब के रूप में गिनाया जाता था। आज की दुनिया कुछ और है। आज के इश्क़ में तर्क, विवेक और परस्पर सम्मान के साथ इंसानी स्वतंत्रता का भाव सर्वोपरि होता है। यह इश्क़ के उन बिंबों को नहीं मानती है, जिनमें परवीन शाकिर कहती हैं कि क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी। इश्क़ में कोई क्या-क्या करता है, यह इंसान-इंसान या उसके इश्क़-इश्क़ पर निर्भर है। याने किसी इंसान का मोहब्बत के लिए क्या नज़रिया हो, यह उसके जीवन के पूरे फलसफे पर निर्भर होता है। जैसी ज़िंदगी के प्रति समझदारी, वैसी ही उसकी मोहब्बत।

हर एक इंसान इस दुनिया में अकेला ही आता है। वह मरता भी अकेले ही है। हालांकि वह अपने चारों ओर एक सामाजिक घेरा ज़रूर बुना हुआ पाता है, जिससे उसे सामूहिकता का बोध होता है और जिससे उसे यह भी लगते रहता है कि उसका अकेलापन दूर हो रहा है। अकेलापन दूर करने की ज़हद में जीवन में तमाम तरह के प्रेम से इंसान का साबका पड़ता है। सबसे पहले माँ, फिर पिता, फिर परिवार और फिर मित्र और समाज। मगर इन सब के बाद भी, हर इंसान को दुनिया में बाकी लोगों से अकेले छूट जाने का भय हमेशा सताता रहता है। वह अपने मन में एक खालीपन को हमेशा महसूस करते रहता है। यह शून्यता उसके अकेलेपन को असह्य बना देती है। ऐसी स्थिति में उसे लगता है कि कोई एक तो हो जो उसका हर समय, हर हाल में साथ दे। जीवन भर साथ देने की उम्मीद केवल आप अपने जीवनसाथी से ही कर सकते हैं और किसी दूसरे के साथ ऐसी कोई व्यवहार्य स्थिति बन नहीं पाती है। एक खास बात यह कि यही वह व्यक्ति होता है जो आपके समजैविक ज़रूरतों को भी साझा कर सकता है। उसकी तलाश में मन में इस तरह के भाव उभरते रहते हैं कि

उदासियों में तुम्हारा कंधा
सिर रखकर रोने के लिए;
और छातियों के बीच
दुबका हुआ चेहरा -
जो छुपाना चाहेगा
इस एकाकी जीवन में
अलग छूट जाने के अपने डर को।
गोद में सोना निश्चिंत
पाकर तुम्हारा प्रेम
और यह एहसास कि
अकेले मुझे, दुनिया में
नहीं रहने दोगी तुम।

अकेलेपन से मुक्त होने की प्रक्रिया में यह आवेग इश्क़ का बहुत ही शुरूआती दौर का आवेग है। इसके तहत जीवन को किसी और इंसान के साथ साझा करने की प्रबल कामना हिलकोरे मारती रहती है। संभोग जीवन के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के अलावा दो इंसानों के जीवन साझा करने की इस कामना को तृप्त करने की चरम अनुभूति का अहसास भी कराता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक़ यह सब मनोवृत्तियाँ इंसानी फ़ितरतों का लाज़िमी हिस्सा हैं। ये सारी प्रवृत्तियाँ ज़िंदगी में मोहब्बत की ज़रूरतें ही पैदा नहीं करते बल्कि उनके लिए ज़मीन भी तैयार करती हैं, लेकिन इसी को मुकम्मल आशिक़ी मान लेना ज़ल्दबाज़ी होगी।

