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रविवार, 16 जनवरी 2011

हिंसा एक बहुआयामी मसला है...

(डॉ. इलीना सेन ने अपने जीवन का लंबा अरसा महिला अधिकारों को हासिल करने के संघर्ष और वंचितों के शिक्षा के लिए खर्च किया है और वर्तमान में वह वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग का नेतृत्व कर रही हैं। इस आलेख को प्रो. सेन से हुई बातचीत के आधार पर देवाशीष प्रसून ने लोकमत समाचार के दीपावली विशेषांक २०१० के लिए लिपिबद्ध किया था।)
मुझसे यह कहा जाना कि जब मैं 'किसकी हिंसा, कैसी हिंसा?' पर टिप्पणी करूँ तो लिंग आधारित हिंसा के मद्देनज़र करूँ, अनुचित है। मेरा मानना है कि हिंसा के कई आयाम हैं और सभी आयामों पर बातचीत होनी चाहिए। जहाँ तक बात लिंग आधारित हिंसा की है तो उस पर हर किसी को बात करनी चाहिए और चूँकि मैं एक महिला हूँ और स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत रही हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मुझसे बस इसी संदर्भ में बातचीत की जाए। बहरहाल, हम मुख्य विषय की ओर लौटें।
सवाल है कि हिंसा में जिस बढ़ोत्तरी की बात हो रही है, उसे कौन बढ़ा रहा है? मेरा मानना है कि मौज़ूदा हालातों में राष्ट्र-राज्य भी टूटने के कगार पर है और जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें सत्ता का केंद्रीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विश्व व्यापार को चलाने वाली शक्तियों के हक में हो रहा है। राष्ट्र-राज्य का स्वरूप हमेशा से बदलता रहा है। हमारे बचपन के समय की बात करें तो उस वक्त राष्ट्र-राज्य का स्वरूप सैद्धांतिक तौर पर निर्विवादित रूप से कल्याणकारी था। कल्याण के बारे में निश्चित तौर पर विकसित और अवकसित देशों में अपने-अपने पैमाने रहे हैं, लेकिन भारत जैसे देश में भी अपने हर नागरिक को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करना राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य माना जाता था। अब इस कर्तव्य का पालन हुआ, नहीं हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। लेकिन अब जो व्यवस्था जड़ जमा रही है, उसके प्रभाव में राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। जाहिर-सी बात है कि नई व्यवस्था जिनके हित में काम कर रही है, वे ही इस बढ़ते हुए हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। वैश्विक वित्तीय पूँजी के फलने-फूलने के लिए तमाम तरह की कोशिशें की जा रही है, जो कि कई तरह के हिंसाओं का मूल कारण है। अपनी ज़िंदगी में और ऐतिहासिक याददाश्त से भी हमने जाना है कि मंदियों और महामंदियों की न जाने कितनी सारी विफलताओं के बाद भी पूँजीवादी व्यवस्था बार-बार उठकर खड़ा हुआ है दुनिया पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में हिंसा और दमन का लंबा दौर देखने को मिलता है। यहाँ पर मैं जिक्र करना चाहूँगी पितृसत्ता का, क्योंकि पितृसत्ता के बारे में मेरी जो समझ है कि यह उन लोगों की सत्ता है जो नैतिकताओं को अपने हित में परिभाषित करते हैं और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हर प्रकार से प्रपंच, बल और हिंसा का प्रयोग करते हैं।
हिंसा का ताना-बाना बहुत जटिल है। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हिंसक शक्तियाँ कई अन्य सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का भी सहारा लेती हैं। अब बस्तर की ही बात करें। बस्तर में जिस तरह से कंपनियों ने अपना पैर पसारना चाहा, वहाँ अपने खास तरह की हिंसा को स्थापित करने के लिए उन्होंने राज्य सत्ता का सहारा लिया। जबकि अगर आप संविधान को देख लें तो ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है। मेरा मानना है कि भारत का संविधान एक बहुत ही प्रगतिशील दस्तावेज़ है, लेकिन व्यवस्था पर काबिज़ लोग हमेशा उसकी गलत व्याख्या करते रहे हैं। राज्य सत्ता के साथ-साथ इन ताक़तों ने पितृसत्ता का भी सहारा लिया। जब मूल निवासियों को गाँव से खदेड़ा जाता है या औद्योगिक हितों के लिए उन्हें अपने ज़मीन से विस्थापित किया जाता है तो निश्चित तौर से हिंसा की सबसे बड़ी शिकार औरतें होती हैं। ऐसा आदिम काल से भी चलता आ रहा है कि अपनी सत्ता और वर्चस्व को स्थापित करने के लिए हमलावर औरतों पर यौन-हिंसा करते रहे है। बलात्कार तो एक चरम है, लेकिन बाहरी सत्ता के आक्रमण में औरतें यौन-हिंसा के कई चरणों से होकर गुज़रती हैं। इस तरह की हिंसा सिर्फ़ औरतों के ख़िलाफ़ नहीं होती, बल्कि ऐसा करना इन औरतों से संबंधित पूरे के पूरे समुदाय को कमज़ोर बताकर उन्हें अपमानित करने की एक युक्ति बनकर सामने आता है। विस्थापन और उससे संबंधित हिंसा के अलावा भी और कई अन्य क्षेत्र हैं, जहाँ इन बड़ी पूँजी वाली कंपनियों ने हिंसा में कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
