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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

विश्वशक्ति बनते भारत की कुपोषित-बीमार आबादी

- देवाशीष प्रसून

पूरी दुनिया में यह अभियान जोर-शोर से चल रह है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन का क़ानूनन अधिकार मिले। हमारे देश में भी लोगों ने इस बाबत कमर कस ली है। सरकार की नीति तो यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों को प्रतिमाह पैंतीस किलोग्राम अनाज सस्ते दर पर उपलब्ध करायी जाए, पर इस सरकारी नीति को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करते वक्त अगर नौकरशाही और ठेकेदारों की सेंधमारी न हुई होती तो शायद नज़ारा कुछ और ही होता। गौरतलब है कि सरकारी योजनाकारों द्वारा गरीबी की रेखा व प्रति परिवार सस्ते दर पर अनाज की मात्रा का आकलन भी बेहद अदूरदर्शी और मनगढ़ंत लगता है। बहरहाल, तक़रीबन ११० करोड़ की आबादी वाले देश में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक सन २००६ तक २५.१५ करोड़ लोग यानी आबादी का कम से कम बीस फीसदी हिस्सा भीषण रूप से कुपोषित था। यह हालात कमोबेश बरकरार है। जाहिर है इसका प्रमुख कारण खाने-पीने की चीज़ों का लोगों की पहुँच से बाहर होना है क्योंकि शौकिया तो कोई भूखा नहीं ही रहेगा।

जून २०१० में जारी विश्व बैंक का रपट कहता है कि भारत में जनवरी २०१० तक भोजन के थोक मूल्यों में वित्तीय वर्ष २००८-०९ के बनिस्बत जो बदलाव आए हैं, उससे भोजन तक लोगों की पहुँच मुश्क़िल हुई है। चीनी की कीमत ४२ फीसदी बढ़ी है और अनाज १४ फीसदी महँगे हुए हैं। दालों की कीमत में औसतन २८ फीसदी का उछाल आया है जबकि दूध, अंडे, मछलियों और सब्जियों के भाव भी मई तक ३५ फीसदी बढ़कर आसमान छूने लगे हैं। हालाँकि दूसरी ओर देखने वाली बात यह है कि इसी वक्त भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूँ और चावल का ४७५ लाख टन भंडारण हो चुका था, जो कि बफ़र स्टॉक से २७५ लाख टन फ़ाज़िल है। यानी खेती-किसानी की खस्ताहाल स्थिति के बावज़ूद भी सरकारी गोदामों में इतना अनाज तो है ही कि लोग भूखों न मरें। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में उनकी क्षमता से अधिक अनाज ठूँसे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। भूखे लोगों तक अनाजों को मुहैया कराने के बजाए विडंबना यह है कि या तो इन्हें चूहें हज़म कर जाते हैं या सड़ने के बाद इसे पानी में बहाया जा रहा है। अफ़सोस कि आज तक इन अनाजों के समुचित वितरण का सटीक और असरदार तरीका नहीं ढ़ूँढ़ा जा सका है। सरकार के लिए अब सिर्फ़ योजनाएँ बनाना नाकाफी है, ज्यादा ज़रूरी यह है ऐसी वितरण प्रणाली खड़ी की जाए जिससे ज़रूरतमंद लोगों का पेट आसानी से भर सके और हमारा समाज लंबे समय से चले आ रहे कुपोषण से मुक्त हो पाये।

२०१० के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक के मुताबिक ’सबसे भूखा कौन?’ के मुकाबिले में भारत अपने पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान और नेपाल से बहुत आगे है। कुल १२२ देशों में हुए अध्ययन में भारत ५५वाँ सबसे भूखा देश है। एक दूसरे स्रोत से पता चलता है कि दुनिया के कुल ९२.५ करोड़ लोगों की भूखी आबादी में से ४५.६ करोड़ लोग भारत में रहते हैं। क्या कारण है कि करीबन साढ़े आठ फीसदी की दर से तरक्की करने वाली इस देश की अर्थव्यव्स्था पर आश्रित आबादी में दो-तिहाई महिलाओं के शरीर में खून की कमी एक आम बात बन कर रह गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने भले ही, अस्थाई ही सही, सदस्यता हासिल की हो, लेकिन एक सवाल फन काढ़े खड़ा है कि जब इसके पाँच साल से छोटे बच्चे की लगभग आधी आबादी दिल दहलाने वाली कुपोषण का शिकार है तो भविष्य में इस देश की सुरक्षा की जिम्मेवारी किनके कंधों पर होगी? याद रहे, बचपन में मनुष्य का विकासशील शरीर अगर पर्याप्त पोषण जुटा नहीं पाता है तो इसका खामियाजा उसे ताउम्र भुगतना पड़ता है। भारतीय बच्चों में व्याप्त कुपोषण दरअसल देश की इंसानी नस्ल को शारीरिक और मानसिक तौर पर लाचार और कमजोर बना रहा है और इस कारण देश की सुरक्षा ही क्या, अब उसके पूरे अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि देश में होने वाली कुल बीमारियों में से २२ फीसदी बचपन में हुए कुपोषण के कारण होती हैं। सोचिए अब ऐसे हालात हैं तो क्या है इस देश का भविष्य? यही नहीं, कुपोषण का मामला इतना सपाट भी नहीं है, समाज के अलग-अलग तबकों की अलग-अलग कहानी है। ग़ौर करने वाली बात है कि देश में बच्चियाँ बच्चों से अधिक कुपोषित हैं और अनुसूचित जातियों व जनजातियों में कुपोषण का आँकड़ा सामान्य से कहीं अधिक है।

