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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो!

- देवाशीष प्रसून


कुछ बातें
किताबों को पढ़कर
नहीं समझी जा सकती।
पनियाई आँखों में दुःख हरदम नहीं है
अपने प्रियतम से विछोह की वेदना।
फिर भी, हृदय में उठती हर हूक से
न जाने, संवेदनाओं के कितने
थर्मामीटर चटक जायें।
और यह टीस
किसी का मंज़िल से
बस कदम-दो कदम की दूरी पर
बिछड़ जाने भर का
अफ़सोस भी नहीं है।
प्रेम है एक एहसास -
माथे पर पड़ते बल और पसीने की धार के बीच
अपने साथी के साथ
एक खुशनुमा ज़िंदगी जीने का।

प्रेम की बात चली है तो सबसे पहले उन एहसासों की बात की जाए जो अपनी जीवनसंगिनी फगुनी के मन को पढ़ते हुए दशरथ माँझी के दिल को छू गए थे। गांव की दूसरी औरतों के ही तरह फगुनी भी पहाड़ी लांघ कर पानी लाने जाया करती थी। रास्ता आने-जाने के लिए बिल्कुल भी सही नहीं था। लेकिन, गांव वालों के पास हर छोटी-बड़ी चीज़ों को लाने के लिए पहाड़ी के पार जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। पानी लाने गई फगुनी लौटते हुए एक बार इस दुरूह रास्ते का शिकार हो कर ज़ख्मी हो गई। ज़ख्मी फगुनी की तक़लीफ़ सिर्फ़ फगुनी की ही नहीं थी, दशरथ भी इस दर्द से तड़प रहा था। मोहब्बत का जन्म संवेदनाओं से होता है, लेकिन संवेदनाओं के स्तर पर केवल ऐक्य स्थापित करना ही दशरथ के लिए आशिक़ी नहीं थी। उसके लिए प्रेम के जो मायने थे, उसे पूरा करने के लिए उसने इतिहास के पन्ने पर मोहब्बत की वह किताब लिखी, जिसमें प्रेम समाज में प्रचलित मोहब्बत के तमाम बिंबों को पीछे छोड़ देता है। बिहार के गया जिले के सुदूर गाँव गहलौर में सन १९३४ में जन्में समाज के अतिवंचित तबके से आने वाले महादलित मुसहर जाति के इस अशिक्षित श्रमजीवी को इतना ज्ञान तो था ही कि असल मोहब्बत तन्हाईयों में आहे भरने और एक-दूसरे को रिझाने के लिए की जाने वाली लफ़्फ़ाजियों से इतर जीवन का एक महान लक्ष्य होता है। ऐसा लक्ष्य जिसे महसूस करते ही दशरथ ने यह प्रण लिया कि अब कुछ भी हो जाए, जिस पहाड़ के कारण उसकी प्राणप्रिया तकलीफ़ में है, उस पहाड़ को खोद कर वह उसमें एक रास्ता बना देगा। और फिर क्या था? सन १९६० में शुरू कर १९८२ तक बाइस साल के अपने अथक मेहनत के बदौलत दशरथ ने सिर्फ़ हथौड़ी और छेनी की मदद से गहलौर घाटी के पहाड़ी के ओर-छोड़ तीन सौ साठ फीट लंबा, पच्चीस फीट ऊँचा और तीस फीट चौड़ा रास्ता खोद डाला। पटना से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पर बसे हुए गया जिला के अतरी और वज़ीरगंज़ ब्लॉक के बीच की दूरी दशरथ के इस प्रेम के कारण पचहत्तर किलोमीटर से कम होकर जब एक किलोमीटर हो गई तो दुनिया भर की निग़ाहें इस असल जीवन के नायक पर पड़ीं, जिसने हक़ीक़त में अपने महबूब की तक़लीफ़ों के मद्देनज़र पहाड़ को हिला कर रख दिया था। असल में मोहब्बत का उफ़ान यही है और हक़ीकत भी। राधा-कृष्ण की कहानी में प्रेम कम, कभी उत्सव है तो कभी विलगाव। हीर-रांझा की कहानी का केंद्रीय भाव भी विछोह की वेदना से अधिक कुछ नहीं है। मोहब्बत के इन दोनों महान कहानियों में व्यक्तिगत प्रेम का उत्थान समाज के हित में कभी नहीं उभरता है। आमतौर पर लोग आशिक़ी में मर्दानगी साबित करने के लिए, भले करने की कूवत किसी के पास न हो, पर चांद-तारे तोड़ लाने की कसमें खाते हैं और औरतें अपना सर्वस्व निछावर करने का वादा करती हैं। लेकिन, दशरथ का यों पहाड़ खिसका देना मोहब्बत में वो मायने भरता है, जो निजी संवेदनाओं से जन्म लेकर मेहनत के रास्ते से होकर महान मानवीय संवेदनाओं की ओर बढ़ता है और समाज और सभ्यता के लिए वरदान बन जाता है।

आम धारणा के विपरीत मोहब्बत का मसला निजी तो बिल्कुल नहीं होता है। जो लोग इश्क़ को व्यक्तिगत मसला कहते है, यकीन मानिए वो अब तक इश्क़ के हक़ीकत से अंजान हैं। असलियत में यह पूरे समाज और सभ्यता का मसला है और साथ में सियासी भी। जो कि अलग-अलग मनोवैज्ञानिक और आर्थिक माहौल में अलग अलग तरीकों से निकल कर अपना एक खास चेहरा अख़्तियार करता है। एक ज़माना था जब मोहब्बत की तुलना इबादत से की जाती थी। सूफी संतों ने मोहब्बत को भली भांति समझा और दुनिया भर में इसका पैग़ाम दिया। कुछ सूफ़ी संतों ने खुदा को मोहब्बत माना तो कुछ ने मोहब्बत को ही खुदा समझा। अमीर खुसरो ने सीधे-सीधे कहा कि किस तरह से प्रेम में धर्म और रीति-रीवाज़ पीछे छूट जाता है। इस बात की सच्चाई इस बदौलत आँकी जा सकती है कि कई सदियों बाद आज भी हम उनकी पंक्तियाँ गाते और गुनगुनाते है। छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाइके...प्रेम भटी का मदवा पिलाइके...मतवारी कर लीन्ही मोसे नैना मिलाइके...। फिर एक दौर वह भी था जब आशिक़ी में मर्द अपनी ताक़त, कठोरता और हासिल करने के हुनर को साबित करते फिरता था। औरतों के लिए हुस्न, नखरे और समर्पण को ही इश्क़ के मतलब के रूप में गिनाया जाता था। आज की दुनिया कुछ और है। आज के इश्क़ में तर्क, विवेक और परस्पर सम्मान के साथ इंसानी स्वतंत्रता का भाव सर्वोपरि होता है। यह इश्क़ के उन बिंबों को नहीं मानती है, जिनमें परवीन शाकिर कहती हैं कि क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी। इश्क़ में कोई क्या-क्या करता है, यह इंसान-इंसान या उसके इश्क़-इश्क़ पर निर्भर है। याने किसी इंसान का मोहब्बत के लिए क्या नज़रिया हो, यह उसके जीवन के पूरे फलसफे पर निर्भर होता है। जैसी ज़िंदगी के प्रति समझदारी, वैसी ही उसकी मोहब्बत।

हर एक इंसान इस दुनिया में अकेला ही आता है। वह मरता भी अकेले ही है। हालांकि वह अपने चारों ओर एक सामाजिक घेरा ज़रूर बुना हुआ पाता है, जिससे उसे सामूहिकता का बोध होता है और जिससे उसे यह भी लगते रहता है कि उसका अकेलापन दूर हो रहा है। अकेलापन दूर करने की ज़हद में जीवन में तमाम तरह के प्रेम से इंसान का साबका पड़ता है। सबसे पहले माँ, फिर पिता, फिर परिवार और फिर मित्र और समाज। मगर इन सब के बाद भी, हर इंसान को दुनिया में बाकी लोगों से अकेले छूट जाने का भय हमेशा सताता रहता है। वह अपने मन में एक खालीपन को हमेशा महसूस करते रहता है। यह शून्यता उसके अकेलेपन को असह्य बना देती है। ऐसी स्थिति में उसे लगता है कि कोई एक तो हो जो उसका हर समय, हर हाल में साथ दे। जीवन भर साथ देने की उम्मीद केवल आप अपने जीवनसाथी से ही कर सकते हैं और किसी दूसरे के साथ ऐसी कोई व्यवहार्य स्थिति बन नहीं पाती है। एक खास बात यह कि यही वह व्यक्ति होता है जो आपके समजैविक ज़रूरतों को भी साझा कर सकता है। उसकी तलाश में मन में इस तरह के भाव उभरते रहते हैं कि

उदासियों में तुम्हारा कंधा
सिर रखकर रोने के लिए;
और छातियों के बीच
दुबका हुआ चेहरा -
जो छुपाना चाहेगा
इस एकाकी जीवन में
अलग छूट जाने के अपने डर को।
गोद में सोना निश्चिंत
पाकर तुम्हारा प्रेम
और यह एहसास कि
अकेले मुझे, दुनिया में
नहीं रहने दोगी तुम।

अकेलेपन से मुक्त होने की प्रक्रिया में यह आवेग इश्क़ का बहुत ही शुरूआती दौर का आवेग है। इसके तहत जीवन को किसी और इंसान के साथ साझा करने की प्रबल कामना हिलकोरे मारती रहती है। संभोग जीवन के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के अलावा दो इंसानों के जीवन साझा करने की इस कामना को तृप्त करने की चरम अनुभूति का अहसास भी कराता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक़ यह सब मनोवृत्तियाँ इंसानी फ़ितरतों का लाज़िमी हिस्सा हैं। ये सारी प्रवृत्तियाँ ज़िंदगी में मोहब्बत की ज़रूरतें ही पैदा नहीं करते बल्कि उनके लिए ज़मीन भी तैयार करती हैं, लेकिन इसी को मुकम्मल आशिक़ी मान लेना ज़ल्दबाज़ी होगी।

अकेलापन दूर करने के लिए किसी भी इंसान को अपनी मौज़ूदगी का औरों के बीच दिलचस्प और उपयोगी बनाना ज़रूरी है, ताकि उस व्यक्ति के पास लोगों से घिरे रहने का कारण हो। जैसे कि मोटे तौर पर देखे तो इसके लिए एक इंसान अपने सक्रिय प्रयासों के बदौलत अपने आसपास के लोगों और माहौल को बेहतर और खुशनुमा बनाने के लिए सतत सृजनशील रहता है। सृजन करते रहने के लिए किसी दबाव के बिना काम करना ज़रूरी है। अपनी सृजनशीलता की अभिव्यक्ति के लिए किसी इंसान को मानवीय स्वभावों के अनुरूप ही काम करना होगा, जो है- अपने विवेक, अपनी अभिरूचि और अपनी चेतना का इस्तेमाल करते हुए कुछ नया सृजन करते रहना। कुल मिलाकर इन गतिविधियों से वह अपने अस्तित्व के औचित्य को सिद्ध करने की जुगत में लगा रहता है। ये सारी गतिविधियाँ ही सही मायने में इंसानी प्रेम का खाका खींचती हैं। जाने-माने मनोवैज्ञानिक एरिक फ्रॉम ने भी आशिक़ी को कुछ नया रचने और सँवारने की अपनी क़ाबिलियत को जाहिर करने का ही तरीका बतलाया है। इसे ही संक्षेप में रचनात्मकता या सृजनशीलता की अभिव्यक्ति कहा गया।

