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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

रविवार, 9 जनवरी 2011

एक डॉक्टर से बिनायक सेन तक...

डॉ. बिनायक सेन पिछले तीन-चार दशकों से छत्तीसगढ़ के ग़रीब और मज़लूम आदिवासी जनता के डॉक्टर ही नहीं, बल्कि उनके सच्चे हमदर्द भी रहे हैं। डॉ. सेन को अमरीका के ग्लोबल हेल्थ काउंसिल द्वारा स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के लिये वर्ष २००८ का जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया था। विडंवना यह रही कि इस पुरस्कार को स्वीकार करने के लिये स्वयं वाशिंगटन डी.सी जाने की अनुमति भारतीय राजसत्ता और न्याय तंत्र द्वारा उन्हें नहीं दी गई। वह उस वक्त रायपुर के जेल में बंद थे। आश्चर्य इस बात का है कि डॉ. सेन पर यह पाबंदियां उन्हीं कामों के लिये लगायी गयी है जिन कामों लिये इस विश्वविख्यात संस्था ने एशिया के किसी व्यक्ति को पहली बार सम्मानित किया था। चाहे जिस तरह भी छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने का आरोप मढ़ते रहे, लेकिन असल मामला जगजाहिर है कि डॉ. सेन ने जिस तरह से छत्तीसगढ़ सरकार के प्रोत्साहन पर हो रहे बेशक़ीमती ज़मीन के कॉरपोरेट लूट और सलवा जुडूम के गोरखधंधे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, सरकार इसी बात का बदला उनसे ले रही है।

जब वे सलाखों के पीछे थे तो ग़रीब, मज़दूर व आदिवासी ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के कई तेजस्वी लोगों ने डॉ. सेन के रिहाई के लिए हल्ला बोल दिया। एक व्यापक जन-आंदोलन के चलते उनको जमानत पर रिहा किया गया। पर, २४ दिसंबर, २०१० को रायपुर की निचली अदालत ने डॉ. सेन को राजद्रोह का दोषी क़रार दिया। भूलना नहीं चाहिए कि इसी न्याय व्यवस्था ने सन १९२२ में महात्मा गाँधी को भी राजद्रोही माना था। भारत में राज भले ही बदल गया हो, लेकिन न्यायिक व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर अब भी चल रही है। कौन सा व्यक्ति राजद्रोही है और कौन देशभक्त, इस सवाल के अदालती जवाब को पहले भी शक सी नज़रों से देखा जाता था और आज भी। लेकिन इतिहास हमेशा याद रखता है कि समाज में किस व्यक्ति की क्या भूमिका रही है। डॉ. सेन को मिले ताउम्र कैद-ए-बामशक़्क़त की सज़ा से भारत ही नहीं, दुनिया भर का नागरिक समाज सकते में आ गया है। देश-विदेश के सभी विचारवान लोग, अपने अलग-अलग राजनीतिक विविधताओं के साथ रायपुर न्यायालय के इस फैसले को लोकतंत्र की अवमानना के तौर पर देख रहे हैं।

जमानत के दौरान डॉ. सेन जब जेल से बाहर थे तो उनसे बातचीत करने का मौका मिला, जिसका सारांश हमे डॉ. बिनायक सेन की शख़्सियत को समझने में मदद करता है। इस बातचीत में मैंने डॉ. सेन से उनके जीवन के उन संदर्भों को जानने का प्रयास किया है, जिसके बाद से उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह से जन-कल्याण के कामों में लगा दिया। उक्त बातचीत के आधार पर डॉ. बिनायक सेन के जीवन वृत्त का एक खाका खींचने की कोशिश की गई है।

डॉ बिनायक सेन कहते हैं कि सन ७६ के आसपास जब वो क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज़ में पढ़ाई कर रहे थे, उस समय चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए पैसा कमाने से अधिक रुझान नए-नए तकनीकों के जरिए विज्ञान की गूढ़ता से साबिका करना था। डॉक्टर अकसर अपने देश से पलायन करके समृद्ध देशों में अपनी सेवाएँ देने को लालायित रहते थे। जहाँ उन्हें तकनीक से और अधिक रू-ब-रू होने मौका मिलने की उम्मीद थी। यह दौर तकनीकी चकाचौंध का दौर था। तकनीक विज्ञान का पर्याय होता दिख रहा था।

लेकिन इसी दौर में कुछ और भी था, जिसने बिनायक के ध्यान को विदेशी तकनीकों के तरफ़ नहीं, बल्कि अपने देश के झुग्गियों और ग़रीब मोहल्लों की ओर मोड़ा। बाल चिकित्सा में एम.डी. करते वक्त उनका उठना-बैठना ऐसे शिक्षकों के साथ हुआ, जो आमलोगों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे थे। उनमें से एक थी – डॉ. शीला परेरा। डॉ. परेरा पोषण विज्ञान की जानकार थी और उन्होंने बिनायक को ग़रीब बच्चों के पोषण संबंधित विषय पर काम करने को प्रोत्साहित किया। बिनायक का यह काम उनके एम.डी. के लघु-शोध की शक्ल में था। पहली बार अस्पताल और मेडिकल कॉलेज से निकल कर उन्हें मरीज़ों के मर्ज़ और मर्ज़ के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समझने का मौका मिला। धीरे-धीरे वो समझने लगे कि किसी रोग को समझने के लिए बस जीव-वैज्ञानिक व्याख्या ही महत्वपूर्ण नहीं, अपितु रोगों के मूल में मौज़ूद सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्याख्याएँ भी समझना ज़रूरी है।

बाल चिकित्सा में विशेषज्ञता हासिल करने के बजाय बिनायक को एक ऐसी नौकरी की तलाश थी, जहाँ वो रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों को बेहतर समझ सकें। साथ ही, वह सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए भी काम करना चाहते थे। उनकी तलाश दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्गत चल रहे सामाजिक औषधि व सामुदायिक स्वास्थ्य अध्ययन केंद्र पर जा कर थमीं। इसी बीच कुछ प्रगतिशील चिकित्सकों ने मिलकर मेडिको फ्रेंड्स सर्कल का गठन किया। इसका उद्देश्य बीमारियों और जनस्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल करना था। बिनायक इन दोनों मंचों के जरिए समाज में व्याप्त रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का अध्ययन कर रहे थे। मेडिको फ्रेंड्स सर्कल की कोई खास राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। उनमें से कुछ चिकित्सक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहे छात्र संषर्ष वाहिणी के समर्थक थे तो कुछ मार्क्सवादी। पर एक बात जो सामान्य थी वो यह कि सब यह मानते थे कि रोग के इलाज़ में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारकों का निपटारा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

