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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

रविवार, 16 जनवरी 2011

हिंसा एक बहुआयामी मसला है...

(डॉ. इलीना सेन ने अपने जीवन का लंबा अरसा महिला अधिकारों को हासिल करने के संघर्ष और वंचितों के शिक्षा के लिए खर्च किया है और वर्तमान में वह वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग का नेतृत्व कर रही हैं। इस आलेख को प्रो. सेन से हुई बातचीत के आधार पर देवाशीष प्रसून ने लोकमत समाचार के दीपावली विशेषांक २०१० के लिए लिपिबद्ध किया था।)
मुझसे यह कहा जाना कि जब मैं 'किसकी हिंसा, कैसी हिंसा?' पर टिप्पणी करूँ तो लिंग आधारित हिंसा के मद्देनज़र करूँ, अनुचित है। मेरा मानना है कि हिंसा के कई आयाम हैं और सभी आयामों पर बातचीत होनी चाहिए। जहाँ तक बात लिंग आधारित हिंसा की है तो उस पर हर किसी को बात करनी चाहिए और चूँकि मैं एक महिला हूँ और स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत रही हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मुझसे बस इसी संदर्भ में बातचीत की जाए। बहरहाल, हम मुख्य विषय की ओर लौटें।
सवाल है कि हिंसा में जिस बढ़ोत्तरी की बात हो रही है, उसे कौन बढ़ा रहा है? मेरा मानना है कि मौज़ूदा हालातों में राष्ट्र-राज्य भी टूटने के कगार पर है और जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें सत्ता का केंद्रीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विश्व व्यापार को चलाने वाली शक्तियों के हक में हो रहा है। राष्ट्र-राज्य का स्वरूप हमेशा से बदलता रहा है। हमारे बचपन के समय की बात करें तो उस वक्त राष्ट्र-राज्य का स्वरूप सैद्धांतिक तौर पर निर्विवादित रूप से कल्याणकारी था। कल्याण के बारे में निश्चित तौर पर विकसित और अवकसित देशों में अपने-अपने पैमाने रहे हैं, लेकिन भारत जैसे देश में भी अपने हर नागरिक को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करना राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य माना जाता था। अब इस कर्तव्य का पालन हुआ, नहीं हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। लेकिन अब जो व्यवस्था जड़ जमा रही है, उसके प्रभाव में राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। जाहिर-सी बात है कि नई व्यवस्था जिनके हित में काम कर रही है, वे ही इस बढ़ते हुए हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। वैश्विक वित्तीय पूँजी के फलने-फूलने के लिए तमाम तरह की कोशिशें की जा रही है, जो कि कई तरह के हिंसाओं का मूल कारण है। अपनी ज़िंदगी में और ऐतिहासिक याददाश्त से भी हमने जाना है कि मंदियों और महामंदियों की न जाने कितनी सारी विफलताओं के बाद भी पूँजीवादी व्यवस्था बार-बार उठकर खड़ा हुआ है दुनिया पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में हिंसा और दमन का लंबा दौर देखने को मिलता है। यहाँ पर मैं जिक्र करना चाहूँगी पितृसत्ता का, क्योंकि पितृसत्ता के बारे में मेरी जो समझ है कि यह उन लोगों की सत्ता है जो नैतिकताओं को अपने हित में परिभाषित करते हैं और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हर प्रकार से प्रपंच, बल और हिंसा का प्रयोग करते हैं।
हिंसा का ताना-बाना बहुत जटिल है। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हिंसक शक्तियाँ कई अन्य सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का भी सहारा लेती हैं। अब बस्तर की ही बात करें। बस्तर में जिस तरह से कंपनियों ने अपना पैर पसारना चाहा, वहाँ अपने खास तरह की हिंसा को स्थापित करने के लिए उन्होंने राज्य सत्ता का सहारा लिया। जबकि अगर आप संविधान को देख लें तो ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है। मेरा मानना है कि भारत का संविधान एक बहुत ही प्रगतिशील दस्तावेज़ है, लेकिन व्यवस्था पर काबिज़ लोग हमेशा उसकी गलत व्याख्या करते रहे हैं। राज्य सत्ता के साथ-साथ इन ताक़तों ने पितृसत्ता का भी सहारा लिया। जब मूल निवासियों को गाँव से खदेड़ा जाता है या औद्योगिक हितों के लिए उन्हें अपने ज़मीन से विस्थापित किया जाता है तो निश्चित तौर से हिंसा की सबसे बड़ी शिकार औरतें होती हैं। ऐसा आदिम काल से भी चलता आ रहा है कि अपनी सत्ता और वर्चस्व को स्थापित करने के लिए हमलावर औरतों पर यौन-हिंसा करते रहे है। बलात्कार तो एक चरम है, लेकिन बाहरी सत्ता के आक्रमण में औरतें यौन-हिंसा के कई चरणों से होकर गुज़रती हैं। इस तरह की हिंसा सिर्फ़ औरतों के ख़िलाफ़ नहीं होती, बल्कि ऐसा करना इन औरतों से संबंधित पूरे के पूरे समुदाय को कमज़ोर बताकर उन्हें अपमानित करने की एक युक्ति बनकर सामने आता है। विस्थापन और उससे संबंधित हिंसा के अलावा भी और कई अन्य क्षेत्र हैं, जहाँ इन बड़ी पूँजी वाली कंपनियों ने हिंसा में कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
