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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

गोपनीयता बरतने का अमेरिकी करतब

-  देवाशीष प्रसून
आख़िरकार विकिलिक्स के संस्थापक जूलियन असांज को गिरफ़्तार कर ही लिया गया। उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप हैं। सवाल यह है कि क्या सच में यह मामला यौन-उत्पीड़न का है या विकिलिक्स द्वारा किए गए पर्दाफ़ाशों से संयुक्त राज्य अमरीका ही नहीं उसके तमाम पिट्ठू देश सकते में आ गए हैं? इस बात में कोई शक नहीं है कि जूलियन को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि उसने दुनिया की सबसे बड़ी सत्ता की गोपनीयता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। वर्ना, देखने वाली बात है कि दुनिया भर में यौन मामलों में अंतरराष्ट्रीय पुलिस और न्याय व्यवस्था की हरकत देखने को कितनी बार मिली है? आस्ट्रेलियाई नागरिक जूलियन को ब्रिटिश पुलिस ने लंडन में हिरासत में लिया है और उन पर न्यायिक मामला स्वीडन में लंबित है। गौरतलब है कि दुनिया भर में अपना रुतबा रखने वाले फ़िल्मकार केन लोच और पत्रकार जॉन पिल्जर जैसे विश्व विख्यात शख्सियतों के कुल एक लाख अस्सी हज़ार डॉलर के मुचलके पर भी जूलियन को जमानत पर नहीं छोड़ा जा रहा है। यौन-मामलों में इस तरह की सजगता क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पर सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच जूलियन पर न्यायिक कार्रवाई यौन अपराधों के मद्देनज़र हो रही है? जाहिर सी बात है कि विकिलिक्स ने खोजी पत्रकारिता का जो इतिहास रचा है, इसके लिए जूलियन को अमरीकी सत्ता अपने काबू में नहीं ले सकती थी, तो उन्हें दूसरे बहाने से कब्ज़े में लिया गया।
हालाँकि माहौल तो यह भी बनाया गया कि अल क़ायदा की तर्ज पर विकिलिक्स को भी आधिकारिक तौर पर एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया जाए, पर अब तक यह हो नहीं सका है। इस बाबत द हाऊस होमलैंड सुरक्षा समिति के अध्यक्ष पीटर किंग ने इसके लिए बहुत प्रयास किए। किंग ने अमरीका की राज्य सेकरेटरी हिलेरी क्लिंटन को एक आधिकारिक ख़त में लिखा था कि विकिलिक्स से देश की सुरक्षा को ख़तरा है, इसलिए विकिलिक्स को आतंकवादी संगठन घोषित कर देना चाहिए। दरअसल गोपणीय सूचनाओं के पर्दाफ़ाश के बाद अमरीका की स्थिति दुनिया भर में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं बची है। यह जाहिर हो गया है कि अमरीकी सरकार अन्य देशों और उसके प्रमुख के बारे में कितनी ओछी सोच रखती है। अब यह बात भी खुल-ए-आम हो गई है अमरीका की विदेश नीति किस तरह से अंतरराष्ट्रीय सौहार्द्य को ठेंगे पर रखती है और कैसे-कैसे उसने इराक को युद्ध में नेस्तोनाबूद कर दिया। विकिलिक्स ने अमरीका के अंतरराष्ट्रीय साख को धुँआ कर दिया है। अब इसके बाद मारे शर्म और जिल्लत के अमरीका और उसकी दुनिया भर फैली एजेंसियाँ जवाबी कार्रवाई कर विकिलिक्स को सबक सिखाना चाहती हैं। जब कूटनीतिक तरीकों से विकिलिक्स दवाब में नहीं आया तो इस सिलसिले में इन ताक़तों ने विकिलिक्स के वेबसाइट पर तकनीकी हमलों का बौछार कर दिया। इंटरनेट के क़ानूनों और नैतिकताओं को ताख पर रख कर विकिलिक्स पर बड़े जोरदार तरीके से वाइरसों के हमले हुए। इससे भी मामला क़ाबू में नहीं आया तो विकिलिक्स को वेबसाइट चलाने की सेवा जो कंपनी दे रही थी, उसे खोपचे में लेते हुए विकिलिक्स के कामकाज को ठप्प किया गया। बेचारी कंपनी ने बहाना यह बनाया कि विकिलिक्स पर होने वाले वाइरस हमले इतने तीव्र हैं कि अगर उसे बंद न किया जाता हो पूरी इंटरनेट व्यवस्था ही मटियामेट हो जाती। इसे कहते हैं, मना करने पर भी कोई आपकी बात न मानें तो उसे मज़बूर कर देना कि वह चाह कर भी कुछ कर न सके। और अमरीका इसमें माहिर है।
और याद होगा कि किस तरह से पहली बार जब विकिलिक्स ने कई आँखें खोलने वाली सूचनाओं की गोपनीयता को खत्म किया था तो स्वीडन की सत्ता उसे पहले ही तमाम तरह की धमकियाँ दे चुकी थी। लेकिन विकिलिक्स बिना किसी दवाब में आए गुप्त सूचनाओं का पर्दाफ़ाश करते रहा। दरअसल गौर करें तो अमरीका हमेशा से ही सूचनाओं की गोपनीयता को लेकर संवेदनशील रहा है। सन चौरासी की बात है कि अमरीका ने इसी तरह से यूनेस्को पर भी यों कूटनीतिक हमला किया था। यूनेस्को के साथ अमरीका के तू तू-मैं मैं का सबब मैकब्राइड समिति के सुझावों के तहत बनाए जाने वाली नई विश्व सूचना व संचार व्यवस्था को तवज्जो देना था। तब आलम यह था कि सूचना व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण से अमरीका इतना बौखला गया कि उसने यूनेस्को के अपने सारे संबंध तोड़ लिए। विश्व सामंजस्य की लफ़्फ़ाजी करने वाला अमरीका इतना ज़िद्दी है कि वह अंतरराष्ट्रीय शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति को समर्पित संयुक्त राष्ट्र के इस उपांग से उन्नीस साल तक मुँह फैलाए रहा, जब तक कि यूनेस्को ने अपनी संचार नीतियों में अमूलचूल बदलाव नहीं लाए।
अमरीका ही नहीं, दुनिया में मौज़ूद तमाम साम्राज्यवादी ताक़तों के इस फ़ितरत पर गौर करें। वह गोपनीयता को लेकर बड़े संवेदनशील रहे हैं। भारत में भी देखिए मीडिया और सियासत के बंदरबाट से जुड़े बड़े-बड़े खलीफ़ाओं की गद्दियाँ नीरा राडिया के टेप्स के बेपर्द होने से हिल गईं हैं। सीधे-सीधे यह मामला सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों के भ्रष्टाचार और गोरखधंधा को उन लोगों से छुपा के रखने का है, जो उन्हें इन सत्ता के सिंहासन पर बैठाते हैं और इस तरह के खुलासे सत्तासीनों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं।
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संप्रति:       पत्रकार व मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

विश्वशक्ति बनते भारत की कुपोषित-बीमार आबादी

- देवाशीष प्रसून

पूरी दुनिया में यह अभियान जोर-शोर से चल रह है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन का क़ानूनन अधिकार मिले। हमारे देश में भी लोगों ने इस बाबत कमर कस ली है। सरकार की नीति तो यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों को प्रतिमाह पैंतीस किलोग्राम अनाज सस्ते दर पर उपलब्ध करायी जाए, पर इस सरकारी नीति को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करते वक्त अगर नौकरशाही और ठेकेदारों की सेंधमारी न हुई होती तो शायद नज़ारा कुछ और ही होता। गौरतलब है कि सरकारी योजनाकारों द्वारा गरीबी की रेखा व प्रति परिवार सस्ते दर पर अनाज की मात्रा का आकलन भी बेहद अदूरदर्शी और मनगढ़ंत लगता है। बहरहाल, तक़रीबन ११० करोड़ की आबादी वाले देश में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक सन २००६ तक २५.१५ करोड़ लोग यानी आबादी का कम से कम बीस फीसदी हिस्सा भीषण रूप से कुपोषित था। यह हालात कमोबेश बरकरार है। जाहिर है इसका प्रमुख कारण खाने-पीने की चीज़ों का लोगों की पहुँच से बाहर होना है क्योंकि शौकिया तो कोई भूखा नहीं ही रहेगा।

जून २०१० में जारी विश्व बैंक का रपट कहता है कि भारत में जनवरी २०१० तक भोजन के थोक मूल्यों में वित्तीय वर्ष २००८-०९ के बनिस्बत जो बदलाव आए हैं, उससे भोजन तक लोगों की पहुँच मुश्क़िल हुई है। चीनी की कीमत ४२ फीसदी बढ़ी है और अनाज १४ फीसदी महँगे हुए हैं। दालों की कीमत में औसतन २८ फीसदी का उछाल आया है जबकि दूध, अंडे, मछलियों और सब्जियों के भाव भी मई तक ३५ फीसदी बढ़कर आसमान छूने लगे हैं। हालाँकि दूसरी ओर देखने वाली बात यह है कि इसी वक्त भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूँ और चावल का ४७५ लाख टन भंडारण हो चुका था, जो कि बफ़र स्टॉक से २७५ लाख टन फ़ाज़िल है। यानी खेती-किसानी की खस्ताहाल स्थिति के बावज़ूद भी सरकारी गोदामों में इतना अनाज तो है ही कि लोग भूखों न मरें। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में उनकी क्षमता से अधिक अनाज ठूँसे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। भूखे लोगों तक अनाजों को मुहैया कराने के बजाए विडंबना यह है कि या तो इन्हें चूहें हज़म कर जाते हैं या सड़ने के बाद इसे पानी में बहाया जा रहा है। अफ़सोस कि आज तक इन अनाजों के समुचित वितरण का सटीक और असरदार तरीका नहीं ढ़ूँढ़ा जा सका है। सरकार के लिए अब सिर्फ़ योजनाएँ बनाना नाकाफी है, ज्यादा ज़रूरी यह है ऐसी वितरण प्रणाली खड़ी की जाए जिससे ज़रूरतमंद लोगों का पेट आसानी से भर सके और हमारा समाज लंबे समय से चले आ रहे कुपोषण से मुक्त हो पाये।

२०१० के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक के मुताबिक ’सबसे भूखा कौन?’ के मुकाबिले में भारत अपने पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान और नेपाल से बहुत आगे है। कुल १२२ देशों में हुए अध्ययन में भारत ५५वाँ सबसे भूखा देश है। एक दूसरे स्रोत से पता चलता है कि दुनिया के कुल ९२.५ करोड़ लोगों की भूखी आबादी में से ४५.६ करोड़ लोग भारत में रहते हैं। क्या कारण है कि करीबन साढ़े आठ फीसदी की दर से तरक्की करने वाली इस देश की अर्थव्यव्स्था पर आश्रित आबादी में दो-तिहाई महिलाओं के शरीर में खून की कमी एक आम बात बन कर रह गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने भले ही, अस्थाई ही सही, सदस्यता हासिल की हो, लेकिन एक सवाल फन काढ़े खड़ा है कि जब इसके पाँच साल से छोटे बच्चे की लगभग आधी आबादी दिल दहलाने वाली कुपोषण का शिकार है तो भविष्य में इस देश की सुरक्षा की जिम्मेवारी किनके कंधों पर होगी? याद रहे, बचपन में मनुष्य का विकासशील शरीर अगर पर्याप्त पोषण जुटा नहीं पाता है तो इसका खामियाजा उसे ताउम्र भुगतना पड़ता है। भारतीय बच्चों में व्याप्त कुपोषण दरअसल देश की इंसानी नस्ल को शारीरिक और मानसिक तौर पर लाचार और कमजोर बना रहा है और इस कारण देश की सुरक्षा ही क्या, अब उसके पूरे अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि देश में होने वाली कुल बीमारियों में से २२ फीसदी बचपन में हुए कुपोषण के कारण होती हैं। सोचिए अब ऐसे हालात हैं तो क्या है इस देश का भविष्य? यही नहीं, कुपोषण का मामला इतना सपाट भी नहीं है, समाज के अलग-अलग तबकों की अलग-अलग कहानी है। ग़ौर करने वाली बात है कि देश में बच्चियाँ बच्चों से अधिक कुपोषित हैं और अनुसूचित जातियों व जनजातियों में कुपोषण का आँकड़ा सामान्य से कहीं अधिक है।