अकेलापन दूर करने के लिए किसी भी इंसान को अपनी मौज़ूदगी का औरों के बीच दिलचस्प और उपयोगी बनाना ज़रूरी है, ताकि उस व्यक्ति के पास लोगों से घिरे रहने का कारण हो। जैसे कि मोटे तौर पर देखे तो इसके लिए एक इंसान अपने सक्रिय प्रयासों के बदौलत अपने आसपास के लोगों और माहौल को बेहतर और खुशनुमा बनाने के लिए सतत सृजनशील रहता है। सृजन करते रहने के लिए किसी दबाव के बिना काम करना ज़रूरी है। अपनी सृजनशीलता की अभिव्यक्ति के लिए किसी इंसान को मानवीय स्वभावों के अनुरूप ही काम करना होगा, जो है- अपने विवेक, अपनी अभिरूचि और अपनी चेतना का इस्तेमाल करते हुए कुछ नया सृजन करते रहना। कुल मिलाकर इन गतिविधियों से वह अपने अस्तित्व के औचित्य को सिद्ध करने की जुगत में लगा रहता है। ये सारी गतिविधियाँ ही सही मायने में इंसानी प्रेम का खाका खींचती हैं। जाने-माने मनोवैज्ञानिक एरिक फ्रॉम ने भी आशिक़ी को कुछ नया रचने और सँवारने की अपनी क़ाबिलियत को जाहिर करने का ही तरीका बतलाया है। इसे ही संक्षेप में रचनात्मकता या सृजनशीलता की अभिव्यक्ति कहा गया।

ध्यान देने वाली बात है कि समग्रता में सही प्रेम को समझने के लिए उन भावनाओं को भी समझने की ज़रूरत है, जिनको हम अक्सर प्रेम मान बैठते हैं, पर असलियत में वे एहसासात प्रेम नहीं, बल्कि प्रेम का भ्रम मात्र होते है। तन्हाई या जीवन में अलग-थलग छूट जाने के शाश्वत डर से उबरने के जो उपाय परंपरावादी तरीके से तैयार किए गए है, मसलन ईश्वर की भक्ति या कला का आस्वादन या नशाखोरी आदि, वे सब बाद में घूम-फिर कर इस डर को और गहरा ही कर देते हैं। जब किसी व्यक्ति को प्रेम का भ्रम होता है तो उसे लगता है कि वह फ़लाँ व्यक्ति, जिससे प्रेम होने का दावा वह करता है, के बिना उसकी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं बचा है। ऐसे में वह अपने तथाकथित माशूक़ के बारे में दिन-रात, हर वक्त सोचता ही रहता है, हक़ीकत में करता कुछ नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रेम सक्रियता की माँग करता है। इसमें अपने प्रेम का इज़हार सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपनी मेहनत और समझदारी से, सामने वाले की ज़िंदगी में अपना औचित्य साबित करके करना ज़रूरी है। ग़ालिब ने कहा है कि ये इश्क़ नहीं आसान...बस इतना समझ लिजे...एक आग का दरियाँ है और डूब कर जाना है। यह आग का दरियाँ सही मायने में जीवन के तमाम संघर्ष हैं, जिनसे जूझते हुए ही हर आशिक़ को आशिक़ी से गुज़रना होता है। रुमानियत से लबरेज़, ख्वाबों-ख़यालों में हुई मोहब्बत, असलियत में प्रेम का भ्रम होती हैं और इससे अधिक कुछ भी नहीं। कुछ नहीं करना, गो कि किसी काम में मन नहीं लगना, खाने-पीने का मन न करना, नींद उड़ जाना, किसी और से बात करने का मन न होना आदि फ़ितरत किसी के भी शख्सियत को उबाऊ बना सकती हैं। और ऐसा करके कोई इंसान किसी तरह से अपने इरादों और हौसलों को भी मज़बूत नहीं कर पाता है और आख़िरकार, ये सब अकर्मण्यताएँ दुःख, विरह और विछोह का सबब बन कर रह जाती हैं।

