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बुधवार, 12 अगस्त 2009

चौहान की स्त्री विरोधी राजनीति


देवाशीष प्रसून
मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में शादी के लिए आयीं लगभग डेढ़ सौ लड़कियों के कौमार्य परीक्षण के बाद भी जिन्हें शर्म नहीं आ रही, वे अपनी इंसानियत भूल चुके हैं। इस बात को लेकर बहुत बवाल है कि सरकार ने ऐसी धृष्टता कैसे की? हालांकि, असल में प्रश्न यह उठना चहिए था कि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना की प्रासंगिकता क्या है? प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ इस तरह की राजा-रजवाड़ों वाली योजनाओं से लगता है कि हमारे देश की राजनीति अब तक मध्यकालीन है पर आधुनिकता का चोला ओढ़े हुए। विकास का पहिया कहीं ठहर गया है और धज्जियाँ उड़ रही हैं उन सारे मूल्यों की, जिन्हें हजारों सालों से इंसान हासिल करता रहा है। रोज अपनी नयी-नयी करतूतों से, इंसान इंसानियत से दूर और हैवानियत से वाबस्ता हुए जा रहा है। सामंती समाज अब तक कायम है और पूँजी का साम्राज्य भी बड़ी तेजी से अपनी पैठ बढ़ाते जा रहा है। सामंती समाज हर देशकाल में औरतों को उपभोग की वस्तु मानते रहा है। और पूँजीवाद ने भी अपने दो अचूक शस्त्रों - मीडिया और प्रबंधन दृ के जरिए औरत को एक बिकाऊ माल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।

मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, सरकार की कई फितूरों में से एक स्त्री-विरोधी योजना है। अव्वल तो कन्यादान राज्य का काम नहीं है। दूसरे, किसी हिन्दू रिवाज के नाम से सभी धर्मों के लिए योजना चलाना अन्य धर्मों के साथ पक्षपात करने की रणनीति लगती है। अप्रैल 2006 से शुरू मध्य प्रदेश सरकार की इस योजना का मकसद राज्य द्वारा निर्धन परिवार की बेटियों की शादी में आर्थिक सहयोग करना बताया जाता है, जबकि लड़कियों और लड़कों के बीच तरक्की की राह में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात होनी चाहिए थी। इस योजना को लागू करके सरकार ने खुले तौर पर यह माना कि लड़कियाँ तो महज दान की एक सामग्री है। ऐसा मानना दरअसल इस सरकार की प्रतिगामी मानसिकता है। स्त्रियों की शिक्षा, व्यवसाय और राजनीति के डगर में सहयोग की आशा पर पानी फेरते हुए सरकार उसे घर की चार-दिवारी में कैद करने की कवायद में लगी है। विकास कार्यक्रमों के बरअक्स लड़कियों की शादी करवाने में सरकार इतनी अधिक वचनबद्ध है कि मार्च 2009 तक 88,460 लड़कियों का मुख्यमंत्री के सौजन्य से दान किया जा चुका था। यह सीधे तौर पर कानूनन शादी भी नहीं है, क्योंकि इस सरकारी प्रक्रिया में अनुदान के लिए जारी आवेदन-प्रपत्र में साफ दिखता है कि आवेदक लड़का या लड़की से अलावा कोई दूसरा व्यक्ति भी हो सकता है। कहना न होगा कि इसमें वर और वधू के बीच सहमति के बिना भी जबरन शादी करवाने की गुंजाइश है। दरअसल यह उस पिछड़े सोच से पनपी साजिश है, जो लड़के-लड़कियों को स्वयं अपने जीवनसाथी चुनने की आजादी से महरूम रखती है। दहेज को जिस देश में कानूनों के मार्फत गुनाह का दर्जा दिया जा चुका था। हैरानी की बात है कि उसी देश में सरकारी हाथों से इस कुरीति को हवा देकर मध्य प्रदेश सरकार ने अपनी सभ्यता को बहुत पीछे ढकेला है। योजना के तहत नये जोड़ों को घर बसाने के लिए दहेज की तर्ज पर उपहार दिये जाते हैं, क्योंकि सरकार का मानना है कि पैसे के अभाव से ही गरीब परिवार की बेटियों की शादी में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं। अगर सरकार के मंसूबे सही होते तो होना यह चाहिए था, कि जन जागृति कार्यक्रमों और शिक्षा के जरिए विवाह को स्त्री-पुरुष की आपसी समझ से जोड़े जाने वाले एक रिश्ते में तब्दील किया जाता। लेकिन सरकार ने अपनी सामंती सोच का परिचय देते हुए सरकारी खर्च से दहेज की इस मनहूस व्यवस्था को बरकरार रखा। हर कन्या के दान में लगभग छ हजार रुपये खर्च किए जाते हैं, जिसमें से एक हजार रुपये "आयोजको" को दिया जाता है। हो सकता है कि शायद इन आयोजकों के साथ सरकारी मशीनरी की कुछ साँठ-गाँठ हो। जनवरी 2009 से लड़के-लड़कियों को दी जाने वाली पाँच हजार की राशि बढ़ाकर साढ़े छ हजार कर दी गयी है। इस गोरखधंधे में सरकार ने जनता के खजाने से 25 करोड़ रुपये तक को फूँकने के लिए आवंटित कर रखा है। पूरे प्रकरण में एक गंभीर मसला यह है कि राज्य सरकार इन कमजर्फ कामों को बेधड़क होकर, महिला सशक्तीकरण, जनजागृति और समाज कल्याण का नाम पर करती है।
सब कुछ ऐसे ही चल रहा था। निर्विरोध। विपक्ष ने भी मजबूती से कोई विरोध दर्ज नहीं किया। पानी तब सर के ऊपर चला गया, जब हिंदुत्व की पैरोकार सरकार ने खुद को दुर्योधन और दुःशासन की जमात में खड़ा कर दिया। बीते जून आखिरी हफ्ते की बात है- राजधानी भोपाल से 600 किलोमीटर दूर शहडोल जिले में इस कौरवों की सेना ने 152 आदिवासी महिलाओं के कुँवारेपन को जाँचने की जुर्रत तक कर डाली। मर्दों के लिए ऐसी कोई जाँच नहीं थी। हो-हल्ला होने पर मुख्यमंत्री ने बहाना बनाया, कि यह कोई कुँवारेपन की जाँच नहीं थी, बल्कि बस यह पता करने की कोशिश थी कि कहीं, कोई गर्भवती औरत इस सरकारी आयोजन का गलत फायदा न उठा रही हो। यह योजना गरीब परिवार की विवाह योग्य लड़कियों, विधवाओं और परित्यक्ताओं की शादी के लिए है। गरीब परिवार की विवाह योग्य लड़कियों के साथ विधवा और परित्यक्ता का अलग से जिक्र इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार विधवा और परित्यक्ता को सामान्य नजरों से नहीं देखती। साथ ही, तलाकशुदा को परित्यक्ता कहकर, सरकार उन्हें बेहिचक गाली भी दिये जाती है, जबकि संभव है कि लड़की ने ही खुद अपने पति को छोड़ दिया हो। मुख्य बात है कि नियमतः उपरोक्त तीनों तरह की औरत को इस योजना का लाभ मिलना चाहिए था। ध्यान देना होगा कि निर्धन, विधवा या तलाकशुदा महिला अगर गर्भवती भी है और इस योजना के तहत शादी करना चाहती है तो सरकार को क्या परेशानी है? विवाह से कौमार्य या गर्भ का कोई वैज्ञानिक रिश्ता समझ में नहीं आता। कौमार्य और गर्भ का वास्ता तो बस स्त्री-पुरुष के बीच यौन-संबंध से है। याद रहे कि आदिवासी समाज में बिन विवाह के संभोग को अनैतिक नहीं माना जाता। याने ये घटनाक्रम आदिवासियों पर हिन्दू नैतिकता लादने की ओर भी इशारा करते हैं। देखना होगा कि, पुरुष वर्चस्व ने आधुनिक समाज में भी हमेशा विवाह के जरिए ही स्त्री की यौनिकता, श्रम और बच्चे जनने की ताकत पर हमेशा अपना कब्जा जमाये रखा है। इसी परंपरा को और पुष्ट करते हुए, औरतों के कुँवारेपन या गर्भ की जाँच की गयी होगी। साफ है कि औरतों को उस माल के रूप में देखा गया, जिसे बिना इस्तेमाल किए ही उसके ग्राहकों को सुपूर्द किया जाता रहा है। यह देखने के बाद भी क्या हमारी पूरी पीढ़ी शर्मिंदा होने से बच पायेगी?

1 टिप्पणी:

आलोक ने कहा…

आपका कहना सही है कि कन्यादान - अर्थात् किसी आम नागरिक का पाणिग्रहण संस्कार करना भारत की या भारत के किसी राज्य सरकार का काम कतई नहीं है और उन्हें इसमें नहीं पड़ना चाहिए था।

हाँ यदि विधवा विवाह या द्वितीय विवाह की बात होती तो उसे प्रोत्साहित करने के लिए समाज कल्याण के उद्देश्य से उठाए गए कदम का स्वागत करता।

कौमार्य परीक्षण? केवल योनि क्षत होने को ही कौमार्य का परिचायक मानना भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है। अतः यह परीक्षण अनुचित है। बहु-संस्कृतीय समाज की सरकार द्वारा ऐसे परीक्षण करना तो सर्वथा अनुचित है।