देश में भूख की इस गंभीर स्थिति के बाद भी सरकार के जानिब से बार बार इस तरह की बयानबाज़ी सुनने को मिलती रहती है कि हिंदुस्तान एक ताक़तवर मुल्क बनने की राह में बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। इन सरकारी दावों को विश्व अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे भी खूब हवा देते हैं। मीडिया का एक धड़ा भी इनके हाँ में हाँ मिलाता है। वाकई भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूती के पायदानों पर नित नई ऊँचाईयाँ हासिल कर रही है और इसके मद्देनज़र इस तरह की बातों का होना लाज़िमी भी है। लेकिन, आश्चर्य यह है कि आँकड़े तो कुछ और ही हाल बयान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पाँच साल पहले तक देश की ४१.१ फीसदी आबादी दिन भर में एक डॉलर याने चालीस-पैंतालिस रूपये से अधिक कमा नहीं पाती थी। यह स्थिति कमोबेश बरकरार है।

मगर, गौरतलब है कि अब भारत सरकार की बढ़ती कूवत की कई उदाहरण मिलने लगे हैं। ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों का है, जिसमें सरकार लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धनराशि और संसाधन खर्च कर रही है। किंतु, भारत की तुलना एक ऐसे परिवार से की जा सकती है, जहाँ बच्चे भूख से बिलख रहे हों और पिता अतिथियों को आमंत्रित करके स्वागत में राजसी भोजन परोस रहा है। हालाँकि इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के राजसत्ता की हैसियत पिछले दशकों के बरअक्स बहुत बढ़ी है, पर इसका फायदा अधिकतर जनता के नसीब में नहीं है। देश की ज्यादातर जनता अकाल जैसी स्थितियों में अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए कोल्हू का बैल बनी हुई है। जाहिर है उस देश की अमीरी का क्या मतलब, जिस देश में लोगों का स्वास्थ्य विश्व मानकों से बहुत नीचे हो। यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि महँगे कपडों से अपने कोढ़ को छुपाने की कोशिश की जा रही हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस साल जारी किए आँकड़ों से पता चलता है कि आज भी भारत में बच्चे को जन्म देते वक्त हर एक लाख माँओं में से साढ़े चार सौ माँएँ स्वर्ग सिधार जाती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति जलवायु के कारण नहीं है, क्योंकि अपने पड़ोस में बसा देश श्रीलंका प्रसव के दौरान एक लाख में केवल अठावन माँओं की जान को बचा पाने में चूकता है। यही संख्या पाकिस्तान में तीन सौ बीस माँएँ प्रति लाख माँ है, जो अधिक होने के बाद भी भारत से कम ही है। चीन में भी एक लाख माँओं में से पैंतालिस माँएँ मरने को विवश हैं, याने यह दर भारत में मरने वाली माँओं का दसवाँ हिस्सा मात्र है। खाद्य एवं कृषि संगठन से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक सन २००७ में हुई गणना में यह पाया गया कि भारत में दस हज़ार बच्चों में से औसतन ५४३ बच्चे जन्मते ही मर जाते हैं और ७१८ बच्चे पाँच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते हैं। यह सारे आँकड़े देशभर का औसत हैं और गाँवों की स्थिति तो और भी विभत्स है।

स्वास्थ्य संबंधी तकनीकियों का तड़ित गति से विकास होने के बाद भी यह सवाल क्यों खड़ा है कि देश में कुपोषण, बीमारियों और देखभाल की कमी के कारण अकालमृत्युओं की संख्या आसपास के अन्य देशों से अधिक है? जबाव जाहिर है कि भारत में विदेशियों को भले ही स्वास्थ्य पर्यटन पर आने के लिए रिझाया जा रहा हो, आमलोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ या तो नदारद हैं या नाकाफी। मौज़ूदा दशक पर एक नज़र दौड़ाए तो पायेंगे कि शहरी और ग्रामीण इलाकों को एकसाथ मिलाकर भारत में औसतन १६६७ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी एक चिकित्सक पर हैं। औसत का गणित यह है तो कहना न होगा कि ग्रामीण इलाकों मे जहाँ चिकित्सकों की कमी जगजाहिर है, वहाँ इस औसत से कितने अधिक लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा एक चिकित्सक पर होगा। याद रहे कि विश्वशक्ति बनने के होड़ में शामिल चीन और पाकिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बेहतर ही है।

देश में आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के कमी के क्या कारण हैं? सरकार जहाँ सैन्यीकरण पर पानी की तरह पैसा बहा रही है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन के रपट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद का ४.१ फीसदी खर्चा स्वास्थ्य पर किया जाता है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का २६.२ फीसदी बोझ ही सरकारी ख़जाने पर पड़ता है बाकी ७३.८ फीसदी देनदारी जनता की होती है। कुल मिलाकर देखे तो भारत में स्वास्थ्य के लिए सालाना १०९ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं और इसमें भी सरकारी हिस्सेदारी अत्यल्प है। चीन में स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च के २३३ डॉलर की राशि की भारत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। अरे! भारत से अधिक तो भूटान स्वास्थ्य मद में १८८ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च करता है।

कुल मिलाकर देखें तो एक बड़ा सवाल उभर के सामने आता है कि जहाँ की बीस फीसदी आबादी कुपोषित हो और बीमारियों का गिरफ़्त इतना विभत्स हो, वह देश किन आधारों पर किन लोगों के हित में विश्वशक्ति बनने के दावे पेश कर रहा है?

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संप्रति: पत्रकार और मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय

संपर्क सूत्र: देवाशीष प्रसून, ओझा-निवास, महामाया मार्केट, के के रोड, मोहल्ला जुरावन सिंह, लालबाग़ मुख्य डाकघर, दरभंगा – 846004 (बिहार)

दूरभाष: 09555053370 ई-मेल: prasoonjee@gmail.com

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

पितृसत्ता यों ही नहीं क़ायम है अब तक....

- देवाशीष प्रसून


यह एक ऐसा समय है, चारों ओर जब, स्त्री को उसके अपने अधिकारों से तआरुफ़ करवाने की मुहिम चल रही है, विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों के जरिए समाज में समतामूलक हालातों के निर्माण के लिए ज़मीन-आसमान एक किए जा रहे हैं, महिलाओं को समाज के दक़ियानूसी बंधनों से मुक्त करवाने के लिए नारीवादी संगठनों ने जंग छेड़ रखी है और स्त्री-उत्थान व समतामूलक समाज के निर्माण के लिए सरकारों द्वारा भी योजनाओं, आरक्षण और क़ानूनी प्रावधानों का सुरसार देखने को मिलते रहता है। आधी आबादी के सदियों से दमित और शोषित जीवन को मुख्यधारा में लाकर उन्हें एक मुकम्मल इंसानी रुतबा देने के लिए ऐसे कई प्रयास चल रहे हैं और विडंबना यह है कि ऐसे ही इस समय में ’नया ज्ञानोदय’ नाम की हिंदी साहित्यिक पत्रिका बेवफ़ाई पर विमर्श चला रही है। और तो और, इस विमर्श के दरमियाँ एक ऐसा बयान आता है जो घोर स्त्री-विरोधी होने के साथ-साथ समाज में चल रहे तमाम मुक्तिगामी और प्रगतिशील स्त्री-विमर्शों को गाली देता है। एक लेखक, जो पूर्व पुलिस अधिकारी और वर्तमान में कुलपति भी है, अपने साक्षात्कार में कहता है कि हिंदी लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग है, जिनमें होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनमें सबसे बड़ी ’छिनाल’ कौन है। हदें लांघते हुए उसने यह भी कहा कि नारीवाद का विमर्श अब बेवफ़ाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।


यह बयान सड़क पर यों ही आवारागर्दी करते, नशे में धुत्त, किसी कुंठित इंसान की ओर से नहीं आया है, आता तो शायद, पूरा समाज इसे नज़रअंदाज़ कर देता, लेकिन यह बयान था विभूति नारायण राय का, जो सन ७५ बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के भारतीय पुलिस सेवा से संबद्ध रहे हैं। पूरा का पूरा हिंदी समाज इस बदतमीज़ी व अश्लिल बयानबाज़ी से भड़क उठा है और राय पर कार्रवाई की माँग तेज़ हो गयी है। साल २००८ की बात है, राय को महात्मा गांधी के आदर्शों पर स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालय – महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा का कुलपति नियुक्त किया गया था। महात्मा गांधी आज अगर ज़िंदा होते और सुनते कि उनके परंपरा के एक वाहक ने यों महिलाओं का अपमान किया है तो यक़ीनन शर्म से गढ़ जाते! लेकिन सरकार अब तक इस मामले में नरमी ही दिखा रही है। नौकरी से निकाले जाने के डर के मारे और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की डाँट-डपट के बाद राय ने माफी माँगते हुए कहा कि एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर मुझे ऐसे ’अनुपयुक्त शब्दों’ का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था, जिनसे लेखिकाओं की भावनाओं के ठेस पहुँची। माफीनामे से ज़ाहिर है कि राय को स्त्रियों के प्रति अपने दुर्भावनापूर्ण और दुराग्रहग्रस्त सोच के लिए कोई पछतावा नहीं है।


बहरहाल, यहाँ सोचने वाली बात है कि विभूति नारायण राय के इस बयान के जड़ में किस तरह की मनःस्थिति काम कर रही है? ग़ौरतलब है कि हमारे समाज में यह पुरानी धारणा रही है कि जो लड़कियाँ पढ़ती-लिखती है, अपने अधिकारों को समझने–बूझने लगती हैं और पुरूषप्रधान समाज के सनातनी परंपरा के दायरों को तवज्जह नहीं देतीं, उनका चरित्र अच्छा नहीं माना जाता। औरतें घर की दहलीज़ में रहे तो सती, वर्ना कुलक्षणी। लेकिन आधुनिक वैचारिकी ने इस सोच को नकारा है और स्त्री-मुक्ति के संघर्ष और विमर्श का लंबा इतिहास रचा है। सही है कि स्त्री-विमर्श सिर्फ़ देह-विमर्श नहीं है, लेकिन स्त्री-विमर्श से देह-विमर्श को पूरी तरह ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता है। वर्ग और जाति विभाजित समाज में स्त्री का सर्वहारा वर्ग और दलित जाति से भिन्न होने के पीछे उसका देह ही तो विद्यमान है। तो ऐसे में लेखिकाएँ अपने संघर्षों में सामाजिक वर्जनाओं से बाहर निकलेंगी ही, पर साँकलों का यह टूटना राय जैसे पुरोधाओं को कैसे हज़म हो? राय अगर विक्टोरियन मूल्यों के अवमूल्यन को ही छिनाल होना कहते हैं तो वो यह भी बतायें कि इसी समाज में सत्ताधारी पुरुष लेखकों द्वारा नई लेखिकाओं का यौन-शोषण होता रहा है कि नहीं? अगर हाँ, तो ऐसे संबंधों के संदर्भ का आत्मकथा में ज़िक्र न करते हुए उसे दफ़न कर दिया जाये? ताकि इससे उन चरित्रहीन मर्दों की सामाजिक इज़्ज़त बनी रहे।


एक बात और, न्यूज़ चैनलों पर राय सफ़ाई देते हुए फिर रहे हैं कि ’छिनाल’ शब्द के प्रयोग में ऐसी क्या आपत्ति? यह तो लोक का एक प्रचलित शब्द है। कोई बताए उनको कि हमारा लोक कितना मर्दवादी रहा है और इस लोक में सबसे ज़्यादा प्रचलित शब्दों में वो शब्द आते हैं, जिनका ज़िक्र माँ-बहन की गालियों के लिए होता है। तो ऐसे शब्दों का सरेआम सभ्य समाज में प्रयोग कितना बर्दाश्त-ए-क़ाबिल है?


