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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

रविवार, 9 जनवरी 2011

एक डॉक्टर से बिनायक सेन तक...

डॉ. बिनायक सेन पिछले तीन-चार दशकों से छत्तीसगढ़ के ग़रीब और मज़लूम आदिवासी जनता के डॉक्टर ही नहीं, बल्कि उनके सच्चे हमदर्द भी रहे हैं। डॉ. सेन को अमरीका के ग्लोबल हेल्थ काउंसिल द्वारा स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के लिये वर्ष २००८ का जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया था। विडंवना यह रही कि इस पुरस्कार को स्वीकार करने के लिये स्वयं वाशिंगटन डी.सी जाने की अनुमति भारतीय राजसत्ता और न्याय तंत्र द्वारा उन्हें नहीं दी गई। वह उस वक्त रायपुर के जेल में बंद थे। आश्चर्य इस बात का है कि डॉ. सेन पर यह पाबंदियां उन्हीं कामों के लिये लगायी गयी है जिन कामों लिये इस विश्वविख्यात संस्था ने एशिया के किसी व्यक्ति को पहली बार सम्मानित किया था। चाहे जिस तरह भी छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने का आरोप मढ़ते रहे, लेकिन असल मामला जगजाहिर है कि डॉ. सेन ने जिस तरह से छत्तीसगढ़ सरकार के प्रोत्साहन पर हो रहे बेशक़ीमती ज़मीन के कॉरपोरेट लूट और सलवा जुडूम के गोरखधंधे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, सरकार इसी बात का बदला उनसे ले रही है।

जब वे सलाखों के पीछे थे तो ग़रीब, मज़दूर व आदिवासी ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के कई तेजस्वी लोगों ने डॉ. सेन के रिहाई के लिए हल्ला बोल दिया। एक व्यापक जन-आंदोलन के चलते उनको जमानत पर रिहा किया गया। पर, २४ दिसंबर, २०१० को रायपुर की निचली अदालत ने डॉ. सेन को राजद्रोह का दोषी क़रार दिया। भूलना नहीं चाहिए कि इसी न्याय व्यवस्था ने सन १९२२ में महात्मा गाँधी को भी राजद्रोही माना था। भारत में राज भले ही बदल गया हो, लेकिन न्यायिक व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर अब भी चल रही है। कौन सा व्यक्ति राजद्रोही है और कौन देशभक्त, इस सवाल के अदालती जवाब को पहले भी शक सी नज़रों से देखा जाता था और आज भी। लेकिन इतिहास हमेशा याद रखता है कि समाज में किस व्यक्ति की क्या भूमिका रही है। डॉ. सेन को मिले ताउम्र कैद-ए-बामशक़्क़त की सज़ा से भारत ही नहीं, दुनिया भर का नागरिक समाज सकते में आ गया है। देश-विदेश के सभी विचारवान लोग, अपने अलग-अलग राजनीतिक विविधताओं के साथ रायपुर न्यायालय के इस फैसले को लोकतंत्र की अवमानना के तौर पर देख रहे हैं।

जमानत के दौरान डॉ. सेन जब जेल से बाहर थे तो उनसे बातचीत करने का मौका मिला, जिसका सारांश हमे डॉ. बिनायक सेन की शख़्सियत को समझने में मदद करता है। इस बातचीत में मैंने डॉ. सेन से उनके जीवन के उन संदर्भों को जानने का प्रयास किया है, जिसके बाद से उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह से जन-कल्याण के कामों में लगा दिया। उक्त बातचीत के आधार पर डॉ. बिनायक सेन के जीवन वृत्त का एक खाका खींचने की कोशिश की गई है।

डॉ बिनायक सेन कहते हैं कि सन ७६ के आसपास जब वो क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज़ में पढ़ाई कर रहे थे, उस समय चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए पैसा कमाने से अधिक रुझान नए-नए तकनीकों के जरिए विज्ञान की गूढ़ता से साबिका करना था। डॉक्टर अकसर अपने देश से पलायन करके समृद्ध देशों में अपनी सेवाएँ देने को लालायित रहते थे। जहाँ उन्हें तकनीक से और अधिक रू-ब-रू होने मौका मिलने की उम्मीद थी। यह दौर तकनीकी चकाचौंध का दौर था। तकनीक विज्ञान का पर्याय होता दिख रहा था।

लेकिन इसी दौर में कुछ और भी था, जिसने बिनायक के ध्यान को विदेशी तकनीकों के तरफ़ नहीं, बल्कि अपने देश के झुग्गियों और ग़रीब मोहल्लों की ओर मोड़ा। बाल चिकित्सा में एम.डी. करते वक्त उनका उठना-बैठना ऐसे शिक्षकों के साथ हुआ, जो आमलोगों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे थे। उनमें से एक थी – डॉ. शीला परेरा। डॉ. परेरा पोषण विज्ञान की जानकार थी और उन्होंने बिनायक को ग़रीब बच्चों के पोषण संबंधित विषय पर काम करने को प्रोत्साहित किया। बिनायक का यह काम उनके एम.डी. के लघु-शोध की शक्ल में था। पहली बार अस्पताल और मेडिकल कॉलेज से निकल कर उन्हें मरीज़ों के मर्ज़ और मर्ज़ के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समझने का मौका मिला। धीरे-धीरे वो समझने लगे कि किसी रोग को समझने के लिए बस जीव-वैज्ञानिक व्याख्या ही महत्वपूर्ण नहीं, अपितु रोगों के मूल में मौज़ूद सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्याख्याएँ भी समझना ज़रूरी है।

बाल चिकित्सा में विशेषज्ञता हासिल करने के बजाय बिनायक को एक ऐसी नौकरी की तलाश थी, जहाँ वो रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों को बेहतर समझ सकें। साथ ही, वह सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए भी काम करना चाहते थे। उनकी तलाश दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्गत चल रहे सामाजिक औषधि व सामुदायिक स्वास्थ्य अध्ययन केंद्र पर जा कर थमीं। इसी बीच कुछ प्रगतिशील चिकित्सकों ने मिलकर मेडिको फ्रेंड्स सर्कल का गठन किया। इसका उद्देश्य बीमारियों और जनस्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल करना था। बिनायक इन दोनों मंचों के जरिए समाज में व्याप्त रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का अध्ययन कर रहे थे। मेडिको फ्रेंड्स सर्कल की कोई खास राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। उनमें से कुछ चिकित्सक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहे छात्र संषर्ष वाहिणी के समर्थक थे तो कुछ मार्क्सवादी। पर एक बात जो सामान्य थी वो यह कि सब यह मानते थे कि रोग के इलाज़ में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारकों का निपटारा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

यह एक ऐसा समय था, जब सरकारें सभी दिक़्क़तों का हल तकनीकों के जरिए ही संभव होते देख रही थी। जैसे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए उन्हें एकमात्र विकल्प हरित क्रांति के रूप में सूझा। या जैसे, मलेरिया के रोकथाम में उन्होंने डीडीटी को कारगार पाया। लेकिन, सरकारों ने इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि ये सारे तकनीकी उपाय लंबे समय तक नहीं टिकेंगे। इस विकास में पुनरुत्पादन की गंभीर समस्या थी। तकनीकों के जरिए कृत्रिम विकास ही संभव है, जो विकास की एक मुसलसल प्रक्रिया को जारी नहीं रख सकता। तकनीक बस वे कृत्रिम हालात तैयार कर सकती है, जिससे हालात खास परिस्थियों में सुधरते नज़र आते हैं। असल में हालत सुधरते नहीं, तकनीकों के हटते ही, स्थितियाँ और बुरी हो जाती हैं। तकनीकों के मुकाबिले तमाम समाजिक समस्याओं, रोगों और विपन्नता को हराने के लिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उपाय ही महत्वपूर्ण है, ऐसा सरकारें अब तक नहीं समझ पायीं हैं।

सन ’७८ में बिनायक का पत्नी इलीना के साथ मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले में आना हुआ, जहाँ उन्होंने गाँवों में घूम-घूम कर तपेदिक के ग़रीब मरीज़ों का इलाज़ किया। सन ’८१ में बिनायक और इलीना पीयूसीएल से जुड़े। यह वो समय था जब दल्ली राजहरा में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों का मज़बूत संगठन अस्तित्व में आ चुका था। इस मज़दूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ था। नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया। पीयूसीएल ने इस गिरफ़्तारी की जाँच के लिए एक दल को दल्ली राजहरा भेजा। बिनायक इस जाँच-दल के सदस्यों में से एक थे।