अपनी क़ाबिलियत दूसरों के सामने साबित करने से ज़्यादा ज़रूरी यह होता है कि आप खुद को अपनी सृजनशीलता से संतुष्ठ करें। गौरतलब यह है कि कोई आप से प्रेम करता है कि नहीं इससे पहले का सवाल यह है कि क्या आप को अपने आप से प्रेम है? कहते भी हैं खुदी को कर बुलंद इतना कि तेरी तक़दीर से पहले खुदा तुझसे खुद पूछे कि तेरी रज़ा क्या है। याने जिसे खुद पर भरोसा होता है, वह जो चाहता है हासिल कर लेता है। इसी तरह आशिक़ी की शुरूआत पहले खुद से होती है और फिर इसका फलक दुनिया भर में फैलता है। अंत में जिस इंसान से साथ हम अपनी ज़िंदगी साझा करते हैं, वह हमारे दुनिया भर के प्रति प्रेम का चेहरा होता है। और हाँ, अगर कोई अपने माशूक़ के अस्तित्व में ही अपनी तमाम उत्पादक शक्तियाँ तलाशने लगे और उसे ही अपनी पूरी आत्मबल का प्रतिनिधि मानने लगे तो वह अंततः अपने आप से विलगा ही रहेगा। ऐसे ही प्रेम की कल्पना बुल्ले शाह ने कुछ इस तरह की है:

'रांझा-रांझा' करदी हुण मैं आपे रांझा होई

सद्दो मैनूं धीदो रांझा हीर न आखो कोई

देखने वाली बात है कि यह मोहब्बत नहीं है, बल्कि उसका एक सुनहरा धोखा है बस। नाम रटन करते हुए माशूक़ से मिलने की आस में ख्यालों में बुनी हुई आशिक़ी दरअसल मोहब्बत का एक ख़तरनाक भ्रम है, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। व्यावहारिक रिश्ते के बिना इसमें तन्हाई के हालात बने रहते हैं। ख्यालों में की गई मोहब्बत में या किसी से मन ही मन प्रेम करना और किसी तरह की गतिशीलता के बिना किया गया प्रेम, यक़ीन मानिए असलियत प्रेम नहीं, बल्कि प्रेम का धोखा है।

जैसा कि पहले ज़िक्र हुआ कि जिस इंसान के इश्क़ में आप होते हैं, वह व्यक्ति आपके अंदर पूरी क़ायनात के लिए जो आपका प्रेम पल रहा होता है, उसकी नुमाइंदगी भर कर रहा होता है। लेकिन मुश्क़िल यह है कि किसी व्यक्ति-विशेष के व्यापक प्रेम की नुमाइंदगी हर कोई नहीं कर सकता है। इसके लिए दोनों के जीवन का फ़लसफ़ा एक होना ज़रूरी है। मोहब्बत में ज़िम्मेवारी कर्तव्य और अधिकार के युग्म के जरिए नहीं पनपता है, बल्कि इस रिश्ते में ज़िम्मेवारी एक उत्सव-निर्झरी है, जिसमें लोग तमाम उम्र भींगते रहना चाहते है। दोनों की उपस्थिति एक-दूसरे को कभी भी और कैसी भी स्थिति में ऊबाती नहीं, बजाय इसके, यह तो हमेशा एक-दूसरे को उत्साह और ऊर्जा से लबरेज़ रखती है। मुक्तिबोध ने अपनी कविता “आत्मा के मित्र मेरे” ने इस स्थिति का विवरण यूँ किया है:

मित्र मेरे,
आत्मा के एक !
एकाकीपन के अन्यतम प्रतिरूप
जिससे अधिक एकाकी हॄदय।
कमज़ोरियों के एकमेव दुलार
भिन्नता में विकस ले, वह तुम अभिन्न विचार
बुद्धि की मेरी श्लाका के अरूणतम नग्न जलते तेज़
कर्म के चिर-वेग में उर-वेग का उन्मेष
हालाँकि यह भी संभव है कि जिस इंसान के लिए आप अपना प्यार जाहिर करना चाहते हो, उसकी दिलचस्पी आप में न हो। इन हालातों में एक इंसान दूसरे के प्रेम का प्रतिनिधित्व करने की क़ाबिलियत तो रखता है, पर दूसरा उसे इस क़ाबिल नहीं समझता। ऐसी स्थिति लंबे समय तक व्यवहार्य नहीं है, इसलिए नये व्यक्ति की तलाश कर लेनी चाहिए। शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी कविता “टूटी हुई, बिखरी हुई” में कहा है:

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिनको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।

दूसरे व्यक्ति की तलाश की प्रासंगिकता यह भी है कि प्रेम कोई सामाजिक संस्थानिकताओं द्वारा निर्धारित बंधन नहीं है। यह एक पारस्परिक और बराबरी के ज़मीन पर खड़ा हुआ रिश्ता है और इसमें साथी चुनने की प्रकिया में दोनों के दिमाग में भावनाओं के स्तर पर समता का समावेश होना बहुत ज़रूरी है। आपकी ज़िंदगी का फलसफा किसी और से मिलता-जुलता हो, यह एक मुश्किल संयोग है। इसके लिए एरिक फ्रॉम ने यह उपाय सुझाया है कि किसी व्यक्ति की आशिक़ी में इतना आकर्षण होना चाहिए कि वो दूसरों को उसी तरह से मोहब्बत करने के लिए प्रोत्साहित करे। फ्रॉम के मुताबिक यह आकर्षण दूसरों को समझने-बूझने से, उनका देखभाल करने से और उन्हें बतौर स्वतंत्र व्यक्ति सम्मान देने से पैदा किया जा सकता है। याने कुल मिलाकर अपने को सही अर्थ में उपयोगी सिद्ध करके कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को भी प्रेम के लिए प्रेरित कर सकता है। हालाँकि फ्रॉम के इस सुझाव को स्वयं इस्तेमाल करके ही जाँचा जा सकता है। लेकिन अफ़सोस यह है कि हमारे समाज में फ़िल्मों और अधकचरे सहित्य के बदौलत एक बहुत भ्रामक प्रचार यह भी रहा है कि प्रेम जीवन बस एक बार होता है, जो कि यकीन मानिए सरासर झूठ है। ऐसा वे लोग सोचते है, जिन्हें लगता है कि प्रेम किसी खास शख्सियत से ही किया जाता है और इस मामले में दुनिया से वे कोई मतलब रखते। लेकिन सही आशिक़ यह सोचते है कि जीवन में किए जाने वाला आपके हिस्से का प्यार दरअसल पूरी क़ायनात से की गई आपकी मोहब्बत है न कि किसी एक खास इंसान से। कोई एक व्यक्ति अगर आपके जीवन में है भी तो बस आपके दुनिया भर के लिए प्यार का समग्र प्रेम का नुमाइंदा भर है। जो लोग सही में प्रेम करते हैं या प्रेम को जीना जानते हैं, वह किसी “एक व्यक्ति विशेष” के इंकार से या उनकी जुदाई से खु़द को कुंठित नहीं करते है। हालाँकि किसी मनोरोगी में यह लक्षण देखने को मिलना प्रायः मुमकिन है।