ध्यान देने वाली बात है कि समग्रता में सही प्रेम को समझने के लिए उन भावनाओं को भी समझने की ज़रूरत है, जिनको हम अक्सर प्रेम मान बैठते हैं, पर असलियत में वे एहसासात प्रेम नहीं, बल्कि प्रेम का भ्रम मात्र होते है। तन्हाई या जीवन में अलग-थलग छूट जाने के शाश्वत डर से उबरने के जो उपाय परंपरावादी तरीके से तैयार किए गए है, मसलन ईश्वर की भक्ति या कला का आस्वादन या नशाखोरी आदि, वे सब बाद में घूम-फिर कर इस डर को और गहरा ही कर देते हैं। जब किसी व्यक्ति को प्रेम का भ्रम होता है तो उसे लगता है कि वह फ़लाँ व्यक्ति, जिससे प्रेम होने का दावा वह करता है, के बिना उसकी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं बचा है। ऐसे में वह अपने तथाकथित माशूक़ के बारे में दिन-रात, हर वक्त सोचता ही रहता है, हक़ीकत में करता कुछ नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रेम सक्रियता की माँग करता है। इसमें अपने प्रेम का इज़हार सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपनी मेहनत और समझदारी से, सामने वाले की ज़िंदगी में अपना औचित्य साबित करके करना ज़रूरी है। ग़ालिब ने कहा है कि ये इश्क़ नहीं आसान...बस इतना समझ लिजे...एक आग का दरियाँ है और डूब कर जाना है। यह आग का दरियाँ सही मायने में जीवन के तमाम संघर्ष हैं, जिनसे जूझते हुए ही हर आशिक़ को आशिक़ी से गुज़रना होता है। रुमानियत से लबरेज़, ख्वाबों-ख़यालों में हुई मोहब्बत, असलियत में प्रेम का भ्रम होती हैं और इससे अधिक कुछ भी नहीं। कुछ नहीं करना, गो कि किसी काम में मन नहीं लगना, खाने-पीने का मन न करना, नींद उड़ जाना, किसी और से बात करने का मन न होना आदि फ़ितरत किसी के भी शख्सियत को उबाऊ बना सकती हैं। और ऐसा करके कोई इंसान किसी तरह से अपने इरादों और हौसलों को भी मज़बूत नहीं कर पाता है और आख़िरकार, ये सब अकर्मण्यताएँ दुःख, विरह और विछोह का सबब बन कर रह जाती हैं।

अपनी क़ाबिलियत दूसरों के सामने साबित करने से ज़्यादा ज़रूरी यह होता है कि आप खुद को अपनी सृजनशीलता से संतुष्ठ करें। गौरतलब यह है कि कोई आप से प्रेम करता है कि नहीं इससे पहले का सवाल यह है कि क्या आप को अपने आप से प्रेम है? कहते भी हैं खुदी को कर बुलंद इतना कि तेरी तक़दीर से पहले खुदा तुझसे खुद पूछे कि तेरी रज़ा क्या है। याने जिसे खुद पर भरोसा होता है, वह जो चाहता है हासिल कर लेता है। इसी तरह आशिक़ी की शुरूआत पहले खुद से होती है और फिर इसका फलक दुनिया भर में फैलता है। अंत में जिस इंसान से साथ हम अपनी ज़िंदगी साझा करते हैं, वह हमारे दुनिया भर के प्रति प्रेम का चेहरा होता है। और हाँ, अगर कोई अपने माशूक़ के अस्तित्व में ही अपनी तमाम उत्पादक शक्तियाँ तलाशने लगे और उसे ही अपनी पूरी आत्मबल का प्रतिनिधि मानने लगे तो वह अंततः अपने आप से विलगा ही रहेगा। ऐसे ही प्रेम की कल्पना बुल्ले शाह ने कुछ इस तरह की है:

'रांझा-रांझा' करदी हुण मैं आपे रांझा होई

सद्दो मैनूं धीदो रांझा हीर न आखो कोई

देखने वाली बात है कि यह मोहब्बत नहीं है, बल्कि उसका एक सुनहरा धोखा है बस। नाम रटन करते हुए माशूक़ से मिलने की आस में ख्यालों में बुनी हुई आशिक़ी दरअसल मोहब्बत का एक ख़तरनाक भ्रम है, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। व्यावहारिक रिश्ते के बिना इसमें तन्हाई के हालात बने रहते हैं। ख्यालों में की गई मोहब्बत में या किसी से मन ही मन प्रेम करना और किसी तरह की गतिशीलता के बिना किया गया प्रेम, यक़ीन मानिए असलियत प्रेम नहीं, बल्कि प्रेम का धोखा है।

जैसा कि पहले ज़िक्र हुआ कि जिस इंसान के इश्क़ में आप होते हैं, वह व्यक्ति आपके अंदर पूरी क़ायनात के लिए जो आपका प्रेम पल रहा होता है, उसकी नुमाइंदगी भर कर रहा होता है। लेकिन मुश्क़िल यह है कि किसी व्यक्ति-विशेष के व्यापक प्रेम की नुमाइंदगी हर कोई नहीं कर सकता है। इसके लिए दोनों के जीवन का फ़लसफ़ा एक होना ज़रूरी है। मोहब्बत में ज़िम्मेवारी कर्तव्य और अधिकार के युग्म के जरिए नहीं पनपता है, बल्कि इस रिश्ते में ज़िम्मेवारी एक उत्सव-निर्झरी है, जिसमें लोग तमाम उम्र भींगते रहना चाहते है। दोनों की उपस्थिति एक-दूसरे को कभी भी और कैसी भी स्थिति में ऊबाती नहीं, बजाय इसके, यह तो हमेशा एक-दूसरे को उत्साह और ऊर्जा से लबरेज़ रखती है। मुक्तिबोध ने अपनी कविता “आत्मा के मित्र मेरे” ने इस स्थिति का विवरण यूँ किया है:

मित्र मेरे,
आत्मा के एक !
एकाकीपन के अन्यतम प्रतिरूप
जिससे अधिक एकाकी हॄदय।
कमज़ोरियों के एकमेव दुलार
भिन्नता में विकस ले, वह तुम अभिन्न विचार
बुद्धि की मेरी श्लाका के अरूणतम नग्न जलते तेज़
कर्म के चिर-वेग में उर-वेग का उन्मेष
हालाँकि यह भी संभव है कि जिस इंसान के लिए आप अपना प्यार जाहिर करना चाहते हो, उसकी दिलचस्पी आप में न हो। इन हालातों में एक इंसान दूसरे के प्रेम का प्रतिनिधित्व करने की क़ाबिलियत तो रखता है, पर दूसरा उसे इस क़ाबिल नहीं समझता। ऐसी स्थिति लंबे समय तक व्यवहार्य नहीं है, इसलिए नये व्यक्ति की तलाश कर लेनी चाहिए। शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी कविता “टूटी हुई, बिखरी हुई” में कहा है:

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिनको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।

दूसरे व्यक्ति की तलाश की प्रासंगिकता यह भी है कि प्रेम कोई सामाजिक संस्थानिकताओं द्वारा निर्धारित बंधन नहीं है। यह एक पारस्परिक और बराबरी के ज़मीन पर खड़ा हुआ रिश्ता है और इसमें साथी चुनने की प्रकिया में दोनों के दिमाग में भावनाओं के स्तर पर समता का समावेश होना बहुत ज़रूरी है। आपकी ज़िंदगी का फलसफा किसी और से मिलता-जुलता हो, यह एक मुश्किल संयोग है। इसके लिए एरिक फ्रॉम ने यह उपाय सुझाया है कि किसी व्यक्ति की आशिक़ी में इतना आकर्षण होना चाहिए कि वो दूसरों को उसी तरह से मोहब्बत करने के लिए प्रोत्साहित करे। फ्रॉम के मुताबिक यह आकर्षण दूसरों को समझने-बूझने से, उनका देखभाल करने से और उन्हें बतौर स्वतंत्र व्यक्ति सम्मान देने से पैदा किया जा सकता है। याने कुल मिलाकर अपने को सही अर्थ में उपयोगी सिद्ध करके कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को भी प्रेम के लिए प्रेरित कर सकता है। हालाँकि फ्रॉम के इस सुझाव को स्वयं इस्तेमाल करके ही जाँचा जा सकता है। लेकिन अफ़सोस यह है कि हमारे समाज में फ़िल्मों और अधकचरे सहित्य के बदौलत एक बहुत भ्रामक प्रचार यह भी रहा है कि प्रेम जीवन बस एक बार होता है, जो कि यकीन मानिए सरासर झूठ है। ऐसा वे लोग सोचते है, जिन्हें लगता है कि प्रेम किसी खास शख्सियत से ही किया जाता है और इस मामले में दुनिया से वे कोई मतलब रखते। लेकिन सही आशिक़ यह सोचते है कि जीवन में किए जाने वाला आपके हिस्से का प्यार दरअसल पूरी क़ायनात से की गई आपकी मोहब्बत है न कि किसी एक खास इंसान से। कोई एक व्यक्ति अगर आपके जीवन में है भी तो बस आपके दुनिया भर के लिए प्यार का समग्र प्रेम का नुमाइंदा भर है। जो लोग सही में प्रेम करते हैं या प्रेम को जीना जानते हैं, वह किसी “एक व्यक्ति विशेष” के इंकार से या उनकी जुदाई से खु़द को कुंठित नहीं करते है। हालाँकि किसी मनोरोगी में यह लक्षण देखने को मिलना प्रायः मुमकिन है।

सबसे अहम सवाल यह है कि आपके साथी चुनने के पीछे कौन-कौन से मनोवैज्ञनिक व सामाजिक कारक काम करते हैं? या इस सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि अगर किसी ने आपकी मोहब्बत को ठुकड़ा दिया हो तो इसके आधार मे कौन-कौन सी बातें हैं? जबाव मुश्क़िल है, पर असंभव नहीं। सोचने वाली बात है कि वे कौन से गुण हैं, जो किसी इंसान को आकर्षक बनाते हैं। इतना आकर्षक कि उसके प्रेम निवेदन को इंकार किया जाना आसान न हो। एक बात तो तय है कि जब कोई आदमी किसी खास व्यक्ति के साथ अपनी जोड़ी तैयार करना चाहता है तो यह देखता ज़रूर है कि उसका संभावित साथी जो है, उसके लिए प्यार के क्या मायने हैं? उसके लिए कौन-कौन सी बातें खूबसूरत हैं? उनके पसंद-नापसंद क्या हैं? परखने वाली बात यह है कि ये सारी बातें किन तत्वों के आधार पर विकसित हुई हैं। अमूमन इन हालातों में चार तत्व काम करते हैं जो किसी खास व्यक्ति को पसंदीदा व्यक्ति बनाते हैं। पहली नज़र में जो आकर्षण का कारण बनता है, वह है रूप और देह का गठन। रूप और देह वह तत्व हैं जो अक्सर आसक्ति का कारण बनते हैं। कभी-कभार इस आसक्ति का आवेग बहुत तेज़ होता है और लोग इसे ही प्रेम समझ बैठते हैं। लेकिन इस आकर्षक का आधार अधिक मज़बूत नहीं है, क्योंकि सबको पता है कि रूप और देह हमेशा एक से नहीं रहते। यही कारण है कि यह आकर्षण अधिक दिनों तक नहीं टिकता है। दूसरा आकर्षण होता है उस व्यक्ति का बर्ताव। बर्ताव मनोरम होने के दो कारण सकते है, एक कि उसका बर्ताव उसके मानसिक बनावट को सही-सही प्रतिबिंबित कर रहा हो और दूसरा यह कि वह संभावित साथी को रिझाने के लिए एक बनावटी बर्ताव में मशगूल हो। इसलिए बर्ताव अगर बनावटी रहा तो संभव है एक बार इज़हार-ए-मोहब्बत तो दोनों ओर से हो, लेकिन चेहरे से नक़ाब उठते ही, वह लगाव खत्म हो जाता है और सारी आशिक़ी काफ़ूर हो जाती है। आकर्षण के तीसरे कारण पर ग़ौर से सोचे तो आप पाइयेगा कि हर इंसान अपने संभावित साथी का चयन अपने पृष्ठभूमि के आधार पर बहुत पहले तैयार एक साँचे के अनुरूप करता है। वह हमेशा एक साँचा बनाए रखता और जो व्यक्ति जब कभी भी उस साँचे में फिट बैठता दिखता है, वह उसे चाहना शुरू कर देता है। यह साँचा कई तरह की इच्छाओं या असुरक्षा की भावनाओं से तैयार किया जाता है। मसलन अभाव में जीने वाली एक लडकी को लड़के का अमीर होना आकर्षित कर सकता है या किसी लड़के का दिल किसी लड़की की कमनीयता पर ही घायल हो सकता है। इसी साँचे को तैयार करते वक्त ही रूप और देह के प्रति अपनी विशेष सौंदर्यानुभूति विकसित की जाती है, जो गौर करें तो समाज के प्रचलित मान्यताओं और रूढ़ियों पर आधारित होती हैं। यह अक्सर देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति आपका बहुत अच्छा मित्र हो और विपरीत लिंग के होने के बाद भी आप दोनों में प्रगाढ़ मित्रता से अधिक आशिक़ी जैसा कुछ भी नहीं हो। यानी गज़ब की समझदारी और पसंदगी के बाद भी आपदोनों में वो प्रेम नहीं हो, जिसके तहत दोनों साथ जीवन गुज़ार सकें। इसका एकमात्र कारण दिमाग में पहले से रेडिमेड साँचे में उस व्यक्ति फिट नहीं बैठना है। लेकिन इस तरह के साँचों के बनने में इच्छाओं और असुरक्षा बोध के जड़ में आकर्षण के तीनों कारणों से प्रबल और सबसे टिकाऊ व महत्वपूर्ण इसका चौथा कारण है। वह है ज़िंदगी, रिश्तों, देश और समाज के प्रति एक साझा जीवन दर्शन और समझदारी का मौज़ूद होना। ध्यान से समझने वाली बात यह है कि चौथा कारण जो है, वह बाकी तीन कारकों को नियंत्रित करता है।