बिनायक को जब इस इलाके की असलियत का पता चला तो उन्होंने यहीं रह कर लोगों के स्वास्थ्य के लिए काम करने का फ़ैसला लिया। नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों द्वारा संचालित अस्पताल में वे नियमित रूप से अपनी सेवाएँ देने लगे। इलीना भी स्त्री अधिकारों और शिक्षा के लिए काम करने लगीं। सन ’८८ में इन दोनों का रायपुर आना हुआ। जहाँ बिनायक ने तिलदा के एक ईसाई मिशनरी में काम किया। इलीना ने रूपांतर नाम से एक ग़ैर सरकारी संगठन की स्थापना की, जो मूलतः कामकाजी बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता था। ’९१ से बिनायक भी रूपांतर के साथ काम करने लगे।

छत्तीसगढ़ में महानदी बाँध के बनने से आदिवासियों का विस्थापन शुरू हो गया था। विस्थापित आदिवासी जनता जीवन-यापन के लिए जंगल में जाकर बस्तियाँ बसाने लगे। सरकार ने इसे आदिवासियों द्वारा जंगल का अतिक्रमण माना। ये बस्तियाँ सरकार के नज़र में ग़ैर-क़ानूनी व अनाधिकृत थी। इस कारण इन इलाकों में रहने वाले लोगों को सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रखा गया था। नगरी सेवा इलाके में भी कुछ ऐसे ही गाँव शामिल थे। सुखलाल नागे के बुलावे पर बिनायक ने यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराई।

पुलिसिया दमन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। ग़रीब और ग़रीब होते जा रहे थे। औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापन को आम जनता पर लादा जाने लगा। बस्तर में पीने के पानी का आभाव था, गंदा पानी पीने से लोगों के बीच हैजा फैल गया। सरकारी नीतियों से लोग त्रस्त होकर विरोध और प्रतिरोध करने लगे, तो उनके दमन के लिए उनका फर्ज़ी मुठभेड़ में विरोध करने वालों की लाश बिछाने की घटना आम हो गयी। लोगों के मानवीय अधिकारों के लिए आवाज़ बलंद करने और इन सभी परिस्थितियों से सामना करते हुए बिनायक ने अपने अंदर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता का विकास किया।

जैसे-जैसे समय बीतते गया, इलाके में कॉरपोरेट लूट बढ़ती गई। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से सरकार की ताक़तों में और भी इज़ाफ़ा हुआ। सन २००५ की बात है देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम को लागू किया। ग़ौर करें तो दोनों ही क़ानून जनविरोधी ही नहीं थे, बल्कि इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों व असहमतियों की स्वरों का गला घोंटने के लिहाज़ से बनाया गया था। एक लोकतांत्रिक समाज की एक जनतांत्रिक छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार जैसे व्यापारिक प्रतिष्ठान से गुप्त समझौता करती है। इसके बाद से यही सरकार आम जनता के सैन्यीकरण को प्रोत्साहित करने लगी। लक्ष्य था आदिवासियों की बेशक़ीमती ज़मीनों को इन कम्पनियों के लिए हथियाना। सलवा जुडूम के नाम को आम असैनिक जनता के सैन्यीकरण को नैतिक, आर्थिक. सामरिक और हथियारों से मदद कर के छत्तीसगढ़ में सरकार ने गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि बनाना शुरू किया। डॉ. सेन ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते उन्होंने देश भर के जागरूक लोगों को छत्तीसगढ़ में रहे इस अन्याय के प्रति आगाह किया और कालांतर में छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम को प्रश्रय देने के लिए शर्मिंदा होना पड़ा।

डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने के आरोप है, लेकिन डॉ. सेन का इस विषय पर बहुत पहले से स्पष्ट रूख रहा है। वे कहते हैं कि वह नक्सलियों की अनदेखी नहीं करते लेकिन उनके हिंसक तरीकों का समर्थन भी नहीं करते हैं। वह ज़ोर देते हुए कहते है कि मैंने हिंसा की बार-बार मुख़ालफ़त की है, चाहे वह हिंसा किसी ओर से की जा रही हो।


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पुराने घरों को उजाड़ कर बसता लवासा

- देवाशीष प्रसून


सरकार ने अपने कामों की फेहरिस्तों में विकास को सबसे अव्वल रखा है। देश में होने वाले विकास का सुख चाहे कोई भी उठाए, पर हम देख सकते हैं कि इसका मूल्य समाज का कमज़ोर तबके को ही चुकाता पड़ता है। मामला बाँध बनाने का हो, औद्योगिकरण या सेज़ का या शहरीकरण का, इसके लिए आवश्यक ज़मीने अक्सर ग़रीबों और आदिवासियों से ही अधिग्रहित की जाती हैं। इसके विरोध में, हमारे सामने लालगढ़, नंदीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर, रायगढ़ और नर्मदा बचाओ जैसे जन-आंदोलनों के कई उदाहरण मौज़ूद हैं। इन आंदोलनों को विकास के अंतर्विरोध के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो देश में गरीबों, दमितों व आदिवासियों के हित के लिए, मानवाधिकार की रक्षा के लिए और जनकल्याण को ध्यान में रख कर कई क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन असल धरातल पर बड़े-बड़े निगमों के हित के सामने ये अमूमन धरे के धरे रह जाते हैं।

देशभर में रफ़्तार पकड़ रही विकास की गाड़ी न जाने कितने गरीबों के घरों को हमेशा-हमेशा के लिए रौंद कर बेरोक-टोक आगे बढ़ रही है। नियमों को सरमायापरस्त ताक़तों के हक में तोड़ना-मरोड़ना और इसका विरोध करने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की ख़बरे आना आम बात हैं। जहाँ-तहाँ अंधाधूंध चल रहे कई विकास परियोजनाओं में से एक है पुणे और मुंबई के बीच बसाया जा रहा हिल स्टेशन लवासा। इसमें हो रही अनियमितताओं के बारे में शिक़ायते होनी तो शुरू हो गई है, पर चंद लोग इसकी गंभीरता को अपने पैसे और पहुँच के बदौलत कुचलना चाहते हैं।


लवासा वरसगाँव बांध के नज़दीकी इलाकों में फैला हुआ लगभग पच्चीस हज़ार एकड़ ज़मीन का वो टुकड़ा है, जिस पर कुछ बिल्डरों, नेताओं और मुट्ठी भर ताक़तवर लोगों के द्वारा भविष्य के एक पहाड़ी शहर का सपना संजोया जा रहा है। पर, खेती-किसानी के लिए उर्वर यह ज़मीन और सदियों से आदिवासियों-किसानों का बसेरा रहे इस वनक्षेत्र का लवासा शहर में तब्दील होना कई अनियमितताओं, स्थानीय लोगों के साथ हुई ज्यादतियों और उनको विस्थापित करने की कई साजिशों व अनदेखियों से पटा पड़ा है। २००१ में काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र में सत्ता में आने के बाद द लेक सीटी कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के जानिब से आए इकलौते प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाते लवासा नाम से अत्याधुनिक हिल स्टेशन विकसित करने का ठेका बिना किसी निविदा आमंत्रित किए उक्त कंपनी को दे दिया था। जाने-माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे की माने तो इस हिल स्टेशन के चलते महाराष्ट्र सरकार ने कई नियमों को ताक पर रखते हुए क़ानून-व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाया है व वहाँ पर पीढ़ियों से गुज़र-बसर कर रहे हज़ारों आम आदिवासी लोगों के वाजिब अधिकारों का लगातर हनन किया है।

ग़ौरतलब है कि केंद्र की सरकार में कृषि मंत्री व महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता शरद पवार का सीधे तौर पर हित लवासा कारपोरेशन के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनकी बेटी सुप्रिया सुळे और दामाद सदानंद सुळे की इस कंपनी में अच्छी हिस्सेदारी रही है। सुळे दंपत्ति को लवासा निगम में मालिकाना हिस्सेदारी दिए जाने के बाद से इस प्रोजेक्ट ने तूफ़ान से तेज़ रफ़्तार हासिल किया है।