यह एक ऐसा समय था, जब सरकारें सभी दिक़्क़तों का हल तकनीकों के जरिए ही संभव होते देख रही थी। जैसे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए उन्हें एकमात्र विकल्प हरित क्रांति के रूप में सूझा। या जैसे, मलेरिया के रोकथाम में उन्होंने डीडीटी को कारगार पाया। लेकिन, सरकारों ने इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि ये सारे तकनीकी उपाय लंबे समय तक नहीं टिकेंगे। इस विकास में पुनरुत्पादन की गंभीर समस्या थी। तकनीकों के जरिए कृत्रिम विकास ही संभव है, जो विकास की एक मुसलसल प्रक्रिया को जारी नहीं रख सकता। तकनीक बस वे कृत्रिम हालात तैयार कर सकती है, जिससे हालात खास परिस्थियों में सुधरते नज़र आते हैं। असल में हालत सुधरते नहीं, तकनीकों के हटते ही, स्थितियाँ और बुरी हो जाती हैं। तकनीकों के मुकाबिले तमाम समाजिक समस्याओं, रोगों और विपन्नता को हराने के लिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उपाय ही महत्वपूर्ण है, ऐसा सरकारें अब तक नहीं समझ पायीं हैं।

सन ’७८ में बिनायक का पत्नी इलीना के साथ मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले में आना हुआ, जहाँ उन्होंने गाँवों में घूम-घूम कर तपेदिक के ग़रीब मरीज़ों का इलाज़ किया। सन ’८१ में बिनायक और इलीना पीयूसीएल से जुड़े। यह वो समय था जब दल्ली राजहरा में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों का मज़बूत संगठन अस्तित्व में आ चुका था। इस मज़दूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ था। नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया। पीयूसीएल ने इस गिरफ़्तारी की जाँच के लिए एक दल को दल्ली राजहरा भेजा। बिनायक इस जाँच-दल के सदस्यों में से एक थे।

बिनायक को जब इस इलाके की असलियत का पता चला तो उन्होंने यहीं रह कर लोगों के स्वास्थ्य के लिए काम करने का फ़ैसला लिया। नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों द्वारा संचालित अस्पताल में वे नियमित रूप से अपनी सेवाएँ देने लगे। इलीना भी स्त्री अधिकारों और शिक्षा के लिए काम करने लगीं। सन ’८८ में इन दोनों का रायपुर आना हुआ। जहाँ बिनायक ने तिलदा के एक ईसाई मिशनरी में काम किया। इलीना ने रूपांतर नाम से एक ग़ैर सरकारी संगठन की स्थापना की, जो मूलतः कामकाजी बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता था। ’९१ से बिनायक भी रूपांतर के साथ काम करने लगे।

छत्तीसगढ़ में महानदी बाँध के बनने से आदिवासियों का विस्थापन शुरू हो गया था। विस्थापित आदिवासी जनता जीवन-यापन के लिए जंगल में जाकर बस्तियाँ बसाने लगे। सरकार ने इसे आदिवासियों द्वारा जंगल का अतिक्रमण माना। ये बस्तियाँ सरकार के नज़र में ग़ैर-क़ानूनी व अनाधिकृत थी। इस कारण इन इलाकों में रहने वाले लोगों को सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रखा गया था। नगरी सेवा इलाके में भी कुछ ऐसे ही गाँव शामिल थे। सुखलाल नागे के बुलावे पर बिनायक ने यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराई।

पुलिसिया दमन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। ग़रीब और ग़रीब होते जा रहे थे। औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापन को आम जनता पर लादा जाने लगा। बस्तर में पीने के पानी का आभाव था, गंदा पानी पीने से लोगों के बीच हैजा फैल गया। सरकारी नीतियों से लोग त्रस्त होकर विरोध और प्रतिरोध करने लगे, तो उनके दमन के लिए उनका फर्ज़ी मुठभेड़ में विरोध करने वालों की लाश बिछाने की घटना आम हो गयी। लोगों के मानवीय अधिकारों के लिए आवाज़ बलंद करने और इन सभी परिस्थितियों से सामना करते हुए बिनायक ने अपने अंदर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता का विकास किया।

जैसे-जैसे समय बीतते गया, इलाके में कॉरपोरेट लूट बढ़ती गई। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से सरकार की ताक़तों में और भी इज़ाफ़ा हुआ। सन २००५ की बात है देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम को लागू किया। ग़ौर करें तो दोनों ही क़ानून जनविरोधी ही नहीं थे, बल्कि इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों व असहमतियों की स्वरों का गला घोंटने के लिहाज़ से बनाया गया था। एक लोकतांत्रिक समाज की एक जनतांत्रिक छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार जैसे व्यापारिक प्रतिष्ठान से गुप्त समझौता करती है। इसके बाद से यही सरकार आम जनता के सैन्यीकरण को प्रोत्साहित करने लगी। लक्ष्य था आदिवासियों की बेशक़ीमती ज़मीनों को इन कम्पनियों के लिए हथियाना। सलवा जुडूम के नाम को आम असैनिक जनता के सैन्यीकरण को नैतिक, आर्थिक. सामरिक और हथियारों से मदद कर के छत्तीसगढ़ में सरकार ने गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि बनाना शुरू किया। डॉ. सेन ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते उन्होंने देश भर के जागरूक लोगों को छत्तीसगढ़ में रहे इस अन्याय के प्रति आगाह किया और कालांतर में छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम को प्रश्रय देने के लिए शर्मिंदा होना पड़ा।

डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने के आरोप है, लेकिन डॉ. सेन का इस विषय पर बहुत पहले से स्पष्ट रूख रहा है। वे कहते हैं कि वह नक्सलियों की अनदेखी नहीं करते लेकिन उनके हिंसक तरीकों का समर्थन भी नहीं करते हैं। वह ज़ोर देते हुए कहते है कि मैंने हिंसा की बार-बार मुख़ालफ़त की है, चाहे वह हिंसा किसी ओर से की जा रही हो।


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बुधवार, 28 जुलाई 2010

विकास तो चाहिए, पर किस तरह?