प्रेम में अक्सर साथी चुनते वक्त एक गफलत हो जाती है और वह है अपने माशूक़ से जो आपका जुड़ाव है, उसके आधार में कौन सी भावनाएँ प्रबल हैं। अधिकतर मामलों में रति भाव या सेक्स संबंध बनाने की कामना ही तमाम भावनाओं पर हावी पडती हैं और यही कारण है कि अमूमन औरत और मर्द के बीच इस सम्मोहन को ही प्रेम मान लिया जाता है। पर जरा सोचिए, क्या सिर्फ़ इस तलब को मोहब्बत कहा जा सकता है? इसका जवाब हाँ और ना में देना मुश्क़िल है क्योंकि जबाव अलग-अलग हालात पर अलग-अलग हो सकते हैं। एक तरफ़, प्रेम अपने स्वरूप में अपने साथी के समक्ष अपनी सृजनशीलता प्रकट करके उसके आत्मीय जुड़ाव के गर्माहट को महसूस करने की प्रक्रिया है। और दूसरी तरफ़, सेक्स की स्वस्थ चाहत भी अपने साथी के सामने अपने इश्क़ को जाहिर करने की तरीका ही है। देखने वाली बात है कि इन दोनों व्यवहारों में एक साम्य बनता तो दीखता हैं, लेकिन इसमें सजग रहने की ज़रूरत है कि मोहब्बत में अपनी-अपनी रचनाशीलता जाहिर करने के अलावा आपसी रिश्ते में सम्मान और बराबरी का मौज़ूद होना भी बहुत ज़रूरी है। तभी तो कोई व्यक्ति बिना किसी दवाब में आए अपने आशिक़ के खुशी और विकास के लिए लगातार कोशिशें और मेहनत करते रहता है। इस चश्में से देखिए तो आसानी समझा जा सकता है कि जब सेक्स संबंध आशिक़ी का ज़मीन तैयार करती हैं तो उसमें यौनिकता के साथ-साथ दोनों साथियों के बीच समता और सम्मान की भावना का प्रवाह बना रहना ज़रूरी होता है। और अगर ऐसा नहीं है तो ऐसे यौन संबंध प्रेम की अभिव्यक्ति के बजाय कोई मनोविकृति या मनोरोग का प्रकार बन कर सामने आते हैं।

मोहब्बत से जुड़ी इन सारी बातों के साथ-साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि हमारे समाज में मोहब्बत करना कोई दिल्लगी नहीं है। पूरी सभ्यता और पूरा समाज आपके ख़िलाफ़ लामबंद हो सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इश्क़ में आशिक़ पुराने रुढ़ियों के किलों को ढहा कर एक बराबरी की ज़मीन और इंसानियत की नींव पर एक नई इमारत खड़ी करने की कोशिश करते हैं। परंपरावादियों को जाति, धर्म, वर्ग और लिंग आधारित विभेदों में बँटे हुए समाज में मौज़ूद विषम सत्ता-संबंध का टूटना पचता नहीं है, इसलिए हाय-तौबा मचती है। इस बात को समझने का एक और नज़रिया यह है कि जर्जर हो चुकी परंपराओं के झंडाबरदारों को प्रेम संबंधों से दिक्कत इसलिए है क्योंकि इसके जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपनी मेहनत के इस्तेमाल पर अपना खुद के नियंत्रण का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। प्रेम पर आधारित रिश्ते इशारा करते हैं कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में औरतें अपनी मेहनत का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि समाज के रूढ़िवादी हलकों में बौखला कर प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन, चलते-चलते प्रेम में आने वाली इन चुनौतियों से बड़ी बात यह चाहूँगा कि जीवन के केंद्र में प्रेम है और इससे महत्वपूर्ण काम इस ज़िंदगी में और कुछ नहीं।

याद रहे कि तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी, मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो!

(यह आलेख अहा ज़िंदगी के प्रेम विशेषांक (फरवरी, 2011) में आया था। जिनसे इसे पढ़ना वहां छूट गया हो और जो इसे पढ़ने की इच्छुक हो , उनके लिए यह यहां है। प्रस्तुत आलेख प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप है।)

ई-मेल: prasoonjee@gmail.com
दूरभाष: +91-8955026515 & 9555053370

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान...

- देवाशीष प्रसून

अगर कोई आपसे पूछे कि क्या भारत की लड़कियाँ बदल रही हैं, तो आप क्या ज़वाब देंगे? हो सकता है कि ज्यादातर लोग यह कहें कि यक़ीनन भारत की लड़कियाँ बदल रही है। वह वैसी तो बिल्कुल नहीं रही हैं, जैसी कि एक हिंदुस्तानी लड़की के बारे में आम धारणा रही है। हिंदुस्तानी लड़की के बारे में आम धारणा यही बनी हुई है कि वे स्वभाव से शर्मिली होती हैं, समझ से भोली-भाली और संस्कार से ऐसी कि घर-परिवार और समाज की इंच-इंच इज़्ज़त-आबरू का सारा दारोमदार उन्हीं के बदौलत बचा रहता है। क्या कहिए? बिल्कुल गाय है गाय, मेरी बेटी! पिछले पीढ़ी के माता-पिता अपनी बेटी की प्रशंसा इन्हीं रूपकों में करते थे और ऐसा करके गर्व से फूले नहीं समाते थे। बहरहाल आज बदलाव यह है कि अब के माताओं और पिताओं को अपने बेटी के बारे में इन रूपकों का इस्तेमाल करने का मौका कम ही मिलता है। आज की लड़कियों के लिए उनकी ज़िंदगी की बेहतरी और तरक्की से जुड़े संभवनाओं के फलक में बहुत विस्तार हुआ है। उन्होंने घर के चाहरदीवारों से बाहर की दुनिया में भी अपनी मौज़ूदगी को बड़ी मुखरता के साथ दर्ज किया है। साथ ही, समाज का एक बड़ा तबका ऐसा उभरा है, जिसके लिए लड़कियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली तथाकथित प्रशंसाओं की पुरानी शब्दावलियों का निहितार्थ अब अपमानजनक या नहीं तो कम से कम मज़ाक के मायने तक तो सिमट ही चुका है। आज लड़कियों को मुकम्मल इंसान का दर्जा दिया जाता है और कोई बेवकूफ़ ही उनकी तुलना गाय वगैरह से करेगा। महानगरों और शहरी समाज में वे दिन अब लद चुके हैं जब लड़कियों की इच्छा और पसंद-नापसंद की समाज में कोई अहमियत नहीं थी।

ज़माना बदल चुका है। नैतिकताएँ बदली हैं। दरअसल नैतिकताओं का कोई कालजयी स्वरूप कभी रहता भी नहीं है। नैतिकताओं का अपना देशकाल होता है और समय-समय पर इनके पैमाने बदलते रहते हैं। लड़कियों का बदलने का मामला बहुत हद तक समाज की बदलती नैतिकताओं से भी जुड़ा हुआ है। नैतिकताओं का रिश्ता मानवीय मूल्यों से जुड़ा होता है और मानवीय मूल्य हमेशा मौज़ूदा राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक ढ़ाँचे में ही बनते और बिगड़ते रहते हैं। कल के मुकाबिले आज मानवीय मूल्यों में ज़मीन-आसमान का अंतर आया है। क्योंकि, समाज का पोर-पोर बदल रहा है। मगर, गौरतलब यह भी है कि भारत में कोई एक समाज तो विद्यमान है नहीं। इस कारण बदलते समाज का मतलब देश में हर तबके, हर क्षेत्र, हर जाति और कुल मिलाकर देश में जी रहे, मर रहे तमाम तरह के समाजों के लिए अलग-अलग है। इससे जाहिर है कि बदलाव के इस दौर में लड़कियों का बदलना भी छोटे-बड़े हर समाज की लड़कियों के लिए अलग-अलग ही होगा। बदलती हुई लड़कियों के बारे सबसे स्पष्ट बदलाव मध्यम वर्ग की लड़कियों में देखे जा सकते हैं, जिनके तक संचार और सूचना के अत्याधुनिक माध्यमों की पहुँच बहुत सुलभ है। समाज में हो रहे वैचारिक व सांस्कृतिक उलटफेर की प्रक्रिया में इंटरनेट, एफ़.एम. रेडियो और टेलीविज़न के कार्यक्रमों ने लड़के-लड़कियों की सोचने-समझने की प्रक्रिया खासा प्रभावित किया है। मोबाईल, इंटरनेट और ब्लॉग के बढ़ते चलन ने लोगों को अपने आसपास के प्रत्यक्ष समाज के काट कर एक छद्म मायावी समाज तक ही सीमित कर दिया है।