१९७४ की बात है कि सार्वजनिक हित के काम के लिए बनाए जा रहे वरसगाँव बांध के लिए सरकार ने भू-अधिग्रहण किया, जिसके कुछ हिस्सा अब तक परती था। उच्च न्यायालय ने इस ज़मीन को इसके पुराने मालिकों को लौटाने के बजाए सार्वजनिक हित के काम में ही लगाने का फैसला लिया था। राज्य के जल संसाधन निगम के मातहत काम करने वाले महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम ने मनमाने तरीकों से लवासा के मालिकों को ज़मीन का यह १४१.१५ हेक्टेयर का टुकड़ा बहुत सस्ते दर पर उपलब्ध करा दिया। यही नहीं, देखने वाली बात यह भी है कि लवासा को वरसगाँव बांध से ३.०३ टीएमसी पानी देने का फैसला भी लिया गया। इस बांध के पानी से पुणे शहर की तमाम ज़रूरतें पूरी होती हैं और पिछले कुछ सालों से पुणेवासियों को पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। बावज़ूद इसके सरकार ने यह फैसला पुणे की ज़रूरतों के बारे में सोचे बिना ही ले लिया। शक की सूईयाँ फिर शरद पवार की ओर घूमती हैं, क्योंकि ये सारे फैसले उनके भतीजे अजीत पवार ने लिए थे। चिंता का विषय यह है कि अजीत को अब महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया है, याने पवार लवासा मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।

तत्कालिक राज्स्व मंत्री नारायण राणे का बयान आया कि इस मामले में कुछ अनियमितताएँ तो हैं, लेकिन इन अनियमितताओं को हर्ज़ाने वगैरह से नियमित कर लिया जाएगा। माने इरादा सफ़्फ़ाक़ साफ़ है कि कुछ भी हो जाए, भले नियमों और आमलोगों के हितों की धज्जियाँ ही क्यों न उड़ा दी जाए, लवासा तो बन कर ही रहेगा। लेकिन, पर्यावरण सुरक्षा की अनदेखियाँ को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त लगीं और तब से वहाँ के कामकाज को ठप्प किए जाने का आदेश है। देखने वाली बात है कि अब पर्यावरण मंत्रालय को लवासा कंपनी के लोग कब और कैसे मैनेज करेंगे।

प्रधानमंत्री को लिखे एक चिट्ठी में अन्ना हज़ारे ने ज़िक्र किया है कि इस प्रोजेक्ट के नाम पर बीस भली-भांति बसे हुये गाँवों को तबाह और हज़ारों लोगों को बेघर किया जा रहा है। सोचने वाली बात है कि अगर सरकार चुनिंदा लोगों के लिए नए अत्याधुनिक मानकों पर आधारित कई शहरें बसा भी ले तो उन गरीबों का क्या होगा जिनको अपने जगहों से बेघर कर दिया गया हो। इतनी ज़्यादतियों के बाद भी वे रहेंगे तो इसी देश, इसी समाज में। लेकिन जब हज़ारों को उजाड़ कर कुछ सौ के एहतिआत का क्या ख्याल रखा जाएगा, तो इससे पैदा हुई असमानताओं का सरकार किन तर्कों से बचाव करेगी। देश में अट्टालिकाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन विश्व बैंक के मुताबिक भारत की कुल चौदह फीसदी शहरी आबादी अब तक झुग्गियों में रहती है। जाहिर है लवासा जैसे शहरीकरण और विकास योजनाओं के चलते देश में अब तक चिह्नित कुल ५२००० झोपड़पट्टियों में कुछ इज़ाफा ही हो होगा। जाहिर सी बात है सामाजिक विषमता कोई प्रेम और सौहार्द का माहौल तो बनाएगी नहीं, इस भेदभाव से वैमनस्य ही भड़केगा।

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सोमवार, 14 जून 2010

नक्सलवाद और सरकार के अंतर्विरोध

- देवाशीष प्रसून

भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक रपटों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति है और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति विद्यमान है। यानी, देश के सत्ता तंत्र का इस मोर्चे पर विफल होने को लेकर कोई दो-राय नहीं है।

एक और सरकारी दस्तावेज़ का उद्धहरण लें। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया, जो यह जायजा लेता कि भू-सुधार के अधूरे कामों के मद्देनज़र राज्य के कृषि संबंधों की अभी क्या स्थिति है? माननीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में काम कर रहे इस आयोग द्वारा मार्च ’०९ में ड्राफ़्ट किये गए रपट के पहले भाग के चौथे अध्याय में जिक्र है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। रपट में अपनी ज़मीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों को ही भाकपा(माओवादी) के सदस्य के रूप में संबोधित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सरकारी दस्तावेज़ कहता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न सात गांवों व आसपास के इलाकों का अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। ये कोलंबस के बाद आदिवासी जमीन की लूट खसोट का सबसे बड़ा मामला है। ये वाक्य मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर नक्सल समर्थक होने की चिप्पी लगाकर मुझे प्रताड़ित किया जा सकता है, अब हर कोई अरुंधती जैसा बहादुर तो नहीं हो सकता! सच मानिये लूट-खसोट का यह आरोप उपरोक्त बताये गए ड्राफ्ट रपट से ही उद्धृत है। आश्चर्य है कि यहाँ जिस ड्राफ्ट रपट का जिक्र हो रहा है, इसका अंतिम स्वरूप जब अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया गया तो रपट का उपरोक्त पूरा हिस्सा ही गायब था। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था के गोरखधंधा को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यों व्यक्त किया है कि “ एक ही संविधान के नीचे...भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम...’दया है’...और भूख में...तनी हुई मुट्ठी का नाम...नक्सलवाड़ी है।

हालांकि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता है। लेकिन जब जनसाधारण पर व्यवस्था की संरचनात्मक हिंसा की सारी हदें पार हो जाती हैं तो इतिहास साक्षी रहा है कि आत्मरक्षा में लोगों की प्रतिहिंसा को टाला नहीं जा सका है। इस वर्गसंघर्ष में हो रही हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले में, हाल में, नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में लगाये गए प्रेशर बम से दो बार बड़ी संख्या में लोग मरे हैं। यह दिल दहला देने वाली घटना थी। पहले हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ७६ सशस्त्र जवान मारे गए। सरकार ने इसे जनसंवेदना से जोड़ना चाहा जैसे कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हुआ सबसे बड़ा हमला था। माहौल बनाया गया कि थलसेना और वायुसेना की मदद से नक्सलवाद जैसे ठोस जनसंघर्ष को बिल्कुल वैसे ही कुचला जाये, जैसे श्री लंका में तमिलों के जनसंघर्षों को कुचला गया। लेकिन, लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध की स्थिति है और युद्ध में सैनिक तो शहीद होते ही हैं। बुद्धिजीवियों ने नक्सली हिंसा के बरअक्स छत्तीसगढ़ में चल रहे इस युद्ध का विरोध किया। थल व वायु द्वारा नक्सलियों पर हमले पर आम-राय नहीं बन पायी। पर, नक्सलियों के अगली घटना ने कई लोगों के मन में नक्सलियों के लिए घृणा भर दिया है। इसमें एक ऐसी बस को निशाना बनाया गया जिसमें सवार कई निहत्थी औरतों और बच्चों की जान गयी। लेकिन, इस मामले में एक सवाल ऐसा है जो परेशान किये जाता है। एक युद्धक्षेत्र में हथियारबंद विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को आमलोगों, महिलाओं और बच्चों के साथ एक ही बस में क्यों भेजा गया? जबकि सैन्य बलों पर नक्सलियों का मंडराता खतरा दक्षिणी छत्तीसगढ़ में आमबात है, तो फिर क्या निर्दोष लोगों को एसपीओ के साथ भेज कर बतौर ’चारा’ इस्तेमाल किया गया, जिससे नक्सलियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले के लिए जनमानस तैयार हो सके? यह बस एक प्रश्न है, कोई इल्ज़ाम नहीं है सरकार पर। जबकि बकौल भारतीय वायुसेना जाहिर है कि वे चुनिंदा लोगों से लड़ने (सेलेक्टड कॉमवेट) में दक्ष नहीं है, इनकी दक्षता निशाने का मुकम्मल विनाश(टोटल कॉमवेट) करने में है, तो ऐसे में नक्सलियों के विरुद्ध अगर हवाई हमला हुआ तो स्पष्ट है कई निर्दोष जाने जायेंगी।

हाल में ही एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी है, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, डेढ़ सौ लोग मारे गए और दो सौ घायल हुए। आनन-फानन में बिना जाँच पड़ताल किये ही इसे नक्सली आतंक का नाम दिया गया। जबकि पाँच जून को एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में आयी ख़बर के मुताबिक माओवादियों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और भरोसा दिलाया कि माओवादियों द्वारा किसी यात्री ट्रेन व आमलोगों पर हमला नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के पीछे कौन है, वे इसकी जाँच कर रहे हैं और इसके दोषियों बख्शा नहीं जायेगा।

अलबत्ता सरकारी रपटों के मुताबिक नक्सलवाद की जड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विषमता में है। पर, दूसरी ओर सरकार और उनका पूरा प्रचार तंत्र नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। विचारने वाली बात है कि नक्सलवाद से किसको ख़तरा है? क्या गरीब, विपन्न, आदिवासी लोगों व उद्योगों, ख्रेतों और अन्य जगहों पर विषम परिस्थितियों में काम करने वाले बहुसंख्य मेहनतकश जनता को नक्सलवाद से ख़तरा है? या फिर देश के मुट्ठी भर पूँजीपतियों और उनकी ग़ुलामी घटने वाली करोड़ों मध्यवर्गीय जनता के लिए नक्सलवाद संकट का विषय है। ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना होगा।(समाप्त)

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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मजदूरों का बंधुआ बनना जारी है...