गरीबी भी हिंसा का भयावह चेहरा है। आम धारणा है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, लेकिन मैं इसे मुख्य कारण नहीं मानती। मुझे लगता है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण उपलब्ध संसाधनों के वितरण में पाँव पसारी हुई निर्मम कुव्यवस्था कारगार है। हालाँकि जनसंख्या एक मसला तो है, लेकिन अपने आप में वह गौण है और भारत में गरीबी को लेकर जनसंख्या जिम्मेवार नहीं है। आप टेलीविज़न में आ रही समाचारों और बहसों को देखिए। देश में कई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं। देश में अब तक अनाजो को बाँटने के सही तरीकों को विकसित नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री का मानना है कि अनाज मुफ़्त में नहीं दिए जा सकते हैं, क्योंकि इससे लोगों की आदतें खराब हो जायेंगी। आप मुफ़्त में नहीं देंगे, आपके पास बाँटने का भी कोई तरीका नहीं है और आप केवल खरीद रहे हैं! यह एक गज़ब विडंबना है। देश में अनाज के उत्पादन और वितरण के बीच कोई रिश्ता समझ में नहीं आता है। हालिया, मैंने एक टेलीविज़न कार्यक्रम में देखा कि पंजाब सरकार के जानिब से एक महिला बोल रही थी कि गोदाम में पड़े अनाज भले ही पंजाब की धरती हो, लेकिन वह भारतीय खाद्य निगम की संपत्ति हैं, पंजाब का उससे कोई लेना देना नहीं है। लोग भूखे हैं, अनाज गोदाम में सड़ रहा है और सरकारी प्रतिष्ठान बाल की खाल निकालने में मशगूल हैं। इतिहासकारों ने बंगाल के ऐतिहासिक अकाल के कारणों को शोध किया तो यह पाया था कि वहाँ तब खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं थी, बस उसे लोगों तक पहुँचने से रोका गया था। मेरी माँ बताती है जोकि उस वक्त स्कूल या कॉलेज पढ़ती रही होगी कि अकाल खत्म होने के बाद के दिनों में गोदामों में बंद अनाजों को नदी में बहाया गया, क्योंकि वह सड़ गए थे। सन बयालिस से आज तक इस स्थिति में कोई अमूलचूल बदलाव नहीं आया है। संसाधनों का वितरण इतना असमान है कि कुछ लोगों के पास इतना कुछ है कि वह इतने खाए-अघाए हैं, उन्हें समझ नहीं आता कि वह इन चीज़ों का क्या करें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जिनके पास कुछ नहीं है। विकास के मौज़ूदा स्वरूप की बात करें तो यह भी गरीबी का एक बड़ा कारण है। एक तरफ़ देश में ऐसी जगहें भी हैं, जहाँ बस पकड़ने के लिए लोगों पंद्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और दूसरी ओर देश में स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग भी बने हैं, जहाँ बिना रूके आप अपनी मंजिल तक अपनी गाड़ियाँ दौड़ा सकते हैं। विकास के नाम पार जो तकनीकों और संयंत्रों को आयातित किया जाता है, वह भी जिम्मेवार हैं गरीबी के लिए। आप बिजली, डीज़ल और पेट्रोल जैसे ईंधन पर चलने वाले संयंत्रों का सस्ता भी नहीं मान सकते, क्योंकि ये ईंधन जल्दी ही इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने वाले है। लेकिन आयातित संयंत्रों के इस्तेमाल की इस प्रक्रिया से बहुतायत में उपलब्ध मज़दूरों को खलिहर रहना पड़ता है, जो कि घूम-फिर कर गरीबी जैसी हिंसा का कारण बनता है। इसके तर्कों के आधार पर मैं कहना चाहूँगी कि जिस तरह से जनसंख्या को गरीबी का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, यह अनुचित है। हालाँकि सरकार ने इसे गरीबी का सबसे बड़ा कारण मानते हुए परिवार नियोजन को कार्यक्रमों को खूब तबज्जो दिया है।
परिवार नियोजन के कार्यक्रमों में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्त्री के स्वास्थ्य को केवल उसके प्रजनन क्षमता के साथ जोड़ कर देखा जाता है और यह बहुत ही हिंसात्मक तरीका है औरतों के बारे में सोचने का। औरतों की, मर्दों की तरह, कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं, लेकिन स्त्री स्वास्थ्य के मुद्दों को हमेशा बच्चों के साथ जोड़ कर या प्रजनन के साथ जोड़ कर देखा जाते रहा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत को जो बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय अनुदान मिले, उसमें जनसंख्या का नियंत्रण एक महत्वपूर्ण शर्त रही है और ऐसे में औरतों का शरीर प्रजनन नियंत्रण तकनीकों का शिकार बनता है। इस मामले में भी भेदभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। स्त्री नसबंदी, पुरूष नसबंदी की तुलना में