- देवाशीष प्रसून

द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति तक साम्राज्यवादी ताक़तों को यह समझ में आ गया था कि अब केवल युद्धों के जरिए उनके साम्राज्य का विस्तार संभव नहीं है। उन्हें ऐसे कुछ तरक़ीब चाहिए थे, जिसके जरिए वे आराम से किसी भी कमज़ोर देश की राजनीति व अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर सकें। इसी सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के फलक पर ’विकास’ को फिर से परिभाषित किया गया। इससे पहले विकास का मतलब हर देश, हर समाज के लिए अपनी जरूरतों व सुविधा के मुताबिक ही तय होता था। पर, संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश व विश्व व्यापार संगठन जैसे ताकतवर प्रतिष्ठानाओं के उदय के बाद से विकास का मतलब औद्योगिकरण, शहरीकरण और पूँजी के फलने-फूलने के लिए उचित माहौल बनाए रखना ही रह गया। दुनिया भर के पूँजीपतियों की यह गलबहिया दरअसल साम्राज्यवाद के नये रूप को लेकर आगे बढ़ी। इस प्रक्रिया में दुनिया भर में बात तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने की हुई, लेकिन हुआ इससे बिल्कुल उलट।

भारत में शुरु से ही विकास के नाम पर गरीबों का अपने ज़मीन व पारंपरिक रोजगारों से विस्थापन हुआ है। जंगलों को हथियाने के लिए बड़े बेरहमी से आदिवासियों को बेदख़ल किया गया जो आज भी मुसलसल जारी है। आँकड़े बताते हैं कि सन ’४७ से सन २००० के बीच सिर्फ़ बाँधों के कारण लगभग चार करोड़ लोग विस्थापित हुए है, अन्य विकास परियोजना के आँकड़े अगर इसमें जोड़ दिए जायें तो विस्थापन का और भयानक चेहरा देखने को मिलेगा। विकास के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर मानवाधिकार उल्लंघन, सैन्यीकरण और संरचनात्मक हिंसा की घटनाओं में लगातार इज़ाफा हुआ है।

औद्योगीकरण, शहरीकरण, बाँध, खनिज उत्खनन और अब सेज़ जैसे पैमानों पर विकास की सीढ़ियों पर नित नए मोकाम पाने वाले हमारे देश में इस विकास के राक्षस ने कितना हाहाकार मचाया है, यह शहर में आराम की ज़िंदगी जी रहे अमीर या मध्यवर्गीय लोगों के कल्पना से परे है, पर देश में अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ता दायरा इस विभत्स स्थिति की असलियत चीख़-चीख़ कर बयान करता है। बतौर बानगी, देश में बहुसंख्यक लोग आज भी औसतन बीस रूपये प्रतिदिन पर गुज़रबसर कर रहे हैं और दूसरी ओर कुछ अन्य लोगों के बदौलत भारत दुनिया में एक मज़बूत अर्थव्यव्स्था के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। अलबत्ता, सरकार अपनी स्वीकार्यता बनाये रखने के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी सरीखे योजनाएं भी लागू करती हैं। पर, इस तरह की योजनाओं का व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते क्या हश्र हो रहा है, सबको पता है और फिर भी अगर साल भर में सौन दिन का रोज़गार मिल भी जाए तो बाकी दिन क्या मेहनतकश आम जनता पेट बाँध कर रहे? हमारी सरकार विकास को शायद इसी स्वरूप में पाना चाहती है?

देश में विकास में मद्देनज़र ऊर्जा की बहुत अधिक खपत है और विकास के पथ पर बढ़ते हुए ऊर्जा की जरूरतें बढ़ेंगी ही। ऊर्जा के नए श्रोतों में सरकार ने न्यूक्लियर ऊर्जा के काफी उम्मीदें पाल रखी हैं। जबकि कई विकसित देशों ने न्यूक्लियर ऊर्जा के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए इनके उत्पादन के लिए प्रयुक्त रियेक्टरों पर लगाम लगा रखा है, वहीं भारत सरकार को अपने यहाँ इन्हीं यम-रूप उपकरणों को स्थापित करने की सनक है। और अब आलम यह है कि न्यूक्लियर क्षति के लिए नागरिक देयता विधेयक पर सार्वजनिक चर्चा किए बिना ही इसे पारित करवाने की कोशिश की गई। इसमें यह प्रावधान था कि भविष्य में बिजली-उत्पादन के लिए लग रहे न्यूक्लियर संयंत्रों में यदि कोई दुर्घटना हो जाए, तो उसको बनाने या चलाने वाली कंपनी के बजाय भारत सरकार क्षतिपूर्ति के लिए ज़िम्मेवार होगी। अनुमान है कि ऐसी किसी भी स्थिति में भारत सरकार को जनता के खजाने से हर बार कम से कम इक्कीस अरब रूपये का खर्च करने पड़ेंगे। विदेशी निगमों को बिना कोई दायित्व सौंपे ही, उनके फलने-फूलने के लिए उचित महौल बनाए रखने के पीछे हमारी सरकार की क्या समझदारी हो सकती है? सरकार के लिए विकास का यही मतलब है क्या?

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में उन्नत गुणवत्ता वाले लौह अयस्क प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। यह जगह पारंपरिक तौर पर आदिवासियों का बसेरा है और वे इस इलाके में प्रकृति का संरक्षण करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं। इन आदिवासियों का जीवन यहाँ के जंगलों के बिना उनके रोजगार और सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन से विस्थापन जैस होगा। सरकार को विकास के नाम पर यह ज़मीन चाहिए, भले ही, ये आदिवासी जनता कुर्बान क्यों न हो जायें और पर्यावरण संरक्षण की सारी कवायद भाड़ में जाए। इस कारण से जो ज़द्दोजहद है, उसकी परिणति गृहयुद्ध जैसी स्थिति में है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। सूत्रों से पता चलता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न गांवों के अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था का एकमात्र उद्देश्य विकास करना है। सवाल यह है कि यह विकास किसका होगा और किसके मूल्य पर होगा?