- देवाशीष प्रसून
अगर भारत सरकार या देश के किसी भी राज्य सरकार से पूछा जाये कि क्या अब भी हमारे देश में मजदूरों को बंधुआ बनाया जा रहा है, तो शायद एक-टूक जबाव मिले - नहीं, बिल्कुल नहीं। सरकारे अपने श्रम-मंत्रालयों के वार्षिक रपटों के जरिए हमेशा ऐसा ही कहती हैं। सन 1975 से देश में बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन का कानून लागू है। इस कानून के लागू होने के बाद से सरकारों ने अपने सतत प्रयासों के जरिए बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंका है, सरकारी सूत्रों से बस इस तरह के दावे ही किए जाते हैं। हालाँकि, हकीकत इसके बरअक्स कुछ और ही है।

गौर से देखें तो आज ठेके पर नौकरी का मतलब ही बंधुआ मजदूरी है। कारपोरेट जगत में भी एक नियत कालावधि के लिए कांट्रेक्ट आधारित नौकरी में अपने नियोक्ता के बंधुआ बनते हुये कई पढ़े-लिखे अतिदक्ष प्रोफेसनल्स देखने को मिल जायेंगे। क्योंकि एक तो उनके पास विकल्पों का आभाव है और दूसरा नौकरी छोड़ने पर एक भाड़ी-भड़कम रकम के भुगतान की बाध्यता। लेकिन श्रम के असंगठित क्षेत्रों में बंधुआ मजदूरी व्यवस्था का होता नंगा नाच दिल दहला देने वाला है।

बीते दिनों, बीस राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के कई शहरों में हुये एक सर्वेक्षण आधारित अध्ययन ने देश में बंधुआ मजदूरी के मामले में सरकारी दावों की पोल खोल रख दी है। असंगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिये बनायी गई राष्ट्रीय अभियान समिति के अगुवाई में मजदूरों के लिए काम कर रहे कई मजदूर संगठनों व गैर-सरकारी संगठनों के द्वारा किये गये इस राष्ट्रव्यापी अध्ययन से पता चलता है कि देश में बंधुआ मजदूरी अब तक बरकरार है। भले ही इसका स्वरूप आज के उद्योगों की नयी जरूरतों के हिसाब से बदला है, लेकिन असंगठित क्षेत्रों में हो रहा ज्यादातर श्रम, किसी न किसी रूप में, बंधुआ मजदूरी का ही एक रूप है। बार-बार यह तथ्य सामने आया है कि आज देश के ज्यादातर इलाकों में बंधुआ मजदूरी की परंपरा के फिर से जड़ पकड़ने के पीछे पलायन और विस्थापन का अभिशाप निर्णायक भूमिका निभा रहा है।

किसी मजदूर को अपना गाँव-घर छोड़ कर दूसरी जगह मेहनत करने इसलिये जाना पड़ता है, क्योंकि उसके अपने इलाके में आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते हैं। कहीं सूखा, कहीं बाढ़ और तो किसी के पास खेती के लिए अनुपयुक्त या नाकाफी जमीन, ऐसे में, वे लोग, जो बस खेतिहर मजदूर हैं, अपने इलाकों में खेती के बदतर स्थिति के कारण एक तो मजूरी बहुत कम पाते हैं और दूसरे समाज में विद्यमान सामंती मूल्यों के अवशेष भी उन्हें बार-बार कुचलते रहते हैं। बेहतरी की उम्मीद में ही वे पलायन करने को मजबूर होते हैं। बंधुआ मजदूरी का नया स्वरूप जो सामने आया है, उसमें मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा पलायन किये हुये मजदूरों का है।

खेती, ईंट-भट्टा, निर्माण-उद्योग और खदानों जैसे कई व्यवसायों में अपना खून-पसीना एक करने वाले मजदूरों को बडे ही सुनियोजित तरीके से बंधुआ बनाया जाता हैं। मजदूरों को नियुक्त करवाने वाले दलाल शुरुआत में ही थोड़े से रूपये बतौर पेशगी देकर लोगों को कानूनन अपना कर्जदार बना देते हैं। रूपयों के जाल में फँसकर मजदूर अपने नियोक्ता या इन दलालों का बंधुआ बन कर रह जाता है। अधिकतर मामलों में, ये दलाल संबंधित उद्योगों के नजर में मजदूरों के ठेकेदार होते हैं। इन ठेकेदारों से प्रबंधन अपनी जरूरत के मुताबिक मजदूरों की आपूर्ति करने को कहता है और मजदूरों के श्रम का भुगतान भी आगे चलकर इन्हीं ठेकेदारों के द्वारा ही किया जाता है। बाद में ये ठेकेदार या दलाल, आप इन्हें जो भी संज्ञा दें, मजदूरों के श्रम के मूल्यों के भुगतान में तरह तरह की धांधलियाँ करते हैं। नियोक्ता और श्रमिक के बीच में दलालों की इतनी महत्वपूर्ण उपस्थिति मजदूरों के शोषण को और गंभीर बना देती है। दलाल मजदूरों का हक मारने में किसी तरह का कोई गुरेज नहीं करते है, उन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देना तो दूर की बात है। मजदूरों का मारा गया हक ही इन दलालों के लिए मुनाफा है। ऐसी स्थिति में मजदूरों के प्रति
किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी, जैसे कि रहने और आराम करने के जगह की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं, बीमा, खाने के लिए भोजन और पीने के लिए पानी को सुलभ बनाना और दुर्घटनाओं के स्थिति में उपचार आदि से अमूमन नियोक्ता अपने आप को विमुख कर लेता है। नियोक्ता इन सब के लिए ठेकेदारों को जिम्मेवार बताता है तो ठेकेदार नियोक्ता को और ऐसे में मजदूर बेचारे बडे बदतर स्थिति में यों ही काम करने को विवश रहते हैं।

सबसे पहले, महानगरों में काम करने वाली घरेलू नौकरानियों का उदाहरण लें। गरीबी और भूख के साथ-साथ विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित हो रहे छत्तीसगढ़ और झाड़खंड के आदिवासी रोजी-रोटी के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं। ऐसे में आदिवासी लड़कियों को श्रम-दलाल महानगरों में ले आते हैं। उन्हें प्रशिक्षित करके दूसरों के घरों में घरेलू काम करने के लिए भेजा जाता है। इन घरों में ऐसी लड़कियों की स्थिति बंधुआ मजदूरों से इतर नहीं होती। अठारह से बीस घंटे रोज मेहनत के बाद भी नियोक्ता का व्यवहार इनके प्रति अमूमन अमानुष ही रहता है और इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन महिला मजदूरों का यौन शोषण भी होता होगा। इतने प्रतिकूल परिस्थिति में भी इनके बंधुआ बने रहने का मुख्य कारण आजीविका के लिए विकल्पहीन होने के साथ-साथ नियोक्ता के चाहरदीवारी के बाहर की दुनिया से अनभिज्ञता भी है। मजबूरन अत्याचार सहते रहने के बाद भी घरेलू नौकरानियाँ अपने नियोक्ता के घर में कैद रह कर चुपचाप खटते रहने के लिए बाध्य रहती हैं, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं है।

