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रविवार, 24 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ के अनुभव

छत्तीसगढ़ में ...
(डायरी के कुछ अंश, जनवरी २०१० के समयांतर में प्रकाशित)
- देवाशीष प्रसून
९ दिसंबर
सूचना मिली कि १२ और १३ दिसंबर २००९ को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पूरे देश से लगभग पच्चीस नारी अधिकार संगठनों की कार्यकर्त्ताएँ इकट्ठा
होने वाली हैं, जो राज्य सत्ता द्वारा किए जाने वाले दमनों के दौरान किए जाने वाली यौन-हिंसा पर अपनी जानकारियों, अनुभवों और इसके खिलाफ़ किए गए अपने संघर्षों को साझा करेंगी। यह कार्यक्रम २४ और २५ अक्टूबर २००९ को भोपाल में हुए यौन हिंसा एवं राजकीय दमन के विरुद्ध महिलाओं के साझा अभियान की निरंतरता में था। कार्यक्रम के अगले चरण में यह भी यह तय था १४ तारीख को इस सम्मेलन से कुछ प्रतिनिधि दंतेवाड़ा जिले के नेंड्रा गाँव में
जाकर बलात्कार-पीड़ित महिलाओं के प्रति अपनी हमदर्दी व्यक्त करेंगी। मैंने
निर्णय लिया कि मुझे भी इस आयोजन का एक हिस्सा बनना है। कारण - अव्वल तो ऐसे आयोजनों से देश के सुदूर इलाकों में हो रहें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का पता चलता है। दूसरा यह है कि इन आयोजनों में शिरकत करने से आमलोगों और जनजीवन से जुड़ी उन ख़बरों की जानकारी होती है, जो आज व्यावसायिक मीडिया के जरिए लोगों तक नहीं पहुँच रही हैं। वहाँ जाने का तीसरा और सबसे मह्त्वपूर्ण आकर्षण दंतेवाड़ा जाकर अपने देश के एक ऐसे हिस्से को समझना-बूझना था, जिसे तनावग्रस्त घोषित करके सरकार ने विदेशवत कर दिया है, जहाँ आप प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध नहीं आ-जा सकते हैं।
१२ दिसंबर
सुबह रायपुर पहुँचा। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्त्ताओं ने इस सम्मेलन में ठहरने और भोजन आदि की व्यवस्था संभाल रखी थी। नियत समय पर बैठक शुरू हुई। कार्यक्रम की शुरूआत में ही नारायणपटना में हुई राजकीय दमन पर चिंता व्यक्त की गई। वहाँ के आदिवासियों इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि जिन ज़मीनों को उनके पूर्वजों ने जंगल की सफाई करके खेती योग्य बनाया था, उस पर उनका हक़ होना चाहिए। लेकिन पुलिस ने मौज़ूदा ज़मींदारों का साथ दिया। आदिवासियों के प्रति अपने सौतेला रवैये के कारण पुलिस इस आंदोलन को कुलचने में लगी रही। आंदोलनकारियों की धर-पकड़ शुरू हुई। महिलाओं के खिलाफ यौन-हिंसा की गई। त्राहिमाम करते हुए जब आदिवासी जनता थाने में पहुँची, तब पुलिस ने उन पर गोलियाँ दागनी शुरू की, जिसके कारण दो लोगों की हत्या हुई और पच्चीसों लोग घायल हुए। इस मामले के तह तक जानने के लिए नारी अधिकार आंदोलनों से जुड़ी हुई कुछ महिलाएं उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक गई। मैं यह जानकर पहले दंग हुआ और फिर क्रोधित कि किस तरह से ज़मींदारों के गुंडों ने पुलिस की शह पर इस प्रतिनिधिमंडल की महिलाओं पर फब्तियाँ कसी, उन्हें लिंग आधारित गालियाँ दी और उनके वाहन चालक पर जानलेवा हमला किया। आज बैठक के पहले दौर में ही नारायणपटना के इन वारदातों की भर्त्सना करते हुए निंदा प्रस्ताव पारित किया गया।
बैठक के अगले चरण में नारी अधिकार संगठन की प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी
समस्याओं और उनसे जूझने के अपने संघर्षों से वाक़िफ़ कराया। अगर मैं नारी