अंत में सबसे महत्वपूर्ण सोचना यह है कि राय पर क्या कार्रवाई होगी? माफी माँग लेने के बाद ऐसे लोग, जो वाचिक रूप में बलात्कार करते फिरते हैं, उन्हें क्या हमारा समाज कभी माफ कर पायेगा? भूलना नहीं चाहिए कि यह ऐसे स्त्री-विरोधी लोगों और उनका बचाव करने वाले लोगों के सत्ता में क़ाबिज़ रहने के बदौलत ही है कि समाज में पितृसत्ता अब तक क़ायम है।


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बुधवार, 28 जुलाई 2010

विकास तो चाहिए, पर किस तरह?


- देवाशीष प्रसून

द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति तक साम्राज्यवादी ताक़तों को यह समझ में आ गया था कि अब केवल युद्धों के जरिए उनके साम्राज्य का विस्तार संभव नहीं है। उन्हें ऐसे कुछ तरक़ीब चाहिए थे, जिसके जरिए वे आराम से किसी भी कमज़ोर देश की राजनीति व अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर सकें। इसी सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के फलक पर ’विकास’ को फिर से परिभाषित किया गया। इससे पहले विकास का मतलब हर देश, हर समाज के लिए अपनी जरूरतों व सुविधा के मुताबिक ही तय होता था। पर, संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश व विश्व व्यापार संगठन जैसे ताकतवर प्रतिष्ठानाओं के उदय के बाद से विकास का मतलब औद्योगिकरण, शहरीकरण और पूँजी के फलने-फूलने के लिए उचित माहौल बनाए रखना ही रह गया। दुनिया भर के पूँजीपतियों की यह गलबहिया दरअसल साम्राज्यवाद के नये रूप को लेकर आगे बढ़ी। इस प्रक्रिया में दुनिया भर में बात तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने की हुई, लेकिन हुआ इससे बिल्कुल उलट।

भारत में शुरु से ही विकास के नाम पर गरीबों का अपने ज़मीन व पारंपरिक रोजगारों से विस्थापन हुआ है। जंगलों को हथियाने के लिए बड़े बेरहमी से आदिवासियों को बेदख़ल किया गया जो आज भी मुसलसल जारी है। आँकड़े बताते हैं कि सन ’४७ से सन २००० के बीच सिर्फ़ बाँधों के कारण लगभग चार करोड़ लोग विस्थापित हुए है, अन्य विकास परियोजना के आँकड़े अगर इसमें जोड़ दिए जायें तो विस्थापन का और भयानक चेहरा देखने को मिलेगा। विकास के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर मानवाधिकार उल्लंघन, सैन्यीकरण और संरचनात्मक हिंसा की घटनाओं में लगातार इज़ाफा हुआ है।

औद्योगीकरण, शहरीकरण, बाँध, खनिज उत्खनन और अब सेज़ जैसे पैमानों पर विकास की सीढ़ियों पर नित नए मोकाम पाने वाले हमारे देश में इस विकास के राक्षस ने कितना हाहाकार मचाया है, यह शहर में आराम की ज़िंदगी जी रहे अमीर या मध्यवर्गीय लोगों के कल्पना से परे है, पर देश में अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ता दायरा इस विभत्स स्थिति की असलियत चीख़-चीख़ कर बयान करता है। बतौर बानगी, देश में बहुसंख्यक लोग आज भी औसतन बीस रूपये प्रतिदिन पर गुज़रबसर कर रहे हैं और दूसरी ओर कुछ अन्य लोगों के बदौलत भारत दुनिया में एक मज़बूत अर्थव्यव्स्था के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। अलबत्ता, सरकार अपनी स्वीकार्यता बनाये रखने के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी सरीखे योजनाएं भी लागू करती हैं। पर, इस तरह की योजनाओं का व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते क्या हश्र हो रहा है, सबको पता है और फिर भी अगर साल भर में सौन दिन का रोज़गार मिल भी जाए तो बाकी दिन क्या मेहनतकश आम जनता पेट बाँध कर रहे? हमारी सरकार विकास को शायद इसी स्वरूप में पाना चाहती है?

देश में विकास में मद्देनज़र ऊर्जा की बहुत अधिक खपत है और विकास के पथ पर बढ़ते हुए ऊर्जा की जरूरतें बढ़ेंगी ही। ऊर्जा के नए श्रोतों में सरकार ने न्यूक्लियर ऊर्जा के काफी उम्मीदें पाल रखी हैं। जबकि कई विकसित देशों ने न्यूक्लियर ऊर्जा के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए इनके उत्पादन के लिए प्रयुक्त रियेक्टरों पर लगाम लगा रखा है, वहीं भारत सरकार को अपने यहाँ इन्हीं यम-रूप उपकरणों को स्थापित करने की सनक है। और अब आलम यह है कि न्यूक्लियर क्षति के लिए नागरिक देयता विधेयक पर सार्वजनिक चर्चा किए बिना ही इसे पारित करवाने की कोशिश की गई। इसमें यह प्रावधान था कि भविष्य में बिजली-उत्पादन के लिए लग रहे न्यूक्लियर संयंत्रों में यदि कोई दुर्घटना हो जाए, तो उसको बनाने या चलाने वाली कंपनी के बजाय भारत सरकार क्षतिपूर्ति के लिए ज़िम्मेवार होगी। अनुमान है कि ऐसी किसी भी स्थिति में भारत सरकार को जनता के खजाने से हर बार कम से कम इक्कीस अरब रूपये का खर्च करने पड़ेंगे। विदेशी निगमों को बिना कोई दायित्व सौंपे ही, उनके फलने-फूलने के लिए उचित महौल बनाए रखने के पीछे हमारी सरकार की क्या समझदारी हो सकती है? सरकार के लिए विकास का यही मतलब है क्या?

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में उन्नत गुणवत्ता वाले लौह अयस्क प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। यह जगह पारंपरिक तौर पर आदिवासियों का बसेरा है और वे इस इलाके में प्रकृति का संरक्षण करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं। इन आदिवासियों का जीवन यहाँ के जंगलों के बिना उनके रोजगार और सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन से विस्थापन जैस होगा। सरकार को विकास के नाम पर यह ज़मीन चाहिए, भले ही, ये आदिवासी जनता कुर्बान क्यों न हो जायें और पर्यावरण संरक्षण की सारी कवायद भाड़ में जाए। इस कारण से जो ज़द्दोजहद है, उसकी परिणति गृहयुद्ध जैसी स्थिति में है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। सूत्रों से पता चलता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न गांवों के अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था का एकमात्र उद्देश्य विकास करना है। सवाल यह है कि यह विकास किसका होगा और किसके मूल्य पर होगा?

विकास के इस साम्राज्यवादी मुहिम में उलझे अपने इस कृषिप्रधान राष्ट्र में आज खेती की इतनी बुरी स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? विदेशी निगम के हितों को ध्यान में रखकर वैश्विक दैत्याकार प्रतिष्ठानों के शह पर हुई हरित क्रांति अल्पकालिक ही रही। जय किसान के सारे सरकारी नारे मनोहर कहानियों से अधिक कुछ नहीं थे। खेती में अपारंपरिक व तथाकथित आधुनिक तकनीकों के प्रवेश ने किसानों को बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों व सिंचाई, कटाई और दउनी आदि कामों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नियंत्रित उद्योगों के उत्पादों पर निर्भर कर दिया है। हरित क्रांति के आह्वाहन से पहले भारतीय किसान बीज-खाद आदि के लिए सदैव आत्मनिर्भर रहते थे। लेकिन कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा लादे गये आयातित विकास योजनाओं ने किसानों को हर मौसम में नए बीज और खेतीबाड़ी में उपयोगी ज़रूरी चीज़ों के लिए बाज़ार पर आश्रित कर दिया है। बाज़ार पैसे की भाषा जानता है। और किसानों के पास पैसे न हो तो भी सरकार ने किसानों के लिए कर्ज की समुचित व्यवस्था कर रखी है। इस तरह से हमारी कल्याणकारी सरकारों ने आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और संपन्न किसानों को कर्ज के चंगुल में फँसाते हुए ’ऋणं कृत्वा, घृतं पित्वा’ की संस्कृति का वाहक बनाने का लगातार सायास व्यूह रचा है। छोटे-छोटे साहूकारों को किसानों का दुश्मन के रूप में हमेशा से देखा जाते रहा है, पर अब सरकारी साहूकारों के रूप में अवतरित बैंकों ने भी किसानों का पोर-पोर कर्ज में डुबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कर्ज न चुकाने की बेवशी से आहत लाखों किसानों के आत्महत्या का सिलसिला जो शुरु हुआ, ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

कृषि में विकास का कहर यहाँ थमा नहीं है, हाल में पता चला है कि हरित क्रांति के दूसरे चरण को शुरु करने को लेकर जोर-शोर से सरकारी तैयारियाँ चल रही है। छ्त्तीसगढ़ में धान की कई ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जिनकी गुणवत्ता और उत्पादन हाइब्रिड धान से कहीं अधिक है और कीमत बाज़ार में उपलब्ध हाइब्रिड धान से बहुत ही कम। फिर भी, दूसरी हरित क्रांति की नए मुहिम में कृषि विभाग ने निजी कंपनियों को बीज, खाद और कीटनाशक दवाइयों का ठेका देने का मन बना लिया है। ठेका देने का आशय यह है कि उन्हीं किसानों को राज्य सरकार बीज, खाद या कीटनाशक दवाइयों के लिए सब्सिडी देगी, जो ठेकेदार कंपनियों से ये समान खरीदेंगे, अन्यथा किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि इस तरह से ये निजी कंपनीयां किसानों को अपने द्वारा उत्पादित बीज महंगे दामों पर बेचेगी और एक बड़ी साजिश के तहत किसानों के पास से देशी बीज लुप्त हो जायेंगे। बाद में फिर किसानों को अगर खेतीबाड़ी जारी रखनी होगी तो मज़बूरन इन कंपनियों से बीज वगैरह खरीदने को बाध्य होना पड़ेगा। यह किसानों को खेती की स्वतंत्रता को बाधित करके उन्हें विकल्पहीन बनाने का तरीका है। कुल मिलाकर खेतीबाड़ी को एक पुण्यकर्म से बदल कर अभिशाप में तब्दील करने के लिए सरकार ने कई प्रपंच रचे हैं। जिससे कोफ़्त खाकर लोग आत्मनिर्भर होने के बजाये पूँजीवादी निगमों की नौकरियों को अधिक तवज्जों देने को मज़बूर हो।