गरीबी भी हिंसा का भयावह चेहरा है। आम धारणा है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, लेकिन मैं इसे मुख्य कारण नहीं मानती। मुझे लगता है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण उपलब्ध संसाधनों के वितरण में पाँव पसारी हुई निर्मम कुव्यवस्था कारगार है। हालाँकि जनसंख्या एक मसला तो है, लेकिन अपने आप में वह गौण है और भारत में गरीबी को लेकर जनसंख्या जिम्मेवार नहीं है। आप टेलीविज़न में आ रही समाचारों और बहसों को देखिए। देश में कई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं। देश में अब तक अनाजो को बाँटने के सही तरीकों को विकसित नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री का मानना है कि अनाज मुफ़्त में नहीं दिए जा सकते हैं, क्योंकि इससे लोगों की आदतें खराब हो जायेंगी। आप मुफ़्त में नहीं देंगे, आपके पास बाँटने का भी कोई तरीका नहीं है और आप केवल खरीद रहे हैं! यह एक गज़ब विडंबना है। देश में अनाज के उत्पादन और वितरण के बीच कोई रिश्ता समझ में नहीं आता है। हालिया, मैंने एक टेलीविज़न कार्यक्रम में देखा कि पंजाब सरकार के जानिब से एक महिला बोल रही थी कि गोदाम में पड़े अनाज भले ही पंजाब की धरती हो, लेकिन वह भारतीय खाद्य निगम की संपत्ति हैं, पंजाब का उससे कोई लेना देना नहीं है। लोग भूखे हैं, अनाज गोदाम में सड़ रहा है और सरकारी प्रतिष्ठान बाल की खाल निकालने में मशगूल हैं। इतिहासकारों ने बंगाल के ऐतिहासिक अकाल के कारणों को शोध किया तो यह पाया था कि वहाँ तब खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं थी, बस उसे लोगों तक पहुँचने से रोका गया था। मेरी माँ बताती है जोकि उस वक्त स्कूल या कॉलेज पढ़ती रही होगी कि अकाल खत्म होने के बाद के दिनों में गोदामों में बंद अनाजों को नदी में बहाया गया, क्योंकि वह सड़ गए थे। सन बयालिस से आज तक इस स्थिति में कोई अमूलचूल बदलाव नहीं आया है। संसाधनों का वितरण इतना असमान है कि कुछ लोगों के पास इतना कुछ है कि वह इतने खाए-अघाए हैं, उन्हें समझ नहीं आता कि वह इन चीज़ों का क्या करें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जिनके पास कुछ नहीं है। विकास के मौज़ूदा स्वरूप की बात करें तो यह भी गरीबी का एक बड़ा कारण है। एक तरफ़ देश में ऐसी जगहें भी हैं, जहाँ बस पकड़ने के लिए लोगों पंद्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और दूसरी ओर देश में स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग भी बने हैं, जहाँ बिना रूके आप अपनी मंजिल तक अपनी गाड़ियाँ दौड़ा सकते हैं। विकास के नाम पार जो तकनीकों और संयंत्रों को आयातित किया जाता है, वह भी जिम्मेवार हैं गरीबी के लिए। आप बिजली, डीज़ल और पेट्रोल जैसे ईंधन पर चलने वाले संयंत्रों का सस्ता भी नहीं मान सकते, क्योंकि ये ईंधन जल्दी ही इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने वाले है। लेकिन आयातित संयंत्रों के इस्तेमाल की इस प्रक्रिया से बहुतायत में उपलब्ध मज़दूरों को खलिहर रहना पड़ता है, जो कि घूम-फिर कर गरीबी जैसी हिंसा का कारण बनता है। इसके तर्कों के आधार पर मैं कहना चाहूँगी कि जिस तरह से जनसंख्या को गरीबी का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, यह अनुचित है। हालाँकि सरकार ने इसे गरीबी का सबसे बड़ा कारण मानते हुए परिवार नियोजन को कार्यक्रमों को खूब तबज्जो दिया है।
परिवार नियोजन के कार्यक्रमों में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्त्री के स्वास्थ्य को केवल उसके प्रजनन क्षमता के साथ जोड़ कर देखा जाता है और यह बहुत ही हिंसात्मक तरीका है औरतों के बारे में सोचने का। औरतों की, मर्दों की तरह, कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं, लेकिन स्त्री स्वास्थ्य के मुद्दों को हमेशा बच्चों के साथ जोड़ कर या प्रजनन के साथ जोड़ कर देखा जाते रहा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत को जो बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय अनुदान मिले, उसमें जनसंख्या का नियंत्रण एक महत्वपूर्ण शर्त रही है और ऐसे में औरतों का शरीर प्रजनन नियंत्रण तकनीकों का शिकार बनता है। इस मामले में भी भेदभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। स्त्री नसबंदी, पुरूष नसबंदी की तुलना में खतरनाक है, मगर फिर भी ज्यादातर