अधिकार संगठनों की मौज़ूदा स्थिति में समस्याओं का सूत्रीकरण करूँ तो मैं बाज़ार के वर्चस्व को उनका दुश्मन पाता हूँ। जैसे एक प्रतिनिधि से यह जानकारी मिली कि किस तरह से यौन शक्तिवर्धक दवाओं के कारण स्त्रियों पर
उनके पतियों के द्वारा बर्बर यौन-हिंसा के मामले सामने आये हैं। जान कर दिल दहल गया कि एक महिला ने तो अपने पति के यौन-अत्याचारों से तंग आकर अपने योनिद्वार पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग़ लगा लिया। बाज़ार में सर्वत्र उपलब्ध ब्लू फ़िल्मों की सीडी पर चर्चा करते हुए एक प्रतिनिधि कहा कि इन फ़िल्मों के कारण पुरूष दाम्पत्य जीवन में स्त्रियों को उपभोग की वस्तु तक सीमित करके देखने लगे है और इस तरह से महिलाओं पर यौन हिंसा में इज़ाफ़ा हुआ है। पूरे बैठक के दौरान कई नारी अधिकार कार्यकर्ताओं ने कई बार शराब के चंगुल में फँसे पुरूषों द्वारा की जाने वाली हिंसा के लिए चिंता व्यक्त करते हुए इसके ख़िलाफ़ अपने संघर्षों के बारे में अपनी बात रखी।
१३ दिसंबर
सुबह नाश्ते के वक्त भोपाल से आयी एक कार्यकर्ता से बातों-बातों में बताया कि लेधा के मामले में आगे क्या हुआ? तारीख ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन यह मामला सन २००५-६ का रहा होगा। लेधा की शादी सरगुजा जिले के रमेश नगेशिया से हुई थी। चूँकी रमेश माओवादी विचारधारा का समर्थक था, इसलिए पुलिस ने लेधा पर भी नक्सली होने का ठप्पा लगाकर तीन सीआरपीफ जवानों की हत्या के अरोप में धर लिया। गिरफ़्तारी के वक्त वह गर्भवती थी। वकील
अमरनाथ पाण्डेय की कोशिशों के बल पर उसे प्रसव के लिए एक महीने की जमानत मिली, लेकिन कुल ढेड़ साल के कारावास के बाद ही उसे झूठे आरोप से मुक्त करवाया जा सका। पुलिस के बहलाने-फुसलाने पर लेधा ने अपने पति को
आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया। परंतु जब रमेश आत्मसमर्पण के लिए थाने में उपस्थित हुआ तो पुलिस अधीक्षक एस आर पी कल्लूरी के इशारे पर उसे गोली मार दी गई। लेधा का मुँह बंद करने के लिए उसे भी मारने क आदेश कल्लूरी ने दिया, लेकिन फिर यह कह कर उसकी हत्या नहीं की गई कि एक औरत की जान लेने की क्या ज़रूरत है? उसे चुप करने के लिए मौत से बड़ी प्रताड़ना भी हो सकती है। भय और शोक में लेधा तीन महीनों के लिए अपने मायके अंबिकापुर चली गयी। उसके लौटने पर घात लगा बैठी पुलिस उसे बलरामपुर थाने ले गई, जहाँ कल्लूरी ने उस पर यौन-अत्याचार किया। विद्रुप मानसिकता के पुलिस कर्मियों ने उसके योनि में हरी मिर्च डाल कर हैवानियत की सारे हदें लाँघ ली। लगातार दस दिनों तक यह सिलसिला चलते रहा। इस इलाके का कुख्यात एसपीओ धीरज जायसवाल एक ऐसा अतातायी है, जो जब चाहे किसी के साथ बलात्कार कर सकता है या किसी को भी नक्सली बताकर उसकी हत्या कर दे। धीरज ने भी थाने में लेधा के साथ शराब पी कर बलात्कार किया। पीयूसीएल की मदद से लेधा ने कल्लूरी और अन्य के ख़िलाफ़ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में मुकदमा किया था। भोपाल की जिस महिला से मैं लेधा के बारे में बातें कर रहा था, उन्होंने बड़े अफ़सोस के साथ बताया कि दवाब में आकर लेधा ने अपनी शिक़ायत वापस ले ली है।
१४ दिसंबर को दंतेवाड़ा जाने की योजना पर बातचीत होने पर पता चला कि वहाँ पहुँच कर हम हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम में जायेंगे और फिर
वहाँ की आदिवासी महिलाओं से मुलाक़ात होगी। यह भी पता चला कि हिमांशु
दंतेवाड़ा के नेंड्रा से शांति स्थापना और न्याय का माहौल बनाने की अपील के साथ पदयात्रा शुरू करने वाले हैं। हिमांशु एक गांधीवादी कार्यकर्ता है, जो अपने एनजीओ वनवासी चेतन आश्रम के जरिए जनकल्याण की सरकारी योजनाओं