विकास के तमाम उद्यमों के वाबज़ूद, हमारा देश पिछले कुछ महीनों से कमरतोड़ महंगाई के तांडव को झेलता आ रहा है। दाल, चावल, खाद्य तेलों और सब्जियों जैसी ज़रूरी खाद्य वस्तुओं के आसमान छूती कीमतों के आगे सरकार हमेशा घुटने टेकती ही दिखी। पेट्रोल व डीज़ल के उत्पाद के बढ़ते दाम से ज़रूरत की अन्य चीज़ों की कीमत महंगे ढुलाई के कारण बढेगी ही और यों बढ़ रही कीमतों से पूरा जनजीवन त्राहिमाम कर रहा है। बेहतर जीवन स्थिति बनाना भर ही सरकार का काम है। असामान्य रूप से बढ़ती कीमतों के लिए एक तरफ अपनी लाचारी दिखाते हुए सरकार दूसरी ओर, यह डींग हाँकने से परहेज़ भी नहीं करते कि देश ने इतना विकास कर लिया है कि भारत की गिनती अब विश्व के अग्रनी देशों में हो रही है। अगर किसी देश की अधिकतर जनता को यह नहीं पता हो कि वह जी-तोड़ मेहनत के बाद वह जितना कमायेगा, उसमें उसका और उसके परिवार का पेट कैसे भर पायेगा, तो इससे ज्यादा अनिश्चितता क्या हो सकती है? बढ़ती महंगाई को एक सामान्य परिघटना के रूप में प्रस्तुत करना सर्वथा अनुचित है। देश की सरकार की नैतिक ज़िम्मेवारी है, कि देश की जनता को अपना जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिए वह अनुकूल परिस्थिति बनाए रखे, जिसमें विकासवादी सरकारों को कोई मतलब नहीं दिखता। लोग सोचने को मज़बूर हो रहे हैं कि इस देश में विकास तो रहा है, जोकि बकौल सरकार होना ही चाहिए, लेकिन यह किस तरह और किनके लिए हो रहा है?

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सोमवार, 14 जून 2010

नक्सलवाद और सरकार के अंतर्विरोध

- देवाशीष प्रसून

भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक रपटों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति है और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति विद्यमान है। यानी, देश के सत्ता तंत्र का इस मोर्चे पर विफल होने को लेकर कोई दो-राय नहीं है।

एक और सरकारी दस्तावेज़ का उद्धहरण लें। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया, जो यह जायजा लेता कि भू-सुधार के अधूरे कामों के मद्देनज़र राज्य के कृषि संबंधों की अभी क्या स्थिति है? माननीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में काम कर रहे इस आयोग द्वारा मार्च ’०९ में ड्राफ़्ट किये गए रपट के पहले भाग के चौथे अध्याय में जिक्र है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। रपट में अपनी ज़मीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों को ही भाकपा(माओवादी) के सदस्य के रूप में संबोधित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सरकारी दस्तावेज़ कहता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न सात गांवों व आसपास के इलाकों का अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। ये कोलंबस के बाद आदिवासी जमीन की लूट खसोट का सबसे बड़ा मामला है। ये वाक्य मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर नक्सल समर्थक होने की चिप्पी लगाकर मुझे प्रताड़ित किया जा सकता है, अब हर कोई अरुंधती जैसा बहादुर तो नहीं हो सकता! सच मानिये लूट-खसोट का यह आरोप उपरोक्त बताये गए ड्राफ्ट रपट से ही उद्धृत है। आश्चर्य है कि यहाँ जिस ड्राफ्ट रपट का जिक्र हो रहा है, इसका अंतिम स्वरूप जब अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया गया तो रपट का उपरोक्त पूरा हिस्सा ही गायब था। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था के गोरखधंधा को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यों व्यक्त किया है कि “ एक ही संविधान के नीचे...भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम...’दया है’...और भूख में...तनी हुई मुट्ठी का नाम...नक्सलवाड़ी है।

हालांकि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता है। लेकिन जब जनसाधारण पर व्यवस्था की संरचनात्मक हिंसा की सारी हदें पार हो जाती हैं तो इतिहास साक्षी रहा है कि आत्मरक्षा में लोगों की प्रतिहिंसा को टाला नहीं जा सका है। इस वर्गसंघर्ष में हो रही हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले में, हाल में, नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में लगाये गए प्रेशर बम से दो बार बड़ी संख्या में लोग मरे हैं। यह दिल दहला देने वाली घटना थी। पहले हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ७६ सशस्त्र जवान मारे गए। सरकार ने इसे जनसंवेदना से जोड़ना चाहा जैसे कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हुआ सबसे बड़ा हमला था। माहौल बनाया गया कि थलसेना और वायुसेना की मदद से नक्सलवाद जैसे ठोस जनसंघर्ष को बिल्कुल वैसे ही कुचला जाये, जैसे श्री लंका में तमिलों के जनसंघर्षों को कुचला गया। लेकिन, लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध की स्थिति है और युद्ध में सैनिक तो शहीद होते ही हैं। बुद्धिजीवियों ने नक्सली हिंसा के बरअक्स छत्तीसगढ़ में चल रहे इस युद्ध का विरोध किया। थल व वायु द्वारा नक्सलियों पर हमले पर आम-राय नहीं बन पायी। पर, नक्सलियों के अगली घटना ने कई लोगों के मन में नक्सलियों के लिए घृणा भर दिया है। इसमें एक ऐसी बस को निशाना बनाया गया जिसमें सवार कई निहत्थी औरतों और बच्चों की जान गयी। लेकिन, इस मामले में एक सवाल ऐसा है जो परेशान किये जाता है। एक युद्धक्षेत्र में हथियारबंद विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को आमलोगों, महिलाओं और बच्चों के साथ एक ही बस में क्यों भेजा गया? जबकि सैन्य बलों पर नक्सलियों का मंडराता खतरा दक्षिणी छत्तीसगढ़ में आमबात है, तो फिर क्या निर्दोष लोगों को एसपीओ के साथ भेज कर बतौर ’चारा’ इस्तेमाल किया गया, जिससे नक्सलियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले के लिए जनमानस तैयार हो सके? यह बस एक प्रश्न है, कोई इल्ज़ाम नहीं है सरकार पर। जबकि बकौल भारतीय वायुसेना जाहिर है कि वे चुनिंदा लोगों से लड़ने (सेलेक्टड कॉमवेट) में दक्ष नहीं है, इनकी दक्षता निशाने का मुकम्मल विनाश(टोटल कॉमवेट) करने में है, तो ऐसे में नक्सलियों के विरुद्ध अगर हवाई हमला हुआ तो स्पष्ट है कई निर्दोष जाने जायेंगी।

हाल में ही एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी है, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, डेढ़ सौ लोग मारे गए और दो सौ घायल हुए। आनन-फानन में बिना जाँच पड़ताल किये ही इसे नक्सली आतंक का नाम दिया गया। जबकि पाँच जून को एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में आयी ख़बर के मुताबिक माओवादियों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और भरोसा दिलाया कि माओवादियों द्वारा किसी यात्री ट्रेन व आमलोगों पर हमला नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के पीछे कौन है, वे इसकी जाँच कर रहे हैं और इसके दोषियों बख्शा नहीं जायेगा।

अलबत्ता सरकारी रपटों के मुताबिक नक्सलवाद की जड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विषमता में है। पर, दूसरी ओर सरकार और उनका पूरा प्रचार तंत्र नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। विचारने वाली बात है कि नक्सलवाद से किसको ख़तरा है? क्या गरीब, विपन्न, आदिवासी लोगों व उद्योगों, ख्रेतों और अन्य जगहों पर विषम परिस्थितियों में काम करने वाले बहुसंख्य मेहनतकश जनता को नक्सलवाद से ख़तरा है? या फिर देश के मुट्ठी भर पूँजीपतियों और उनकी ग़ुलामी घटने वाली करोड़ों मध्यवर्गीय जनता के लिए नक्सलवाद संकट का विषय है। ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना होगा।(समाप्त)

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संप्रति: पत्रकारिता व शोध
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गुरुवार, 27 मई 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

देवाशीष प्रसून

समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।


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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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बुधवार, 5 मई 2010

भारतीय रेल का वर्ग चरित्र

- देवाशीष प्रसून
यह पिछले के पिछले सदी की बात है, जब दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास करमचंद गांधी को प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे से धक्के मार कर निकाल फेंका गया था, क्योंकि वह एक अश्वेत होने के साथ-साथ एक गुलाम देश  से आया आदमी था। मोहनदास के जीवन की इस घटना ने उसे सामाजिक विषमता के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दी और सफर शुरू हुई एक मामूली से इंसान के महात्मा बनने की। जितना मुझे मालूम है, इससे पहले गांधी की अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति आस्तिकता थी। बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने तक की यात्रा तमाम अन्य संघर्षों के साथ-साथ मोहनदास के लिए अपनी मानसिकता को संस्कारगत गुलामी से मुक्त कराने का संघर्ष भी था।

आज भारत को आज़ाद हुए तिरसठ सालों से अधिक का समय बीत चुका है। आज़ाद ख्याली के नाम पर पश्चिमी उपभोक्तावादी-पूंजीपरस्त संस्कृति का अंधा नक़ल करने में देश में बड़ी तादात माहिर हो चुकी है। लेकिन, क्या संस्करगत गुलामी से अब भी इस देश की जनता को आज़ादी मिली है? कई उदाहारण हैं, इसे परखने को। क्यो न, उसी रेल की बात करें, जिसने गांधी के अंदर पल रहे संस्कारगत गुलामी को झकझोक कर रख दिया था।
रेल का अपना वर्ग चरित्र है और यह वर्ग-चरित्र बहुत जाहिर है। जैसे रेल कैंटीन में आपको जनता खाना मिल जाएगा। जनता से यहाँ आशय सर्वहारा से है, क्योंकि जनता खाना के नाम पर सबसे सस्ता खाना परोसा जाता है। गो कि देश के सत्ता की नज़र में इलीट जनता कोई जनता नहीं, ईश्वर का सीधा अवतार हो। रेल में इस्तेमाल की जाने वाली ऐसी शब्दावलियाँ घोर भेदभावपूर्ण व आपत्तिजनक हैं। वहीं, रेल में पेंट्री आपूर्ति द्वारा जो खाने-पीने की चीज़े बेची जाती है, उसकी क़ीमत इतनी ज्यादा होती है, कि कोई निम्न मध्य वर्ग या उससे कम हैसियत रखने वाला इंसान भले भूखा पेट उसे देख कर ललचाता रहे, लेकिन यह खाना खरीद कर खाना उसके सामर्थ्य में नहीं होता।
हर साल रेल मंत्री रेल विकास के आँकड़ेबाज़ी का खेल खेलते रहते हैं। हर कोई नयी गाड़ियाँ चलाता हैं। यात्री भाड़ा नहीं बढ़े, यह कोशिश की जाती है। यात्री सुविधाओं के नाम पर आरक्षण प्राप्त करने के बेहतर विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं, नयी गाड़ियाँ चलाई जाती हैं। लेकिन, यह सवाल क्यों नहीं उठता कि सामान्य श्रेणी के रेल डिब्बों और उसमें सफर करने वाले यात्रियों की स्थिति में सुधार कैसे की जाये। इन रेलमंत्रियों को अगर किसी सामान्य स्थिति में बिना यह जाहिर किये कि वो मंत्री हैं, सामान्य श्रेणी के डिब्बे में सफर करना पड़ जाये तो यकीनन ऐसी स्थिति में वो अपने प्राण त्याग दें। वहाँ पेशाब-पखाना से फारिग होने के लिए जो स्थान नियत है, उसकी भी सफाई यात्रा शुरू से पहले बस एक बार होती है। लंबे सफर वाली गाडियों में भी इसका ख्याल नहीं रखा जाता है कि सामान्य श्रेणी के डिब्बे, जहाँ यात्रियों की संख्या अन्य डिब्बों से अधिक होती है, वहाँ साफ़-सफ़ाई और सुविधाओं का अधिक ध्यान रखा जाये। सामान्य श्रेणी के यात्रियों के बारे में कोई नहीं सोचता, जबकि वातानुकुलित डिब्बे में नियत समय पर सफाई होती है और सुगंधियों का छिड़काव होता रहता है। भारतीय रेल ने इंसानी गरिमा को उसके ज़ेब और बटुए से जोड़ रक्खा है।