सबसे अहम सवाल यह है कि आपके साथी चुनने के पीछे कौन-कौन से मनोवैज्ञनिक व सामाजिक कारक काम करते हैं? या इस सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि अगर किसी ने आपकी मोहब्बत को ठुकड़ा दिया हो तो इसके आधार मे कौन-कौन सी बातें हैं? जबाव मुश्क़िल है, पर असंभव नहीं। सोचने वाली बात है कि वे कौन से गुण हैं, जो किसी इंसान को आकर्षक बनाते हैं। इतना आकर्षक कि उसके प्रेम निवेदन को इंकार किया जाना आसान न हो। एक बात तो तय है कि जब कोई आदमी किसी खास व्यक्ति के साथ अपनी जोड़ी तैयार करना चाहता है तो यह देखता ज़रूर है कि उसका संभावित साथी जो है, उसके लिए प्यार के क्या मायने हैं? उसके लिए कौन-कौन सी बातें खूबसूरत हैं? उनके पसंद-नापसंद क्या हैं? परखने वाली बात यह है कि ये सारी बातें किन तत्वों के आधार पर विकसित हुई हैं। अमूमन इन हालातों में चार तत्व काम करते हैं जो किसी खास व्यक्ति को पसंदीदा व्यक्ति बनाते हैं। पहली नज़र में जो आकर्षण का कारण बनता है, वह है रूप और देह का गठन। रूप और देह वह तत्व हैं जो अक्सर आसक्ति का कारण बनते हैं। कभी-कभार इस आसक्ति का आवेग बहुत तेज़ होता है और लोग इसे ही प्रेम समझ बैठते हैं। लेकिन इस आकर्षक का आधार अधिक मज़बूत नहीं है, क्योंकि सबको पता है कि रूप और देह हमेशा एक से नहीं रहते। यही कारण है कि यह आकर्षण अधिक दिनों तक नहीं टिकता है। दूसरा आकर्षण होता है उस व्यक्ति का बर्ताव। बर्ताव मनोरम होने के दो कारण सकते है, एक कि उसका बर्ताव उसके मानसिक बनावट को सही-सही प्रतिबिंबित कर रहा हो और दूसरा यह कि वह संभावित साथी को रिझाने के लिए एक बनावटी बर्ताव में मशगूल हो। इसलिए बर्ताव अगर बनावटी रहा तो संभव है एक बार इज़हार-ए-मोहब्बत तो दोनों ओर से हो, लेकिन चेहरे से नक़ाब उठते ही, वह लगाव खत्म हो जाता है और सारी आशिक़ी काफ़ूर हो जाती है। आकर्षण के तीसरे कारण पर ग़ौर से सोचे तो आप पाइयेगा कि हर इंसान अपने संभावित साथी का चयन अपने पृष्ठभूमि के आधार पर बहुत पहले तैयार एक साँचे के अनुरूप करता है। वह हमेशा एक साँचा बनाए रखता और जो व्यक्ति जब कभी भी उस साँचे में फिट बैठता दिखता है, वह उसे चाहना शुरू कर देता है। यह साँचा कई तरह की इच्छाओं या असुरक्षा की भावनाओं से तैयार किया जाता है। मसलन अभाव में जीने वाली एक लडकी को लड़के का अमीर होना आकर्षित कर सकता है या किसी लड़के का दिल किसी लड़की की कमनीयता पर ही घायल हो सकता है। इसी साँचे को तैयार करते वक्त ही रूप और देह के प्रति अपनी विशेष सौंदर्यानुभूति विकसित की जाती है, जो गौर करें तो समाज के प्रचलित मान्यताओं और रूढ़ियों पर आधारित होती हैं। यह अक्सर देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति आपका बहुत अच्छा मित्र हो और विपरीत लिंग के होने के बाद भी आप दोनों में प्रगाढ़ मित्रता से अधिक आशिक़ी जैसा कुछ भी नहीं हो। यानी गज़ब की समझदारी और पसंदगी के बाद भी आपदोनों में वो प्रेम नहीं हो, जिसके तहत दोनों साथ जीवन गुज़ार सकें। इसका एकमात्र कारण दिमाग में पहले से रेडिमेड साँचे में उस व्यक्ति फिट नहीं बैठना है। लेकिन इस तरह के साँचों के बनने में इच्छाओं और असुरक्षा बोध के जड़ में आकर्षण के तीनों कारणों से प्रबल और सबसे टिकाऊ व महत्वपूर्ण इसका चौथा कारण है। वह है ज़िंदगी, रिश्तों, देश और समाज के प्रति एक साझा जीवन दर्शन और समझदारी का मौज़ूद होना। ध्यान से समझने वाली बात यह है कि चौथा कारण जो है, वह बाकी तीन कारकों को नियंत्रित करता है।