को पूरा करते रहे है। लेकिन जब से हिमांशु ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार आदिवासियों को शिविरों से निकाल कर वापस गाँवों में उनका पुनर्वास करने का मुहिम छेड़ी है, तब से सरकार और व्यापारी वर्ग उन्हें नक्सली संबोधित करने लगा है। एक अख़बार से पता चला कि १० दिसंबर, मानवाधिकार दिवस के रोज राज्य समर्थित प्रतिक्रियावादी व्यापारियों के समूह ने माँ दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच के नाम से हिमांशु की गिरफ़्तारी की माँग की। जबकि विडंबना यह है कि वनवासी चेतना आश्रम के कार्यकर्ता दंतेवाड़ा में जो काम कर रहे हैं, उसे छत्तीसगढ़ सरकार को ही करना चाहिए था। इसके बरअक्स, सरकार आश्रम के कार्यकर्ताओं का दमन कर रही है। आश्रम के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। १० दिसंबर की ही बात है कि लगभग दिन के ढ़ाई बजे भैरामपुर पुलिस थाने के टीआई आश्रम से स्वयंसेवी कोपा कुंजाम को दंतेवाड़ा पुलिस कोतवाली में पूछताछ के बहाने ले गये। अल्बन टोप्पो एक अधिवक्ता हैं और इस समय आश्रम में मौज़ूद थे। क़ानूनविद होने के नाते उन्होंने कोपा के साथ कोतवाली जाना ज़रूरी समझा। उन दोनों को दंतेवाड़ा के बदले जबरन बीजापुर ले जाया गया, जहाँ दोनों की बुरी तरह पिटाई की गई।
१३ दिसंबर की रात और १४ का पूरा दिन
रात को ग्यारह बजे चार गाड़ियों पर सवार हम दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुए।
हमारे दल में ३४ महिलाएँ और ५ पुरूष थे। हमलोग आराम से रायपुर से निकले और धमतरी में भी हमें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही हम कांकेर की सीमा पर पहुँचे प्रतिकूल स्थितियाँ सामने आने लगी ।
रात के साढ़े बारह बज रहे थे। यह चारामा बस पड़ाव था। पड़ाव के सामने ही
पुलिस की चौकी थी, जहाँ हमें रोका गया था। पहले लगा कि यह रूटीन जाँच-पड़ताल है, फिर महसूस होने लगा कि हमें जानबूझ कर परेशान किया जा रहा
है। ज्यादातर पुलिस वाले नशे में थे। एक वर्दीधारी कहता है कि महिलाओं वाली गाडी को जाने दो और बाकी को रोक लो। हमने विरोध किया, वैसे भी सभी गाड़ियों में महिलाएँ थी। खैर, फिर चारों गाड़ी के चालकों को थाने के अंदर ले जाया गया। हमारे साथ आए लोगों को नाम, उम्र, पिता का नाम, पता आदि दर्ज किया जाने लगा। वह भय का माहौल बना रहे थे। लड़कियों से जानकारी लेते वक्त उनके लहज़े से अश्लीलता झलकती थी। एहतियातन जब मैं एक पुलिसकर्मी के पीछे जाकर खड़ा हो गया, यह देखने के लिए कि वह महिला साथियों से कैसा व्यवहार कर रहा है तो उसने बड़े सहज भाव में मुझसे कहा कि "नाम ही लिख रहे हैं, रेप नहीं कर रहे हैं"। मैं स्तब्ध रह गया। कितना आसान है इस आदमी के लिए महिलाओं पर क्रूरतम अत्याचार करना। मैं समझ गया कि यह उनके लिए आम बात थी। आये दिन वो ऐसी ज़्यादतियाँ करते होंगे। मैं सहम कर कुछ देर वही खड़ा रहा। कुछ देर बाद मैं एक और पुलिसकर्मी से बात करने लगा। मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ का है। वह कानपुर का था। मैंने जब यह जानना चाहा कि उसे इस तनावग्रस्त इलाके में अपने घर से दूर रह कर काम करना कैसा लगता है, तो मेरी उम्मीद के विपरीत उसने कहा कि बहुत मज़ा आता है, क्योंकि यहाँ लड़ने के मौके खूब मिलते हैं। आत्ममुग्धता के साथ उसने बताया कि दस नक्सलियों को मार कर ही वह हवलदार बना है। मैंने जानना चाहा कि वह कैसे आम ग्रामीण आदिवासी और नक्सली के बीच में फ़र्क़ करता है तो वह निरुत्तर हो गया। कुछ देर के रुक कर उसने कहा कि मेरा काम मारना है, बस मारना। घंटे भर में हमारे साथ के सभी लोगों का परिचय लिखा जा चुका था। पुलिस ने हमारी चार गाड़ियों में से एक गाड़ी के दस्तावेज़ अधूरे पाये और एक चालक का लाइलेंस नहीं था। मज़बूरन हमारी एक गाड़ी को रोक लिया गया। बाकी की तीन गाड़ियाँ अपने-अपने सवार को लेकर आगे बढ़ीं और जिस गाड़ी को रोक लिया गया था, उसके