मामलों में नसबंदी स्त्रियाँ ही करवाती हैं। सरकारें भी भ्रामक प्रचार करवाने से गुरेज नहीं करती है कि गर्भनिरोधक गोलियों का महिलाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। जबकि सच यह है कि गर्भनिरोधक गोलियों का स्त्री हॉरमोन पर गंभीर और लंबे समय पर पता चलने वाला दुष्प्रभाव होता है। देश में पुरुषों की तुलना में महिलाएँ बहुत कम हैं। कारण कई हैं। बालिकाओं के देखरेख में लापरवाही या नहीं तो कोख में ही उनकी हत्या हो जाती है। क़ानूनों को धत्ता बताते हुए धड़ल्ले से महिला भ्रूण हत्या का अपराध होते रहता है। यह भी हिंसा का एक विभत्स चेहरा है। इसे विज्ञान द्वारा किए गए हिंसा के रूप में देखा जा सकता है।
नौकरीपेशा या मध्य-आय वाले लोगों का एक ऐसा तबका है, जो एक साथ इन कंपनियों के लिए आवश्यक मानव संसाधन की भी पूर्ति करता है और इनके उत्पादों का बाज़ार भी बनता है। लेकिन गौर करें तो हम देखेंगे, कि यहाँ भी एक अलग तरह की हिंसा होती है। तरह तरह की युक्तियों का इस्तेमाल किया जाता है। गो कि लोगों में खास चीज़ों के लिए अलग किस्म की एक चाहत पैदा करना, यह भी एक हिंसात्मक कार्रवाई है। किसी लड़के या लड़की के व्यक्तित्व को स्वभाविक तरीके से विकसित नहीं होने दिया जाता है। जिस तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है कि उसमें व्यक्तित्व निर्माण के बदले उनमें बाज़ार के हित में काम करने वाली खास तरह की इच्छाएँ जन्म लेती हैं, जो आगे चल कर कुंठाओं को पैदा करती हैं। इसे भी हिंसा माना जा सकता है, जिसके कारण लोगों की शख़्सियत का सकरात्मक विकास नहीं हो पाता है और इंसान चाहतों का दास बनकर रह जाता है। जहाँ तक महिलाओं या लड़कियों का सवाल है तो मामला थोड़ा और गंभीर हो जाता है। जिस तरह के टेलीविज़न शो आजकल आ रहे हैं, उसमें आप देख सकते हैं कि किस तरह से औरतों को या तो वस्तुओं का उपभोग करने वाली अन्यथा उपभोग करने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महंगे लिबास में सजी-सँवरी आकर्षक, पर अपने अधिकारों से विमुख महिलाएँ। अगर स्त्रियों को मौका मिले तो उनका व्यक्तित्व पुरुषों के समकक्ष निखर सकता है, लेकिन इस तरह से उनके मौके ही खत्म कर दिए जाते हैं। यह भी उतना ही हिंसात्मक है पर दिखता बहुत मनोरम है।
अगला सवाल यह है कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृति ने तो क्या हिंसा को नहीं बढ़ाया है? मैं इस बात से सहमत हूँ कि हिंसा के बढ़ने का कारण केंद्रीकरण की प्रवृति है। खास कर मैं सूचना तकनीकी के क्षेत्र में हो रहे केंद्रीकरण की बात करना चाहूँगी। एक कोने से कहीं कानाफूसी चालू हुई और यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है और इस बात को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि वो सत्य हो। सच को झूठ और झूठ को सच बनाना आसान हुआ है। हिंसात्मक विचारों का संक्रमण बढ़ा है। इसके लिए वो लोग जिम्मेवार हैं जो बड़े स्तर सूचनाओं के प्रवाह को संचालित करते हैं। सूचना तकनीक के अलावा भी अन्य कई क्षेत्र हैं , जहाँ केंद्रीकरण की प्रक्रिया ने हिंसा की आग को हवा दिया है। जैसे कि हम खेती-किसानी की बात कर लें। छ्त्तीसगढ़ में कुछ तीन हज़ार किस्म के धान के बीज पाए जाते थे, जिनमें यह खास बात थी वह अलग-अलग प्रकार के जलवायु के मुताबिक उपयोगी हुआ करते थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के झासे में आकर हमारे देशी वैज्ञानिकों ने अपने जैव विविधता को दरकिनार करते हुए कुछ चुनिंदा कृत्रिम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया। इसका नतीजा आज यह है कि हमारे पारंपरिक बीज लुप्त हो रहे हैं और एक बहुत बड़े धरोहर से हमने हाथ धो दिया। एक ऐसा धरोहर जिसको न तो रासायनिक खादों की जरूरत थी, न ही कीटनाशकों की। कुल मिलाकर यह खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करके उसके केंद्रीकरण का मामला है। कुछ लोगों का अपने ज्ञान को बेहतर बताकर ज्ञान की पुरानी परंपरा को नष्ट करना भी हिंसा को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार केंद्रीकरण का नमूना है।
अंतिम सवाल कि संगठित हिंसा की समाप्ति किस संगठित प्रयास से संभव है के जवाब में मुझे कहना है कि इसके लिए लोगों के बीच संवाद और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने पर काफी ज़ोर देना पड़ेगा। कुल मिलाकर समाज को बनाने वाले और चलाने वाले तमाम घटकों को व उनके बीच के परस्पर रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है।
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गुरुवार, 12 अगस्त 2010

