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सोमवार, 14 जून 2010

नक्सलवाद और सरकार के अंतर्विरोध

- देवाशीष प्रसून

भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक रपटों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति है और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति विद्यमान है। यानी, देश के सत्ता तंत्र का इस मोर्चे पर विफल होने को लेकर कोई दो-राय नहीं है।

एक और सरकारी दस्तावेज़ का उद्धहरण लें। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया, जो यह जायजा लेता कि भू-सुधार के अधूरे कामों के मद्देनज़र राज्य के कृषि संबंधों की अभी क्या स्थिति है? माननीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में काम कर रहे इस आयोग द्वारा मार्च ’०९ में ड्राफ़्ट किये गए रपट के पहले भाग के चौथे अध्याय में जिक्र है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। रपट में अपनी ज़मीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों को ही भाकपा(माओवादी) के सदस्य के रूप में संबोधित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सरकारी दस्तावेज़ कहता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न सात गांवों व आसपास के इलाकों का अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। ये कोलंबस के बाद आदिवासी जमीन की लूट खसोट का सबसे बड़ा मामला है। ये वाक्य मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर नक्सल समर्थक होने की चिप्पी लगाकर मुझे प्रताड़ित किया जा सकता है, अब हर कोई अरुंधती जैसा बहादुर तो नहीं हो सकता! सच मानिये लूट-खसोट का यह आरोप उपरोक्त बताये गए ड्राफ्ट रपट से ही उद्धृत है। आश्चर्य है कि यहाँ जिस ड्राफ्ट रपट का जिक्र हो रहा है, इसका अंतिम स्वरूप जब अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया गया तो रपट का उपरोक्त पूरा हिस्सा ही गायब था। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था के गोरखधंधा को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यों व्यक्त किया है कि “ एक ही संविधान के नीचे...भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम...’दया है’...और भूख में...तनी हुई मुट्ठी का नाम...नक्सलवाड़ी है।

हालांकि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता है। लेकिन जब जनसाधारण पर व्यवस्था की संरचनात्मक हिंसा की सारी हदें पार हो जाती हैं तो इतिहास साक्षी रहा है कि आत्मरक्षा में लोगों की प्रतिहिंसा को टाला नहीं जा सका है। इस वर्गसंघर्ष में हो रही हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले में, हाल में, नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में लगाये गए प्रेशर बम से दो बार बड़ी संख्या में लोग मरे हैं। यह दिल दहला देने वाली घटना थी। पहले हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ७६ सशस्त्र जवान मारे गए। सरकार ने इसे जनसंवेदना से जोड़ना चाहा जैसे कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हुआ सबसे बड़ा हमला था। माहौल बनाया गया कि थलसेना और वायुसेना की मदद से नक्सलवाद जैसे ठोस जनसंघर्ष को बिल्कुल वैसे ही कुचला जाये, जैसे श्री लंका में तमिलों के जनसंघर्षों को कुचला गया। लेकिन, लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध की स्थिति है और युद्ध में सैनिक तो शहीद होते ही हैं। बुद्धिजीवियों ने नक्सली हिंसा के बरअक्स छत्तीसगढ़ में चल रहे इस युद्ध का विरोध किया। थल व वायु द्वारा नक्सलियों पर हमले पर आम-राय नहीं बन पायी। पर, नक्सलियों के अगली घटना ने कई लोगों के मन में नक्सलियों के लिए घृणा भर दिया है। इसमें एक ऐसी बस को निशाना बनाया गया जिसमें सवार कई निहत्थी औरतों और बच्चों की जान गयी। लेकिन, इस मामले में एक सवाल ऐसा है जो परेशान किये जाता है। एक युद्धक्षेत्र में हथियारबंद विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को आमलोगों, महिलाओं और बच्चों के साथ एक ही बस में क्यों भेजा गया? जबकि सैन्य बलों पर नक्सलियों का मंडराता खतरा दक्षिणी छत्तीसगढ़ में आमबात है, तो फिर क्या निर्दोष लोगों को एसपीओ के साथ भेज कर बतौर ’चारा’ इस्तेमाल किया गया, जिससे नक्सलियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले के लिए जनमानस तैयार हो सके? यह बस एक प्रश्न है, कोई इल्ज़ाम नहीं है सरकार पर। जबकि बकौल भारतीय वायुसेना जाहिर है कि वे चुनिंदा लोगों से लड़ने (सेलेक्टड कॉमवेट) में दक्ष नहीं है, इनकी दक्षता निशाने का मुकम्मल विनाश(टोटल कॉमवेट) करने में है, तो ऐसे में नक्सलियों के विरुद्ध अगर हवाई हमला हुआ तो स्पष्ट है कई निर्दोष जाने जायेंगी।

हाल में ही एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी है, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, डेढ़ सौ लोग मारे गए और दो सौ घायल हुए। आनन-फानन में बिना जाँच पड़ताल किये ही इसे नक्सली आतंक का नाम दिया गया। जबकि पाँच जून को एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में आयी ख़बर के मुताबिक माओवादियों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और भरोसा दिलाया कि माओवादियों द्वारा किसी यात्री ट्रेन व आमलोगों पर हमला नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के पीछे कौन है, वे इसकी जाँच कर रहे हैं और इसके दोषियों बख्शा नहीं जायेगा।

अलबत्ता सरकारी रपटों के मुताबिक नक्सलवाद की जड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विषमता में है। पर, दूसरी ओर सरकार और उनका पूरा प्रचार तंत्र नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। विचारने वाली बात है कि नक्सलवाद से किसको ख़तरा है? क्या गरीब, विपन्न, आदिवासी लोगों व उद्योगों, ख्रेतों और अन्य जगहों पर विषम परिस्थितियों में काम करने वाले बहुसंख्य मेहनतकश जनता को नक्सलवाद से ख़तरा है? या फिर देश के मुट्ठी भर पूँजीपतियों और उनकी ग़ुलामी घटने वाली करोड़ों मध्यवर्गीय जनता के लिए नक्सलवाद संकट का विषय है। ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना होगा।(समाप्त)

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