फिलहाल, इस क्रम में आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना ज़रूरी होगा कि लड़कियाँ ही सिर्फ़ नहीं बदल रही, पूरा समाज बदला है तो लड़के भी पहले जैसे नहीं रहे पर हम मुख्य विषय पर लौटते हैं और वह है देश में लड़कियों का बदलना। हमें यह स्वीकारना होगा कि आज भी देश में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा का स्तर बहुत अधिक ऊँचा नहीं है। मगर फिर भी पहले के बरअक्स महिलाओं के बीच साक्षरता बढ़ी है। देश में सन ’५१ तक ८.८६ फीसदी महिलाएँ ही पढ़ी-लिखी थी पर पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या सन ’६१ में बढ़ कर १५.३३ फीसदी हुई। यह संख्या सन ’७१ तक और बढ़ते हुए २१.९७ फीसदी और सन ’८१ में हुए जनगणना के मुताबिक २८.४७ फीसदी तक पहुँच गयी थी। भारत की बदलती लड़कियों के बीच सकारात्मक बदलाव यह आया है कि २००१ में संपन्न हुए जनगणना के मुताबिक देश की ४९६,४५३,५५६ महिलाओं की आबादी में से तक़रीबन २८,०२८,२०५ लड़कियाँ ही भले दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर सकी हो, लेकिन उनके बीच का ५३.७ फीसदी हिस्सा आज लिखने-पढ़ने के क़ाबिल बन गया है। क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि देश की ७२.९ फीसदी से अधिक शहरी महिलाओं के पास आज लिखने-पढ़ने का हुनर है और देश भर में २८७ ऐसे जिले हैं, जिनकी पचास से पचहत्तर फीसदी महिलाएँ लिखने और पढ़ने में सक्षम हैं। हालाँकि साक्षरता शिक्षा का पैमाना नहीं होता है, फिर भी शिक्षित होने के लिए वांछित आवश्यकता तो है ही। देखने वाली बात है कि २००१ तक देश के कुल स्नातकों में एक-तिहाई महिलाएँ थी और संभवतः आज स्थिति आज और बेहतर ही हुई होगी। शैक्षणिक क्षेत्र में प्रगति के पथ पर सतत बढ़ने वाली लड़कियों के लिए बदलाव का परावर्तन अन्य दूसरे क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है। २००१ के आँकड़े बताते हैं कि देश में ४०२२३४७२४ लोगों की कुल काम करने वाली आबादी में से १२७२२०२४८ उन महिलाओं की संख्या है, जो खुद और अपने आश्रितों के लिए सिर्फ़ रोटियाँ बनाती और परोसती ही नहीं हैं, बल्कि रोटियाँ कमाती भी थी। कोई शक करने वाली बात नहीं है कि अब तक इस संख्या में और इज़ाफ़ा ही हुआ होगा। आप रोजगार के तमाम क्षेत्रों में अपना परचम लहराती लड़कियों को देख सकते हैं। आलम यह है कि खेती-किसानी, मज़दूरी और तथाकथित श्रम के अकुशल क्षेत्रों में खून-पसीना बहाने के अलावा चिकित्सा, अध्यापन, इंजीनियरिंग, मीडिया, प्रबंधन, अनुसंधान, खेलकूद, राजनीति, क़ानून, विज्ञान, खगोलशास्त्र, मार्केटिंग, बैंकिंग, पर्यटन, सिनेमा और प्रशासनिक सेवाओं जैसे अतिदक्षता वाले क्षेत्रों में भी लड़कियों को अपनी मज़बूत मौज़ूदगी दर्ज करते देखा जा सकते हैं। उनके जीवन में घर-परिवार के लिए कुछ करने के साथ-साथ अपने करिअर में भी ऊँचे मुकाम पर पहुँचाने का माद्दा बहुत साफ-साफ दिखता है। आज की बदलती लड़कियों के जीवन में दौलत और शोहरत के लिए कुछ भी कर-गुज़रने की ललक देखी जा सकती है। लड़कियों के इस बदलाव ने यह साबित किया है, वे किसी भी मामले में लड़कों से कमतर नहीं हैं। वो लगातार उस रूढ़िगत मानसिकता को चुनौती दे रही हैं कि जिसके शिकार लोगों का मानना होता है कि लड़कियाँ बस घर की शोभा बन कर रहें, तो अच्छा, नहीं तो अगर वह घर से बाहर निकली तो परिवार और समाज का अमंगल ही करती हैं।

लड़कियों के बदलने का यह सिलसिला सिर्फ़ शिक्षा और रोज़गार से ही नहीं जुड़ा हुआ है। ये मुसलसल आगे भी बढ़ता है और सामाजिक ताने-बाने में लड़कियों की मौज़ूदगी को फिर से परिभाषित करता है। देश में अब तक हुए जनगणनाओं पर नज़र डालें तो पता चलता है कि जहाँ सन ’३१ तक ज्यादातर लड़कियों की शादी बारह-तेरह साल में हो जाया करती थी, वही नब्बे के दशक के आते आते यह बदलाव हमें देखने को मिलता है कि लड़कियाँ औसतन उन्नीस साल के बाद ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने लगीं थी। २००१ की जनगणना के मुताबिक देश में प्रति दस हज़ार विवाहिताओं में केवल उनसठ लड़कियाँ ही चौदह साल की उम्र पूरी होने से पहले विवाह के बंधन में बंधती थी। यही नहीं, कुल विवाहित महिलाओं की आबादी में से सिर्फ़ पाँच फीसदी ऐसी लड़कियाँ थी जो उन्नीस साल से कम उम्र में शादी कर लेती थी, बाकी पनचानवे फीसदी लड़कियों को शादी जैसे परिपक्व रिश्ते को बनाने में और वक्त लगता था। यह नौ साल पहले की तस्वीर है, आज और बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है।

औरतों के लिए शादी का मतलब जाति और वर्ग को बनाए रखने साथ-साथ अपने शरीर और श्रम को पुरूषवादी सत्ता-तंत्र के नियंत्रण में सौंपने भर होता है। शादी का यह मामला लड़कियों के लिए सीधे-सीधे उनके माँ बनने की क्षमता से जुड़ा रहता है। पारंपरिक तौर पर स्त्री-पुरूष के बीच प्रेम-संबंध के हर तरह के मामलों को वर्जनाओं में गिना जाते रहा है और समाज लड़कियों के लिए अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने को घोर-अनैतिक मानते रहा है। अंतर्जातीय विवाहों से जातियों के बीच का आपसी गिरह खुलने लगती हैं और खासकर लड़कियों के कुल, उसकी मर्यादा, परिजनों की इज़्ज़त और समाज के मान-सम्मान पर गहरा वार होने का एक भयावह छद्म उभर कर सामने आता है। दरअसल मामला यह है कि लड़कियों को अपने परिवार, जाति और समुदाय की इज़्ज़त का प्रतीक माना जाता रहा है। औरतों का यह फर्ज़ तय किया गया है कि वह समाज द्वारा गढे गये नियमों का पालन करते हुये अपने से जुड़े लोगों के इज़्ज़त की रक्षा करे पर ये इज़्ज़त, कुछ और नहीं, केवल औरतों के यौनिकता पर मर्दवादी शिकंजा है। लेकिन, अध्ययन बताते हैं कि अंतर्जातीय विवाह पितृसत्ता की गुलामी से स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए एक संभावित मार्ग है, क्योंकि ऐसे मामलों में फैसला करने का अधिकार लड़कियों के पास होता है। विवाह से जुड़े तमाम दकियानूसी मान्यताओं को बरकरार रखने के लिए पहले परंपराओं का सहारा लिया जाता है और फिर अंत में हिंसा का। हिंसा के इस प्रक्रिया की शुरूआत मौन असहयोग से शुरू होकर क्रूरतम हत्या तक पहुँच सकती है। लड़की अगर अपना जीवनसाथी स्वयं चुनती है तो इसका मतलब यह निकाला जाता है कि वह अपनी यौनिकता और यौन-साथी चुनने में अपने विवेक और पसंद की प्रमुखता का दावा कर रही है। यह लड़की की ओर से इस बात के संकेत हैं कि वह अपनी मेहनत करने की और संतानोत्पति की क्षमता का भी निर्णय अब स्वयं ही करेगी। ऐसी हर कोशिश पितृसत्ता के नज़र में लड़कियों द्वारा किया गया बगावत हैं, जिससे तिलमिलाया समाज किसी भी तरह की हिंसा के मार्फ़त भी हर हालत को हालात वापस अपने क़ाबू में कर लेना चाहता है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि आज की लड़कियों ने लंबी लड़ाइयों के बाद इस मर्दवादी समाज से बहुत हद तक अपनी आज़ादी को हासिल किया है। शहरों और महानगरों में उच्च व मध्य वर्ग की लड़कियों का एक बुलंद तबका है जिसके लिए बहुत हो-हल्ला होने और खाप पंचायतों की बढ़ती चौकसी के बाद भी आज प्रेम करना और अपना मनमाफ़िक जीवनसाथी चुनना, चाहे वह अपने से इतर जाति ही का क्यों न हो, एक आम बात हो गई है। आज की बदलती हुई लड़कियों के लिए शादी का मतलब पुरूष साथी के प्रति समर्पण नहीं, बल्कि पूरे जीवन जीने में भागीदारी का एहसास करना है।

एक बात और जिससे लड़कियों में रहे बदलाव कि चिह्नित किया जा सकता है और वह है उनका माँ बनना। इस मामले में कुछ आँकड़ों से बदलाव के हालात को बेहतर समझा जा सकता है। वर्ष ७१-७२ की बात है, जब भारत में एक औरत जीवन भर में औसतन ५.३५ बार माँ बनती थी। सन २००६ आते आते यह स्थिति इस तरह से बदली कि एक औरत को जीवन भर में औसतन २.८० बार ही प्रसव पीड़ा झेलना पड़ता था। इन आँकड़ों से यह समझ में आता है कि लड़कियों के जीवन में गुणात्मक बदलाव आया है और पहले की तरह अब उन्हें बच्चे जनने की मशीन नहीं समझा जाता है। प्रजनन के मामले में बदलती प्रवृति के पीछे सबसे बड़ा कारण बढ़ती जागरूकता के साथ साथ गर्भ-निरोध के विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल करना है। सन ’८८ तक पंद्रह से चौवालिस साल की ४४.९ प्रतिशत औरतें किसी न किसी तरह की गर्भ-निरोधक तकनीक का इस्तेमाल करती थी पर यह प्रतिशतता साल २००५-०६ तक बढ़कर ५६.३ हो गयी। याने शिक्षा और रोजगार के अलावा लड़कियों के जीवन आया बड़ा बदलाव वैवाहिक रिश्तों में आई परिपक्वता और यौन-संबंधों में समझदारी का बढ़ना भी शामिल है।

कुल मिला कर यह तो बिल्कुल साफ़ है कि भारत की लड़कियाँ बदल गई हैं और यह बदलने का सिलसिला अभी खत्म होने वाला नहीं दीखता हैं। पर, बदलती हुई इन लड़कियों के बारे में एक बात विचार करने का गंभीर विषय यह है कि पुरुष प्रधान समाज की ये लड़कियाँ क्या अब भी अपने मनोगत गुलामी से मुक्त हो पाई हैं?

पिछले ज़माने की बात है कि लड़कियों का पूरा का पूरा सौंदर्यबोध उनके शर्म-ओ-हया के साथ जुड़ा हुआ था। गोटेदार चुन्नी-लहंगा, सलवार-कमीज़ और रंग-बिरंगी साड़ियों को पहन कर वह इतराती फिरती थी। आज तरक्की यह हुई है कि इन पारंपरिक वस्त्र विन्यास से जुड़े हुए दुपट्टों, नक़ाबों और घूँघट जैसे दमघोंटू फैशन को नकार कर आज की बदलती लड़कियाँ बेहतर आरामदेह लिबास को पहनना पसंद करने लगी हैं। लेकिन दूसरी ओर, अंधाधूंध बाज़ारू फैशन ने भी लड़कियों के फैशन में बहुत बदलाव लाए हैं। ’मेरा शरीर, मेरी ज़िंदगी’ के सिद्धांत पर जो सरमायापरस्त फ़ैशन का चलन बढ़ा है उसमें पहरावे इतने तंग होने लगे हैं कि लड़कियों को यह एहसास तक भी नहीं होता कि उनका शरीर कितने कष्ट सहके आधुनिक बाज़ार द्वारा बनाए सौंदर्यभ्रम को झेल रहा है। बाज़ार के साज़िशों में गिरफ़्त आज की बदलती हुई लड़कियाँ खुद को पिछले ज़माने के श्रृंगार और आभूषण आदि अलंकरणों से मुक्त नहीं कर पाई हैं। जुल्म यह है कि बाज़ार इन भड़काऊ लिबास, श्रृंगार के साधनों और ज़ेवरों के जरिए लड़कियों को बेहतर इंसान बनने के बदले उपभोग की वस्तु के रूप में ढालने की मनोवैज्ञानिक जुगत में लगा रहता है।

आज के ज़माने की बदली हुई लड़कियों को भी आप पिछले दशक की लड़कियों के ही तरह टेलिविज़न चाइनलों पर आने वाली रोने-धोने, सौतन के झगड़ों और साज़िशों से भरपूर तमाम कुंठित विचारों से लबरेज़ धारावाहिक तमाशों से चिपका पा सकते हैं। लड़कियों के अवचेतन को मर्दवादी गुलामी में फँसाये रखने में फैशन के साथ-साथ टेलीविज़न के प्रतिगामी कार्यक्रमों की भी बड़ी भूमिका है। गो कि तमाम धारावाहिकों के कतार में बतौर बानगी कलर्स टेलीविज़न चाइनल के धारावाहिक कार्यक्रम ’बालिका वधू’ को ही लें, जिसे हर उम्र की महिलाएँ बड़े चाव से देखती हैं। इस कहानी का केंद्रीय किरदार एक बालिका है, जिसकी शादी कर दी गई है। कम उम्र की बच्ची होने के बावज़ूद भी यह वधू कई लड़कियों का आदर्श चरित्र बन कर उभरती है। इसी तरह से स्टार प्लस पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक कार्यक्रम ’तेरे लिए’ को आज की लड़कियाँ बहुत दीवानगी के साथ देखती है। आश्चर्य का विषय यह है कि इन धारावाहिकों की कहानियाँ बाल विवाह जैसे अतिपिछड़ी कारिस्तानियों को भी बड़े रूमानियत भरे ख्यालों के साथ पेश करती हैं और इसके बाद भी आज की लड़कियाँ ऐसे कार्यक्रमों पर अपनी जान छिड़कती हैं। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ये कार्यक्रम आज की लड़कियों में जो बदलाव ला रहे हैं, उसके क्या सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम होने वाले हैं।

फैशन, जीवन में तमाम पहलूओं में पसंदगी-नापसंदगी और टेलीविज़न कार्यक्रमों की दीवानगी जैसी चीज़ों की एक ऐसी लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है, जो किसी न किसी तरह से पिछड़ी व प्रतिगामी मानसिकता व संस्कृति को प्रश्रय देती हैं और यह दंग करने वाली बात है भारत की बदलती हुई लड़कियाँ भी इसे तहेदिल से पसंद करती हैं। तरक्की के तमाम संकेतों के साथ-साथ आज की बदलती हुई लड़कियों का मनोगत गुलामी से न उबर पाना यह सोचने के लिए फिर से मज़बूर करता है कि क्या लड़कियों का यों बदलना क्या सचमुच खुश होने वाली बात है?