विकास के इस साम्राज्यवादी मुहिम में उलझे अपने इस कृषिप्रधान राष्ट्र में आज खेती की इतनी बुरी स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? विदेशी निगम के हितों को ध्यान में रखकर वैश्विक दैत्याकार प्रतिष्ठानों के शह पर हुई हरित क्रांति अल्पकालिक ही रही। जय किसान के सारे सरकारी नारे मनोहर कहानियों से अधिक कुछ नहीं थे। खेती में अपारंपरिक व तथाकथित आधुनिक तकनीकों के प्रवेश ने किसानों को बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों व सिंचाई, कटाई और दउनी आदि कामों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नियंत्रित उद्योगों के उत्पादों पर निर्भर कर दिया है। हरित क्रांति के आह्वाहन से पहले भारतीय किसान बीज-खाद आदि के लिए सदैव आत्मनिर्भर रहते थे। लेकिन कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा लादे गये आयातित विकास योजनाओं ने किसानों को हर मौसम में नए बीज और खेतीबाड़ी में उपयोगी ज़रूरी चीज़ों के लिए बाज़ार पर आश्रित कर दिया है। बाज़ार पैसे की भाषा जानता है। और किसानों के पास पैसे न हो तो भी सरकार ने किसानों के लिए कर्ज की समुचित व्यवस्था कर रखी है। इस तरह से हमारी कल्याणकारी सरकारों ने आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और संपन्न किसानों को कर्ज के चंगुल में फँसाते हुए ’ऋणं कृत्वा, घृतं पित्वा’ की संस्कृति का वाहक बनाने का लगातार सायास व्यूह रचा है। छोटे-छोटे साहूकारों को किसानों का दुश्मन के रूप में हमेशा से देखा जाते रहा है, पर अब सरकारी साहूकारों के रूप में अवतरित बैंकों ने भी किसानों का पोर-पोर कर्ज में डुबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कर्ज न चुकाने की बेवशी से आहत लाखों किसानों के आत्महत्या का सिलसिला जो शुरु हुआ, ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

कृषि में विकास का कहर यहाँ थमा नहीं है, हाल में पता चला है कि हरित क्रांति के दूसरे चरण को शुरु करने को लेकर जोर-शोर से सरकारी तैयारियाँ चल रही है। छ्त्तीसगढ़ में धान की कई ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जिनकी गुणवत्ता और उत्पादन हाइब्रिड धान से कहीं अधिक है और कीमत बाज़ार में उपलब्ध हाइब्रिड धान से बहुत ही कम। फिर भी, दूसरी हरित क्रांति की नए मुहिम में कृषि विभाग ने निजी कंपनियों को बीज, खाद और कीटनाशक दवाइयों का ठेका देने का मन बना लिया है। ठेका देने का आशय यह है कि उन्हीं किसानों को राज्य सरकार बीज, खाद या कीटनाशक दवाइयों के लिए सब्सिडी देगी, जो ठेकेदार कंपनियों से ये समान खरीदेंगे, अन्यथा किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि इस तरह से ये निजी कंपनीयां किसानों को अपने द्वारा उत्पादित बीज महंगे दामों पर बेचेगी और एक बड़ी साजिश के तहत किसानों के पास से देशी बीज लुप्त हो जायेंगे। बाद में फिर किसानों को अगर खेतीबाड़ी जारी रखनी होगी तो मज़बूरन इन कंपनियों से बीज वगैरह खरीदने को बाध्य होना पड़ेगा। यह किसानों को खेती की स्वतंत्रता को बाधित करके उन्हें विकल्पहीन बनाने का तरीका है। कुल मिलाकर खेतीबाड़ी को एक पुण्यकर्म से बदल कर अभिशाप में तब्दील करने के लिए सरकार ने कई प्रपंच रचे हैं। जिससे कोफ़्त खाकर लोग आत्मनिर्भर होने के बजाये पूँजीवादी निगमों की नौकरियों को अधिक तवज्जों देने को मज़बूर हो।

विकास के तमाम उद्यमों के वाबज़ूद, हमारा देश पिछले कुछ महीनों से कमरतोड़ महंगाई के तांडव को झेलता आ रहा है। दाल, चावल, खाद्य तेलों और सब्जियों जैसी ज़रूरी खाद्य वस्तुओं के आसमान छूती कीमतों के आगे सरकार हमेशा घुटने टेकती ही दिखी। पेट्रोल व डीज़ल के उत्पाद के बढ़ते दाम से ज़रूरत की अन्य चीज़ों की कीमत महंगे ढुलाई के कारण बढेगी ही और यों बढ़ रही कीमतों से पूरा जनजीवन त्राहिमाम कर रहा है। बेहतर जीवन स्थिति बनाना भर ही सरकार का काम है। असामान्य रूप से बढ़ती कीमतों के लिए एक तरफ अपनी लाचारी दिखाते हुए सरकार दूसरी ओर, यह डींग हाँकने से परहेज़ भी नहीं करते कि देश ने इतना विकास कर लिया है कि भारत की गिनती अब विश्व के अग्रनी देशों में हो रही है। अगर किसी देश की अधिकतर जनता को यह नहीं पता हो कि वह जी-तोड़ मेहनत के बाद वह जितना कमायेगा, उसमें उसका और उसके परिवार का पेट कैसे भर पायेगा, तो इससे ज्यादा अनिश्चितता क्या हो सकती है? बढ़ती महंगाई को एक सामान्य परिघटना के रूप में प्रस्तुत करना सर्वथा अनुचित है। देश की सरकार की नैतिक ज़िम्मेवारी है, कि देश की जनता को अपना जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिए वह अनुकूल परिस्थिति बनाए रखे, जिसमें विकासवादी सरकारों को कोई मतलब नहीं दिखता। लोग सोचने को मज़बूर हो रहे हैं कि इस देश में विकास तो रहा है, जोकि बकौल सरकार होना ही चाहिए, लेकिन यह किस तरह और किनके लिए हो रहा है?

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गुरुवार, 27 मई 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

देवाशीष प्रसून

समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।


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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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बुधवार, 24 मार्च 2010

बाटला हाउस में हुए कत्लों की सच्चाई?