सवार बस से आगे बढ़े।
लगभग बीस मिनट में हम माकड़ी में थे। डेढ बज रहे थे। बाकी के तीनों चालकों ने आगे जाने को एमदम मना कर दिया। शायद उन्हें चारामा थाने में बहुत डराया-धमकाया गया हो। और पुलिस को भी जो दस्तावेज़ चाराम में ठीक लग रहे थे, यहाँ गड़बड़ लगने लगे थे। जो भी हो, हम अब बिना गाड़ी के थे। महेंद्रा कंपनी की दो बसें माकड़ी ढाबे पर लगी हुई थी। उसके चालकों ने सवारियों को चढ़ाने की पहलकदमी दिखायी। हमें भी दंतेवाड़ा पहुँचाने को कोई जरिया चाहिए था, सो हमने तय किया कि हम आगे की सफ़र इन्हीं बसों से करेंगे। ढाई-तीन बजे हम माकड़ी ढाबे से निकले। लगभग बीस किलोमीटर की ही दूरी तय की होगी कि केशकाल में हमें फिर रोका गया, हमसे हमारी पूरी जानकारी दोबारा ली गई।
केशकाल के बाद फरसगाँव में भी जाँच-पड़ताल की पुनः सारी औपचारिकताएँ पूरी की गई। वो हमें रोक नहीं सकते थे तो लग रहा था कि वो हमें ज्यादा से
ज्यादा जितना विलंब करवा सकते थे, करवा रहे थे ।
बस में हल्की झपकी लगी होगी कि ऐसा महसूस किया कि बस रुकी हुई है। सुबह साढ़े पाँच-छ बज रहे थे। हमारी बस को कोंडागाँव पुलिस चौकी के नज़दीक रोक दिया गया था। फिर से वही जाँच-पड़ताल। साथ के लोग जो हमारे दल का हिस्सा नहीं थे, वे असहज महसूस करने लगे थे। वे लोग इस रास्ते से हमेशा गुज़रते रहते थे। कंडक्टर ने कहा कि पुलिस का हमारी कंपनी के बस के साथ पिछले पाँच सालों में पहली बार ऐसा व्यवहार रहा है। साथी सवारियों में गुस्सा बढ़ रहा था। उन्हें बताया गया कि माकड़ी से चढ़े ३९ लोग जब तक बस में रहेंगे, उन्हें ऐसे ही परेशान किया जायेगा। तब इन लोगों ने हम पर बस से
उतर जाने का दबाव बनाया। हमें लगा कि पुलिस हमसे बस छोड़ने को कह रही है, इसलिए हम ३९ लोग तत्काल बस से उतर गए। सामने ही कोंडागाँव पुलिस चौकी थी।
हमारे पूछने पर पुलिस के एक कर्मचारी ने कहा कि हमने तो आपको उतरने के
लिए नहीं कहा है, हम तो बस रुटीन जाँच-पड़ताल करे रहे थे। हमलोग ठगे से रह गए। वापस लौट कर हमने बस को पकड़ना चाहा, लेकिन जाहिर है पुलिस का दवाब बस वाले पर बना हुआ था। दरअसल पुलिस जाहिर तौर पर हमें रोक नहीं रही थी, सिर्फ़ बार-बार किए जाने जाँच-पड़ताल के नाम पर हमें समय पर दंतेवाड़ा पहुँचने नहीं देना चाहती थी, लेकिन बिना जाहिर किए वह बस वालों पर दवाब बनाकर हमें रोक भी रही थी। फिर हमने थाना प्रभारी के समक्ष अपनी सारी बातें रखी और छ्त्तीसगढ़ की आथितेय को धिक्कार देते हुए उस पर दवाब बनाने की कोशिश की। हमारे कुछ साथी उससे अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे। उन्हें बार-बार कहा गया कि पूरे देश में इसका बहुत ग़लत संदेश जायेगा। तब अचानक हमसे हमदर्दी जताते हुए हमारे लिए तीन जीप की व्यवस्था की गई। हमें यह भी कहा गया कि आगे कोरेनार के पास तीन-चार हज़ार लोग रास्ता जाम किए हुए हैं और पुलिस उनसे हमारी रक्षा नहीं कर सकती है। यह इशारा था कि पुलिस से आप तो बच सकते हैं, लेकिन सलवा जुडूम से आपको कौन बचायेगा?