श्रमिकों पर होने वाला शोषण यहाँ रुकता नहीं है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों में महिलाओं के साथ-साथ पुरूष और बच्चे भी काम करते हैं। इन्हें भी काम दिलाने वाले दलाल गाँवों-जंगलों से कुछ रूपयों के बदौलत बहला फुसला कर काम करवाने के लिए लाते हैं। ईंट भट्टे का काम एक मौसमी काम है। पूरे मौसम इन श्रमिकों के साथ बंधुआ के तरह ही व्यवहार किया जाता है और इन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देने का चलन नहीं है। और तो और, अध्ययन के अनुसार महिलाओं के प्रति यौन-हिंसा ईंट भट्टों में होने वाली आम घटना है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों की खस्ताहाल स्थिति पूरे देश में एक सी है।

अति तो तब है, तब मजदूरों पर यह होता अन्याय एक तरफ सरकारों को सूझता नहीं, दूसरी ओर, खुलेआम सरकार अपने कुछ योजनाओं के जरिए बंधुआ मजदूरी को प्रश्रय भी देती हैं। बतौर उदाहरण लें तो बंधुआ मजदूरी का एक स्वरूप तमिलनाडु में सरकार के प्रोत्साहन पर चल रहा है। बंधुआ मजदूरी का यह भयंकर कुचक्र सुमंगली थित्ताम नाम की योजना के तहत चलाया जाता है। इस योजना को मंगल्या थित्ताम, कैंप कूली योजना या सुबमंगलया थित्ताम के नामों से भी जाना जाता है। इसके तहत 17 साल या कम उम्र की किशोरियों के साथ यह करार किया जाता है कि वह अगले तीन साल के लिए किसी कताई मिल में काम करेगी और करार की अवधि खत्म होने पर उन्हें एकमुश्त तीस हजार रूपये दिये जायेंगे, जिस राशि को वह अपनी शादी में खर्च कर सकती हैं। तमिलनाडु के 913 कपास मिलों में 37000 किशोरियों का इस योजना के तहत बंधुआ होने का अंदाजा लगाया गया है। इनके बंधुआ होने का कारण यह है कि करार के अवधि के दौरान अगर कोई लड़की उसके नियोक्ता कपास मिल के साथ काम न करना चाहे और मुक्त होना चाहे तो उसके द्वारा की गयी अब तक की पूरी कमाई को मिल प्रबंधन हड़प कर लेता है। साथ ही, कैंपों में रहने को विवश की गयी इन लड़कियों के साथ बड़ा ही अमानवीय व्यवहार होता है। इन्हें बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग रखा जाता है, किसी से मिलने-जुलने की इजाजत नहीं होती है। एक दिन में 17-18 घंटों का कठोर परिश्रम करवाया जाता है। हफ्ते में बस एक बार चंद घंटे के लिए बाजार से जरूरी समान खरीदने के लिए छूट मिलती है। इनके लिए न तो कोई बोनस है, न ही किसी तरह की बीमा योजना और न ही किसी तरह की स्वास्थ्य सुविधा। दरिंदगी की हद तो तब है, जब एकांत में इन अल्पव्यस्कों को यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक में आयी एक खबर के मुताबिक शांति नाम की गरीब लड़की को ढ़ाई साल मिल में काम के बाद भी बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिली। उलटे, मिल के मशीनों ने उसे अपाहिज बना दिया और प्रबंधन का यह बहाना था कि दुर्घटना के बाद शांति के इलाज में उसकी
पूरी कमाई खर्च हो गई।

बंधुआ मजदूरी की चक्कर में फँसने वाले अधिकतम लोग या तो आदिवासी होते हैं या दलित। आदिवासियों का बंधुआ बनने का कारण उनके पारंपरिक आजीविका के उन्हें महरूम करना है। तमिलनाडु की एक जनजाति है इरुला। ये लोग पारंपरिक रूप से सपेरे रहे हैं, लेकिन साँप पकड़ने पर कानूनन प्रतिबंध लगने के बाद से कर्ज के बोझ तले दबे इस जनजाति के लोगों को बंधुआ की तरह काम करने के लिए अभिसप्त होना पड़ा है। चावल मिलों, ईंट-भट्टों और खदानों में काम करने वाली इस जनजाति को हर तरह के अत्याचारों को चुपचाप सहना पड़ता है। तंग आकर जब रेड हिल्स के चावल मिलों में बंधुआ मजदूरी करने वाले लगभग दस हजार लोगों ने अपना विरोध दर्ज किया तो उन्हें मुक्त कराने के बजाए एक सक्षम सरकारी अधिकारी ने उन्हें नियोक्ता से कह कर कर्ज की मात्रा कम करवाने के आश्वासन के साथ वापस काम पर जाने को कहा। सरकारी मशीनरी की ऐसी भूमिका मिल मालिकों और अधिकारियों की साँठ-गाँठ का प्रमाण है।

कुल मिला कर देखे तो बंधुआ मजदूरी के पूरे मामले में एक बहुत बड़ा कारण आजीविका के लिए अन्य विकल्पों और अवसरों का उपलब्ध नहीं होना है। साथ ही, अब तक जो हालात दिखे हैं, उनके आधार पर सरकारी लालफीताशाही के मंशा पर भी कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। बंधुआ मजदूरी का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण स्थायी नौकरी के बदले दलालों के मध्यस्था में मजदूरों के श्रम का शोषण करने की रणनीति अंतर्निहित है। ऐसे में संसद और विधानसभा में बैठ कर उन्मूलन के कानून बनाने के अलावा सरकार को इसके पनपने और फलने-फूलने के कारणों पर भी चोट करना पड़ेगा।
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रविवार, 24 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ के अनुभव