प्रेम में अक्सर साथी चुनते वक्त एक गफलत हो जाती है और वह है अपने माशूक़ से जो आपका जुड़ाव है, उसके आधार में कौन सी भावनाएँ प्रबल हैं। अधिकतर मामलों में रति भाव या सेक्स संबंध बनाने की कामना ही तमाम भावनाओं पर हावी पडती हैं और यही कारण है कि अमूमन औरत और मर्द के बीच इस सम्मोहन को ही प्रेम मान लिया जाता है। पर जरा सोचिए, क्या सिर्फ़ इस तलब को मोहब्बत कहा जा सकता है? इसका जवाब हाँ और ना में देना मुश्क़िल है क्योंकि जबाव अलग-अलग हालात पर अलग-अलग हो सकते हैं। एक तरफ़, प्रेम अपने स्वरूप में अपने साथी के समक्ष अपनी सृजनशीलता प्रकट करके उसके आत्मीय जुड़ाव के गर्माहट को महसूस करने की प्रक्रिया है। और दूसरी तरफ़, सेक्स की स्वस्थ चाहत भी अपने साथी के सामने अपने इश्क़ को जाहिर करने की तरीका ही है। देखने वाली बात है कि इन दोनों व्यवहारों में एक साम्य बनता तो दीखता हैं, लेकिन इसमें सजग रहने की ज़रूरत है कि मोहब्बत में अपनी-अपनी रचनाशीलता जाहिर करने के अलावा आपसी रिश्ते में सम्मान और बराबरी का मौज़ूद होना भी बहुत ज़रूरी है। तभी तो कोई व्यक्ति बिना किसी दवाब में आए अपने आशिक़ के खुशी और विकास के लिए लगातार कोशिशें और मेहनत करते रहता है। इस चश्में से देखिए तो आसानी समझा जा सकता है कि जब सेक्स संबंध आशिक़ी का ज़मीन तैयार करती हैं तो उसमें यौनिकता के साथ-साथ दोनों साथियों के बीच समता और सम्मान की भावना का प्रवाह बना रहना ज़रूरी होता है। और अगर ऐसा नहीं है तो ऐसे यौन संबंध प्रेम की अभिव्यक्ति के बजाय कोई मनोविकृति या मनोरोग का प्रकार बन कर सामने आते हैं।

मोहब्बत से जुड़ी इन सारी बातों के साथ-साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि हमारे समाज में मोहब्बत करना कोई दिल्लगी नहीं है। पूरी सभ्यता और पूरा समाज आपके ख़िलाफ़ लामबंद हो सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इश्क़ में आशिक़ पुराने रुढ़ियों के किलों को ढहा कर एक बराबरी की ज़मीन और इंसानियत की नींव पर एक नई इमारत खड़ी करने की कोशिश करते हैं। परंपरावादियों को जाति, धर्म, वर्ग और लिंग आधारित विभेदों में बँटे हुए समाज में मौज़ूद विषम सत्ता-संबंध का टूटना पचता नहीं है, इसलिए हाय-तौबा मचती है। इस बात को समझने का एक और नज़रिया यह है कि जर्जर हो चुकी परंपराओं के झंडाबरदारों को प्रेम संबंधों से दिक्कत इसलिए है क्योंकि इसके जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपनी मेहनत के इस्तेमाल पर अपना खुद के नियंत्रण का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। प्रेम पर आधारित रिश्ते इशारा करते हैं कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में औरतें अपनी मेहनत का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि समाज के रूढ़िवादी हलकों में बौखला कर प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन, चलते-चलते प्रेम में आने वाली इन चुनौतियों से बड़ी बात यह चाहूँगा कि जीवन के केंद्र में प्रेम है और इससे महत्वपूर्ण काम इस ज़िंदगी में और कुछ नहीं।

याद रहे कि तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी, मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो!

(यह आलेख अहा ज़िंदगी के प्रेम विशेषांक (फरवरी, 2011) में आया था। जिनसे इसे पढ़ना वहां छूट गया हो और जो इसे पढ़ने की इच्छुक हो , उनके लिए यह यहां है। प्रस्तुत आलेख प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप है।)

ई-मेल: prasoonjee@gmail.com
दूरभाष: +91-8955026515 & 9555053370