(अहा!जिंदगी दिसंबर २०१० में प्रकाशित आलेख)

रविवार, 16 जनवरी 2011

हिंसा एक बहुआयामी मसला है...

(डॉ. इलीना सेन ने अपने जीवन का लंबा अरसा महिला अधिकारों को हासिल करने के संघर्ष और वंचितों के शिक्षा के लिए खर्च किया है और वर्तमान में वह वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग का नेतृत्व कर रही हैं। इस आलेख को प्रो. सेन से हुई बातचीत के आधार पर देवाशीष प्रसून ने लोकमत समाचार के दीपावली विशेषांक २०१० के लिए लिपिबद्ध किया था।)
मुझसे यह कहा जाना कि जब मैं 'किसकी हिंसा, कैसी हिंसा?' पर टिप्पणी करूँ तो लिंग आधारित हिंसा के मद्देनज़र करूँ, अनुचित है। मेरा मानना है कि हिंसा के कई आयाम हैं और सभी आयामों पर बातचीत होनी चाहिए। जहाँ तक बात लिंग आधारित हिंसा की है तो उस पर हर किसी को बात करनी चाहिए और चूँकि मैं एक महिला हूँ और स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत रही हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मुझसे बस इसी संदर्भ में बातचीत की जाए। बहरहाल, हम मुख्य विषय की ओर लौटें।
सवाल है कि हिंसा में जिस बढ़ोत्तरी की बात हो रही है, उसे कौन बढ़ा रहा है? मेरा मानना है कि मौज़ूदा हालातों में राष्ट्र-राज्य भी टूटने के कगार पर है और जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें सत्ता का केंद्रीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विश्व व्यापार को चलाने वाली शक्तियों के हक में हो रहा है। राष्ट्र-राज्य का स्वरूप हमेशा से बदलता रहा है। हमारे बचपन के समय की बात करें तो उस वक्त राष्ट्र-राज्य का स्वरूप सैद्धांतिक तौर पर निर्विवादित रूप से कल्याणकारी था। कल्याण के बारे में निश्चित तौर पर विकसित और अवकसित देशों में अपने-अपने पैमाने रहे हैं, लेकिन भारत जैसे देश में भी अपने हर नागरिक को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करना राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य माना जाता था। अब इस कर्तव्य का पालन हुआ, नहीं हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। लेकिन अब जो व्यवस्था जड़ जमा रही है, उसके प्रभाव में राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। जाहिर-सी बात है कि नई व्यवस्था जिनके हित में काम कर रही है, वे ही इस बढ़ते हुए हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। वैश्विक वित्तीय पूँजी के फलने-फूलने के लिए तमाम तरह की कोशिशें की जा रही है, जो कि कई तरह के हिंसाओं का मूल कारण है। अपनी ज़िंदगी में और ऐतिहासिक याददाश्त से भी हमने जाना है कि मंदियों और महामंदियों की न जाने कितनी सारी विफलताओं के बाद भी पूँजीवादी व्यवस्था बार-बार उठकर खड़ा हुआ है दुनिया पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में हिंसा और दमन का लंबा दौर देखने को मिलता है। यहाँ पर मैं जिक्र करना चाहूँगी पितृसत्ता का, क्योंकि पितृसत्ता के बारे में मेरी जो समझ है कि यह उन लोगों की सत्ता है जो नैतिकताओं को अपने हित में परिभाषित करते हैं और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हर प्रकार से प्रपंच, बल और हिंसा का प्रयोग करते हैं।
हिंसा का ताना-बाना बहुत जटिल है। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हिंसक शक्तियाँ कई अन्य सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का भी सहारा लेती हैं। अब बस्तर की ही बात करें। बस्तर में जिस तरह से कंपनियों ने अपना पैर पसारना चाहा, वहाँ अपने खास तरह की हिंसा को स्थापित करने के लिए उन्होंने राज्य सत्ता का सहारा लिया। जबकि अगर आप संविधान को देख लें तो ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है। मेरा मानना है कि भारत का संविधान एक बहुत ही प्रगतिशील दस्तावेज़ है, लेकिन व्यवस्था पर काबिज़ लोग हमेशा उसकी गलत व्याख्या करते रहे हैं। राज्य सत्ता के साथ-साथ इन ताक़तों ने पितृसत्ता का भी सहारा लिया। जब मूल निवासियों को गाँव से खदेड़ा जाता है या औद्योगिक हितों के लिए उन्हें अपने ज़मीन से विस्थापित किया जाता है तो निश्चित तौर से हिंसा की सबसे बड़ी शिकार औरतें होती हैं। ऐसा आदिम काल से भी चलता आ रहा है कि अपनी सत्ता और वर्चस्व को स्थापित करने के लिए हमलावर औरतों पर यौन-हिंसा करते रहे है। बलात्कार तो एक चरम है, लेकिन बाहरी सत्ता के आक्रमण में औरतें यौन-हिंसा के कई चरणों से होकर गुज़रती हैं। इस तरह की हिंसा सिर्फ़ औरतों के ख़िलाफ़ नहीं होती, बल्कि ऐसा करना इन औरतों से संबंधित पूरे के पूरे समुदाय को कमज़ोर बताकर उन्हें अपमानित करने की एक युक्ति बनकर सामने आता है। विस्थापन और उससे संबंधित हिंसा के अलावा भी और कई अन्य क्षेत्र हैं, जहाँ इन बड़ी पूँजी वाली कंपनियों ने हिंसा में कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
गरीबी भी हिंसा का भयावह चेहरा है। आम धारणा है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, लेकिन मैं इसे मुख्य कारण नहीं मानती। मुझे लगता है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण उपलब्ध संसाधनों के वितरण में पाँव पसारी हुई निर्मम कुव्यवस्था कारगार है। हालाँकि जनसंख्या एक मसला तो है, लेकिन अपने आप में वह गौण है और भारत में गरीबी को लेकर जनसंख्या जिम्मेवार नहीं है। आप टेलीविज़न में आ रही समाचारों और बहसों को देखिए। देश में कई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं। देश में अब तक अनाजो को बाँटने के सही तरीकों को विकसित नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री का मानना है कि अनाज मुफ़्त में नहीं दिए जा सकते हैं, क्योंकि इससे लोगों की आदतें खराब हो जायेंगी। आप मुफ़्त में नहीं देंगे, आपके पास बाँटने का भी कोई तरीका नहीं है और आप केवल खरीद रहे हैं! यह एक गज़ब विडंबना है। देश में अनाज के उत्पादन और वितरण के बीच कोई रिश्ता समझ में नहीं आता है। हालिया, मैंने एक टेलीविज़न कार्यक्रम में देखा कि पंजाब सरकार के जानिब से एक महिला बोल रही थी कि गोदाम में पड़े अनाज भले ही पंजाब की धरती हो, लेकिन वह भारतीय खाद्य निगम की संपत्ति हैं, पंजाब का उससे कोई लेना देना नहीं है। लोग भूखे हैं, अनाज गोदाम में सड़ रहा है और सरकारी प्रतिष्ठान बाल की खाल निकालने में मशगूल हैं। इतिहासकारों ने बंगाल के ऐतिहासिक अकाल के कारणों को शोध किया तो यह पाया था कि वहाँ तब खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं थी, बस उसे लोगों तक पहुँचने से रोका गया था। मेरी माँ बताती है जोकि उस वक्त स्कूल या कॉलेज पढ़ती रही होगी कि अकाल खत्म होने के बाद के दिनों में गोदामों में बंद अनाजों को नदी में बहाया गया, क्योंकि वह सड़ गए थे। सन बयालिस से आज तक इस स्थिति में कोई अमूलचूल बदलाव नहीं आया है। संसाधनों का वितरण इतना असमान है कि कुछ लोगों के पास इतना कुछ है कि वह इतने खाए-अघाए हैं, उन्हें समझ नहीं आता कि वह इन चीज़ों का क्या करें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जिनके पास कुछ नहीं है। विकास के मौज़ूदा स्वरूप की बात करें तो यह भी गरीबी का एक बड़ा कारण है। एक तरफ़ देश में ऐसी जगहें भी हैं, जहाँ बस पकड़ने के लिए लोगों पंद्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और दूसरी ओर देश में स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग भी बने हैं, जहाँ बिना रूके आप अपनी मंजिल तक अपनी गाड़ियाँ दौड़ा सकते हैं। विकास के नाम पार जो तकनीकों और संयंत्रों को आयातित किया जाता है, वह भी जिम्मेवार हैं गरीबी के लिए। आप बिजली, डीज़ल और पेट्रोल जैसे ईंधन पर चलने वाले संयंत्रों का सस्ता भी नहीं मान सकते, क्योंकि ये ईंधन जल्दी ही इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने वाले है। लेकिन आयातित संयंत्रों के इस्तेमाल की इस प्रक्रिया से बहुतायत में उपलब्ध मज़दूरों को खलिहर रहना पड़ता है, जो कि घूम-फिर कर गरीबी जैसी हिंसा का कारण बनता है। इसके तर्कों के आधार पर मैं कहना चाहूँगी कि जिस तरह से जनसंख्या को गरीबी का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, यह अनुचित है। हालाँकि सरकार ने इसे गरीबी का सबसे बड़ा कारण मानते हुए परिवार नियोजन को कार्यक्रमों को खूब तबज्जो दिया है।
परिवार नियोजन के कार्यक्रमों में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्त्री के स्वास्थ्य को केवल उसके प्रजनन क्षमता के साथ जोड़ कर देखा जाता है और यह बहुत ही हिंसात्मक तरीका है औरतों के बारे में सोचने का। औरतों की, मर्दों की तरह, कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं, लेकिन स्त्री स्वास्थ्य के मुद्दों को हमेशा बच्चों के साथ जोड़ कर या प्रजनन के साथ जोड़ कर देखा जाते रहा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत को जो बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय अनुदान मिले, उसमें जनसंख्या का नियंत्रण एक महत्वपूर्ण शर्त रही है और ऐसे में औरतों का शरीर प्रजनन नियंत्रण तकनीकों का शिकार बनता है। इस मामले में भी भेदभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। स्त्री नसबंदी, पुरूष नसबंदी की तुलना में खतरनाक है, मगर फिर भी ज्यादातर मामलों में नसबंदी स्त्रियाँ ही करवाती हैं। सरकारें भी भ्रामक प्रचार करवाने से गुरेज नहीं करती है कि गर्भनिरोधक गोलियों का महिलाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। जबकि सच यह है कि गर्भनिरोधक गोलियों का स्त्री हॉरमोन पर गंभीर और लंबे समय पर पता चलने वाला दुष्प्रभाव होता है। देश में पुरुषों की तुलना में महिलाएँ बहुत कम हैं। कारण कई हैं। बालिकाओं के देखरेख में लापरवाही या नहीं तो कोख में ही उनकी हत्या हो जाती है। क़ानूनों को धत्ता बताते हुए धड़ल्ले से महिला भ्रूण हत्या का अपराध होते रहता है। यह भी हिंसा का एक विभत्स चेहरा है। इसे विज्ञान द्वारा किए गए हिंसा के रूप में देखा जा सकता है।
नौकरीपेशा या मध्य-आय वाले लोगों का एक ऐसा तबका है, जो एक साथ इन कंपनियों के लिए आवश्यक मानव संसाधन की भी पूर्ति करता है और इनके उत्पादों का बाज़ार भी बनता है। लेकिन गौर करें तो हम देखेंगे, कि यहाँ भी एक अलग तरह की हिंसा होती है। तरह तरह की युक्तियों का इस्तेमाल किया जाता है। गो कि लोगों में खास चीज़ों के लिए अलग किस्म की एक चाहत पैदा करना, यह भी एक हिंसात्मक कार्रवाई है। किसी लड़के या लड़की के व्यक्तित्व को स्वभाविक तरीके से विकसित नहीं होने दिया जाता है। जिस तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है कि उसमें व्यक्तित्व निर्माण के बदले उनमें बाज़ार के हित में काम करने वाली खास तरह की इच्छाएँ जन्म लेती हैं, जो आगे चल कर कुंठाओं को पैदा करती हैं। इसे भी हिंसा माना जा सकता है, जिसके कारण लोगों की शख़्सियत का सकरात्मक विकास नहीं हो पाता है और इंसान चाहतों का दास बनकर रह जाता है। जहाँ तक महिलाओं या लड़कियों का सवाल है तो मामला थोड़ा और गंभीर हो जाता है। जिस तरह के टेलीविज़न शो आजकल आ रहे हैं, उसमें आप देख सकते हैं कि किस तरह से औरतों को या तो वस्तुओं का उपभोग करने वाली अन्यथा उपभोग करने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महंगे लिबास में सजी-सँवरी आकर्षक, पर अपने अधिकारों से विमुख महिलाएँ। अगर स्त्रियों को मौका मिले तो उनका व्यक्तित्व पुरुषों के समकक्ष निखर सकता है, लेकिन इस तरह से उनके मौके ही खत्म कर दिए जाते हैं। यह भी उतना ही हिंसात्मक है पर दिखता बहुत मनोरम है।
अगला सवाल यह है कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृति ने तो क्या हिंसा को नहीं बढ़ाया है? मैं इस बात से सहमत हूँ कि हिंसा के बढ़ने का कारण केंद्रीकरण की प्रवृति है। खास कर मैं सूचना तकनीकी के क्षेत्र में हो रहे केंद्रीकरण की बात करना चाहूँगी। एक कोने से कहीं कानाफूसी चालू हुई और यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है और इस बात को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि वो सत्य हो। सच को झूठ और झूठ को सच बनाना आसान हुआ है। हिंसात्मक विचारों का संक्रमण बढ़ा है। इसके लिए वो लोग जिम्मेवार हैं जो बड़े स्तर सूचनाओं के प्रवाह को संचालित करते हैं। सूचना तकनीक के अलावा भी अन्य कई क्षेत्र हैं , जहाँ केंद्रीकरण की प्रक्रिया ने हिंसा की आग को हवा दिया है। जैसे कि हम खेती-किसानी की बात कर लें। छ्त्तीसगढ़ में कुछ तीन हज़ार किस्म के धान के बीज पाए जाते थे, जिनमें यह खास बात थी वह अलग-अलग प्रकार के जलवायु के मुताबिक उपयोगी हुआ करते थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के झासे में आकर हमारे देशी वैज्ञानिकों ने अपने जैव विविधता को दरकिनार करते हुए कुछ चुनिंदा कृत्रिम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया। इसका नतीजा आज यह है कि हमारे पारंपरिक बीज लुप्त हो रहे हैं और एक बहुत बड़े धरोहर से हमने हाथ धो दिया। एक ऐसा धरोहर जिसको न तो रासायनिक खादों की जरूरत थी, न ही कीटनाशकों की। कुल मिलाकर यह खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करके उसके केंद्रीकरण का मामला है। कुछ लोगों का अपने ज्ञान को बेहतर बताकर ज्ञान की पुरानी परंपरा को नष्ट करना भी हिंसा को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार केंद्रीकरण का नमूना है।
अंतिम सवाल कि संगठित हिंसा की समाप्ति किस संगठित प्रयास से संभव है के जवाब में मुझे कहना है कि इसके लिए लोगों के बीच संवाद और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने पर काफी ज़ोर देना पड़ेगा। कुल मिलाकर समाज को बनाने वाले और चलाने वाले तमाम घटकों को व उनके बीच के परस्पर रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है।
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गुरुवार, 12 अगस्त 2010