पितृसत्ता यों ही नहीं क़ायम है अब तक....

- देवाशीष प्रसून


यह एक ऐसा समय है, चारों ओर जब, स्त्री को उसके अपने अधिकारों से तआरुफ़ करवाने की मुहिम चल रही है, विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों के जरिए समाज में समतामूलक हालातों के निर्माण के लिए ज़मीन-आसमान एक किए जा रहे हैं, महिलाओं को समाज के दक़ियानूसी बंधनों से मुक्त करवाने के लिए नारीवादी संगठनों ने जंग छेड़ रखी है और स्त्री-उत्थान व समतामूलक समाज के निर्माण के लिए सरकारों द्वारा भी योजनाओं, आरक्षण और क़ानूनी प्रावधानों का सुरसार देखने को मिलते रहता है। आधी आबादी के सदियों से दमित और शोषित जीवन को मुख्यधारा में लाकर उन्हें एक मुकम्मल इंसानी रुतबा देने के लिए ऐसे कई प्रयास चल रहे हैं और विडंबना यह है कि ऐसे ही इस समय में ’नया ज्ञानोदय’ नाम की हिंदी साहित्यिक पत्रिका बेवफ़ाई पर विमर्श चला रही है। और तो और, इस विमर्श के दरमियाँ एक ऐसा बयान आता है जो घोर स्त्री-विरोधी होने के साथ-साथ समाज में चल रहे तमाम मुक्तिगामी और प्रगतिशील स्त्री-विमर्शों को गाली देता है। एक लेखक, जो पूर्व पुलिस अधिकारी और वर्तमान में कुलपति भी है, अपने साक्षात्कार में कहता है कि हिंदी लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग है, जिनमें होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनमें सबसे बड़ी ’छिनाल’ कौन है। हदें लांघते हुए उसने यह भी कहा कि नारीवाद का विमर्श अब बेवफ़ाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।


यह बयान सड़क पर यों ही आवारागर्दी करते, नशे में धुत्त, किसी कुंठित इंसान की ओर से नहीं आया है, आता तो शायद, पूरा समाज इसे नज़रअंदाज़ कर देता, लेकिन यह बयान था विभूति नारायण राय का, जो सन ७५ बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के भारतीय पुलिस सेवा से संबद्ध रहे हैं। पूरा का पूरा हिंदी समाज इस बदतमीज़ी व अश्लिल बयानबाज़ी से भड़क उठा है और राय पर कार्रवाई की माँग तेज़ हो गयी है। साल २००८ की बात है, राय को महात्मा गांधी के आदर्शों पर स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालय – महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा का कुलपति नियुक्त किया गया था। महात्मा गांधी आज अगर ज़िंदा होते और सुनते कि उनके परंपरा के एक वाहक ने यों महिलाओं का अपमान किया है तो यक़ीनन शर्म से गढ़ जाते! लेकिन सरकार अब तक इस मामले में नरमी ही दिखा रही है। नौकरी से निकाले जाने के डर के मारे और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की डाँट-डपट के बाद राय ने माफी माँगते हुए कहा कि एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर मुझे ऐसे ’अनुपयुक्त शब्दों’ का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था, जिनसे लेखिकाओं की भावनाओं के ठेस पहुँची। माफीनामे से ज़ाहिर है कि राय को स्त्रियों के प्रति अपने दुर्भावनापूर्ण और दुराग्रहग्रस्त सोच के लिए कोई पछतावा नहीं है।