आठ-नौ बजे तक स्पष्ट हो गया कि हमें दंतेवाड़ा पहुँचने के लिए कुछ और उपाय करने होंगे। कोंडागाँव का बस पड़ाव नज़दीक ही था। हमने तय किया कि अब वहीं से जगदलपुर के लिए बस करेंगे। जगदलपुल में एसपी से मिलकर आगे की योजना के बारे में सोचा जायेगा। स्थितियों को देखते हुए या तो आगे जाया जायेगा या वहीं प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके वापस रायपुर लौटना पड़ेगा। कुछ देर बाद हम जगदलपुल जाने वाली एक बस पर चढ़े, लेकिन अभी सभी लोग चढ़े भी नहीं होंगे कि बस मैनेजर ने कहा कि वह हमलोगों को जगदलपुर नहीं ले जा सकता है। कारण पूछने पर कोई जवाब नहीं मिला, फिर पता चला कि उसे पुलिस ने निर्देशित किया है। हम बुरी तरह थक चुके थे और दंतेवाड़ा जाने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था। आखिरकार, वापस रायपुर जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। देखते ही देखते कोंडागाँव बस पड़ाव पर कुछ पत्रकार जमा होने लगे। उनमें कौन पत्रकार था और खुफ़िया पुलिस यह जानना बहुत मुश्क़िल था। आसपास के लोगों और तथाकथित पत्रकारों से हमारे दल के लोगों ने बातचीत कर अपने पक्ष से उनलोगों को अवगत कराया।
फिर हम सब एक बस पर बैठे, जो हमें वापस रायपुर ले जाती। बस जब कांकेर के नये बस अड्डे पर पहुँची तो १५-२० लोगों वहाँ हमारा इंतज़ार कर रहे थे।
हमें देखते ही वह नारा लगाने लगे कि "नक्सलियों के नेता वापस जाओ",
"नक्सल समर्थक वापस जाओ"। हम हतप्रभ थे। मेरे मन में एक सवाल कौंधा कि क्या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हित में सोचना नक्सली होना है? आश्चर्य है इस राज्य के मानवता पर ! नारे लगाते कुछ लोगों में से यह भी सुनने में आया कि "उतारो उनको, मारो सालों को"। स्वाभाविक है, हम डर गये थे। कांकेर के पुराने बस अड्डे पर आते ही तुरंत तीन-चार लोग कैमरा ले कर बस में घुस गये और हमारे दल की युवा लड़कियों की तस्वीरें लेने लगे। मेरे विरोध करने पर उनमें से एक ने कहा कि "हम पत्रकार हैं, हमें अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो"। इसी तथाकथित पत्रकार ने नीचे उतर कर बस के पहिये का हवा निकाल दिया। जाहिर है, वो पत्रकार नहीं कोई लंपट असामाजिक तत्व ही थे।
इसी तरह कुछ देर तक जूझने के बाद हमारी बस आगे बढ़ी। इस बार हम सही-सलामत रायपुर पहुँच गये।
लेकिन, मामला यहाँ ख़त्म नहीं हुआ था। जब शाम को हम रायपुर में प्रेस से
मुख़ातिब होना चाह रहे थे, तो भाजपा के कुछ नेताओं ने प्रेस का ध्यान
बँटाने के लिए फिर वही बेबुनियादी नारे लगाने शुरू किए, जो कांकेर के बस
अड्डे पर लग रहे थे।
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