देश में भूख की इस गंभीर स्थिति के बाद भी सरकार के जानिब से बार बार इस तरह की बयानबाज़ी सुनने को मिलती रहती है कि हिंदुस्तान एक ताक़तवर मुल्क बनने की राह में बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। इन सरकारी दावों को विश्व अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे भी खूब हवा देते हैं। मीडिया का एक धड़ा भी इनके हाँ में हाँ मिलाता है। वाकई भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूती के पायदानों पर नित नई ऊँचाईयाँ हासिल कर रही है और इसके मद्देनज़र इस तरह की बातों का होना लाज़िमी भी है। लेकिन, आश्चर्य यह है कि आँकड़े तो कुछ और ही हाल बयान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पाँच साल पहले तक देश की ४१.१ फीसदी आबादी दिन भर में एक डॉलर याने चालीस-पैंतालिस रूपये से अधिक कमा नहीं पाती थी। यह स्थिति कमोबेश बरकरार है।

मगर, गौरतलब है कि अब भारत सरकार की बढ़ती कूवत की कई उदाहरण मिलने लगे हैं। ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों का है, जिसमें सरकार लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धनराशि और संसाधन खर्च कर रही है। किंतु, भारत की तुलना एक ऐसे परिवार से की जा सकती है, जहाँ बच्चे भूख से बिलख रहे हों और पिता अतिथियों को आमंत्रित करके स्वागत में राजसी भोजन परोस रहा है। हालाँकि इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के राजसत्ता की हैसियत पिछले दशकों के बरअक्स बहुत बढ़ी है, पर इसका फायदा अधिकतर जनता के नसीब में नहीं है। देश की ज्यादातर जनता अकाल जैसी स्थितियों में अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए कोल्हू का बैल बनी हुई है। जाहिर है उस देश की अमीरी का क्या मतलब, जिस देश में लोगों का स्वास्थ्य विश्व मानकों से बहुत नीचे हो। यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि महँगे कपडों से अपने कोढ़ को छुपाने की कोशिश की जा रही हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस साल जारी किए आँकड़ों से पता चलता है कि आज भी भारत में बच्चे को जन्म देते वक्त हर एक लाख माँओं में से साढ़े चार सौ माँएँ स्वर्ग सिधार जाती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति जलवायु के कारण नहीं है, क्योंकि अपने पड़ोस में बसा देश श्रीलंका प्रसव के दौरान एक लाख में केवल अठावन माँओं की जान को बचा पाने में चूकता है। यही संख्या पाकिस्तान में तीन सौ बीस माँएँ प्रति लाख माँ है, जो अधिक होने के बाद भी भारत से कम ही है। चीन में भी एक लाख माँओं में से पैंतालिस माँएँ मरने को विवश हैं, याने यह दर भारत में मरने वाली माँओं का दसवाँ हिस्सा मात्र है। खाद्य एवं कृषि संगठन से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक सन २००७ में हुई गणना में यह पाया गया कि भारत में दस हज़ार बच्चों में से औसतन ५४३ बच्चे जन्मते ही मर जाते हैं और ७१८ बच्चे पाँच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते हैं। यह सारे आँकड़े देशभर का औसत हैं और गाँवों की स्थिति तो और भी विभत्स है।

स्वास्थ्य संबंधी तकनीकियों का तड़ित गति से विकास होने के बाद भी यह सवाल क्यों खड़ा है कि देश में कुपोषण, बीमारियों और देखभाल की कमी के कारण अकालमृत्युओं की संख्या आसपास के अन्य देशों से अधिक है? जबाव जाहिर है कि भारत में विदेशियों को भले ही स्वास्थ्य पर्यटन पर आने के लिए रिझाया जा रहा हो, आमलोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ या तो नदारद हैं या नाकाफी। मौज़ूदा दशक पर एक नज़र दौड़ाए तो पायेंगे कि शहरी और ग्रामीण इलाकों को एकसाथ मिलाकर भारत में औसतन १६६७ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी एक चिकित्सक पर हैं। औसत का गणित यह है तो कहना न होगा कि ग्रामीण इलाकों मे जहाँ चिकित्सकों की कमी जगजाहिर है, वहाँ इस औसत से कितने अधिक लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा एक चिकित्सक पर होगा। याद रहे कि विश्वशक्ति बनने के होड़ में शामिल चीन और पाकिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बेहतर ही है।

देश में आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के कमी के क्या कारण हैं? सरकार जहाँ सैन्यीकरण पर पानी की तरह पैसा बहा रही है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन के रपट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद का ४.१ फीसदी खर्चा स्वास्थ्य पर किया जाता है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का २६.२ फीसदी बोझ ही सरकारी ख़जाने पर पड़ता है बाकी ७३.८ फीसदी देनदारी जनता की होती है। कुल मिलाकर देखे तो भारत में स्वास्थ्य के लिए सालाना १०९ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं और इसमें भी सरकारी हिस्सेदारी अत्यल्प है। चीन में स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च के २३३ डॉलर की राशि की भारत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। अरे! भारत से अधिक तो भूटान स्वास्थ्य मद में १८८ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च करता है।

कुल मिलाकर देखें तो एक बड़ा सवाल उभर के सामने आता है कि जहाँ की बीस फीसदी आबादी कुपोषित हो और बीमारियों का गिरफ़्त इतना विभत्स हो, वह देश किन आधारों पर किन लोगों के हित में विश्वशक्ति बनने के दावे पेश कर रहा है?

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संप्रति: पत्रकार और मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय

संपर्क सूत्र: देवाशीष प्रसून, ओझा-निवास, महामाया मार्केट, के के रोड, मोहल्ला जुरावन सिंह, लालबाग़ मुख्य डाकघर, दरभंगा – 846004 (बिहार)

दूरभाष: 09555053370 ई-मेल: prasoonjee@gmail.com