खतरनाक है, मगर फिर भी ज्यादातर मामलों में नसबंदी स्त्रियाँ ही करवाती हैं। सरकारें भी भ्रामक प्रचार करवाने से गुरेज नहीं करती है कि गर्भनिरोधक गोलियों का महिलाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। जबकि सच यह है कि गर्भनिरोधक गोलियों का स्त्री हॉरमोन पर गंभीर और लंबे समय पर पता चलने वाला दुष्प्रभाव होता है। देश में पुरुषों की तुलना में महिलाएँ बहुत कम हैं। कारण कई हैं। बालिकाओं के देखरेख में लापरवाही या नहीं तो कोख में ही उनकी हत्या हो जाती है। क़ानूनों को धत्ता बताते हुए धड़ल्ले से महिला भ्रूण हत्या का अपराध होते रहता है। यह भी हिंसा का एक विभत्स चेहरा है। इसे विज्ञान द्वारा किए गए हिंसा के रूप में देखा जा सकता है।
नौकरीपेशा या मध्य-आय वाले लोगों का एक ऐसा तबका है, जो एक साथ इन कंपनियों के लिए आवश्यक मानव संसाधन की भी पूर्ति करता है और इनके उत्पादों का बाज़ार भी बनता है। लेकिन गौर करें तो हम देखेंगे, कि यहाँ भी एक अलग तरह की हिंसा होती है। तरह तरह की युक्तियों का इस्तेमाल किया जाता है। गो कि लोगों में खास चीज़ों के लिए अलग किस्म की एक चाहत पैदा करना, यह भी एक हिंसात्मक कार्रवाई है। किसी लड़के या लड़की के व्यक्तित्व को स्वभाविक तरीके से विकसित नहीं होने दिया जाता है। जिस तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है कि उसमें व्यक्तित्व निर्माण के बदले उनमें बाज़ार के हित में काम करने वाली खास तरह की इच्छाएँ जन्म लेती हैं, जो आगे चल कर कुंठाओं को पैदा करती हैं। इसे भी हिंसा माना जा सकता है, जिसके कारण लोगों की शख़्सियत का सकरात्मक विकास नहीं हो पाता है और इंसान चाहतों का दास बनकर रह जाता है। जहाँ तक महिलाओं या लड़कियों का सवाल है तो मामला थोड़ा और गंभीर हो जाता है। जिस तरह के टेलीविज़न शो आजकल आ रहे हैं, उसमें आप देख सकते हैं कि किस तरह से औरतों को या तो वस्तुओं का उपभोग करने वाली अन्यथा उपभोग करने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महंगे लिबास में सजी-सँवरी आकर्षक, पर अपने अधिकारों से विमुख महिलाएँ। अगर स्त्रियों को मौका मिले तो उनका व्यक्तित्व पुरुषों के समकक्ष निखर सकता है, लेकिन इस तरह से उनके मौके ही खत्म कर दिए जाते हैं। यह भी उतना ही हिंसात्मक है पर दिखता बहुत मनोरम है।
अगला सवाल यह है कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृति ने तो क्या हिंसा को नहीं बढ़ाया है? मैं इस बात से सहमत हूँ कि हिंसा के बढ़ने का कारण केंद्रीकरण की प्रवृति है। खास कर मैं सूचना तकनीकी के क्षेत्र में हो रहे केंद्रीकरण की बात करना चाहूँगी। एक कोने से कहीं कानाफूसी चालू हुई और यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है और इस बात को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि वो सत्य हो। सच को झूठ और झूठ को सच बनाना आसान हुआ है। हिंसात्मक विचारों का संक्रमण बढ़ा है। इसके लिए वो लोग जिम्मेवार हैं जो बड़े स्तर सूचनाओं के प्रवाह को संचालित करते हैं। सूचना तकनीक के अलावा भी अन्य कई क्षेत्र हैं , जहाँ केंद्रीकरण की प्रक्रिया ने हिंसा की आग को हवा दिया है। जैसे कि हम खेती-किसानी की बात कर लें। छ्त्तीसगढ़ में कुछ तीन हज़ार किस्म के धान के बीज पाए जाते थे, जिनमें यह खास बात थी वह अलग-अलग प्रकार के जलवायु के मुताबिक उपयोगी हुआ करते थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के झासे में आकर हमारे देशी वैज्ञानिकों ने अपने जैव विविधता को दरकिनार करते हुए कुछ चुनिंदा कृत्रिम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया। इसका नतीजा आज यह है कि हमारे पारंपरिक बीज लुप्त हो रहे हैं और एक बहुत बड़े धरोहर से हमने हाथ धो दिया। एक ऐसा धरोहर जिसको न तो रासायनिक खादों की जरूरत थी, न ही कीटनाशकों की। कुल मिलाकर यह खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करके उसके केंद्रीकरण का मामला है। कुछ लोगों का अपने ज्ञान को बेहतर बताकर ज्ञान की पुरानी परंपरा को नष्ट करना भी हिंसा को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार केंद्रीकरण का नमूना है।
अंतिम सवाल कि संगठित हिंसा की समाप्ति किस संगठित प्रयास से संभव है के जवाब में मुझे कहना है कि इसके लिए लोगों के बीच संवाद और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने पर काफी ज़ोर देना पड़ेगा। कुल मिलाकर समाज को बनाने वाले और चलाने वाले तमाम घटकों को व उनके बीच के परस्पर रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है।
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