लालू यादव ने अपने कार्यकाल में यह भ्रम बनाये रखा कि यात्री भाड़ा में बढ़ोत्तरी नहीं होने से उनका समय जनपक्षधर रेल का समय था। पर, कई तिकड़मों से गरीब जनता पर अत्याचार किये गये। जैसे, यात्री भाड़ा तो स्थिर रखा, लेकिन गाड़ियों की क्षमता बढ़ाये बगैर उसे सुपरफ़ास्ट घोषित करते हुये सुपरफ़ास्ट चार्ज़ वसूले गये। इसी सिलसिले में हुआ यह कि बगल की दो सीटों की संख्या को बढ़ाकर तीन कर दिया गया। ऐसा करना जीते जागते इंसानों के साथ बड़ा अमानवीय व्यवहार था। यह इंसानों के साथ कबूतरों सा बर्ताव करते हुये उनके लिए दरबा बनाने जैसा था। ममता बैनर्जी आयीं, तो बगल के डिब्बों की संख्या तीन से फिर दो हुयी, लेकिन अफ़सोस यह कि इस सुधार में ऊपर वाले सीट, जहाँ बैठना बिल्कुल असंभव है, आप वहाँ एक ही स्थिति में लेटे रहने के लिए अभिशप्त रहते हैं, उसे वैसे का वैसा ही रहने दिया गया और बीच वाले सीट को, जो अपेक्षाकृत बेहतर था, उखाड़ फेंका गया। नतीजतन यात्रियों की असुविधा जस की तस रही।
सवाल है कि यात्रियों को इन सब पर गुस्सा क्यों नहीं आता? आज ये सारी समता विरोधी स्थितियाँ व नीतियाँ किसी मोहनदास को बदलाब का महात्मा बनने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करती?
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संप्रति: पत्रकारिता एवं शोध
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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मजदूरों का बंधुआ बनना जारी है...

- देवाशीष प्रसून
अगर भारत सरकार या देश के किसी भी राज्य सरकार से पूछा जाये कि क्या अब भी हमारे देश में मजदूरों को बंधुआ बनाया जा रहा है, तो शायद एक-टूक जबाव मिले - नहीं, बिल्कुल नहीं। सरकारे अपने श्रम-मंत्रालयों के वार्षिक रपटों के जरिए हमेशा ऐसा ही कहती हैं। सन 1975 से देश में बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन का कानून लागू है। इस कानून के लागू होने के बाद से सरकारों ने अपने सतत प्रयासों के जरिए बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंका है, सरकारी सूत्रों से बस इस तरह के दावे ही किए जाते हैं। हालाँकि, हकीकत इसके बरअक्स कुछ और ही है।

गौर से देखें तो आज ठेके पर नौकरी का मतलब ही बंधुआ मजदूरी है। कारपोरेट जगत में भी एक नियत कालावधि के लिए कांट्रेक्ट आधारित नौकरी में अपने नियोक्ता के बंधुआ बनते हुये कई पढ़े-लिखे अतिदक्ष प्रोफेसनल्स देखने को मिल जायेंगे। क्योंकि एक तो उनके पास विकल्पों का आभाव है और दूसरा नौकरी छोड़ने पर एक भाड़ी-भड़कम रकम के भुगतान की बाध्यता। लेकिन श्रम के असंगठित क्षेत्रों में बंधुआ मजदूरी व्यवस्था का होता नंगा नाच दिल दहला देने वाला है।

बीते दिनों, बीस राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के कई शहरों में हुये एक सर्वेक्षण आधारित अध्ययन ने देश में बंधुआ मजदूरी के मामले में सरकारी दावों की पोल खोल रख दी है। असंगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिये बनायी गई राष्ट्रीय अभियान समिति के अगुवाई में मजदूरों के लिए काम कर रहे कई मजदूर संगठनों व गैर-सरकारी संगठनों के द्वारा किये गये इस राष्ट्रव्यापी अध्ययन से पता चलता है कि देश में बंधुआ मजदूरी अब तक बरकरार है। भले ही इसका स्वरूप आज के उद्योगों की नयी जरूरतों के हिसाब से बदला है, लेकिन असंगठित क्षेत्रों में हो रहा ज्यादातर श्रम, किसी न किसी रूप में, बंधुआ मजदूरी का ही एक रूप है। बार-बार यह तथ्य सामने आया है कि आज देश के ज्यादातर इलाकों में बंधुआ मजदूरी की परंपरा के फिर से जड़ पकड़ने के पीछे पलायन और विस्थापन का अभिशाप निर्णायक भूमिका निभा रहा है।

किसी मजदूर को अपना गाँव-घर छोड़ कर दूसरी जगह मेहनत करने इसलिये जाना पड़ता है, क्योंकि उसके अपने इलाके में आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते हैं। कहीं सूखा, कहीं बाढ़ और तो किसी के पास खेती के लिए अनुपयुक्त या नाकाफी जमीन, ऐसे में, वे लोग, जो बस खेतिहर मजदूर हैं, अपने इलाकों में खेती के बदतर स्थिति के कारण एक तो मजूरी बहुत कम पाते हैं और दूसरे समाज में विद्यमान सामंती मूल्यों के अवशेष भी उन्हें बार-बार कुचलते रहते हैं। बेहतरी की उम्मीद में ही वे पलायन करने को मजबूर होते हैं। बंधुआ मजदूरी का नया स्वरूप जो सामने आया है, उसमें मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा पलायन किये हुये मजदूरों का है।

खेती, ईंट-भट्टा, निर्माण-उद्योग और खदानों जैसे कई व्यवसायों में अपना खून-पसीना एक करने वाले मजदूरों को बडे ही सुनियोजित तरीके से बंधुआ बनाया जाता हैं। मजदूरों को नियुक्त करवाने वाले दलाल शुरुआत में ही थोड़े से रूपये बतौर पेशगी देकर लोगों को कानूनन अपना कर्जदार बना देते हैं। रूपयों के जाल में फँसकर मजदूर अपने नियोक्ता या इन दलालों का बंधुआ बन कर रह जाता है। अधिकतर मामलों में, ये दलाल संबंधित उद्योगों के नजर में मजदूरों के ठेकेदार होते हैं। इन ठेकेदारों से प्रबंधन अपनी जरूरत के मुताबिक मजदूरों की आपूर्ति करने को कहता है और मजदूरों के श्रम का भुगतान भी आगे चलकर इन्हीं ठेकेदारों के द्वारा ही किया जाता है। बाद में ये ठेकेदार या दलाल, आप इन्हें जो भी संज्ञा दें, मजदूरों के श्रम के मूल्यों के भुगतान में तरह तरह की धांधलियाँ करते हैं। नियोक्ता और श्रमिक के बीच में दलालों की इतनी महत्वपूर्ण उपस्थिति मजदूरों के शोषण को और गंभीर बना देती है। दलाल मजदूरों का हक मारने में किसी तरह का कोई गुरेज नहीं करते है, उन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देना तो दूर की बात है। मजदूरों का मारा गया हक ही इन दलालों के लिए मुनाफा है। ऐसी स्थिति में मजदूरों के प्रति
किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी, जैसे कि रहने और आराम करने के जगह की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं, बीमा, खाने के लिए भोजन और पीने के लिए पानी को सुलभ बनाना और दुर्घटनाओं के स्थिति में उपचार आदि से अमूमन नियोक्ता अपने आप को विमुख कर लेता है। नियोक्ता इन सब के लिए ठेकेदारों को जिम्मेवार बताता है तो ठेकेदार नियोक्ता को और ऐसे में मजदूर बेचारे बडे बदतर स्थिति में यों ही काम करने को विवश रहते हैं।

सबसे पहले, महानगरों में काम करने वाली घरेलू नौकरानियों का उदाहरण लें। गरीबी और भूख के साथ-साथ विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित हो रहे छत्तीसगढ़ और झाड़खंड के आदिवासी रोजी-रोटी के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं। ऐसे में आदिवासी लड़कियों को श्रम-दलाल महानगरों में ले आते हैं। उन्हें प्रशिक्षित करके दूसरों के घरों में घरेलू काम करने के लिए भेजा जाता है। इन घरों में ऐसी लड़कियों की स्थिति बंधुआ मजदूरों से इतर नहीं होती। अठारह से बीस घंटे रोज मेहनत के बाद भी नियोक्ता का व्यवहार इनके प्रति अमूमन अमानुष ही रहता है और इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन महिला मजदूरों का यौन शोषण भी होता होगा। इतने प्रतिकूल परिस्थिति में भी इनके बंधुआ बने रहने का मुख्य कारण आजीविका के लिए विकल्पहीन होने के साथ-साथ नियोक्ता के चाहरदीवारी के बाहर की दुनिया से अनभिज्ञता भी है। मजबूरन अत्याचार सहते रहने के बाद भी घरेलू नौकरानियाँ अपने नियोक्ता के घर में कैद रह कर चुपचाप खटते रहने के लिए बाध्य रहती हैं, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं है।

श्रमिकों पर होने वाला शोषण यहाँ रुकता नहीं है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों में महिलाओं के साथ-साथ पुरूष और बच्चे भी काम करते हैं। इन्हें भी काम दिलाने वाले दलाल गाँवों-जंगलों से कुछ रूपयों के बदौलत बहला फुसला कर काम करवाने के लिए लाते हैं। ईंट भट्टे का काम एक मौसमी काम है। पूरे मौसम इन श्रमिकों के साथ बंधुआ के तरह ही व्यवहार किया जाता है और इन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देने का चलन नहीं है। और तो और, अध्ययन के अनुसार महिलाओं के प्रति यौन-हिंसा ईंट भट्टों में होने वाली आम घटना है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों की खस्ताहाल स्थिति पूरे देश में एक सी है।