छत्तीसगढ़ में ...
(डायरी के कुछ अंश, जनवरी २०१० के समयांतर में प्रकाशित)
- देवाशीष प्रसून
९ दिसंबर
सूचना मिली कि १२ और १३ दिसंबर २००९ को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पूरे देश से लगभग पच्चीस नारी अधिकार संगठनों की कार्यकर्त्ताएँ इकट्ठा
होने वाली हैं, जो राज्य सत्ता द्वारा किए जाने वाले दमनों के दौरान किए जाने वाली यौन-हिंसा पर अपनी जानकारियों, अनुभवों और इसके खिलाफ़ किए गए अपने संघर्षों को साझा करेंगी। यह कार्यक्रम २४ और २५ अक्टूबर २००९ को भोपाल में हुए यौन हिंसा एवं राजकीय दमन के विरुद्ध महिलाओं के साझा अभियान की निरंतरता में था। कार्यक्रम के अगले चरण में यह भी यह तय था १४ तारीख को इस सम्मेलन से कुछ प्रतिनिधि दंतेवाड़ा जिले के नेंड्रा गाँव में
जाकर बलात्कार-पीड़ित महिलाओं के प्रति अपनी हमदर्दी व्यक्त करेंगी। मैंने
निर्णय लिया कि मुझे भी इस आयोजन का एक हिस्सा बनना है। कारण - अव्वल तो ऐसे आयोजनों से देश के सुदूर इलाकों में हो रहें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का पता चलता है। दूसरा यह है कि इन आयोजनों में शिरकत करने से आमलोगों और जनजीवन से जुड़ी उन ख़बरों की जानकारी होती है, जो आज व्यावसायिक मीडिया के जरिए लोगों तक नहीं पहुँच रही हैं। वहाँ जाने का तीसरा और सबसे मह्त्वपूर्ण आकर्षण दंतेवाड़ा जाकर अपने देश के एक ऐसे हिस्से को समझना-बूझना था, जिसे तनावग्रस्त घोषित करके सरकार ने विदेशवत कर दिया है, जहाँ आप प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध नहीं आ-जा सकते हैं।
१२ दिसंबर
सुबह रायपुर पहुँचा। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्त्ताओं ने इस सम्मेलन में ठहरने और भोजन आदि की व्यवस्था संभाल रखी थी। नियत समय पर बैठक शुरू हुई। कार्यक्रम की शुरूआत में ही नारायणपटना में हुई राजकीय दमन पर चिंता व्यक्त की गई। वहाँ के आदिवासियों इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि जिन ज़मीनों को उनके पूर्वजों ने जंगल की सफाई करके खेती योग्य बनाया था, उस पर उनका हक़ होना चाहिए। लेकिन पुलिस ने मौज़ूदा ज़मींदारों का साथ दिया। आदिवासियों के प्रति अपने सौतेला रवैये के कारण पुलिस इस आंदोलन को कुलचने में लगी रही। आंदोलनकारियों की धर-पकड़ शुरू हुई। महिलाओं के खिलाफ यौन-हिंसा की गई। त्राहिमाम करते हुए जब आदिवासी जनता थाने में पहुँची, तब पुलिस ने उन पर गोलियाँ दागनी शुरू की, जिसके कारण दो लोगों की हत्या हुई और पच्चीसों लोग घायल हुए। इस मामले के तह तक जानने के लिए नारी अधिकार आंदोलनों से जुड़ी हुई कुछ महिलाएं उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक गई। मैं यह जानकर पहले दंग हुआ और फिर क्रोधित कि किस तरह से ज़मींदारों के गुंडों ने पुलिस की शह पर इस प्रतिनिधिमंडल की महिलाओं पर फब्तियाँ कसी, उन्हें लिंग आधारित गालियाँ दी और उनके वाहन चालक पर जानलेवा हमला किया। आज बैठक के पहले दौर में ही नारायणपटना के इन वारदातों की भर्त्सना करते हुए निंदा प्रस्ताव पारित किया गया।
बैठक के अगले चरण में नारी अधिकार संगठन की प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी
समस्याओं और उनसे जूझने के अपने संघर्षों से वाक़िफ़ कराया। अगर मैं नारी
अधिकार संगठनों की मौज़ूदा स्थिति में समस्याओं का सूत्रीकरण करूँ तो मैं बाज़ार के वर्चस्व को उनका दुश्मन पाता हूँ। जैसे एक प्रतिनिधि से यह जानकारी मिली कि किस तरह से यौन शक्तिवर्धक दवाओं के कारण स्त्रियों पर
उनके पतियों के द्वारा बर्बर यौन-हिंसा के मामले सामने आये हैं। जान कर दिल दहल गया कि एक महिला ने तो अपने पति के यौन-अत्याचारों से तंग आकर अपने योनिद्वार पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग़ लगा लिया। बाज़ार में सर्वत्र उपलब्ध ब्लू फ़िल्मों की सीडी पर चर्चा करते हुए एक प्रतिनिधि कहा कि इन फ़िल्मों के कारण पुरूष दाम्पत्य जीवन में स्त्रियों को उपभोग की वस्तु तक सीमित करके देखने लगे है और इस तरह से महिलाओं पर यौन हिंसा में इज़ाफ़ा हुआ है। पूरे बैठक के दौरान कई नारी अधिकार कार्यकर्ताओं ने कई बार शराब के चंगुल में फँसे पुरूषों द्वारा की जाने वाली हिंसा के लिए चिंता व्यक्त करते हुए इसके ख़िलाफ़ अपने संघर्षों के बारे में अपनी बात रखी।
१३ दिसंबर
सुबह नाश्ते के वक्त भोपाल से आयी एक कार्यकर्ता से बातों-बातों में बताया कि लेधा के मामले में आगे क्या हुआ? तारीख ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन यह मामला सन २००५-६ का रहा होगा। लेधा की शादी सरगुजा जिले के रमेश नगेशिया से हुई थी। चूँकी रमेश माओवादी विचारधारा का समर्थक था, इसलिए पुलिस ने लेधा पर भी नक्सली होने का ठप्पा लगाकर तीन सीआरपीफ जवानों की हत्या के अरोप में धर लिया। गिरफ़्तारी के वक्त वह गर्भवती थी। वकील
अमरनाथ पाण्डेय की कोशिशों के बल पर उसे प्रसव के लिए एक महीने की जमानत मिली, लेकिन कुल ढेड़ साल के कारावास के बाद ही उसे झूठे आरोप से मुक्त करवाया जा सका। पुलिस के बहलाने-फुसलाने पर लेधा ने अपने पति को
आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया। परंतु जब रमेश आत्मसमर्पण के लिए थाने में उपस्थित हुआ तो पुलिस अधीक्षक एस आर पी कल्लूरी के इशारे पर उसे गोली मार दी गई। लेधा का मुँह बंद करने के लिए उसे भी मारने क आदेश कल्लूरी ने दिया, लेकिन फिर यह कह कर उसकी हत्या नहीं की गई कि एक औरत की जान लेने की क्या ज़रूरत है? उसे चुप करने के लिए मौत से बड़ी प्रताड़ना भी हो सकती है। भय और शोक में लेधा तीन महीनों के लिए अपने मायके अंबिकापुर चली गयी। उसके लौटने पर घात लगा बैठी पुलिस उसे बलरामपुर थाने ले गई, जहाँ कल्लूरी ने उस पर यौन-अत्याचार किया। विद्रुप मानसिकता के पुलिस कर्मियों ने उसके योनि में हरी मिर्च डाल कर हैवानियत की सारे हदें लाँघ ली। लगातार दस दिनों तक यह सिलसिला चलते रहा। इस इलाके का कुख्यात एसपीओ धीरज जायसवाल एक ऐसा अतातायी है, जो जब चाहे किसी के साथ बलात्कार कर सकता है या किसी को भी नक्सली बताकर उसकी हत्या कर दे। धीरज ने भी थाने में लेधा के साथ शराब पी कर बलात्कार किया। पीयूसीएल की मदद से लेधा ने कल्लूरी और अन्य के ख़िलाफ़ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में मुकदमा किया था। भोपाल की जिस महिला से मैं लेधा के बारे में बातें कर रहा था, उन्होंने बड़े अफ़सोस के साथ बताया कि दवाब में आकर लेधा ने अपनी शिक़ायत वापस ले ली है।
१४ दिसंबर को दंतेवाड़ा जाने की योजना पर बातचीत होने पर पता चला कि वहाँ पहुँच कर हम हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम में जायेंगे और फिर
वहाँ की आदिवासी महिलाओं से मुलाक़ात होगी। यह भी पता चला कि हिमांशु
दंतेवाड़ा के नेंड्रा से शांति स्थापना और न्याय का माहौल बनाने की अपील के साथ पदयात्रा शुरू करने वाले हैं। हिमांशु एक गांधीवादी कार्यकर्ता है, जो अपने एनजीओ वनवासी चेतन आश्रम के जरिए जनकल्याण की सरकारी योजनाओं
को पूरा करते रहे है। लेकिन जब से हिमांशु ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार आदिवासियों को शिविरों से निकाल कर वापस गाँवों में उनका पुनर्वास करने का मुहिम छेड़ी है, तब से सरकार और व्यापारी वर्ग उन्हें नक्सली संबोधित करने लगा है। एक अख़बार से पता चला कि १० दिसंबर, मानवाधिकार दिवस के रोज राज्य समर्थित प्रतिक्रियावादी व्यापारियों के समूह ने माँ दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच के नाम से हिमांशु की गिरफ़्तारी की माँग की। जबकि विडंबना यह है कि वनवासी चेतना आश्रम के कार्यकर्ता दंतेवाड़ा में जो काम कर रहे हैं, उसे छत्तीसगढ़ सरकार को ही करना चाहिए था। इसके बरअक्स, सरकार आश्रम के कार्यकर्ताओं का दमन कर रही है। आश्रम के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। १० दिसंबर की ही बात है कि लगभग दिन के ढ़ाई बजे भैरामपुर पुलिस थाने के टीआई आश्रम से स्वयंसेवी कोपा कुंजाम को दंतेवाड़ा पुलिस कोतवाली में पूछताछ के बहाने ले गये। अल्बन टोप्पो एक अधिवक्ता हैं और इस समय आश्रम में मौज़ूद थे। क़ानूनविद होने के नाते उन्होंने कोपा के साथ कोतवाली जाना ज़रूरी समझा। उन दोनों को दंतेवाड़ा के बदले जबरन बीजापुर ले जाया गया, जहाँ दोनों की बुरी तरह पिटाई की गई।
१३ दिसंबर की रात और १४ का पूरा दिन