विश्वशक्ति बनते भारत की कुपोषित-बीमार आबादी

- देवाशीष प्रसून

पूरी दुनिया में यह अभियान जोर-शोर से चल रह है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन का क़ानूनन अधिकार मिले। हमारे देश में भी लोगों ने इस बाबत कमर कस ली है। सरकार की नीति तो यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों को प्रतिमाह पैंतीस किलोग्राम अनाज सस्ते दर पर उपलब्ध करायी जाए, पर इस सरकारी नीति को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करते वक्त अगर नौकरशाही और ठेकेदारों की सेंधमारी न हुई होती तो शायद नज़ारा कुछ और ही होता। गौरतलब है कि सरकारी योजनाकारों द्वारा गरीबी की रेखा व प्रति परिवार सस्ते दर पर अनाज की मात्रा का आकलन भी बेहद अदूरदर्शी और मनगढ़ंत लगता है। बहरहाल, तक़रीबन ११० करोड़ की आबादी वाले देश में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक सन २००६ तक २५.१५ करोड़ लोग यानी आबादी का कम से कम बीस फीसदी हिस्सा भीषण रूप से कुपोषित था। यह हालात कमोबेश बरकरार है। जाहिर है इसका प्रमुख कारण खाने-पीने की चीज़ों का लोगों की पहुँच से बाहर होना है क्योंकि शौकिया तो कोई भूखा नहीं ही रहेगा।