अति तो तब है, तब मजदूरों पर यह होता अन्याय एक तरफ सरकारों को सूझता नहीं, दूसरी ओर, खुलेआम सरकार अपने कुछ योजनाओं के जरिए बंधुआ मजदूरी को प्रश्रय भी देती हैं। बतौर उदाहरण लें तो बंधुआ मजदूरी का एक स्वरूप तमिलनाडु में सरकार के प्रोत्साहन पर चल रहा है। बंधुआ मजदूरी का यह भयंकर कुचक्र सुमंगली थित्ताम नाम की योजना के तहत चलाया जाता है। इस योजना को मंगल्या थित्ताम, कैंप कूली योजना या सुबमंगलया थित्ताम के नामों से भी जाना जाता है। इसके तहत 17 साल या कम उम्र की किशोरियों के साथ यह करार किया जाता है कि वह अगले तीन साल के लिए किसी कताई मिल में काम करेगी और करार की अवधि खत्म होने पर उन्हें एकमुश्त तीस हजार रूपये दिये जायेंगे, जिस राशि को वह अपनी शादी में खर्च कर सकती हैं। तमिलनाडु के 913 कपास मिलों में 37000 किशोरियों का इस योजना के तहत बंधुआ होने का अंदाजा लगाया गया है। इनके बंधुआ होने का कारण यह है कि करार के अवधि के दौरान अगर कोई लड़की उसके नियोक्ता कपास मिल के साथ काम न करना चाहे और मुक्त होना चाहे तो उसके द्वारा की गयी अब तक की पूरी कमाई को मिल प्रबंधन हड़प कर लेता है। साथ ही, कैंपों में रहने को विवश की गयी इन लड़कियों के साथ बड़ा ही अमानवीय व्यवहार होता है। इन्हें बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग रखा जाता है, किसी से मिलने-जुलने की इजाजत नहीं होती है। एक दिन में 17-18 घंटों का कठोर परिश्रम करवाया जाता है। हफ्ते में बस एक बार चंद घंटे के लिए बाजार से जरूरी समान खरीदने के लिए छूट मिलती है। इनके लिए न तो कोई बोनस है, न ही किसी तरह की बीमा योजना और न ही किसी तरह की स्वास्थ्य सुविधा। दरिंदगी की हद तो तब है, जब एकांत में इन अल्पव्यस्कों को यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक में आयी एक खबर के मुताबिक शांति नाम की गरीब लड़की को ढ़ाई साल मिल में काम के बाद भी बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिली। उलटे, मिल के मशीनों ने उसे अपाहिज बना दिया और प्रबंधन का यह बहाना था कि दुर्घटना के बाद शांति के इलाज में उसकी
पूरी कमाई खर्च हो गई।

बंधुआ मजदूरी की चक्कर में फँसने वाले अधिकतम लोग या तो आदिवासी होते हैं या दलित। आदिवासियों का बंधुआ बनने का कारण उनके पारंपरिक आजीविका के उन्हें महरूम करना है। तमिलनाडु की एक जनजाति है इरुला। ये लोग पारंपरिक रूप से सपेरे रहे हैं, लेकिन साँप पकड़ने पर कानूनन प्रतिबंध लगने के बाद से कर्ज के बोझ तले दबे इस जनजाति के लोगों को बंधुआ की तरह काम करने के लिए अभिसप्त होना पड़ा है। चावल मिलों, ईंट-भट्टों और खदानों में काम करने वाली इस जनजाति को हर तरह के अत्याचारों को चुपचाप सहना पड़ता है। तंग आकर जब रेड हिल्स के चावल मिलों में बंधुआ मजदूरी करने वाले लगभग दस हजार लोगों ने अपना विरोध दर्ज किया तो उन्हें मुक्त कराने के बजाए एक सक्षम सरकारी अधिकारी ने उन्हें नियोक्ता से कह कर कर्ज की मात्रा कम करवाने के आश्वासन के साथ वापस काम पर जाने को कहा। सरकारी मशीनरी की ऐसी भूमिका मिल मालिकों और अधिकारियों की साँठ-गाँठ का प्रमाण है।

कुल मिला कर देखे तो बंधुआ मजदूरी के पूरे मामले में एक बहुत बड़ा कारण आजीविका के लिए अन्य विकल्पों और अवसरों का उपलब्ध नहीं होना है। साथ ही, अब तक जो हालात दिखे हैं, उनके आधार पर सरकारी लालफीताशाही के मंशा पर भी कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। बंधुआ मजदूरी का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण स्थायी नौकरी के बदले दलालों के मध्यस्था में मजदूरों के श्रम का शोषण करने की रणनीति अंतर्निहित है। ऐसे में संसद और विधानसभा में बैठ कर उन्मूलन के कानून बनाने के अलावा सरकार को इसके पनपने और फलने-फूलने के कारणों पर भी चोट करना पड़ेगा।
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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

कॉमनवेल्थ खेलों का क्या है औचित्य?

-    देवाशीष प्रसून

उन्नीसवां कॉमनवेल्थ खेल दिल्ली में होने वाला है। काफी तैयारियाँ चल रही हैं। बड़े पैमाने पर पुराने भवनों का मरम्मत और रंग-रोगन कई दिनों से हो रहा है। दिल्ली को बिल्कुल उस तरह से सजाने की कवायद है, जिससे दिल्ली के स्थापत्य का ऐतिहासिक उपनिवेशकालीन रुतबा फिर से दैदिप्तमान हो सके। कॉमनवेल्थ की अवधारणा औपनिवेशिक इतिहास के महिमामंडन से अधिक कुछ नहीं है। यह बरतानिया गुलामी को इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय बनाकर प्रस्तुत करने का तरीका है बस। एक सवाल का दिमाग़ में कौंधना स्वभाविक है कि क्यों देश की राजनीति का कमान संभालने वाले पुरोधा आज भी औपनिवेशिक मूल्यों को ओढ़ कर गौरवांवित महसूस कर रहे हैं?  दरअसल, मामला यह भी है कि इन खेलों का आयोजन कुछ संबंधित उद्योगों को भरपूर लाभ पहुँचाने का माध्यम हो। वैसे भी, कॉमनवेल्थ खेलों से और कुछ हो, न हो, निर्माण, पर्यटन, होटल व यात्रा आदि के कारोबार से जुड़े चंद लोग चाँदी तो ज़रूर काटेंगे।

विडंबना है कि एक तरफ जहाँ भारत सरकार केवल दस दिनों तक चलने वाले कॉमन्वेल्थ खेलों पर मात्र सत्रह खेलों के लिए केंद्रीय बज़ट में लगभग आठ हज़ार करोड़ रूपये से अधिक का इन्तेज़ाम किया है, वहीं वर्ष २०१०-११ में भारत सरकार ने पूरे देश में खेलकूद के मद में किए जाने वाले खर्च में कटौती करते हुए साल भर के लिए कुल ३५६५ करोड़ रूपये की राशि ही आवंटित की है। हैरानी होगी कि खेल बजट की इस राशि में से भी २०६९ करोड़ रूपये कॉमन्वेल्थ खेलों में ही खर्च किया जायेगा। कई सूत्रों से पता चलता है कि कॉमनवेल्थ खेलों में जनता के खजाने से उक्त राशि से कहीं अधिक खर्च होने की संभावना है। इस आयोजन को सफल बनाने का सरकारी मशीनरी का जुनून देखने लायक है।

भारत की आम जनता की जमापूँजी से सरकारी खजाना बनता है और उन्हें ही सरकार ने अब तक यह नहीं बताया है कि कॉमनवेल्थ खेलों से उनका किस तरह से कल्याण हो रहा है। इन खेलों में देशी खिलाड़ियों के प्रशिक्षण व प्रोत्साहन की कोई भी प्रयास अब तक नहीं दिख पाया है। इस आयोजन में हमारे सरकार की एकमात्र भूमिका मेज़बानी की ही रह गई है। यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत के खिलाड़ी भी इस आयोजन में सहभागिता करेंगे? अगर भारत के खिलाड़ी-दल इन खेलों में बेहतर प्रदर्शन न कर सके, तो इसकी नैतिक जिम्मेवारी भी इसी सरकार की ही होगी।

सवाल यह भी है कि इस तरह के खेल दिल्ली में ही क्यों करवाये जा रहे हैं? स्टेडियम के निर्माण के नाम पर दिल्ली की ज्यादातर पुराने स्टेडियमों को ही दुरुस्त करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया है। जबकि हो यह भी सकता था कि इतने पैसे में एक ऐसे इलाके को विकसित किया जाता जो खेल-कूद की आधुनिक ज़रूरतों से लैश होता। दिल्ली तो देश की राजधानी है, लेकिन देश में खेल-कूद का केंद्र अलग से तैयार किया जाना चाहिए था।

दिल्ली को अत्याधुनिक दिखाने के चक्कर में दिल्ली सरकार ऑटो रिक्शा के चलन पर लगाम कसने की तैयारी में है। कोई उनसे पूछे कि ट्रांसपोर्ट की वैकल्पिक व्यवस्था हो भी जाये,पर ऑटो चालकों के पेट पर लात मारने की इस सरकारी नीति से किसका भला होगा?

चलते-चलते एक गंभीर विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि कॉमनवेल खेलों के मद्देनज़र जो कामकाज चल रहे हैं, उनमें मज़दूरों का शोषण का बड़े पैमाने पर हो रहा है। एक तरफ़ जहाँ उनको न्यूनतम दिहाड़ी नहीं मिल रही है, वहीं दूसरी तरह उनके रहने, स्वास्थ्य, दुर्घटनाओं से सुरक्षा और अन्य सुविधाओं की अनदेखी हो रही है।

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बुधवार, 24 मार्च 2010

बाटला हाउस में हुए कत्लों की सच्चाई?

- देवाशीष प्रसून

बाटला हाउस में मुठभेड़ के नाम पर मारे गए लोगों की पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट बड़ी शिद्दत के बाद सूचना के अधिकार के जरिए अफ़रोज़ आलम साहिल के हाथ लग पायी है।पोस्ट मार्टम रिपोर्ट इसे कत्ल बता रही है।जबकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने तो दिल्ली पुलिस के ही दलीलों पर हामी भरी थी। बिना घटनास्थल पर पहुँचे और आसपास व संबंधित लोगों से बातचीत किए बगैर ही इस मामले को सही में एक मुठभेड़ मानते हुए आयोग ने दिल्ली पुलिस को बेदाग़ घोषित कर दिया था। और तो और, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पूरे मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के रपट पर आँखें मूंद कर विश्वास करते हुए किसी तरह के भी न्यायिक जाँच से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से पुलिस का मनोबल कमज़ोर होगा। यह चिंता का गंभीर विषय है कि किसी भी लोकतंत्र में मानवीय जीवन की गरिमा के बरअक्स पुलिस के मनोबल को इतना तवज्जो दिया जा रहा है। बहरहाल, आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट पर से पर्दा उठने के कारण नए सिरे से बाटला हाउस में पुलिस द्वारा किए गए नृशंस हत्याओं पर सवालिया निशान उठना शुरू हो गया है।

यह 13 सितंबर, 2008 के शाम की बात है, जब दिल्ली के कई महत्वपूर्ण इलाके बम धमाके से दहल गए थे। इसके बाद जो दिल्ली पुलिस के काम करने की अवैज्ञानिक कार्य-पद्धति दिखने को मिली, वह पूरी तरह से पूर्वाग्रह और मनगढ़ंत तर्कों पर आधारित है। बम धमाकों के तुरंत बाद ही पुलिस ने जामिया नगर के मुस्लिम बहुल बाटला हाउस इलाके के निवासियों को किसी पुख्ता सबूत के बगैर ही शक के घेरे में लेना और उनसे जबाव-तलब करना शुरू कर दिया था। अगले दिन ही, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल राशीद अगवाँ और तीस साल के अदनान फ़हद को पुलिस के विशेष दस्ते के द्वारा पूछताछ के लिए उठा लिया गया और फिर बारह घंटे के ज़ोर-आज़माइश के बाद उन्हें छोड़ा गया। 18 तारीख़ को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एक शोध-छात्र मो. राशिद को भी पूछताछ के लिए ले जाया गया और उसे ज़बरन यह स्वीकारने के लिए बार-बार बाध्य किया गया कि उसके संबंध आतंकियों से हैं। इस दौरान पुलिस ने उसे नंगा करके कई बार पीटा और तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। बाद में उसे 21 तारीख़ को छोड़ दिया गया।