पितृसत्ता यों ही नहीं क़ायम है अब तक....

- देवाशीष प्रसून


यह एक ऐसा समय है, चारों ओर जब, स्त्री को उसके अपने अधिकारों से तआरुफ़ करवाने की मुहिम चल रही है, विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों के जरिए समाज में समतामूलक हालातों के निर्माण के लिए ज़मीन-आसमान एक किए जा रहे हैं, महिलाओं को समाज के दक़ियानूसी बंधनों से मुक्त करवाने के लिए नारीवादी संगठनों ने जंग छेड़ रखी है और स्त्री-उत्थान व समतामूलक समाज के निर्माण के लिए सरकारों द्वारा भी योजनाओं, आरक्षण और क़ानूनी प्रावधानों का सुरसार देखने को मिलते रहता है। आधी आबादी के सदियों से दमित और शोषित जीवन को मुख्यधारा में लाकर उन्हें एक मुकम्मल इंसानी रुतबा देने के लिए ऐसे कई प्रयास चल रहे हैं और विडंबना यह है कि ऐसे ही इस समय में ’नया ज्ञानोदय’ नाम की हिंदी साहित्यिक पत्रिका बेवफ़ाई पर विमर्श चला रही है। और तो और, इस विमर्श के दरमियाँ एक ऐसा बयान आता है जो घोर स्त्री-विरोधी होने के साथ-साथ समाज में चल रहे तमाम मुक्तिगामी और प्रगतिशील स्त्री-विमर्शों को गाली देता है। एक लेखक, जो पूर्व पुलिस अधिकारी और वर्तमान में कुलपति भी है, अपने साक्षात्कार में कहता है कि हिंदी लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग है, जिनमें होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनमें सबसे बड़ी ’छिनाल’ कौन है। हदें लांघते हुए उसने यह भी कहा कि नारीवाद का विमर्श अब बेवफ़ाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।


यह बयान सड़क पर यों ही आवारागर्दी करते, नशे में धुत्त, किसी कुंठित इंसान की ओर से नहीं आया है, आता तो शायद, पूरा समाज इसे नज़रअंदाज़ कर देता, लेकिन यह बयान था विभूति नारायण राय का, जो सन ७५ बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के भारतीय पुलिस सेवा से संबद्ध रहे हैं। पूरा का पूरा हिंदी समाज इस बदतमीज़ी व अश्लिल बयानबाज़ी से भड़क उठा है और राय पर कार्रवाई की माँग तेज़ हो गयी है। साल २००८ की बात है, राय को महात्मा गांधी के आदर्शों पर स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालय – महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा का कुलपति नियुक्त किया गया था। महात्मा गांधी आज अगर ज़िंदा होते और सुनते कि उनके परंपरा के एक वाहक ने यों महिलाओं का अपमान किया है तो यक़ीनन शर्म से गढ़ जाते! लेकिन सरकार अब तक इस मामले में नरमी ही दिखा रही है। नौकरी से निकाले जाने के डर के मारे और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की डाँट-डपट के बाद राय ने माफी माँगते हुए कहा कि एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर मुझे ऐसे ’अनुपयुक्त शब्दों’ का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था, जिनसे लेखिकाओं की भावनाओं के ठेस पहुँची। माफीनामे से ज़ाहिर है कि राय को स्त्रियों के प्रति अपने दुर्भावनापूर्ण और दुराग्रहग्रस्त सोच के लिए कोई पछतावा नहीं है।


बहरहाल, यहाँ सोचने वाली बात है कि विभूति नारायण राय के इस बयान के जड़ में किस तरह की मनःस्थिति काम कर रही है? ग़ौरतलब है कि हमारे समाज में यह पुरानी धारणा रही है कि जो लड़कियाँ पढ़ती-लिखती है, अपने अधिकारों को समझने–बूझने लगती हैं और पुरूषप्रधान समाज के सनातनी परंपरा के दायरों को तवज्जह नहीं देतीं, उनका चरित्र अच्छा नहीं माना जाता। औरतें घर की दहलीज़ में रहे तो सती, वर्ना कुलक्षणी। लेकिन आधुनिक वैचारिकी ने इस सोच को नकारा है और स्त्री-मुक्ति के संघर्ष और विमर्श का लंबा इतिहास रचा है। सही है कि स्त्री-विमर्श सिर्फ़ देह-विमर्श नहीं है, लेकिन स्त्री-विमर्श से देह-विमर्श को पूरी तरह ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता है। वर्ग और जाति विभाजित समाज में स्त्री का सर्वहारा वर्ग और दलित जाति से भिन्न होने के पीछे उसका देह ही तो विद्यमान है। तो ऐसे में लेखिकाएँ अपने संघर्षों में सामाजिक वर्जनाओं से बाहर निकलेंगी ही, पर साँकलों का यह टूटना राय जैसे पुरोधाओं को कैसे हज़म हो? राय अगर विक्टोरियन मूल्यों के अवमूल्यन को ही छिनाल होना कहते हैं तो वो यह भी बतायें कि इसी समाज में सत्ताधारी पुरुष लेखकों द्वारा नई लेखिकाओं का यौन-शोषण होता रहा है कि नहीं? अगर हाँ, तो ऐसे संबंधों के संदर्भ का आत्मकथा में ज़िक्र न करते हुए उसे दफ़न कर दिया जाये? ताकि इससे उन चरित्रहीन मर्दों की सामाजिक इज़्ज़त बनी रहे।


एक बात और, न्यूज़ चैनलों पर राय सफ़ाई देते हुए फिर रहे हैं कि ’छिनाल’ शब्द के प्रयोग में ऐसी क्या आपत्ति? यह तो लोक का एक प्रचलित शब्द है। कोई बताए उनको कि हमारा लोक कितना मर्दवादी रहा है और इस लोक में सबसे ज़्यादा प्रचलित शब्दों में वो शब्द आते हैं, जिनका ज़िक्र माँ-बहन की गालियों के लिए होता है। तो ऐसे शब्दों का सरेआम सभ्य समाज में प्रयोग कितना बर्दाश्त-ए-क़ाबिल है?