बहरहाल, यहाँ सोचने वाली बात है कि विभूति नारायण राय के इस बयान के जड़ में किस तरह की मनःस्थिति काम कर रही है? ग़ौरतलब है कि हमारे समाज में यह पुरानी धारणा रही है कि जो लड़कियाँ पढ़ती-लिखती है, अपने अधिकारों को समझने–बूझने लगती हैं और पुरूषप्रधान समाज के सनातनी परंपरा के दायरों को तवज्जह नहीं देतीं, उनका चरित्र अच्छा नहीं माना जाता। औरतें घर की दहलीज़ में रहे तो सती, वर्ना कुलक्षणी। लेकिन आधुनिक वैचारिकी ने इस सोच को नकारा है और स्त्री-मुक्ति के संघर्ष और विमर्श का लंबा इतिहास रचा है। सही है कि स्त्री-विमर्श सिर्फ़ देह-विमर्श नहीं है, लेकिन स्त्री-विमर्श से देह-विमर्श को पूरी तरह ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता है। वर्ग और जाति विभाजित समाज में स्त्री का सर्वहारा वर्ग और दलित जाति से भिन्न होने के पीछे उसका देह ही तो विद्यमान है। तो ऐसे में लेखिकाएँ अपने संघर्षों में सामाजिक वर्जनाओं से बाहर निकलेंगी ही, पर साँकलों का यह टूटना राय जैसे पुरोधाओं को कैसे हज़म हो? राय अगर विक्टोरियन मूल्यों के अवमूल्यन को ही छिनाल होना कहते हैं तो वो यह भी बतायें कि इसी समाज में सत्ताधारी पुरुष लेखकों द्वारा नई लेखिकाओं का यौन-शोषण होता रहा है कि नहीं? अगर हाँ, तो ऐसे संबंधों के संदर्भ का आत्मकथा में ज़िक्र न करते हुए उसे दफ़न कर दिया जाये? ताकि इससे उन चरित्रहीन मर्दों की सामाजिक इज़्ज़त बनी रहे।


एक बात और, न्यूज़ चैनलों पर राय सफ़ाई देते हुए फिर रहे हैं कि ’छिनाल’ शब्द के प्रयोग में ऐसी क्या आपत्ति? यह तो लोक का एक प्रचलित शब्द है। कोई बताए उनको कि हमारा लोक कितना मर्दवादी रहा है और इस लोक में सबसे ज़्यादा प्रचलित शब्दों में वो शब्द आते हैं, जिनका ज़िक्र माँ-बहन की गालियों के लिए होता है। तो ऐसे शब्दों का सरेआम सभ्य समाज में प्रयोग कितना बर्दाश्त-ए-क़ाबिल है?


अंत में सबसे महत्वपूर्ण सोचना यह है कि राय पर क्या कार्रवाई होगी? माफी माँग लेने के बाद ऐसे लोग, जो वाचिक रूप में बलात्कार करते फिरते हैं, उन्हें क्या हमारा समाज कभी माफ कर पायेगा? भूलना नहीं चाहिए कि यह ऐसे स्त्री-विरोधी लोगों और उनका बचाव करने वाले लोगों के सत्ता में क़ाबिज़ रहने के बदौलत ही है कि समाज में पितृसत्ता अब तक क़ायम है।


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गुरुवार, 27 मई 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

देवाशीष प्रसून

समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।


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शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

स्त्री-श्रम का राजनीतिक अर्थशास्त्र

- देवाशीष प्रसून



लिंग आधारित सत्ता संबंध
दुनिया में कहीं भी, किसी भी समाज में, किसी भी दो या अधिक इंसानों के बीच जितने भी संबंध हमने देखे हैं, हमने पाया है कि उनमें किसी न किसी स्तर पर एक सत्ता-संबंध (रिलेशन ऑफ़ पॉवर) मौज़ूद है। इस सत्ता-संबंध का निर्धारण इंसानों के आपसी उत्पादन संबंधों पर निर्भर करता है। किसी खास माहौल में उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में लाभांवित होने वाले और उस लाभ का मूल्य अपने श्रम से चुकाने वाले के बीच का संबंध उत्पादन संबंध कहलाता है। अगर कोई उत्पादन संबंध ऐसा हो जिसमें उत्पादन की ज़िम्मेवारियाँ और मिलने वाले लाभ के बीच कोई तारतम्यता नहीं हो तो एक असमान और दमनकारी सत्ता-संबंध का पनपना लाज़िमी है। सत्ता-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक भी हो सकते हैं, बशर्ते उत्पादक को अपने उत्पादन में पूरा हक़ मिले और किसी दूसरे के हक़ पर मुँह मारने वाला कोई नहीं हो।
स्त्रियों और पुरूषों के बीच क़ायम विश्वव्यापी सत्ता-संबंध के मूल में स्त्रियों द्वारा किये गये श्रम पर उनके हक़ को नज़रंदाज़ करना है। स्त्रियों का हक़ मार कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने पुरूषों को लाभांवित करने के कई क्रूर तरीके ईजाद किये हैं।
स्त्री-पुरूष असमानता और ज़ेंडर-भेदभाव की जड़ में मूलतः उत्पादन संबंधों का स्त्री-विरोधी होना है। कुल मिलाकर स्त्री-मुक्ति की सारी आकांक्षाएं उत्पादन संबंधों में एक ईमानदार हक़ पाने की है। वस्तुतः इस हक़ के साथ ही स्त्रियाँ स्वस्थ ज़िन्दगी के लिए जरूरी सभी अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हो पायेंगी। इस तरह से अपने इंसान होने के सुखद एहसास का मज़ा लेते हुये एक सम्पूर्ण ज़िन्दगी जीने का यह सपना हर स्त्री देखती है। लेकिन, अफ़सोस कि अब तक यह सपना हक़ीक़त से दूर है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्त्री-श्रम के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की ज़रूरत है।