- देवाशीष प्रसून

बाटला हाउस में मुठभेड़ के नाम पर मारे गए लोगों की पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट बड़ी शिद्दत के बाद सूचना के अधिकार के जरिए अफ़रोज़ आलम साहिल के हाथ लग पायी है।पोस्ट मार्टम रिपोर्ट इसे कत्ल बता रही है।जबकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने तो दिल्ली पुलिस के ही दलीलों पर हामी भरी थी। बिना घटनास्थल पर पहुँचे और आसपास व संबंधित लोगों से बातचीत किए बगैर ही इस मामले को सही में एक मुठभेड़ मानते हुए आयोग ने दिल्ली पुलिस को बेदाग़ घोषित कर दिया था। और तो और, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पूरे मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के रपट पर आँखें मूंद कर विश्वास करते हुए किसी तरह के भी न्यायिक जाँच से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से पुलिस का मनोबल कमज़ोर होगा। यह चिंता का गंभीर विषय है कि किसी भी लोकतंत्र में मानवीय जीवन की गरिमा के बरअक्स पुलिस के मनोबल को इतना तवज्जो दिया जा रहा है। बहरहाल, आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट पर से पर्दा उठने के कारण नए सिरे से बाटला हाउस में पुलिस द्वारा किए गए नृशंस हत्याओं पर सवालिया निशान उठना शुरू हो गया है।

यह 13 सितंबर, 2008 के शाम की बात है, जब दिल्ली के कई महत्वपूर्ण इलाके बम धमाके से दहल गए थे। इसके बाद जो दिल्ली पुलिस के काम करने की अवैज्ञानिक कार्य-पद्धति दिखने को मिली, वह पूरी तरह से पूर्वाग्रह और मनगढ़ंत तर्कों पर आधारित है। बम धमाकों के तुरंत बाद ही पुलिस ने जामिया नगर के मुस्लिम बहुल बाटला हाउस इलाके के निवासियों को किसी पुख्ता सबूत के बगैर ही शक के घेरे में लेना और उनसे जबाव-तलब करना शुरू कर दिया था। अगले दिन ही, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल राशीद अगवाँ और तीस साल के अदनान फ़हद को पुलिस के विशेष दस्ते के द्वारा पूछताछ के लिए उठा लिया गया और फिर बारह घंटे के ज़ोर-आज़माइश के बाद उन्हें छोड़ा गया। 18 तारीख़ को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एक शोध-छात्र मो. राशिद को भी पूछताछ के लिए ले जाया गया और उसे ज़बरन यह स्वीकारने के लिए बार-बार बाध्य किया गया कि उसके संबंध आतंकियों से हैं। इस दौरान पुलिस ने उसे नंगा करके कई बार पीटा और तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। बाद में उसे 21 तारीख़ को छोड़ दिया गया।

इसी बीच 19 तारीख़ को दिल्ली पुलिस के विशेष दस्ते ने आनन-फानन में बाटला हाउस इलाके के एल -18 बिल्डिंग को चारों तरफ़ से घेर लिया। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक फ्लैट संख्या 108 के रहने वालों पर पुलिस ने गोलियाँ बरसायी गयीं। बाद में पुलिसिया सूत्रों से पता चला कि उक्त फ्लैट में इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकियों ने ठिकाना बनाया हुआ था, जिन्होंने पुलिस को आते ही उन पर गोलियां चलायी थी। जबाव में पुलिस के गोली से उन में से दो आतिफ़ अमीन और मो. साजिद की मौत हो गयी, दो लोग फरार हो गए और मो. सैफ़ को गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस के अनुसार बाटला हाउस के एल-18 में रहने वाले सभी लोग दिल्ली बम धमाके के लिए कथित तौर पर जिम्मेवार इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े हुए थे। इस कथित मुठभेड़ में घायल हुए इंस्पैक्टर मोहन चंद्र शर्मा को भी जान से हाथ धोना पड़ा।

लेकिन, गौरतलब है कि पूरे मामले में पुलिस, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और न्यायालयों के अपारदर्शी रवैये से यह मामला साफ़ तौर पर मुठभेड़ से इतर मासूम लोगों को घेर कर उनकी क्रूर हत्या करने का प्रतीत होता है। विभिन्न मानवाधिकार संगठनों के इस शक को बाटला हाउस में मारे गए लोगों के पोस्ट मार्टम की रपट ने और पुख्ता किया है।

पोस्ट मोर्टम के रपट के मुताबिक आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के शरीरों पर मौत से पहले किसी खुरदरी वस्तु या सतह से लगी गहरी चोट विद्यमान है। सवाल उठना लाजिमी है कि अगर दोनों ओर से गोलीबारी चल रही थी तो दोनों के शरीर पर मार-पीट के जैसे निशान कैसे आये? ध्यान देने वाली बात है कि दोनों ही मृतकों ने अगर पुलिस से मुठभेड़ में आमने-सामने की लड़ाई लड़ी होती, तो उनके शरीर के अगले हिस्से में गोली का एक न एक निशान तो होता, जो कि नहीं था। आतिफ़ और साजिद के अन्त्येष्टि के समय मौज़ूद लोगों के मुताबिक दोनों शवों के रंग में फर्क था, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि उन दोनों की मौत अलग-अलग समय पर हुई थी। प्रश्न है कि क्या उन्हें पहले से ही प्रताड़ित किया जा रहा था और बाद में उन पर गोलियाँ दागी गयी?

चार पन्नों के रपट में साफ़ तौर पर लिखा है कि आतिफ़ अमीन की मौत का कारण सदमा और कई चोटों की वजह से खून बहना है। चौबीस साल के आतिफ़ के शरीर में कुल मिलाकर इक्कीस ज़ख्म थे। उस के शरीर में हुए ज्यादातर ज़ख्म पीछे की तरफ़ से किए गए थे, वह भी कंधों के नीचे और पीठ पर। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि, आतिफ़ पर पीछे की ओर से कई बार गोलियाँ चलायी गयीं।

सत्रह साल के मो. साजिद की लाश के पोस्ट मोर्टम से पता चलता है कि उसके सिर पर गोलियों के तीन ज़ख्मों में से दो उसके शरीर में ऊपर से नीच की ओर दागे गए हैं। ये भी प्रतीत होता है कि साजिद को जबरदस्ती बैठा कर ऊपर से उसके ललाट, पीठ और सिर में गोलियाँ दागी गयीं।