जून २०१० में जारी विश्व बैंक का रपट कहता है कि भारत में जनवरी २०१० तक भोजन के थोक मूल्यों में वित्तीय वर्ष २००८-०९ के बनिस्बत जो बदलाव आए हैं, उससे भोजन तक लोगों की पहुँच मुश्क़िल हुई है। चीनी की कीमत ४२ फीसदी बढ़ी है और अनाज १४ फीसदी महँगे हुए हैं। दालों की कीमत में औसतन २८ फीसदी का उछाल आया है जबकि दूध, अंडे, मछलियों और सब्जियों के भाव भी मई तक ३५ फीसदी बढ़कर आसमान छूने लगे हैं। हालाँकि दूसरी ओर देखने वाली बात यह है कि इसी वक्त भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूँ और चावल का ४७५ लाख टन भंडारण हो चुका था, जो कि बफ़र स्टॉक से २७५ लाख टन फ़ाज़िल है। यानी खेती-किसानी की खस्ताहाल स्थिति के बावज़ूद भी सरकारी गोदामों में इतना अनाज तो है ही कि लोग भूखों न मरें। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में उनकी क्षमता से अधिक अनाज ठूँसे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। भूखे लोगों तक अनाजों को मुहैया कराने के बजाए विडंबना यह है कि या तो इन्हें चूहें हज़म कर जाते हैं या सड़ने के बाद इसे पानी में बहाया जा रहा है। अफ़सोस कि आज तक इन अनाजों के समुचित वितरण का सटीक और असरदार तरीका नहीं ढ़ूँढ़ा जा सका है। सरकार के लिए अब सिर्फ़ योजनाएँ बनाना नाकाफी है, ज्यादा ज़रूरी यह है ऐसी वितरण प्रणाली खड़ी की जाए जिससे ज़रूरतमंद लोगों का पेट आसानी से भर सके और हमारा समाज लंबे समय से चले आ रहे कुपोषण से मुक्त हो पाये।

२०१० के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक के मुताबिक ’सबसे भूखा कौन?’ के मुकाबिले में भारत अपने पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान और नेपाल से बहुत आगे है। कुल १२२ देशों में हुए अध्ययन में भारत ५५वाँ सबसे भूखा देश है। एक दूसरे स्रोत से पता चलता है कि दुनिया के कुल ९२.५ करोड़ लोगों की भूखी आबादी में से ४५.६ करोड़ लोग भारत में रहते हैं। क्या कारण है कि करीबन साढ़े आठ फीसदी की दर से तरक्की करने वाली इस देश की अर्थव्यव्स्था पर आश्रित आबादी में दो-तिहाई महिलाओं के शरीर में खून की कमी एक आम बात बन कर रह गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने भले ही, अस्थाई ही सही, सदस्यता हासिल की हो, लेकिन एक सवाल फन काढ़े खड़ा है कि जब इसके पाँच साल से छोटे बच्चे की लगभग आधी आबादी दिल दहलाने वाली कुपोषण का शिकार है तो भविष्य में इस देश की सुरक्षा की जिम्मेवारी किनके कंधों पर होगी? याद रहे, बचपन में मनुष्य का विकासशील शरीर अगर पर्याप्त पोषण जुटा नहीं पाता है तो इसका खामियाजा उसे ताउम्र भुगतना पड़ता है। भारतीय बच्चों में व्याप्त कुपोषण दरअसल देश की इंसानी नस्ल को शारीरिक और मानसिक तौर पर लाचार और कमजोर बना रहा है और इस कारण देश की सुरक्षा ही क्या, अब उसके पूरे अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि देश में होने वाली कुल बीमारियों में से २२ फीसदी बचपन में हुए कुपोषण के कारण होती हैं। सोचिए अब ऐसे हालात हैं तो क्या है इस देश का भविष्य? यही नहीं, कुपोषण का मामला इतना सपाट भी नहीं है, समाज के अलग-अलग तबकों की अलग-अलग कहानी है। ग़ौर करने वाली बात है कि देश में बच्चियाँ बच्चों से अधिक कुपोषित हैं और अनुसूचित जातियों व जनजातियों में कुपोषण का आँकड़ा सामान्य से कहीं अधिक है।