लिंग आधारित श्रम विभाजन
(Sexual division of labour)

कारखानों, व्यापारों, खेतीबाड़ी या सेवा-क्षेत्र आदि में भी महिलाएं घर से बाहर निकल कर अपनी मेहनत से घर के लिए रोटी कमाती हैं। साथ ही वे देश के विकास के लिए भी पुरूषों के बराबर दिन-रात अपना खून-पसीना एक करती हैं। हमारा समाज इन कामकाजी महिलाओं के श्रम को ही बस संज्ञान में लेता है। हालाँकि, इस मामले में भी समाज का पुरूष वर्चस्व उनके क़ाबिलियत को पुरूष सहकर्मियों के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही मानता है। और इस तरह घर से बाहर निकल कर भी स्त्रियाँ इस असमान सत्ता-संबंध से मुक्त नहीं हो पाती हैं।
लेकिन, स्त्री- श्रम का मसला इससे ज़्यादा व्यापक है। वह महिला जो अपना पूरा जीवन घर में चाहर-दीवारी में गुज़ारने को अभिशप्त है और दिन रात अपने परिवार के उत्थान के लिए खटती है, बात उनके श्रम की भी होनी चाहिए। माँ बनने की अद्भूत क्षमता से लैस स्त्रियाँ सिर्फ़ समाज में इंसानों की नयी पौध को ही नहीं जनती, बल्कि उन्हें अपने देखभाल और परवरिश से सींच कर एक सक्षम मनुष्य बनाती हैं। इस सक्षम मनुष्य का निर्माण ही भविष्य की उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का निरंतर स्रोत बना रहता है। इस प्रक्रिया में उत्पादन और पुनरुत्पादन की पूरी जिम्मेवारी स्त्रियों की ही रहती है। एक नौकरीपेशा स्त्री या पुरूष से कहीं ज़्यादा मेहनत करने वाली इन महिलाओं के लिए हमारा अंधा समाज कहता है - अरे ! मेरी माँ, मेरी बीबी या मेरी बहन कुछ भी तो नहीं करती , वह तो घर में ही रहती है। यहाँ तक की हमारी सरकार भी इन स्त्रियों के श्रम को अनुत्पादक मानती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद नहीं बढ़ता।
और तो और, उन महिलाओं का दुःख कौन जाने, जो घर में भी परंपरागत तरीक़े से सामाजिक पुनरुत्पादन के सभी जिम्मेवारियों को निभाने के साथ-साथ बाहर जा कर रोज़ी-रोटी भी कमाती हैं। आज ऐसी औरतों की एक बढ़ती संख्या है। इनकी तो दुगनी पेड़ाई हो जाती है और तब भी, समाज में अधिकारों और सुविधाओं की बात आये तो उन्हें फिर पीछे ही रहना पड़ता है।

उत्पादन, सामाजिक पुनरुत्पादन एवं इसकी राजनीति
स्त्री-श्रम का उत्पादन की प्रक्रिया में होने वाले योगदान का सूत्रीकरण करें, तो पायेंगे कि स्त्री का श्रम उत्पादन की निम्नलिखित शाखाओं में महत्वपूर्ण योगदान करता है:-
1. उत्पादन: महिलाएं घर से बाहर और घर में जीविका कमाने के लिए श्रम करती है। रोजी-रोटी कमाने के लिए समाज के हर वर्ग से महिलाएं उत्पादन के इस क्षेत्र में पुरूषों से ज्यादा परिश्रम करती हैं। स्त्रियों का ज्यादातर काम अकुशल माना जाता है और अपने कामों को पूरा करने के लिए उन्हें पुरूषों की तुलना में बेतहाशा मेहनत करनी पड़ती है। स्त्रियों के काम को अकुशल मानने के पीछे पुरुषकेन्द्रीयता (Andro-centricity) के तर्क सामने आते हैं।
2. पुनरुत्पादन: महिलाएं जीवन के उत्पादन का काम भी करती हैं। गर्भ में होने वाले शिशु को नौ महीनों तक पालती है। फिर उन्हें एक भीषण प्रसव-पीड़ा सहकर जन्म देती है। और जब तक नवजात अपने पैरों पर खड़ा न हो जाये, तब तक उसकी परवरिश करती हुई स्त्रियाँ मानव जीवन के निरंतर चलते पुनरुत्पादन के इस प्रक्रिया में अपना श्रम खर्च करती हैं। गर्भ-धारण और प्रसव जैसे काम प्राकृतिक रूप स्त्रियों के जिम्मे है। हालांकि पुनरुत्पादन के कुछ ऐसे काम भी हैं, जिन्हे ज़बरन उन पर थोपा गया है, जो पुरुष भी कर सकते हैं, परंतु सामान्यतः करते नहीं। यह काम है, जो जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने वाले काम हैं, गोया – भोजन तैयार करना, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की परवरिश, परिवार में ज़रुरतमंदों की देखभाल और मरम्मत आदि के काम। इन कामों की पुरूषों द्वारा उपेक्षा और स्त्रियों द्वारा इसे करने की मज़बूरी पितृसत्तात्मक सत्ता-संबंध की एक परिणिती मात्र है।
3. दोहरे दिन (double day): स्त्रियाँ बतौर समूह पुरूषों से दोगुना काम करती हैं। इसे हम “दोहरे दिन” की अवधारणा से समझ सकते है, जिसके मुताबिक़ स्त्रियाँ प्रति सप्ताह पुरूषों के मुक़ाबिले उनसे बहुत अधिक घंटे प्रति सप्ताह श्रम करती हैं।