इसी बीच 19 तारीख़ को दिल्ली पुलिस के विशेष दस्ते ने आनन-फानन में बाटला हाउस इलाके के एल -18 बिल्डिंग को चारों तरफ़ से घेर लिया। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक फ्लैट संख्या 108 के रहने वालों पर पुलिस ने गोलियाँ बरसायी गयीं। बाद में पुलिसिया सूत्रों से पता चला कि उक्त फ्लैट में इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकियों ने ठिकाना बनाया हुआ था, जिन्होंने पुलिस को आते ही उन पर गोलियां चलायी थी। जबाव में पुलिस के गोली से उन में से दो आतिफ़ अमीन और मो. साजिद की मौत हो गयी, दो लोग फरार हो गए और मो. सैफ़ को गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस के अनुसार बाटला हाउस के एल-18 में रहने वाले सभी लोग दिल्ली बम धमाके के लिए कथित तौर पर जिम्मेवार इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े हुए थे। इस कथित मुठभेड़ में घायल हुए इंस्पैक्टर मोहन चंद्र शर्मा को भी जान से हाथ धोना पड़ा।

लेकिन, गौरतलब है कि पूरे मामले में पुलिस, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और न्यायालयों के अपारदर्शी रवैये से यह मामला साफ़ तौर पर मुठभेड़ से इतर मासूम लोगों को घेर कर उनकी क्रूर हत्या करने का प्रतीत होता है। विभिन्न मानवाधिकार संगठनों के इस शक को बाटला हाउस में मारे गए लोगों के पोस्ट मार्टम की रपट ने और पुख्ता किया है।

पोस्ट मोर्टम के रपट के मुताबिक आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के शरीरों पर मौत से पहले किसी खुरदरी वस्तु या सतह से लगी गहरी चोट विद्यमान है। सवाल उठना लाजिमी है कि अगर दोनों ओर से गोलीबारी चल रही थी तो दोनों के शरीर पर मार-पीट के जैसे निशान कैसे आये? ध्यान देने वाली बात है कि दोनों ही मृतकों ने अगर पुलिस से मुठभेड़ में आमने-सामने की लड़ाई लड़ी होती, तो उनके शरीर के अगले हिस्से में गोली का एक न एक निशान तो होता, जो कि नहीं था। आतिफ़ और साजिद के अन्त्येष्टि के समय मौज़ूद लोगों के मुताबिक दोनों शवों के रंग में फर्क था, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि उन दोनों की मौत अलग-अलग समय पर हुई थी। प्रश्न है कि क्या उन्हें पहले से ही प्रताड़ित किया जा रहा था और बाद में उन पर गोलियाँ दागी गयी?

चार पन्नों के रपट में साफ़ तौर पर लिखा है कि आतिफ़ अमीन की मौत का कारण सदमा और कई चोटों की वजह से खून बहना है। चौबीस साल के आतिफ़ के शरीर में कुल मिलाकर इक्कीस ज़ख्म थे। उस के शरीर में हुए ज्यादातर ज़ख्म पीछे की तरफ़ से किए गए थे, वह भी कंधों के नीचे और पीठ पर। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि, आतिफ़ पर पीछे की ओर से कई बार गोलियाँ चलायी गयीं।

सत्रह साल के मो. साजिद की लाश के पोस्ट मोर्टम से पता चलता है कि उसके सिर पर गोलियों के तीन ज़ख्मों में से दो उसके शरीर में ऊपर से नीच की ओर दागे गए हैं। ये भी प्रतीत होता है कि साजिद को जबरदस्ती बैठा कर ऊपर से उसके ललाट, पीठ और सिर में गोलियाँ दागी गयीं।

साजिद और आतिफ़ की हत्या को मुठभेड़ के नाम पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पूरे मामले में सीधे रूप से जुड़ा हुआ मो. सैफ़ अब तक पुलिस हिरासत में है। अगर पुलिस की मानें तो मो. सैफ़ को वहीं से गिरफ़्तार किया गया, जहाँ आतिफ़ और साजिद की मौत हुई थी। ऐसे में उसके बयान का महत्व बढ़ जाता है, जिसे को पुलिस ने अब तक बाहर नहीं आने दिया है। साथ ही, इस मामले पर दिल्ली पुलिस का ’मुठभेड़ कैसे हुआ’ के बारे में बार-बार बदलता स्टैंड भी यह स्वीकारने नहीं देता है कि मृतकों की मौत किसी मुठभेड़ में हुई है। अपितु लगता यह है कि मृतक निहत्थे थे और उन्हें घेर कर वहशियाना तरीके से मारा गया।


तालिका 1: आतिफ़ की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या (रपट के मुताबिक) ज़ख्म का आकार ज़ख्म कहाँ पर है

14 1 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

9 2X1 सेमी, 1 सेमी घर्षण और गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

13 9.2 सेमी घर्षण और 3x1 सेमी गहरा गड्ढा पीठ की मध्य रेखा, गर्दन के नीचे

8 1.5 x1 सेमी गहरा गड्ढा दायें कंधे पर की हड्डी का हिस्सा, मध्य रेखा से 10 सेमी दूर और दायें कंधे से 7 सेमी नीचे

15 0.5 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा निचले पीठ की मध्य रेखा, गर्दन से 44 सेमी नीचे

6 1.5 X1 सेमी, आकार में अंडाकार बायीं जांघ का अंदरूनी हिस्सा (ऊपर की ओर), बाये चूतड़ों पर ज़ख्म संख्या 20 जहाँ से धातु का एक टुकड़ा मिला से जुड़ा हुआ। बंदूक की गोली का निशान संख्या 20 आश्चर्यजनक रूप बहुत बड़ा 5x2.2 सेमी का है।

10 1x0.5 सेमी दायें कंधे से 5 सेमी नीचे और बीच से 14 सेमी नीचे

11 1x0.5 सेमी कंधे के हड्डी के बीच, मध्य रेखा के 4 सेमी दायें

12 2x1.5 सेमी पीठ के दायीं ओर, मध्य रेखा से 15 सेमी, दायें कंधे से 29 सेमी नीचे

16 1 सेमी व्यास दायीं बांह की कलाई और पिछला बाहरी हिस्सा


तालिका 2: साजिद की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या 1 दायें तरफ़ माथे पर आगे के ओर(ललाट पर)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 2 दायें तरफ़ ललाट पर

बंदूक की गोली का निशान संख्या 5 दायें कंधे की ऊपरी किनारा (नीचे की तरफ जा रहा)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 8 बायीं छाती के पीछे( गर्दन से 12 सेमी )

बंदूक की गोली का निशान संख्या 10 सिर के पिछले हिस्से का बायां भाग



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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