अंत में सबसे महत्वपूर्ण सोचना यह है कि राय पर क्या कार्रवाई होगी? माफी माँग लेने के बाद ऐसे लोग, जो वाचिक रूप में बलात्कार करते फिरते हैं, उन्हें क्या हमारा समाज कभी माफ कर पायेगा? भूलना नहीं चाहिए कि यह ऐसे स्त्री-विरोधी लोगों और उनका बचाव करने वाले लोगों के सत्ता में क़ाबिज़ रहने के बदौलत ही है कि समाज में पितृसत्ता अब तक क़ायम है।


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गुरुवार, 27 मई 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

देवाशीष प्रसून

समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।


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बुधवार, 12 अगस्त 2009

चौहान की स्त्री विरोधी राजनीति


देवाशीष प्रसून
मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में शादी के लिए आयीं लगभग डेढ़ सौ लड़कियों के कौमार्य परीक्षण के बाद भी जिन्हें शर्म नहीं आ रही, वे अपनी इंसानियत भूल चुके हैं। इस बात को लेकर बहुत बवाल है कि सरकार ने ऐसी धृष्टता कैसे की? हालांकि, असल में प्रश्न यह उठना चहिए था कि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना की प्रासंगिकता क्या है? प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ इस तरह की राजा-रजवाड़ों वाली योजनाओं से लगता है कि हमारे देश की राजनीति अब तक मध्यकालीन है पर आधुनिकता का चोला ओढ़े हुए। विकास का पहिया कहीं ठहर गया है और धज्जियाँ उड़ रही हैं उन सारे मूल्यों की, जिन्हें हजारों सालों से इंसान हासिल करता रहा है। रोज अपनी नयी-नयी करतूतों से, इंसान इंसानियत से दूर और हैवानियत से वाबस्ता हुए जा रहा है। सामंती समाज अब तक कायम है और पूँजी का साम्राज्य भी बड़ी तेजी से अपनी पैठ बढ़ाते जा रहा है। सामंती समाज हर देशकाल में औरतों को उपभोग की वस्तु मानते रहा है। और पूँजीवाद ने भी अपने दो अचूक शस्त्रों - मीडिया और प्रबंधन दृ के जरिए औरत को एक बिकाऊ माल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।

मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, सरकार की कई फितूरों में से एक स्त्री-विरोधी योजना है। अव्वल तो कन्यादान राज्य का काम नहीं है। दूसरे, किसी हिन्दू रिवाज के नाम से सभी धर्मों के लिए योजना चलाना अन्य धर्मों के साथ पक्षपात करने की रणनीति लगती है। अप्रैल 2006 से शुरू मध्य प्रदेश सरकार की इस योजना का मकसद राज्य द्वारा निर्धन परिवार की बेटियों की शादी में आर्थिक सहयोग करना बताया जाता है, जबकि लड़कियों और लड़कों के बीच तरक्की की राह में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात होनी चाहिए थी। इस योजना को लागू करके सरकार ने खुले तौर पर यह माना कि लड़कियाँ तो महज दान की एक सामग्री है। ऐसा मानना दरअसल इस सरकार की प्रतिगामी मानसिकता है। स्त्रियों की शिक्षा, व्यवसाय और राजनीति के डगर में सहयोग की आशा पर पानी फेरते हुए सरकार उसे घर की चार-दिवारी में कैद करने की कवायद में लगी है। विकास कार्यक्रमों के बरअक्स लड़कियों की शादी करवाने में सरकार इतनी अधिक वचनबद्ध है कि मार्च 2009 तक 88,460 लड़कियों का मुख्यमंत्री के सौजन्य से दान किया जा चुका था। यह सीधे तौर पर कानूनन शादी भी नहीं है, क्योंकि इस सरकारी प्रक्रिया में अनुदान के लिए जारी आवेदन-प्रपत्र में साफ दिखता है कि आवेदक लड़का या लड़की से अलावा कोई दूसरा व्यक्ति भी हो सकता है। कहना न होगा कि इसमें वर और वधू के बीच सहमति के बिना भी जबरन शादी करवाने की गुंजाइश है। दरअसल यह उस पिछड़े सोच से पनपी साजिश है, जो लड़के-लड़कियों को स्वयं अपने जीवनसाथी चुनने की आजादी से महरूम रखती है। दहेज को जिस देश में कानूनों के मार्फत गुनाह का दर्जा दिया जा चुका था। हैरानी की बात है कि उसी देश में सरकारी हाथों से इस कुरीति को हवा देकर मध्य प्रदेश सरकार ने अपनी सभ्यता को बहुत पीछे ढकेला है। योजना के तहत नये जोड़ों को घर बसाने के लिए दहेज की तर्ज पर उपहार दिये जाते हैं, क्योंकि सरकार का मानना है कि पैसे के अभाव से ही गरीब परिवार की बेटियों की शादी में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं। अगर सरकार के मंसूबे सही होते तो होना यह चाहिए था, कि जन जागृति कार्यक्रमों और शिक्षा के जरिए विवाह को स्त्री-पुरुष की आपसी समझ से जोड़े जाने वाले एक रिश्ते में तब्दील किया जाता। लेकिन सरकार ने अपनी सामंती सोच का परिचय देते हुए सरकारी खर्च से दहेज की इस मनहूस व्यवस्था को बरकरार रखा। हर कन्या के दान में लगभग छ हजार रुपये खर्च किए जाते हैं, जिसमें से एक हजार रुपये "आयोजको" को दिया जाता है। हो सकता है कि शायद इन आयोजकों के साथ सरकारी मशीनरी की कुछ साँठ-गाँठ हो। जनवरी 2009 से लड़के-लड़कियों को दी जाने वाली पाँच हजार की राशि बढ़ाकर साढ़े छ हजार कर दी गयी है। इस गोरखधंधे में सरकार ने जनता के खजाने से 25 करोड़ रुपये तक को फूँकने के लिए आवंटित कर रखा है। पूरे प्रकरण में एक गंभीर मसला यह है कि राज्य सरकार इन कमजर्फ कामों को बेधड़क होकर, महिला सशक्तीकरण, जनजागृति और समाज कल्याण का नाम पर करती है।
सब कुछ ऐसे ही चल रहा था। निर्विरोध। विपक्ष ने भी मजबूती से कोई विरोध दर्ज नहीं किया। पानी तब सर के ऊपर चला गया, जब हिंदुत्व की पैरोकार सरकार ने खुद को दुर्योधन और दुःशासन की जमात में खड़ा कर दिया। बीते जून आखिरी हफ्ते की बात है- राजधानी भोपाल से 600 किलोमीटर दूर शहडोल जिले में इस कौरवों की सेना ने 152 आदिवासी महिलाओं के कुँवारेपन को जाँचने की जुर्रत तक कर डाली। मर्दों के लिए ऐसी कोई जाँच नहीं थी। हो-हल्ला होने पर मुख्यमंत्री ने बहाना बनाया, कि यह कोई कुँवारेपन की जाँच नहीं थी, बल्कि बस यह पता करने की कोशिश थी कि कहीं, कोई गर्भवती औरत इस सरकारी आयोजन का गलत फायदा न उठा रही हो। यह योजना गरीब परिवार की विवाह योग्य लड़कियों, विधवाओं और परित्यक्ताओं की शादी के लिए है। गरीब परिवार की विवाह योग्य लड़कियों के साथ विधवा और परित्यक्ता का अलग से जिक्र इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार विधवा और परित्यक्ता को सामान्य नजरों से नहीं देखती। साथ ही, तलाकशुदा को परित्यक्ता कहकर, सरकार उन्हें बेहिचक गाली भी दिये जाती है, जबकि संभव है कि लड़की ने ही खुद अपने पति को छोड़ दिया हो। मुख्य बात है कि नियमतः उपरोक्त तीनों तरह की औरत को इस योजना का लाभ मिलना चाहिए था। ध्यान देना होगा कि निर्धन, विधवा या तलाकशुदा महिला अगर गर्भवती भी है और इस योजना के तहत शादी करना चाहती है तो सरकार को क्या परेशानी है? विवाह से कौमार्य या गर्भ का कोई वैज्ञानिक रिश्ता समझ में नहीं आता। कौमार्य और गर्भ का वास्ता तो बस स्त्री-पुरुष के बीच यौन-संबंध से है। याद रहे कि आदिवासी समाज में बिन विवाह के संभोग को अनैतिक नहीं माना जाता। याने ये घटनाक्रम आदिवासियों पर हिन्दू नैतिकता लादने की ओर भी इशारा करते हैं। देखना होगा कि, पुरुष वर्चस्व ने आधुनिक समाज में भी हमेशा विवाह के जरिए ही स्त्री की यौनिकता, श्रम और बच्चे जनने की ताकत पर हमेशा अपना कब्जा जमाये रखा है। इसी परंपरा को और पुष्ट करते हुए, औरतों के कुँवारेपन या गर्भ की जाँच की गयी होगी। साफ है कि औरतों को उस माल के रूप में देखा गया, जिसे बिना इस्तेमाल किए ही उसके ग्राहकों को सुपूर्द किया जाता रहा है। यह देखने के बाद भी क्या हमारी पूरी पीढ़ी शर्मिंदा होने से बच पायेगी?

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

स्त्री-श्रम का राजनीतिक अर्थशास्त्र

- देवाशीष प्रसून



लिंग आधारित सत्ता संबंध
दुनिया में कहीं भी, किसी भी समाज में, किसी भी दो या अधिक इंसानों के बीच जितने भी संबंध हमने देखे हैं, हमने पाया है कि उनमें किसी न किसी स्तर पर एक सत्ता-संबंध (रिलेशन ऑफ़ पॉवर) मौज़ूद है। इस सत्ता-संबंध का निर्धारण इंसानों के आपसी उत्पादन संबंधों पर निर्भर करता है। किसी खास माहौल में उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में लाभांवित होने वाले और उस लाभ का मूल्य अपने श्रम से चुकाने वाले के बीच का संबंध उत्पादन संबंध कहलाता है। अगर कोई उत्पादन संबंध ऐसा हो जिसमें उत्पादन की ज़िम्मेवारियाँ और मिलने वाले लाभ के बीच कोई तारतम्यता नहीं हो तो एक असमान और दमनकारी सत्ता-संबंध का पनपना लाज़िमी है। सत्ता-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक भी हो सकते हैं, बशर्ते उत्पादक को अपने उत्पादन में पूरा हक़ मिले और किसी दूसरे के हक़ पर मुँह मारने वाला कोई नहीं हो।
स्त्रियों और पुरूषों के बीच क़ायम विश्वव्यापी सत्ता-संबंध के मूल में स्त्रियों द्वारा किये गये श्रम पर उनके हक़ को नज़रंदाज़ करना है। स्त्रियों का हक़ मार कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने पुरूषों को लाभांवित करने के कई क्रूर तरीके ईजाद किये हैं।
स्त्री-पुरूष असमानता और ज़ेंडर-भेदभाव की जड़ में मूलतः उत्पादन संबंधों का स्त्री-विरोधी होना है। कुल मिलाकर स्त्री-मुक्ति की सारी आकांक्षाएं उत्पादन संबंधों में एक ईमानदार हक़ पाने की है। वस्तुतः इस हक़ के साथ ही स्त्रियाँ स्वस्थ ज़िन्दगी के लिए जरूरी सभी अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हो पायेंगी। इस तरह से अपने इंसान होने के सुखद एहसास का मज़ा लेते हुये एक सम्पूर्ण ज़िन्दगी जीने का यह सपना हर स्त्री देखती है। लेकिन, अफ़सोस कि अब तक यह सपना हक़ीक़त से दूर है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्त्री-श्रम के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की ज़रूरत है।

लिंग आधारित श्रम विभाजन
(Sexual division of labour)

कारखानों, व्यापारों, खेतीबाड़ी या सेवा-क्षेत्र आदि में भी महिलाएं घर से बाहर निकल कर अपनी मेहनत से घर के लिए रोटी कमाती हैं। साथ ही वे देश के विकास के लिए भी पुरूषों के बराबर दिन-रात अपना खून-पसीना एक करती हैं। हमारा समाज इन कामकाजी महिलाओं के श्रम को ही बस संज्ञान में लेता है। हालाँकि, इस मामले में भी समाज का पुरूष वर्चस्व उनके क़ाबिलियत को पुरूष सहकर्मियों के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही मानता है। और इस तरह घर से बाहर निकल कर भी स्त्रियाँ इस असमान सत्ता-संबंध से मुक्त नहीं हो पाती हैं।
लेकिन, स्त्री- श्रम का मसला इससे ज़्यादा व्यापक है। वह महिला जो अपना पूरा जीवन घर में चाहर-दीवारी में गुज़ारने को अभिशप्त है और दिन रात अपने परिवार के उत्थान के लिए खटती है, बात उनके श्रम की भी होनी चाहिए। माँ बनने की अद्भूत क्षमता से लैस स्त्रियाँ सिर्फ़ समाज में इंसानों की नयी पौध को ही नहीं जनती, बल्कि उन्हें अपने देखभाल और परवरिश से सींच कर एक सक्षम मनुष्य बनाती हैं। इस सक्षम मनुष्य का निर्माण ही भविष्य की उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का निरंतर स्रोत बना रहता है। इस प्रक्रिया में उत्पादन और पुनरुत्पादन की पूरी जिम्मेवारी स्त्रियों की ही रहती है। एक नौकरीपेशा स्त्री या पुरूष से कहीं ज़्यादा मेहनत करने वाली इन महिलाओं के लिए हमारा अंधा समाज कहता है - अरे ! मेरी माँ, मेरी बीबी या मेरी बहन कुछ भी तो नहीं करती , वह तो घर में ही रहती है। यहाँ तक की हमारी सरकार भी इन स्त्रियों के श्रम को अनुत्पादक मानती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद नहीं बढ़ता।
और तो और, उन महिलाओं का दुःख कौन जाने, जो घर में भी परंपरागत तरीक़े से सामाजिक पुनरुत्पादन के सभी जिम्मेवारियों को निभाने के साथ-साथ बाहर जा कर रोज़ी-रोटी भी कमाती हैं। आज ऐसी औरतों की एक बढ़ती संख्या है। इनकी तो दुगनी पेड़ाई हो जाती है और तब भी, समाज में अधिकारों और सुविधाओं की बात आये तो उन्हें फिर पीछे ही रहना पड़ता है।