साजिद और आतिफ़ की हत्या को मुठभेड़ के नाम पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पूरे मामले में सीधे रूप से जुड़ा हुआ मो. सैफ़ अब तक पुलिस हिरासत में है। अगर पुलिस की मानें तो मो. सैफ़ को वहीं से गिरफ़्तार किया गया, जहाँ आतिफ़ और साजिद की मौत हुई थी। ऐसे में उसके बयान का महत्व बढ़ जाता है, जिसे को पुलिस ने अब तक बाहर नहीं आने दिया है। साथ ही, इस मामले पर दिल्ली पुलिस का ’मुठभेड़ कैसे हुआ’ के बारे में बार-बार बदलता स्टैंड भी यह स्वीकारने नहीं देता है कि मृतकों की मौत किसी मुठभेड़ में हुई है। अपितु लगता यह है कि मृतक निहत्थे थे और उन्हें घेर कर वहशियाना तरीके से मारा गया।


तालिका 1: आतिफ़ की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या (रपट के मुताबिक) ज़ख्म का आकार ज़ख्म कहाँ पर है

14 1 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

9 2X1 सेमी, 1 सेमी घर्षण और गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

13 9.2 सेमी घर्षण और 3x1 सेमी गहरा गड्ढा पीठ की मध्य रेखा, गर्दन के नीचे

8 1.5 x1 सेमी गहरा गड्ढा दायें कंधे पर की हड्डी का हिस्सा, मध्य रेखा से 10 सेमी दूर और दायें कंधे से 7 सेमी नीचे

15 0.5 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा निचले पीठ की मध्य रेखा, गर्दन से 44 सेमी नीचे

6 1.5 X1 सेमी, आकार में अंडाकार बायीं जांघ का अंदरूनी हिस्सा (ऊपर की ओर), बाये चूतड़ों पर ज़ख्म संख्या 20 जहाँ से धातु का एक टुकड़ा मिला से जुड़ा हुआ। बंदूक की गोली का निशान संख्या 20 आश्चर्यजनक रूप बहुत बड़ा 5x2.2 सेमी का है।

10 1x0.5 सेमी दायें कंधे से 5 सेमी नीचे और बीच से 14 सेमी नीचे

11 1x0.5 सेमी कंधे के हड्डी के बीच, मध्य रेखा के 4 सेमी दायें

12 2x1.5 सेमी पीठ के दायीं ओर, मध्य रेखा से 15 सेमी, दायें कंधे से 29 सेमी नीचे

16 1 सेमी व्यास दायीं बांह की कलाई और पिछला बाहरी हिस्सा


तालिका 2: साजिद की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या 1 दायें तरफ़ माथे पर आगे के ओर(ललाट पर)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 2 दायें तरफ़ ललाट पर

बंदूक की गोली का निशान संख्या 5 दायें कंधे की ऊपरी किनारा (नीचे की तरफ जा रहा)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 8 बायीं छाती के पीछे( गर्दन से 12 सेमी )

बंदूक की गोली का निशान संख्या 10 सिर के पिछले हिस्से का बायां भाग



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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