देश में भूख की इस गंभीर स्थिति के बाद भी सरकार के जानिब से बार बार इस तरह की बयानबाज़ी सुनने को मिलती रहती है कि हिंदुस्तान एक ताक़तवर मुल्क बनने की राह में बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। इन सरकारी दावों को विश्व अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे भी खूब हवा देते हैं। मीडिया का एक धड़ा भी इनके हाँ में हाँ मिलाता है। वाकई भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूती के पायदानों पर नित नई ऊँचाईयाँ हासिल कर रही है और इसके मद्देनज़र इस तरह की बातों का होना लाज़िमी भी है। लेकिन, आश्चर्य यह है कि आँकड़े तो कुछ और ही हाल बयान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पाँच साल पहले तक देश की ४१.१ फीसदी आबादी दिन भर में एक डॉलर याने चालीस-पैंतालिस रूपये से अधिक कमा नहीं पाती थी। यह स्थिति कमोबेश बरकरार है।

मगर, गौरतलब है कि अब भारत सरकार की बढ़ती कूवत की कई उदाहरण मिलने लगे हैं। ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों का है, जिसमें सरकार लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धनराशि और संसाधन खर्च कर रही है। किंतु, भारत की तुलना एक ऐसे परिवार से की जा सकती है, जहाँ बच्चे भूख से बिलख रहे हों और पिता अतिथियों को आमंत्रित करके स्वागत में राजसी भोजन परोस रहा है। हालाँकि इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के राजसत्ता की हैसियत पिछले दशकों के बरअक्स बहुत बढ़ी है, पर इसका फायदा अधिकतर जनता के नसीब में नहीं है। देश की ज्यादातर जनता अकाल जैसी स्थितियों में अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए कोल्हू का बैल बनी हुई है। जाहिर है उस देश की अमीरी का क्या मतलब, जिस देश में लोगों का स्वास्थ्य विश्व मानकों से बहुत नीचे हो। यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि महँगे कपडों से अपने कोढ़ को छुपाने की कोशिश की जा रही हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस साल जारी किए आँकड़ों से पता चलता है कि आज भी भारत में बच्चे को जन्म देते वक्त हर एक लाख माँओं में से साढ़े चार सौ माँएँ स्वर्ग सिधार जाती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति जलवायु के कारण नहीं है, क्योंकि अपने पड़ोस में बसा देश श्रीलंका प्रसव के दौरान एक लाख में केवल अठावन माँओं की जान को बचा पाने में चूकता है। यही संख्या पाकिस्तान में तीन सौ बीस माँएँ प्रति लाख माँ है, जो अधिक होने के बाद भी भारत से कम ही है। चीन में भी एक लाख माँओं में से पैंतालिस माँएँ मरने को विवश हैं, याने यह दर भारत में मरने वाली माँओं का दसवाँ हिस्सा मात्र है। खाद्य एवं कृषि संगठन से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक सन २००७ में हुई गणना में यह पाया गया कि भारत में दस हज़ार बच्चों में से औसतन ५४३ बच्चे जन्मते ही मर जाते हैं और ७१८ बच्चे पाँच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते हैं। यह सारे आँकड़े देशभर का औसत हैं और गाँवों की स्थिति तो और भी विभत्स है।