उत्पादन, सामाजिक पुनरुत्पादन एवं इसकी राजनीति
स्त्री-श्रम का उत्पादन की प्रक्रिया में होने वाले योगदान का सूत्रीकरण करें, तो पायेंगे कि स्त्री का श्रम उत्पादन की निम्नलिखित शाखाओं में महत्वपूर्ण योगदान करता है:-
1. उत्पादन: महिलाएं घर से बाहर और घर में जीविका कमाने के लिए श्रम करती है। रोजी-रोटी कमाने के लिए समाज के हर वर्ग से महिलाएं उत्पादन के इस क्षेत्र में पुरूषों से ज्यादा परिश्रम करती हैं। स्त्रियों का ज्यादातर काम अकुशल माना जाता है और अपने कामों को पूरा करने के लिए उन्हें पुरूषों की तुलना में बेतहाशा मेहनत करनी पड़ती है। स्त्रियों के काम को अकुशल मानने के पीछे पुरुषकेन्द्रीयता (Andro-centricity) के तर्क सामने आते हैं।
2. पुनरुत्पादन: महिलाएं जीवन के उत्पादन का काम भी करती हैं। गर्भ में होने वाले शिशु को नौ महीनों तक पालती है। फिर उन्हें एक भीषण प्रसव-पीड़ा सहकर जन्म देती है। और जब तक नवजात अपने पैरों पर खड़ा न हो जाये, तब तक उसकी परवरिश करती हुई स्त्रियाँ मानव जीवन के निरंतर चलते पुनरुत्पादन के इस प्रक्रिया में अपना श्रम खर्च करती हैं। गर्भ-धारण और प्रसव जैसे काम प्राकृतिक रूप स्त्रियों के जिम्मे है। हालांकि पुनरुत्पादन के कुछ ऐसे काम भी हैं, जिन्हे ज़बरन उन पर थोपा गया है, जो पुरुष भी कर सकते हैं, परंतु सामान्यतः करते नहीं। यह काम है, जो जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने वाले काम हैं, गोया – भोजन तैयार करना, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की परवरिश, परिवार में ज़रुरतमंदों की देखभाल और मरम्मत आदि के काम। इन कामों की पुरूषों द्वारा उपेक्षा और स्त्रियों द्वारा इसे करने की मज़बूरी पितृसत्तात्मक सत्ता-संबंध की एक परिणिती मात्र है।
3. दोहरे दिन (double day): स्त्रियाँ बतौर समूह पुरूषों से दोगुना काम करती हैं। इसे हम “दोहरे दिन” की अवधारणा से समझ सकते है, जिसके मुताबिक़ स्त्रियाँ प्रति सप्ताह पुरूषों के मुक़ाबिले उनसे बहुत अधिक घंटे प्रति सप्ताह श्रम करती हैं।

उत्पादन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण
मानव समाज में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के बीच की दूरी पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाई एक ऐसी दूरी है, जो स्त्रियों को घर की मर्यादा और उससे जुड़ी पारिवारिक निजता के बंधनों में कैद करके उनका निर्बाध रूप से शोषण करने का जरिया रही है। उत्पादन, पुनरुत्पादन और जीवन से संबंधित तमाम विषयों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में बाँटते हुए निजी क्षेत्र पर व्यक्तिगत होने का लेबल लगाने के पीछे की मंशा, निजी क्षेत्र में जबरन कैद की गई, स्त्रियों पर हो रहे ज़ुल्मों को नज़रंदाज़ करना रहा है। एक तो यह तय करना कि स्त्रियाँ निजी कामों में ही व्यस्त रहे और फिर निजी कामों को व्यक्तिगत मान कर किसी भी प्रकार के सामाजिक या राजनैतिक हस्तक्षेप से उन पर हो रही प्रताड़नाओं को दूर रखना स्त्रियों पर हुकुमत करने के लिए पितृसत्ता का एक जालिम तरिका है।
पारंपरिक मूल्यों के साथ विवाह सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा के शक्ल में स्त्री-पराधीनता का एक तरीका है। इसके जरिए पुरूषकेन्द्रित समाज स्त्री के श्रम का लैंगिक विभाजन आसानी से कर पाते हैं। विवाहोपरांत स्त्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घर-गृहस्थी से संबंधित सारे कामकाज संभाले। और इसी तरह से उनके उत्पादकता पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण हो जाता है। साथ ही, विवाह स्त्री की पुनरुत्पादन की क्षमता पर भी नियंत्रण रखता है।
दरअसल इस तरह की क़वायदें ऐसी साज़िशें हैं, जिसमें स्त्रियाँ चुपचाप शोषित होने के लिए मज़बूर हैं। इसलिए अव्वल तो मौज़ूदा स्थिति में स्त्रियों का घेरा ही निजी क्षेत्र के अंतर्गत है तो अपने बारे में उन्हें बात करने के लिए उन्हें निजता कि नकारना होगा और दूसरे कि अपनी ज़ंज़ीरों को तोड़ने के लिए भी यह जरूरी है कि स्त्रियाँ निजता को व्यक्तिगत नहीं मानते हुए उसे एक व्यापक राजनैतिक विषय समझें। "व्यक्तिगत राजनैतिक है" एक ऐसा नारा है, जो स्त्रियों को अपने अधिकारों के वास्ते बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। और सिर्फ़ बोलने के लिए ही नहीं, उन्हें हासिल करने हेतु लड़ने के लिए भी तैयार करता है।
संघर्ष की रणनीति
औरतों को इंसान समझा जाये, एक पूरा इंसान- यह एक आम इंसानी ज़रूरत है और इससे जुड़ी यह बात कि, औरतों को उसके हक़ से महरूम नहीं किया जाये और उसके श्रम का सम्मान हो। इन लक्ष्यों की चाह में अब तक नारीवादियों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने कई अधिकारों को हासिल भी किया। लेकिन, स्त्री-पुरूष उत्पादन संबंध के मूल स्वरूप में किसी बदलाव के नहीं होने से स्त्री-मुक्ति की पुरानी चाहत अभी तक एक चाहत ही है। स्त्री-आंदोलनों में खर्च किये गये एक लम्बे समय और व्यापक ऊर्जा के बावज़ूद यह अपने मूल लक्ष्य को नहीं पा सका है। क्या हैं इसके कारण?
एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन आंदोलनों ने अक्सर तत्कालिक माँगों के लिए हल्ला बोला और अपने जुझारूपन से उन माँगों को भी हासिल किया है। लेकिन, इन उपक्रमों में कहीं न कहीं स्त्रियों के हक़ में उत्पादन संबंधों के बदलाव का अहम लक्ष्य पीछे छूटता रहा। दरअसल जिन ताक़तों के पास सत्ता है वे खुद यह तय करती है कि जिन पर उनका शासन है, उन लोगों की माँगों की हद कहाँ तक हो। इसका मतलब यह कि सत्ता-प्रतिष्ठान जितना छूट देगा, आपका आंदोलन भी उसी सीमा में रहेगा। और अगर कोई इन सीमाओं को लांघने की जुर्रत करता है तो उसे कुचल दिया जायेगा। सरकारों और सरकार समर्थित संस्थानों के अनुदानों द्वारा वित्त-पोषित ग़ैर-सरकारी संगठन (एन जी ओ) स्त्रियों के हक़ में काम करने वाली ऐसी संस्थाएं हैं जो सत्ता-प्रतिष्ठानों से ही अपने विचार और अपने संघर्षों की सीमा अर्जित करती है। आज स्त्री-अस्मिता और स्त्री-मुक्ति का बीड़ा उठाये ऐसी ही संस्थाएं बहुतायत में दिखती हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिदृश्य में बहुत सारे पैसों की भूमिका भी रहती है। स्त्री-मुक्ति के हक़ में इन संघर्ष के ठेकेदारों से बचने की ज़रूरत है। दूरगामी परिणाम के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-आंदोलन अपने लक्ष्य खुद तय करे और किसी भटकाव के बिना अपने ज़िन्दगी को मुकम्मल इंसानी शक्ल देने के लिए एक जायज़ उत्पादन संबंध का निर्माण हो।
इसके के लिए ज़ेंडर के उन उन मानकों को ध्वस्त करना ज़रूरी है, जो किसी खास बर्ताव को औरतों के लिए मुनासिब नहीं मानता, लेकिन मर्दों के लिए इसे जायज़ समझता है। इस तरह के भेदभाव की संरचना असमान सत्ता-संबंध से प्रेरित होती है। असमान सत्ता-संबंध का विकल्प लोकतांत्रिक संबंध है। समाज में लोकतांत्रिक संबंधों का विकास ही असमान और दमनकारी सत्ता-संबंधों को नष्ट करके सही अर्थ में एक मानवीय जीवन की आकांक्षा को तृप्त कर सकता है। सामाजिक मूल्यों में समता, संवेदनशीलता और दूसरों का ख़याल रखने की इच्छा के जन्म से ही लोकतांत्रिक संबंधों का विकास संभव है।
इन सभी सामाजिक मूल्यों के लिए अगर एक शब्द का इस्तेमाल करना हो तो यह कहा जायेगा कि समाज में प्रेम का होना सत्ता-संबंधों के लोकतांत्रिक होने के लिए ज़रूरी है। हमारा समाज एक प्रेम-विरोधी समाज है और यह हर प्रकार की असमताओं का कारण भी है। सामाजिक मूल्य परिवार और समाज द्वारा दिये जाने वाले संस्कारों और शिक्षा के जरिये लोगों के ज़हन में आता है। समाज ने अपने संस्कारों से प्रेम को एक संकुचित अर्थ में व्याख्यायित किया है। इस बात को अनदेखा किया गया है कि प्रेम ऐसा भाव है जो अपने मूल स्वरूप में पूरे मानवता या प्रकृति के प्रति होता है। कभी भी, किसी व्यक्ति विशेष से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम हो सकता है। लेकिन, यह संभव है कि एक व्यक्ति पूरी मानवता से प्रेम करे और कोई इंसान उसके समग्र प्रेम का प्रतिनिधित्व मात्र करता हो। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति-विशेष प्रेम का लक्ष्य नहीं, अपितु प्रेम का माध्यम होता है। बहरहाल, अपने साथ ही दूसरों के विकास के प्रति निःस्वार्थ समर्पण -- प्रेम का अपने मूल स्वरूप में एक ऐसा स्वभाव है, जो उस लोकतांत्रिक माहौल का नियंता बनता है जो सभी प्रकार के दमनकारी सत्ता-संबंधों को नेस्तोनाबूद कर सकता है। इस तरह से एक न्यायपूर्ण उत्पादन संबंध को क़ायम कर स्त्री-मुक्ति की आकांक्षाओं को हासिल करने की राह पर चला जा सकता है।

संदर्भ-सूची

सेन, प्रो. इलीना, क्लासरूम नोट्स
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आर्य, साधना, मेनन, निवेदिता, लोकनीता, जिनी(संपादित)(2001) नारीवादी राजनीति संघर्ष एवं मुद्दे, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय: नयी दिल्ली
बोउवार, सीमोन द, स्त्री:उपेक्षिता (The Second Sex), (अनुवाद: डॉ. प्रभा खेतान)(2002), हिन्द पॉकेट बुक्स: दिल्ली