वे पुलिस थे, पुलिस हैं और पुलिस ही रहेंगे

- देवाशीष प्रसून
भारत में कई संस्थान उच्च शिक्षा और शोध की दिशा में कार्यरत हैं। उनके बावज़ूद, हिंदी में मौलिक सोच के विकास और शोध की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र में महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की नींव रखी गयी थी। शुरू से ही विभिन्न कारणों से विश्वविद्यालय विवादों में घिरा रहा। आजकल यह विश्वविद्यालय कुलपति विभूतिनारायण राय की तानाशाही को लेकर चर्चा में हैं।
विभूतिनारायण राय भारतीय पुलिस सेवा से संबंद्ध रहे है और यह उनकी कार्य-संस्कृति से भी स्पष्ट दिखता है। हमेशा से वे पुलिस अधिकारी रहे हैं और अब विश्वविद्यालय में भी पुलिसिया संस्कृति के कांटे बो रहे हैं। अपनी किसी असुविधा के लिए एक टार्गेट को चुनना और उसके ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करने में ये माहिर रहे हैं। शोध और अध्यापन के बरअक्स हिंदी-समय, कथा-समय और इस सरीखे हिंदी के साहित्यकारों का मेला लगा कर विभूति तालियाँ सुनने में मज़ा लेते हैं। पर उनके द्वारा लिए गये कुछ अहम फैसले उनकी कार्य-संस्कृति का आईना बनकर सामने आते हैं। गोया, दो बार छात्र-प्रतिनिधियों को बिना विद्यार्थियों की सहमति से विद्या-परिषद के बतौर सदस्य मनोनीत किया गया। हाल में जो व्यक्ति विद्या-परिषद में छात्र-प्रतिनिधि मनोनीत हुआ है, वो एक साथ विश्वविद्यालय से हर माह निश्चित राशि लेकर पब्लिसिटी अधिकारी और पीएच.डी. शोधार्थी है।पीएच डी के लिए भी सरकार हर महीने एक निश्चित राशि शोधवृति के रूप में देती है। विश्वविद्यालय में काम करने वाले को बतौर छात्र-प्रतिनिधि थोपना ही विभूति का विश्वविद्यालय में लोकतंत्रीकरण है।
संतोष बघेल दलित हैं और उन्होंने यहीं से एम.फिल. किया और वह जेआरएफ़ भी है। अपनी इसी योग्यता के साथ उसने पीएच.डी, के लिए आवेदन किया था। खाली सीट के बावज़ूद, बिना लंबी लड़ाई, उन्हें दाखिला नहीं मिल पाया। हाल में एम.फिल. में स्वर्ण पदक प्राप्त लेकिन जाति से दलित छात्र राहुल कांबळे को आखिरकार पीएच.डी. से महरूम रखा गया। प्रवेश परीक्षा में उसका चयन नहीं हो पाया था, पर चयनित एक अभ्यर्थी ने जब दाख़िला नहीं लिया तो तीसरे नंबर पर होने के कारण राहुल ने अपना दावा पेश किया। सीट खाली रह गयी, लेकिन कुलपति राय की दुआ से राहुल को उसके आमरण अनशन के वाबज़ूद भी विश्वविद्यालय से विदाई लेनी पड़ी। बहाना बनाया गया कि उक्त सीट पिछड़े अभ्यर्थी के लिए आरक्षित है तो एक दलित को कैसे मिल सकती है।
कुलपति राय को विरोध के स्वर बर्दाश्त नहीं है, कठपुतली बने कुलानुशासक फट से विद्यार्थियों को नोटिस थमाते फिरते हैं। शोध के एक छात्र अनिल ने बताया कि उसको कई बार अपनी असहमतियों के कारण अनुशासनात्मक कार्रवाई से भरा धमकी-पत्र मिलता रहा है। कारण अलग-अलग रहे हैं। आख़िरकार उसे विश्वविद्यालय ने निष्कासित करने से भी कोई गुरेज़ नहीं किया गया। बहना बनाया गया एक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश। ज्ञात हो कि देश-दुनिया के हर विश्वविद्यालय में किसी भी विभाग में आये दिन संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं और आयोजक अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता के लिए प्रयासरत रहते हैं। लेकिन, खबरदार विभूति के राज में किसी अकादमिक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश व सहभागिता पर निष्कासन भी हो सकता है, जैसा कि अनिल के साथ हुआ।
छात्राओं का पुरुष-छात्रावास में प्रवेश वर्जित है। पूछे जाने पर कुलपति कहते है कि लड़कियाँ टॉफी जैसी होती है,जिनका 'इस्तेमाल' लड़के करना चाहते हैं। इसलिए यह कदम एहतियातन उठाया गया। गौरतलब हो कि इस विश्वविद्यालय परिसर में न्यूनतम शिक्षा एम.ए. स्तर की है। याने इस विश्वविद्यालय के सभी छात्र-छात्राएं व्यस्क है। तो फिर इस तरह की नैतिक पुलिसिंग क्यों? क्या कुलपति राय के संप्रदायिकता विरोधी नक़ाब से निकल कर बजरंज दल का कार्यकर्ता झांकने लगा है?
मनमानियों की कड़ी में एक दिन विद्यार्थियों के हितैषी व लोकप्रिय शिक्षक प्रो अनिल चमड़िया की नियुक्ति विश्वविद्यालय प्रशासन ने ख़त्म कर दी। यह पुलिस अधिकारी राय में विश्वविद्यालय में आने के बाद सबसे बड़ा, लेकिन फर्जी, मुठभेड़ बनता दिखाई दे रहा है। कुलपति राय ने जब महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति का पदभार संभाला तब पहली बार की गयी नियमित नियुक्तियों के जरिए अनिल कुमार राय उर्फ़ अंकित और अनिल चमड़िया ने बतौर प्रोफ़ेसर जनसंचार विभाग में अध्यापन की जिम्मेवारी दी गयी। अनिल चमड़िया का बतौर अथिति शिक्षक विद्यार्थियों को मार्गदशन पिछले चार सालों में कई बार मिलता रहा है। चमड़िया देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के क्षेत्र में विशिष्ठ हैसियत रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) नयी दिल्ली में अध्यापन करते रहे थे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे देश के जाने-माने पत्रकार के साथ-साथ वर्धा, दिल्ली समेत देश के कई पत्रकारिता विभागों के विद्यार्थियों के सबसे प्रिय और सक्षम शिक्षक रहे हैं। प्रो. अंकित को एक दिन की सिनियारिटी के चलते विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया, सो वे प्रशासनिक कामों में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। जो भी हो छात्र-छात्राओं का प्रो. राय से अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले साबिका नहीं पड़ा। लेकिन, उनके कारण विभाग में बढ़ते अफ़सरशाही के चलते विद्यार्थियों में आक्रोश ज़रूर बढ़ रहा था। इसी बीच कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों, अख़बारों और पत्रिकाओं ने प्रो. अनिल कुमार राय अंकित द्वारा नक़ल कर पुस्तके छपवाने के मामले को सार्वजिनक कर दिया। प्रो. अंकित न तो पढाते थे और फिर इस तरह के पुख्ता सबूतों के साथ लगाए गए आरोप के कारण विद्यार्थिओं के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा बढ़ने लगी। इस दौरान विद्यार्थियों का मन किसी प्रकार के असुरक्षा से मोड़ कर अपनी पढ़ाई कोई ओर केंद्रित करवाने के लिए प्रो. चमड़िया ने दिन-रात एक कर दिया।
प्रो चमड़िया कहते हैं कि कुलपति शुरू से ही उनके हर प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया करते थे। चमड़िया चाहते थे कि देश भर की सारी पत्र-पत्रिकाएं विभाग में आयें, जिनसे पत्रकारिता के विद्यार्थियों की समझ व्यापक हो सके, जिसे कुलपति ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने विद्यार्थियों को गाँव-गाँव घूमकर रपट लिखने का आदेश दिया। कुलपति ने अपने मौखिक आश्वासन के बावज़ूद विश्वविद्यालय की ओर से इसके लिए कोई इंतेज़ामात नहीं होने दिये गए। एक प्रोफेसर को दिए जाने वाली न्यूनतम सुविधाओं से उन्हें महरूम रखा गया।