वे पुलिस थे, पुलिस हैं और पुलिस ही रहेंगे

- देवाशीष प्रसून
भारत में कई संस्थान उच्च शिक्षा और शोध की दिशा में कार्यरत हैं। उनके बावज़ूद, हिंदी में मौलिक सोच के विकास और शोध की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र में महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की नींव रखी गयी थी। शुरू से ही विभिन्न कारणों से विश्वविद्यालय विवादों में घिरा रहा। आजकल यह विश्वविद्यालय कुलपति विभूतिनारायण राय की तानाशाही को लेकर चर्चा में हैं।
विभूतिनारायण राय भारतीय पुलिस सेवा से संबंद्ध रहे है और यह उनकी कार्य-संस्कृति से भी स्पष्ट दिखता है। हमेशा से वे पुलिस अधिकारी रहे हैं और अब विश्वविद्यालय में भी पुलिसिया संस्कृति के कांटे बो रहे हैं। अपनी किसी असुविधा के लिए एक टार्गेट को चुनना और उसके ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करने में ये माहिर रहे हैं। शोध और अध्यापन के बरअक्स हिंदी-समय, कथा-समय और इस सरीखे हिंदी के साहित्यकारों का मेला लगा कर विभूति तालियाँ सुनने में मज़ा लेते हैं। पर उनके द्वारा लिए गये कुछ अहम फैसले उनकी कार्य-संस्कृति का आईना बनकर सामने आते हैं। गोया, दो बार छात्र-प्रतिनिधियों को बिना विद्यार्थियों की सहमति से विद्या-परिषद के बतौर सदस्य मनोनीत किया गया। हाल में जो व्यक्ति विद्या-परिषद में छात्र-प्रतिनिधि मनोनीत हुआ है, वो एक साथ विश्वविद्यालय से हर माह निश्चित राशि लेकर पब्लिसिटी अधिकारी और पीएच.डी. शोधार्थी है।पीएच डी के लिए भी सरकार हर महीने एक निश्चित राशि शोधवृति के रूप में देती है। विश्वविद्यालय में काम करने वाले को बतौर छात्र-प्रतिनिधि थोपना ही विभूति का विश्वविद्यालय में लोकतंत्रीकरण है।
संतोष बघेल दलित हैं और उन्होंने यहीं से एम.फिल. किया और वह जेआरएफ़ भी है। अपनी इसी योग्यता के साथ उसने पीएच.डी, के लिए आवेदन किया था। खाली सीट के बावज़ूद, बिना लंबी लड़ाई, उन्हें दाखिला नहीं मिल पाया। हाल में एम.फिल. में स्वर्ण पदक प्राप्त लेकिन जाति से दलित छात्र राहुल कांबळे को आखिरकार पीएच.डी. से महरूम रखा गया। प्रवेश परीक्षा में उसका चयन नहीं हो पाया था, पर चयनित एक अभ्यर्थी ने जब दाख़िला नहीं लिया तो तीसरे नंबर पर होने के कारण राहुल ने अपना दावा पेश किया। सीट खाली रह गयी, लेकिन कुलपति राय की दुआ से राहुल को उसके आमरण अनशन के वाबज़ूद भी विश्वविद्यालय से विदाई लेनी पड़ी। बहाना बनाया गया कि उक्त सीट पिछड़े अभ्यर्थी के लिए आरक्षित है तो एक दलित को कैसे मिल सकती है।
कुलपति राय को विरोध के स्वर बर्दाश्त नहीं है, कठपुतली बने कुलानुशासक फट से विद्यार्थियों को नोटिस थमाते फिरते हैं। शोध के एक छात्र अनिल ने बताया कि उसको कई बार अपनी असहमतियों के कारण अनुशासनात्मक कार्रवाई से भरा धमकी-पत्र मिलता रहा है। कारण अलग-अलग रहे हैं। आख़िरकार उसे विश्वविद्यालय ने निष्कासित करने से भी कोई गुरेज़ नहीं किया गया। बहना बनाया गया एक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश। ज्ञात हो कि देश-दुनिया के हर विश्वविद्यालय में किसी भी विभाग में आये दिन संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं और आयोजक अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता के लिए प्रयासरत रहते हैं। लेकिन, खबरदार विभूति के राज में किसी अकादमिक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश व सहभागिता पर निष्कासन भी हो सकता है, जैसा कि अनिल के साथ हुआ।
छात्राओं का पुरुष-छात्रावास में प्रवेश वर्जित है। पूछे जाने पर कुलपति कहते है कि लड़कियाँ टॉफी जैसी होती है,जिनका 'इस्तेमाल' लड़के करना चाहते हैं। इसलिए यह कदम एहतियातन उठाया गया। गौरतलब हो कि इस विश्वविद्यालय परिसर में न्यूनतम शिक्षा एम.ए. स्तर की है। याने इस विश्वविद्यालय के सभी छात्र-छात्राएं व्यस्क है। तो फिर इस तरह की नैतिक पुलिसिंग क्यों? क्या कुलपति राय के संप्रदायिकता विरोधी नक़ाब से निकल कर बजरंज दल का कार्यकर्ता झांकने लगा है?
मनमानियों की कड़ी में एक दिन विद्यार्थियों के हितैषी व लोकप्रिय शिक्षक प्रो अनिल चमड़िया की नियुक्ति विश्वविद्यालय प्रशासन ने ख़त्म कर दी। यह पुलिस अधिकारी राय में विश्वविद्यालय में आने के बाद सबसे बड़ा, लेकिन फर्जी, मुठभेड़ बनता दिखाई दे रहा है। कुलपति राय ने जब महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति का पदभार संभाला तब पहली बार की गयी नियमित नियुक्तियों के जरिए अनिल कुमार राय उर्फ़ अंकित और अनिल चमड़िया ने बतौर प्रोफ़ेसर जनसंचार विभाग में अध्यापन की जिम्मेवारी दी गयी। अनिल चमड़िया का बतौर अथिति शिक्षक विद्यार्थियों को मार्गदशन पिछले चार सालों में कई बार मिलता रहा है। चमड़िया देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के क्षेत्र में विशिष्ठ हैसियत रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) नयी दिल्ली में अध्यापन करते रहे थे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे देश के जाने-माने पत्रकार के साथ-साथ वर्धा, दिल्ली समेत देश के कई पत्रकारिता विभागों के विद्यार्थियों के सबसे प्रिय और सक्षम शिक्षक रहे हैं। प्रो. अंकित को एक दिन की सिनियारिटी के चलते विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया, सो वे प्रशासनिक कामों में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। जो भी हो छात्र-छात्राओं का प्रो. राय से अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले साबिका नहीं पड़ा। लेकिन, उनके कारण विभाग में बढ़ते अफ़सरशाही के चलते विद्यार्थियों में आक्रोश ज़रूर बढ़ रहा था। इसी बीच कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों, अख़बारों और पत्रिकाओं ने प्रो. अनिल कुमार राय अंकित द्वारा नक़ल कर पुस्तके छपवाने के मामले को सार्वजिनक कर दिया। प्रो. अंकित न तो पढाते थे और फिर इस तरह के पुख्ता सबूतों के साथ लगाए गए आरोप के कारण विद्यार्थिओं के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा बढ़ने लगी। इस दौरान विद्यार्थियों का मन किसी प्रकार के असुरक्षा से मोड़ कर अपनी पढ़ाई कोई ओर केंद्रित करवाने के लिए प्रो. चमड़िया ने दिन-रात एक कर दिया।
प्रो चमड़िया कहते हैं कि कुलपति शुरू से ही उनके हर प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया करते थे। चमड़िया चाहते थे कि देश भर की सारी पत्र-पत्रिकाएं विभाग में आयें, जिनसे पत्रकारिता के विद्यार्थियों की समझ व्यापक हो सके, जिसे कुलपति ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने विद्यार्थियों को गाँव-गाँव घूमकर रपट लिखने का आदेश दिया। कुलपति ने अपने मौखिक आश्वासन के बावज़ूद विश्वविद्यालय की ओर से इसके लिए कोई इंतेज़ामात नहीं होने दिये गए। एक प्रोफेसर को दिए जाने वाली न्यूनतम सुविधाओं से उन्हें महरूम रखा गया।
जनसंचार विभाग में पीएच.डी. प्रवेश की परीक्षा आयोजित की गयी। अभ्यर्थियों को लगा कि प्रवेश-परीक्षा में कुछ छोटाला है।इस बाबत शिक़ायत पत्र कुलपति को सौंपी गयी।माँग थी कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक सार्वजनिक किए जायें।पूरी प्रक्रिया में कई लोग शामिल थे।कई विश्वविद्यालय के शिक्षक थे तो प्रो. राममोहन पाठक जैसे कई बाहरवाले भी। कुलपति ने परीक्षाफल को निरस्त कर दिया और पुनः परीक्षा आयोजित की गयी, लेकिन जो काम आज तक नहीं हुआ वह कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक को सार्वजनिक किया जाना। जबकि सात महीने बीत चुके हैं। बाद में सारी धांधलियों का दोष प्रो. चमड़िया पर मढ़ा गया। कहा गया कि उन्होंने साक्षात्कार के अंकों के साथ छेड़-छाड़ किया है। अगर ऐसा है भी तो वे सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाने चाहिए थे। सिर्फ़ साक्षात्कार ही नहीं, उत्तर-पुस्तिकाओं के विश्वसनीयता को सबके सामने रखा जाये। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता। प्रो चमड़िया से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा अंक देते वक्त उनसे एक गलती हो गयी थी, गलत को सही करके उन्होंने अपने सुधार पर अपना हस्ताक्षर किया है। वे कहते हैं कि सुधार करना कोई अपराध नहीं हो सकता है। अगर विश्वविद्यालय इसे गलती मान ही रहा था तो फिर उसने परीक्षा परिणाम ही क्यों प्रकाशित किया।बाद में आयोजित परीक्षा में तो सचमुच योजनाबद्ध तरीके से उच्चाधिकारियों ने धांधली की।पूरी परीक्षा की प्रक्रिया एक व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी रही और परीक्षा परिणाम के वक्त पीएचडी के लिए निर्धारित सीटों की संख्या दस से तेरह कर दी गई।साक्षात्कार के पैनल में अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कोई पर्यवेक्षक नहीं था जोकि नियमत अनिवार्य है।
बहरहाल इससे अधिक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि केवल राष्ट्रपति द्वारा कार्य-परिषद के लिए नियुक्त सदस्यों को ही पूरी कार्य-परिषद करार देने के बाद उनकी आनन-फानन में बैठक बुलायी गई और अनिल चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ तथा उनके साथ किये गये बाकी ग्यारह नियुक्त्तियों को स्वीकृत करवाया गया। इस पर कुलपति ने कहा कि कार्य-परिषद के सभी सदस्य तुले हुए थे कि अनिल चमड़िया की नियुक्ति खारिज़ हो। सदस्यों ने कहा कि यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वे प्रोफ़ेसर के लिए निर्धारित योग्यता पूरी नहीं करते हैं। इस संदर्भ में कार्य-परिषद सदस्या मृणाल पाण्डेय ने बताया कि कुलपति राय ने पहले ही हमें आगाह कर दिया था कि न्यायालय में विश्वविद्यालय प्रशासन ने चमड़िया जी की नियुक्ति को बतौर गलती स्वीकार किया है कानूनी फजीहत से बचने के लिए चमड़िया जी की नियुक्ति खारिज़ की गई। एक और सदस्य प्रो कृष्ण कुमार से पता चला कि कुलपति विभूति जी अनिल चमड़िया की नियुक्ति को निरस्त करने के प्रस्ताव के साथ बैठक में आये थे। कृष्ण कुमार ने बातचीत में कई बार ज़ोर देते हुए कहा कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र लिख कर यह निर्देशित किया है कि जब तक कार्य-परिषद की बैठक के मिनट्स पर उनके संस्तुतियाँ नहीं जाती, प्रशासन कोई भी निर्णय लागू नहीं कर सकता है। और यह कि अब तक संस्तुतियाँ भेजी नहीं गयी हैं। लेकिन ज्ञात हो कि २७ जनवरी के शाम साढ़े सात बजे अनिल चमड़िया को २५ जनवरी को निर्गत उनकी नौकरी छीने जाने का पत्र आवास पर भेजा गया था। यानी कुलपति महोदय ने कार्य-परिषद के सदस्यों के बारे में दुष्प्रचार किया, उनके शैक्षणिक साख पर बट्टा लगाने की कोशिश की और उनकी आधिकारिक संस्तुतियों के बिना निर्णयों को लागू किया, जिनमें अंकित समेत ११ शिक्षकों नियुक्ति को पक्का करना और अनिल चमड़िया को बाहर का रास्ता दिखाना शामिल था। एक और गंभीर मामला भी ध्यान देने योग्य है। कुलपति जी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि अनिल चमड़िया प्रोफ़ेसर पद के लिए निर्धारित योग्यता नहीं रखते हैं। स्क्रूट्नी के वक्त कुलपति से यह गलती हुयी कि उन्हें साक्षात्कर के लिए बुलाया गया। जबकि, विश्वविद्यालय के वेबसाइट और रोज़गार समाचार में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा १९९८ में जारी शैक्षणिक पात्रता के न्यूनतम ज़रूरतों के दिशानिर्देशों के आधार पर कई पदों के लिए आवेदन मँगवाये गये। कालांतर में इन्हीं विज्ञापित पदों पर १२ शिक्षकों की नियुक्ति हुई। आज कुलपति अपनी गलती स्वीकार रहे हैं तो सारी नियुक्तियाँ खारिज होनी चाहिए।
वर्धा परिसर में विभूति की मनमानियों के प्रतिरोध का स्वर मुखर हो गया है। अनिल चमडिया के इस मामले से पूर्व लगभग एक महीने तक परिसर में दलित विद्यार्थियों का आंदोलन चला था। दलित विद्यार्थी अब भी प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का बहिष्कार कर रहे हैं। छात्र-छात्राएं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए अपना विरोध कर रहे हैं। ब्लॉग पर विद्यार्थी अनिल चमड़िया के समर्थन और कुलपति के विरोध में टिप्पणियाँ लिखने लगे हैं। नाटक खेले जाने लगे हैं। कविताएं लिखी जाने लगी है। २२ छात्र-छात्राओं ने लिखित तौर पर विभाग छोड़ने की बात कही हैं। प्रो. चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ करने का विरोध लगभग दो सौ विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में ८४ विद्यार्थियों ने अपने दस्तख़त के साथ किया है। यही नहीं, राजेंद्र यादव व अरूंधति राय सरीखे देश के कई बुद्धिजीवियों ने अपने हस्ताक्षर के साथ कुलपति राय के इस कदम की भर्त्सना की है। विश्वविद्यालय में राय का सिंहासन डोलने लगा है।
राय किस्से-कहानियाँ लिखते रहे हैं और प्रकाशक भी उन्हें छापते भी रहे। अब छापने की वज़ह इनके साहित्य की गुणवत्ता थी या प्रकाशकों को मिला सरकारी ख़रीद का आश्वासन, यह तहक़ीकात का विषय हो सकता है। इनका जनसंपर्क हमेशा से ही अचूक रहा, जिसके कारण लोगों के मन में इनकी छवि एक प्रगतिशील व्यक्ति की रही। लेकिन आज विश्वविद्यालय में जिस कार्य-संस्कृति और अकादमिक माहौल के ये जनक हैं, उसके मद्देनज़र विभूतिनारायण राय ने जो जीवन भर प्रशंसाएं अर्जित की हैं, उन पर शक होना स्वभाविक है।