रात को ग्यारह बजे चार गाड़ियों पर सवार हम दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुए।
हमारे दल में ३४ महिलाएँ और ५ पुरूष थे। हमलोग आराम से रायपुर से निकले और धमतरी में भी हमें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही हम कांकेर की सीमा पर पहुँचे प्रतिकूल स्थितियाँ सामने आने लगी ।
रात के साढ़े बारह बज रहे थे। यह चारामा बस पड़ाव था। पड़ाव के सामने ही
पुलिस की चौकी थी, जहाँ हमें रोका गया था। पहले लगा कि यह रूटीन जाँच-पड़ताल है, फिर महसूस होने लगा कि हमें जानबूझ कर परेशान किया जा रहा
है। ज्यादातर पुलिस वाले नशे में थे। एक वर्दीधारी कहता है कि महिलाओं वाली गाडी को जाने दो और बाकी को रोक लो। हमने विरोध किया, वैसे भी सभी गाड़ियों में महिलाएँ थी। खैर, फिर चारों गाड़ी के चालकों को थाने के अंदर ले जाया गया। हमारे साथ आए लोगों को नाम, उम्र, पिता का नाम, पता आदि दर्ज किया जाने लगा। वह भय का माहौल बना रहे थे। लड़कियों से जानकारी लेते वक्त उनके लहज़े से अश्लीलता झलकती थी। एहतियातन जब मैं एक पुलिसकर्मी के पीछे जाकर खड़ा हो गया, यह देखने के लिए कि वह महिला साथियों से कैसा व्यवहार कर रहा है तो उसने बड़े सहज भाव में मुझसे कहा कि "नाम ही लिख रहे हैं, रेप नहीं कर रहे हैं"। मैं स्तब्ध रह गया। कितना आसान है इस आदमी के लिए महिलाओं पर क्रूरतम अत्याचार करना। मैं समझ गया कि यह उनके लिए आम बात थी। आये दिन वो ऐसी ज़्यादतियाँ करते होंगे। मैं सहम कर कुछ देर वही खड़ा रहा। कुछ देर बाद मैं एक और पुलिसकर्मी से बात करने लगा। मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ का है। वह कानपुर का था। मैंने जब यह जानना चाहा कि उसे इस तनावग्रस्त इलाके में अपने घर से दूर रह कर काम करना कैसा लगता है, तो मेरी उम्मीद के विपरीत उसने कहा कि बहुत मज़ा आता है, क्योंकि यहाँ लड़ने के मौके खूब मिलते हैं। आत्ममुग्धता के साथ उसने बताया कि दस नक्सलियों को मार कर ही वह हवलदार बना है। मैंने जानना चाहा कि वह कैसे आम ग्रामीण आदिवासी और नक्सली के बीच में फ़र्क़ करता है तो वह निरुत्तर हो गया। कुछ देर के रुक कर उसने कहा कि मेरा काम मारना है, बस मारना। घंटे भर में हमारे साथ के सभी लोगों का परिचय लिखा जा चुका था। पुलिस ने हमारी चार गाड़ियों में से एक गाड़ी के दस्तावेज़ अधूरे पाये और एक चालक का लाइलेंस नहीं था। मज़बूरन हमारी एक गाड़ी को रोक लिया गया। बाकी की तीन गाड़ियाँ अपने-अपने सवार को लेकर आगे बढ़ीं और जिस गाड़ी को रोक लिया गया था, उसके
सवार बस से आगे बढ़े।
लगभग बीस मिनट में हम माकड़ी में थे। डेढ बज रहे थे। बाकी के तीनों चालकों ने आगे जाने को एमदम मना कर दिया। शायद उन्हें चारामा थाने में बहुत डराया-धमकाया गया हो। और पुलिस को भी जो दस्तावेज़ चाराम में ठीक लग रहे थे, यहाँ गड़बड़ लगने लगे थे। जो भी हो, हम अब बिना गाड़ी के थे। महेंद्रा कंपनी की दो बसें माकड़ी ढाबे पर लगी हुई थी। उसके चालकों ने सवारियों को चढ़ाने की पहलकदमी दिखायी। हमें भी दंतेवाड़ा पहुँचाने को कोई जरिया चाहिए था, सो हमने तय किया कि हम आगे की सफ़र इन्हीं बसों से करेंगे। ढाई-तीन बजे हम माकड़ी ढाबे से निकले। लगभग बीस किलोमीटर की ही दूरी तय की होगी कि केशकाल में हमें फिर रोका गया, हमसे हमारी पूरी जानकारी दोबारा ली गई।
केशकाल के बाद फरसगाँव में भी जाँच-पड़ताल की पुनः सारी औपचारिकताएँ पूरी की गई। वो हमें रोक नहीं सकते थे तो लग रहा था कि वो हमें ज्यादा से
ज्यादा जितना विलंब करवा सकते थे, करवा रहे थे ।
बस में हल्की झपकी लगी होगी कि ऐसा महसूस किया कि बस रुकी हुई है। सुबह साढ़े पाँच-छ बज रहे थे। हमारी बस को कोंडागाँव पुलिस चौकी के नज़दीक रोक दिया गया था। फिर से वही जाँच-पड़ताल। साथ के लोग जो हमारे दल का हिस्सा नहीं थे, वे असहज महसूस करने लगे थे। वे लोग इस रास्ते से हमेशा गुज़रते रहते थे। कंडक्टर ने कहा कि पुलिस का हमारी कंपनी के बस के साथ पिछले पाँच सालों में पहली बार ऐसा व्यवहार रहा है। साथी सवारियों में गुस्सा बढ़ रहा था। उन्हें बताया गया कि माकड़ी से चढ़े ३९ लोग जब तक बस में रहेंगे, उन्हें ऐसे ही परेशान किया जायेगा। तब इन लोगों ने हम पर बस से
उतर जाने का दबाव बनाया। हमें लगा कि पुलिस हमसे बस छोड़ने को कह रही है, इसलिए हम ३९ लोग तत्काल बस से उतर गए। सामने ही कोंडागाँव पुलिस चौकी थी।
हमारे पूछने पर पुलिस के एक कर्मचारी ने कहा कि हमने तो आपको उतरने के
लिए नहीं कहा है, हम तो बस रुटीन जाँच-पड़ताल करे रहे थे। हमलोग ठगे से रह गए। वापस लौट कर हमने बस को पकड़ना चाहा, लेकिन जाहिर है पुलिस का दवाब बस वाले पर बना हुआ था। दरअसल पुलिस जाहिर तौर पर हमें रोक नहीं रही थी, सिर्फ़ बार-बार किए जाने जाँच-पड़ताल के नाम पर हमें समय पर दंतेवाड़ा पहुँचने नहीं देना चाहती थी, लेकिन बिना जाहिर किए वह बस वालों पर दवाब बनाकर हमें रोक भी रही थी। फिर हमने थाना प्रभारी के समक्ष अपनी सारी बातें रखी और छ्त्तीसगढ़ की आथितेय को धिक्कार देते हुए उस पर दवाब बनाने की कोशिश की। हमारे कुछ साथी उससे अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे। उन्हें बार-बार कहा गया कि पूरे देश में इसका बहुत ग़लत संदेश जायेगा। तब अचानक हमसे हमदर्दी जताते हुए हमारे लिए तीन जीप की व्यवस्था की गई। हमें यह भी कहा गया कि आगे कोरेनार के पास तीन-चार हज़ार लोग रास्ता जाम किए हुए हैं और पुलिस उनसे हमारी रक्षा नहीं कर सकती है। यह इशारा था कि पुलिस से आप तो बच सकते हैं, लेकिन सलवा जुडूम से आपको कौन बचायेगा?
आठ-नौ बजे तक स्पष्ट हो गया कि हमें दंतेवाड़ा पहुँचने के लिए कुछ और उपाय करने होंगे। कोंडागाँव का बस पड़ाव नज़दीक ही था। हमने तय किया कि अब वहीं से जगदलपुर के लिए बस करेंगे। जगदलपुल में एसपी से मिलकर आगे की योजना के बारे में सोचा जायेगा। स्थितियों को देखते हुए या तो आगे जाया जायेगा या वहीं प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके वापस रायपुर लौटना पड़ेगा। कुछ देर बाद हम जगदलपुल जाने वाली एक बस पर चढ़े, लेकिन अभी सभी लोग चढ़े भी नहीं होंगे कि बस मैनेजर ने कहा कि वह हमलोगों को जगदलपुर नहीं ले जा सकता है। कारण पूछने पर कोई जवाब नहीं मिला, फिर पता चला कि उसे पुलिस ने निर्देशित किया है। हम बुरी तरह थक चुके थे और दंतेवाड़ा जाने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था। आखिरकार, वापस रायपुर जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। देखते ही देखते कोंडागाँव बस पड़ाव पर कुछ पत्रकार जमा होने लगे। उनमें कौन पत्रकार था और खुफ़िया पुलिस यह जानना बहुत मुश्क़िल था। आसपास के लोगों और तथाकथित पत्रकारों से हमारे दल के लोगों ने बातचीत कर अपने पक्ष से उनलोगों को अवगत कराया।
फिर हम सब एक बस पर बैठे, जो हमें वापस रायपुर ले जाती। बस जब कांकेर के नये बस अड्डे पर पहुँची तो १५-२० लोगों वहाँ हमारा इंतज़ार कर रहे थे।
हमें देखते ही वह नारा लगाने लगे कि "नक्सलियों के नेता वापस जाओ",
"नक्सल समर्थक वापस जाओ"। हम हतप्रभ थे। मेरे मन में एक सवाल कौंधा कि क्या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हित में सोचना नक्सली होना है? आश्चर्य है इस राज्य के मानवता पर ! नारे लगाते कुछ लोगों में से यह भी सुनने में आया कि "उतारो उनको, मारो सालों को"। स्वाभाविक है, हम डर गये थे। कांकेर के पुराने बस अड्डे पर आते ही तुरंत तीन-चार लोग कैमरा ले कर बस में घुस गये और हमारे दल की युवा लड़कियों की तस्वीरें लेने लगे। मेरे विरोध करने पर उनमें से एक ने कहा कि "हम पत्रकार हैं, हमें अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो"। इसी तथाकथित पत्रकार ने नीचे उतर कर बस के पहिये का हवा निकाल दिया। जाहिर है, वो पत्रकार नहीं कोई लंपट असामाजिक तत्व ही थे।
इसी तरह कुछ देर तक जूझने के बाद हमारी बस आगे बढ़ी। इस बार हम सही-सलामत रायपुर पहुँच गये।
लेकिन, मामला यहाँ ख़त्म नहीं हुआ था। जब शाम को हम रायपुर में प्रेस से
मुख़ातिब होना चाह रहे थे, तो भाजपा के कुछ नेताओं ने प्रेस का ध्यान
बँटाने के लिए फिर वही बेबुनियादी नारे लगाने शुरू किए, जो कांकेर के बस
अड्डे पर लग रहे थे।
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गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