स्वास्थ्य संबंधी तकनीकियों का तड़ित गति से विकास होने के बाद भी यह सवाल क्यों खड़ा है कि देश में कुपोषण, बीमारियों और देखभाल की कमी के कारण अकालमृत्युओं की संख्या आसपास के अन्य देशों से अधिक है? जबाव जाहिर है कि भारत में विदेशियों को भले ही स्वास्थ्य पर्यटन पर आने के लिए रिझाया जा रहा हो, आमलोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ या तो नदारद हैं या नाकाफी। मौज़ूदा दशक पर एक नज़र दौड़ाए तो पायेंगे कि शहरी और ग्रामीण इलाकों को एकसाथ मिलाकर भारत में औसतन १६६७ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी एक चिकित्सक पर हैं। औसत का गणित यह है तो कहना न होगा कि ग्रामीण इलाकों मे जहाँ चिकित्सकों की कमी जगजाहिर है, वहाँ इस औसत से कितने अधिक लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा एक चिकित्सक पर होगा। याद रहे कि विश्वशक्ति बनने के होड़ में शामिल चीन और पाकिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बेहतर ही है।

देश में आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के कमी के क्या कारण हैं? सरकार जहाँ सैन्यीकरण पर पानी की तरह पैसा बहा रही है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन के रपट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद का ४.१ फीसदी खर्चा स्वास्थ्य पर किया जाता है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का २६.२ फीसदी बोझ ही सरकारी ख़जाने पर पड़ता है बाकी ७३.८ फीसदी देनदारी जनता की होती है। कुल मिलाकर देखे तो भारत में स्वास्थ्य के लिए सालाना १०९ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं और इसमें भी सरकारी हिस्सेदारी अत्यल्प है। चीन में स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च के २३३ डॉलर की राशि की भारत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। अरे! भारत से अधिक तो भूटान स्वास्थ्य मद में १८८ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च करता है।

कुल मिलाकर देखें तो एक बड़ा सवाल उभर के सामने आता है कि जहाँ की बीस फीसदी आबादी कुपोषित हो और बीमारियों का गिरफ़्त इतना विभत्स हो, वह देश किन आधारों पर किन लोगों के हित में विश्वशक्ति बनने के दावे पेश कर रहा है?

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संप्रति: पत्रकार और मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय

संपर्क सूत्र: देवाशीष प्रसून, ओझा-निवास, महामाया मार्केट, के के रोड, मोहल्ला जुरावन सिंह, लालबाग़ मुख्य डाकघर, दरभंगा – 846004 (बिहार)

दूरभाष: 09555053370 ई-मेल: prasoonjee@gmail.com

गुरुवार, 27 मई 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...

देवाशीष प्रसून

समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि  इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी  देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।

गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।


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बुधवार, 5 मई 2010

भारतीय रेल का वर्ग चरित्र

- देवाशीष प्रसून
यह पिछले के पिछले सदी की बात है, जब दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास करमचंद गांधी को प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे से धक्के मार कर निकाल फेंका गया था, क्योंकि वह एक अश्वेत होने के साथ-साथ एक गुलाम देश  से आया आदमी था। मोहनदास के जीवन की इस घटना ने उसे सामाजिक विषमता के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा दी और सफर शुरू हुई एक मामूली से इंसान के महात्मा बनने की। जितना मुझे मालूम है, इससे पहले गांधी की अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति आस्तिकता थी। बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने तक की यात्रा तमाम अन्य संघर्षों के साथ-साथ मोहनदास के लिए अपनी मानसिकता को संस्कारगत गुलामी से मुक्त कराने का संघर्ष भी था।