उत्पादन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण
मानव समाज में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के बीच की दूरी पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाई एक ऐसी दूरी है, जो स्त्रियों को घर की मर्यादा और उससे जुड़ी पारिवारिक निजता के बंधनों में कैद करके उनका निर्बाध रूप से शोषण करने का जरिया रही है। उत्पादन, पुनरुत्पादन और जीवन से संबंधित तमाम विषयों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में बाँटते हुए निजी क्षेत्र पर व्यक्तिगत होने का लेबल लगाने के पीछे की मंशा, निजी क्षेत्र में जबरन कैद की गई, स्त्रियों पर हो रहे ज़ुल्मों को नज़रंदाज़ करना रहा है। एक तो यह तय करना कि स्त्रियाँ निजी कामों में ही व्यस्त रहे और फिर निजी कामों को व्यक्तिगत मान कर किसी भी प्रकार के सामाजिक या राजनैतिक हस्तक्षेप से उन पर हो रही प्रताड़नाओं को दूर रखना स्त्रियों पर हुकुमत करने के लिए पितृसत्ता का एक जालिम तरिका है।
पारंपरिक मूल्यों के साथ विवाह सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा के शक्ल में स्त्री-पराधीनता का एक तरीका है। इसके जरिए पुरूषकेन्द्रित समाज स्त्री के श्रम का लैंगिक विभाजन आसानी से कर पाते हैं। विवाहोपरांत स्त्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घर-गृहस्थी से संबंधित सारे कामकाज संभाले। और इसी तरह से उनके उत्पादकता पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण हो जाता है। साथ ही, विवाह स्त्री की पुनरुत्पादन की क्षमता पर भी नियंत्रण रखता है।
दरअसल इस तरह की क़वायदें ऐसी साज़िशें हैं, जिसमें स्त्रियाँ चुपचाप शोषित होने के लिए मज़बूर हैं। इसलिए अव्वल तो मौज़ूदा स्थिति में स्त्रियों का घेरा ही निजी क्षेत्र के अंतर्गत है तो अपने बारे में उन्हें बात करने के लिए उन्हें निजता कि नकारना होगा और दूसरे कि अपनी ज़ंज़ीरों को तोड़ने के लिए भी यह जरूरी है कि स्त्रियाँ निजता को व्यक्तिगत नहीं मानते हुए उसे एक व्यापक राजनैतिक विषय समझें। "व्यक्तिगत राजनैतिक है" एक ऐसा नारा है, जो स्त्रियों को अपने अधिकारों के वास्ते बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। और सिर्फ़ बोलने के लिए ही नहीं, उन्हें हासिल करने हेतु लड़ने के लिए भी तैयार करता है।
संघर्ष की रणनीति
औरतों को इंसान समझा जाये, एक पूरा इंसान- यह एक आम इंसानी ज़रूरत है और इससे जुड़ी यह बात कि, औरतों को उसके हक़ से महरूम नहीं किया जाये और उसके श्रम का सम्मान हो। इन लक्ष्यों की चाह में अब तक नारीवादियों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने कई अधिकारों को हासिल भी किया। लेकिन, स्त्री-पुरूष उत्पादन संबंध के मूल स्वरूप में किसी बदलाव के नहीं होने से स्त्री-मुक्ति की पुरानी चाहत अभी तक एक चाहत ही है। स्त्री-आंदोलनों में खर्च किये गये एक लम्बे समय और व्यापक ऊर्जा के बावज़ूद यह अपने मूल लक्ष्य को नहीं पा सका है। क्या हैं इसके कारण?
एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन आंदोलनों ने अक्सर तत्कालिक माँगों के लिए हल्ला बोला और अपने जुझारूपन से उन माँगों को भी हासिल किया है। लेकिन, इन उपक्रमों में कहीं न कहीं स्त्रियों के हक़ में उत्पादन संबंधों के बदलाव का अहम लक्ष्य पीछे छूटता रहा। दरअसल जिन ताक़तों के पास सत्ता है वे खुद यह तय करती है कि जिन पर उनका शासन है, उन लोगों की माँगों की हद कहाँ तक हो। इसका मतलब यह कि सत्ता-प्रतिष्ठान जितना छूट देगा, आपका आंदोलन भी उसी सीमा में रहेगा। और अगर कोई इन सीमाओं को लांघने की जुर्रत करता है तो उसे कुचल दिया जायेगा। सरकारों और सरकार समर्थित संस्थानों के अनुदानों द्वारा वित्त-पोषित ग़ैर-सरकारी संगठन (एन जी ओ) स्त्रियों के हक़ में काम करने वाली ऐसी संस्थाएं हैं जो सत्ता-प्रतिष्ठानों से ही अपने विचार और अपने संघर्षों की सीमा अर्जित करती है। आज स्त्री-अस्मिता और स्त्री-मुक्ति का बीड़ा उठाये ऐसी ही संस्थाएं बहुतायत में दिखती हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिदृश्य में बहुत सारे पैसों की भूमिका भी रहती है। स्त्री-मुक्ति के हक़ में इन संघर्ष के ठेकेदारों से बचने की ज़रूरत है। दूरगामी परिणाम के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-आंदोलन अपने लक्ष्य खुद तय करे और किसी भटकाव के बिना अपने ज़िन्दगी को मुकम्मल इंसानी शक्ल देने के लिए एक जायज़ उत्पादन संबंध का निर्माण हो।
इसके के लिए ज़ेंडर के उन उन मानकों को ध्वस्त करना ज़रूरी है, जो किसी खास बर्ताव को औरतों के लिए मुनासिब नहीं मानता, लेकिन मर्दों के लिए इसे जायज़ समझता है। इस तरह के भेदभाव की संरचना असमान सत्ता-संबंध से प्रेरित होती है। असमान सत्ता-संबंध का विकल्प लोकतांत्रिक संबंध है। समाज में लोकतांत्रिक संबंधों का विकास ही असमान और दमनकारी सत्ता-संबंधों को नष्ट करके सही अर्थ में एक मानवीय जीवन की आकांक्षा को तृप्त कर सकता है। सामाजिक मूल्यों में समता, संवेदनशीलता और दूसरों का ख़याल रखने की इच्छा के जन्म से ही लोकतांत्रिक संबंधों का विकास संभव है।
इन सभी सामाजिक मूल्यों के लिए अगर एक शब्द का इस्तेमाल करना हो तो यह कहा जायेगा कि समाज में प्रेम का होना सत्ता-संबंधों के लोकतांत्रिक होने के लिए ज़रूरी है। हमारा समाज एक प्रेम-विरोधी समाज है और यह हर प्रकार की असमताओं का कारण भी है। सामाजिक मूल्य परिवार और समाज द्वारा दिये जाने वाले संस्कारों और शिक्षा के जरिये लोगों के ज़हन में आता है। समाज ने अपने संस्कारों से प्रेम को एक संकुचित अर्थ में व्याख्यायित किया है। इस बात को अनदेखा किया गया है कि प्रेम ऐसा भाव है जो अपने मूल स्वरूप में पूरे मानवता या प्रकृति के प्रति होता है। कभी भी, किसी व्यक्ति विशेष से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम हो सकता है। लेकिन, यह संभव है कि एक व्यक्ति पूरी मानवता से प्रेम करे और कोई इंसान उसके समग्र प्रेम का प्रतिनिधित्व मात्र करता हो। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति-विशेष प्रेम का लक्ष्य नहीं, अपितु प्रेम का माध्यम होता है। बहरहाल, अपने साथ ही दूसरों के विकास के प्रति निःस्वार्थ समर्पण -- प्रेम का अपने मूल स्वरूप में एक ऐसा स्वभाव है, जो उस लोकतांत्रिक माहौल का नियंता बनता है जो सभी प्रकार के दमनकारी सत्ता-संबंधों को नेस्तोनाबूद कर सकता है। इस तरह से एक न्यायपूर्ण उत्पादन संबंध को क़ायम कर स्त्री-मुक्ति की आकांक्षाओं को हासिल करने की राह पर चला जा सकता है।

संदर्भ-सूची

सेन, प्रो. इलीना, क्लासरूम नोट्स
पटेल, प्रो. विभूति, क्लासरूम नोट्स
आर्य, साधना, मेनन, निवेदिता, लोकनीता, जिनी(संपादित)(2001) नारीवादी राजनीति संघर्ष एवं मुद्दे, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय: नयी दिल्ली
बोउवार, सीमोन द, स्त्री:उपेक्षिता (The Second Sex), (अनुवाद: डॉ. प्रभा खेतान)(2002), हिन्द पॉकेट बुक्स: दिल्ली