प्रतिरोधों की ज़मीन पर बुद्धिजीवियों का प्रवेश-निषेध

देवाशीष प्रसून
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में असंतोष की स्थिति में प्रतिरोध जनांदोलनों के लिए कोई जगह नहीं है। उलटे हमारी सरकार प्रतिरोधों और जनांदोलनों के प्रति हमेशा प्रतिक्रियावादी रही, जिनमें प्रतिरोधों के दमन के लिए असंतुष्ट जनता को झूठे कानूनी पचड़ों में फँसाने से लेकर उनको कैद करने, मारने-पीटने, फर्जी मुठभेड़ों में हत्या करने के साथ-साथ औरतों का यौन उत्पीड़न करना भी शामिल रहा है। देश में जहाँ-जहाँ असंतोष बढ़ा है और लोग अपनी असहमति जाहिर करते हुए सरकारी नीतियों और रवैये का प्रतिरोध कर रहे हैं, उन जगहों को सरकार ने धीरे-धीरे तनावग्रस्त घोषित कर दिया गया है। जब तमाम तरह के बुद्धिजीवी लोग इन इलाकों की स्थितियों की खुद पड़ताल करना चाहते हैं तो उन्हें उनके ही सुरक्षा के नाम पर रोका जाता है। भारत सरकार या राज्य सरकारें, जो आंतरिक सुरक्षा पर अकूत पैसा खर्च करती है, वो स्वतंत्र जाँचकर्ताओं के सुरक्षा के सवाल पर अपने हाथ खड़े कर देती है। सरकारी तंत्र इन क्षेत्रों में निष्पक्ष, गैर-सरकारी जाँच से हमेशा बचता है। बचता ही नहीं, इन मामलों में जाँचों को रोकने के लिए वो अपना पूरा बल लगा देता है। ऐसा करना सरकारी दमन की खबरों पर शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता।
उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक में चासी मुलिया आदिवासी संघ के नेतृत्व में आदिवासी अपनी ज़मीन हासिल करने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे। पुलिस ने इस मामले में गैर-आदिवासियों का पक्ष धरते हुए आंदोलन को छितर-बितर करने की पूरी कोशिश की। आदिवासियों की धर-पकड़ शुरू हुई। आदिवासी महिलाओं पर हुए बलात्कार के वारदातों की खबरें भी सुनने में आयी। नारायणपटना थाने के ओआइसी ने लोगों के शिकायत पर यह दिलासा दिया कि यह सब माओवादियों से निपटने के लिए किया जा रहा है और अब चासी मुलिया आदिवासी संघ को परेशान नहीं किया जायेगा। लेकिन जब दमन का सिलसिला नहीं रूका तो लोगों ने फिर थाने पहुँच कर अपनी सुरक्षा की गुहार लगानी चाही। ऐन वक्त पर पुलिस ने वहाँ पहुँचे लोगों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसायी, जिसमें दो लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। २३ नवंबर को सच्चाई सच्चाई का पता लगाने बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक दल जब नारायणपटना पहुँचा तो इस इलाके में घुसने से रोकने के लिए पुलिस ने पूरे दल को बहुत परेशान किया। यहाँ तक की पुलिस द्वारा इस दल के लोगों को पीटे जाने की बात भी सामने आयी। दिसंबर को देश के कई हिस्सों से आयीं सामाजिक कार्यकत्ताओं के एक और दल ने हालात का पूरा जायजा लेने के ख्याल से नारायणपटना जाने का फैसला लिया। जमींदारों के गुंडों ने इस शिष्टमंडल के साथ भी दुर्व्यवहार किया और यह सब पुलिस के इशारे पर और उनके संरक्षण में किया गया। तो फिर, ऐसा क्यों माना जाए कि पुलिस ने ये सब अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए किया है?
१४ दिसंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देश भर से आयीं लगभग पच्चीस महिला अधिकार मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नेंड्रा गाँव में बलात्कार पीड़ित महिलाओं से मिलकर उनसे सहानुभूति प्रकट करने फैसला लिया। रायपुर से चले ३४ महिलाओं और पुरुषों के इस शिष्टमंडल को कांकेर के चारामा बस पड़ाव पर रोका गया। मामूली बहानों के आधार पर वहाँ से उनके द्वारा किराये पर ली गयी चार गाड़ियों में से एक को पुलिस ने आगे नहीं बढ़ने दिया गया। हालाँकि अन्य वाहन चालकों को भी इतना डराया गया कि कुछ ही दूर पर माकड़ी इलाके तक पहुँचने के बाद चालकों ने आगे जाने इंकार कर दिया। मजबूरन इस दल के सदस्यों को बसों का सहारा लेना पड़ा, लेकिन जिन बसों पर इस दल के लोग सवार थे, उसको बार-बार नियमित पुलिस जाँच के नाम पर घंटों रोका जाने लगा। बस के अन्य सवारों को कहा गया कि जब तक ये बाहरी लोग बस में रहेंगे, बस को ऐसे ही रोका जायेगा। ऐसे में त्रस्त आकर शिष्टमंडल को बस्तर जिले के कोंडागांव में बस से उतरना पडा। कई कोशिशों के बावजूद उन्हें आगे दंतेवाड़ा नहीं जाने दिया गया। पुलिस ने यह इशारा भी किया गया कि रास्ते में आगे दो-तीन हजार लोगों की भीड़ ने रास्ता जाम कर रखा है और पुलिस उनसे कार्यकर्त्ताओं की रक्षा नहीं कर पायेगी। शिष्टमंडल पुलिस की मंशा से परिचित हो चुकी थी। दंतेवाड़ा जाकर पीड़ित महिलाओं को सांत्वना देने निकले शिष्टमंडल को आखिरकार भय के माहौल में रायपुर वापस लौटना पड़ा।
ये घटनाएँ तो बस बानगी हैं। ऐसी खबरें देश के हर तनावग्रस्त क्षेत्र से रही हैं। सवाल यह उठता है कि कोई इलाका जब तनावग्रस्त घोषित हो जाता है तो पूरी शासन व्यवस्था वहाँ के प्रतिरोधों को कुचलने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाती है। और अगर सच में दमन की ऐसी कोई स्थिति नहीं है तो सरकार स्वतंत्र पर्यवेक्षण से क्यों बचना चाहती है? ऐसा करना क्या उन जगहों पर हो रहे मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन और यौनात्याचारों पर पर्दा डाल कर आम लोगों पर हो रहे जुल्म--सितम का नंगा नाच यों ही जारी रखने का षड़यंत्र तो नहीं है? अगर इन इलाकों से सरकारी दमन की रिस-रिस कर आती खबरों में कोई सच्चाई नहीं है और ये एक मिथ्या प्रचार है तो सरकार को देश-विदेश के किसी भी स्वतंत्र पर्यवेक्षकों को तनावग्रस्त इलाकों की सच्चाई को उजागर करने से रोकना बंद ही नहीं करना चाहिए, बल्कि ऐसा करने में पर्यवेक्षकों की सुरक्षा की भी पूरी व्यवस्था करनी चाहिए।
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