जनसंचार विभाग में पीएच.डी. प्रवेश की परीक्षा आयोजित की गयी। अभ्यर्थियों को लगा कि प्रवेश-परीक्षा में कुछ छोटाला है।इस बाबत शिक़ायत पत्र कुलपति को सौंपी गयी।माँग थी कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक सार्वजनिक किए जायें।पूरी प्रक्रिया में कई लोग शामिल थे।कई विश्वविद्यालय के शिक्षक थे तो प्रो. राममोहन पाठक जैसे कई बाहरवाले भी। कुलपति ने परीक्षाफल को निरस्त कर दिया और पुनः परीक्षा आयोजित की गयी, लेकिन जो काम आज तक नहीं हुआ वह कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक को सार्वजनिक किया जाना। जबकि सात महीने बीत चुके हैं। बाद में सारी धांधलियों का दोष प्रो. चमड़िया पर मढ़ा गया। कहा गया कि उन्होंने साक्षात्कार के अंकों के साथ छेड़-छाड़ किया है। अगर ऐसा है भी तो वे सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाने चाहिए थे। सिर्फ़ साक्षात्कार ही नहीं, उत्तर-पुस्तिकाओं के विश्वसनीयता को सबके सामने रखा जाये। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता। प्रो चमड़िया से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा अंक देते वक्त उनसे एक गलती हो गयी थी, गलत को सही करके उन्होंने अपने सुधार पर अपना हस्ताक्षर किया है। वे कहते हैं कि सुधार करना कोई अपराध नहीं हो सकता है। अगर विश्वविद्यालय इसे गलती मान ही रहा था तो फिर उसने परीक्षा परिणाम ही क्यों प्रकाशित किया।बाद में आयोजित परीक्षा में तो सचमुच योजनाबद्ध तरीके से उच्चाधिकारियों ने धांधली की।पूरी परीक्षा की प्रक्रिया एक व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी रही और परीक्षा परिणाम के वक्त पीएचडी के लिए निर्धारित सीटों की संख्या दस से तेरह कर दी गई।साक्षात्कार के पैनल में अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कोई पर्यवेक्षक नहीं था जोकि नियमत अनिवार्य है।
बहरहाल इससे अधिक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि केवल राष्ट्रपति द्वारा कार्य-परिषद के लिए नियुक्त सदस्यों को ही पूरी कार्य-परिषद करार देने के बाद उनकी आनन-फानन में बैठक बुलायी गई और अनिल चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ तथा उनके साथ किये गये बाकी ग्यारह नियुक्त्तियों को स्वीकृत करवाया गया। इस पर कुलपति ने कहा कि कार्य-परिषद के सभी सदस्य तुले हुए थे कि अनिल चमड़िया की नियुक्ति खारिज़ हो। सदस्यों ने कहा कि यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वे प्रोफ़ेसर के लिए निर्धारित योग्यता पूरी नहीं करते हैं। इस संदर्भ में कार्य-परिषद सदस्या मृणाल पाण्डेय ने बताया कि कुलपति राय ने पहले ही हमें आगाह कर दिया था कि न्यायालय में विश्वविद्यालय प्रशासन ने चमड़िया जी की नियुक्ति को बतौर गलती स्वीकार किया है कानूनी फजीहत से बचने के लिए चमड़िया जी की नियुक्ति खारिज़ की गई। एक और सदस्य प्रो कृष्ण कुमार से पता चला कि कुलपति विभूति जी अनिल चमड़िया की नियुक्ति को निरस्त करने के प्रस्ताव के साथ बैठक में आये थे। कृष्ण कुमार ने बातचीत में कई बार ज़ोर देते हुए कहा कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र लिख कर यह निर्देशित किया है कि जब तक कार्य-परिषद की बैठक के मिनट्स पर उनके संस्तुतियाँ नहीं जाती, प्रशासन कोई भी निर्णय लागू नहीं कर सकता है। और यह कि अब तक संस्तुतियाँ भेजी नहीं गयी हैं। लेकिन ज्ञात हो कि २७ जनवरी के शाम साढ़े सात बजे अनिल चमड़िया को २५ जनवरी को निर्गत उनकी नौकरी छीने जाने का पत्र आवास पर भेजा गया था। यानी कुलपति महोदय ने कार्य-परिषद के सदस्यों के बारे में दुष्प्रचार किया, उनके शैक्षणिक साख पर बट्टा लगाने की कोशिश की और उनकी आधिकारिक संस्तुतियों के बिना निर्णयों को लागू किया, जिनमें अंकित समेत ११ शिक्षकों नियुक्ति को पक्का करना और अनिल चमड़िया को बाहर का रास्ता दिखाना शामिल था। एक और गंभीर मामला भी ध्यान देने योग्य है। कुलपति जी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि अनिल चमड़िया प्रोफ़ेसर पद के लिए निर्धारित योग्यता नहीं रखते हैं। स्क्रूट्नी के वक्त कुलपति से यह गलती हुयी कि उन्हें साक्षात्कर के लिए बुलाया गया। जबकि, विश्वविद्यालय के वेबसाइट और रोज़गार समाचार में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा १९९८ में जारी शैक्षणिक पात्रता के न्यूनतम ज़रूरतों के दिशानिर्देशों के आधार पर कई पदों के लिए आवेदन मँगवाये गये। कालांतर में इन्हीं विज्ञापित पदों पर १२ शिक्षकों की नियुक्ति हुई। आज कुलपति अपनी गलती स्वीकार रहे हैं तो सारी नियुक्तियाँ खारिज होनी चाहिए।
वर्धा परिसर में विभूति की मनमानियों के प्रतिरोध का स्वर मुखर हो गया है। अनिल चमडिया के इस मामले से पूर्व लगभग एक महीने तक परिसर में दलित विद्यार्थियों का आंदोलन चला था। दलित विद्यार्थी अब भी प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का बहिष्कार कर रहे हैं। छात्र-छात्राएं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए अपना विरोध कर रहे हैं। ब्लॉग पर विद्यार्थी अनिल चमड़िया के समर्थन और कुलपति के विरोध में टिप्पणियाँ लिखने लगे हैं। नाटक खेले जाने लगे हैं। कविताएं लिखी जाने लगी है। २२ छात्र-छात्राओं ने लिखित तौर पर विभाग छोड़ने की बात कही हैं। प्रो. चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ करने का विरोध लगभग दो सौ विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में ८४ विद्यार्थियों ने अपने दस्तख़त के साथ किया है। यही नहीं, राजेंद्र यादव व अरूंधति राय सरीखे देश के कई बुद्धिजीवियों ने अपने हस्ताक्षर के साथ कुलपति राय के इस कदम की भर्त्सना की है। विश्वविद्यालय में राय का सिंहासन डोलने लगा है।
राय किस्से-कहानियाँ लिखते रहे हैं और प्रकाशक भी उन्हें छापते भी रहे। अब छापने की वज़ह इनके साहित्य की गुणवत्ता थी या प्रकाशकों को मिला सरकारी ख़रीद का आश्वासन, यह तहक़ीकात का विषय हो सकता है। इनका जनसंपर्क हमेशा से ही अचूक रहा, जिसके कारण लोगों के मन में इनकी छवि एक प्रगतिशील व्यक्ति की रही। लेकिन आज विश्वविद्यालय में जिस कार्य-संस्कृति और अकादमिक माहौल के ये जनक हैं, उसके मद्देनज़र विभूतिनारायण राय ने जो जीवन भर प्रशंसाएं अर्जित की हैं, उन पर शक होना स्वभाविक है।