आज भारत को आज़ाद हुए तिरसठ सालों से अधिक का समय बीत चुका है। आज़ाद ख्याली के नाम पर पश्चिमी उपभोक्तावादी-पूंजीपरस्त संस्कृति का अंधा नक़ल करने में देश में बड़ी तादात माहिर हो चुकी है। लेकिन, क्या संस्करगत गुलामी से अब भी इस देश की जनता को आज़ादी मिली है? कई उदाहारण हैं, इसे परखने को। क्यो न, उसी रेल की बात करें, जिसने गांधी के अंदर पल रहे संस्कारगत गुलामी को झकझोक कर रख दिया था।
रेल का अपना वर्ग चरित्र है और यह वर्ग-चरित्र बहुत जाहिर है। जैसे रेल कैंटीन में आपको जनता खाना मिल जाएगा। जनता से यहाँ आशय सर्वहारा से है, क्योंकि जनता खाना के नाम पर सबसे सस्ता खाना परोसा जाता है। गो कि देश के सत्ता की नज़र में इलीट जनता कोई जनता नहीं, ईश्वर का सीधा अवतार हो। रेल में इस्तेमाल की जाने वाली ऐसी शब्दावलियाँ घोर भेदभावपूर्ण व आपत्तिजनक हैं। वहीं, रेल में पेंट्री आपूर्ति द्वारा जो खाने-पीने की चीज़े बेची जाती है, उसकी क़ीमत इतनी ज्यादा होती है, कि कोई निम्न मध्य वर्ग या उससे कम हैसियत रखने वाला इंसान भले भूखा पेट उसे देख कर ललचाता रहे, लेकिन यह खाना खरीद कर खाना उसके सामर्थ्य में नहीं होता।
हर साल रेल मंत्री रेल विकास के आँकड़ेबाज़ी का खेल खेलते रहते हैं। हर कोई नयी गाड़ियाँ चलाता हैं। यात्री भाड़ा नहीं बढ़े, यह कोशिश की जाती है। यात्री सुविधाओं के नाम पर आरक्षण प्राप्त करने के बेहतर विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं, नयी गाड़ियाँ चलाई जाती हैं। लेकिन, यह सवाल क्यों नहीं उठता कि सामान्य श्रेणी के रेल डिब्बों और उसमें सफर करने वाले यात्रियों की स्थिति में सुधार कैसे की जाये। इन रेलमंत्रियों को अगर किसी सामान्य स्थिति में बिना यह जाहिर किये कि वो मंत्री हैं, सामान्य श्रेणी के डिब्बे में सफर करना पड़ जाये तो यकीनन ऐसी स्थिति में वो अपने प्राण त्याग दें। वहाँ पेशाब-पखाना से फारिग होने के लिए जो स्थान नियत है, उसकी भी सफाई यात्रा शुरू से पहले बस एक बार होती है। लंबे सफर वाली गाडियों में भी इसका ख्याल नहीं रखा जाता है कि सामान्य श्रेणी के डिब्बे, जहाँ यात्रियों की संख्या अन्य डिब्बों से अधिक होती है, वहाँ साफ़-सफ़ाई और सुविधाओं का अधिक ध्यान रखा जाये। सामान्य श्रेणी के यात्रियों के बारे में कोई नहीं सोचता, जबकि वातानुकुलित डिब्बे में नियत समय पर सफाई होती है और सुगंधियों का छिड़काव होता रहता है। भारतीय रेल ने इंसानी गरिमा को उसके ज़ेब और बटुए से जोड़ रक्खा है।

लालू यादव ने अपने कार्यकाल में यह भ्रम बनाये रखा कि यात्री भाड़ा में बढ़ोत्तरी नहीं होने से उनका समय जनपक्षधर रेल का समय था। पर, कई तिकड़मों से गरीब जनता पर अत्याचार किये गये। जैसे, यात्री भाड़ा तो स्थिर रखा, लेकिन गाड़ियों की क्षमता बढ़ाये बगैर उसे सुपरफ़ास्ट घोषित करते हुये सुपरफ़ास्ट चार्ज़ वसूले गये। इसी सिलसिले में हुआ यह कि बगल की दो सीटों की संख्या को बढ़ाकर तीन कर दिया गया। ऐसा करना जीते जागते इंसानों के साथ बड़ा अमानवीय व्यवहार था। यह इंसानों के साथ कबूतरों सा बर्ताव करते हुये उनके लिए दरबा बनाने जैसा था। ममता बैनर्जी आयीं, तो बगल के डिब्बों की संख्या तीन से फिर दो हुयी, लेकिन अफ़सोस यह कि इस सुधार में ऊपर वाले सीट, जहाँ बैठना बिल्कुल असंभव है, आप वहाँ एक ही स्थिति में लेटे रहने के लिए अभिशप्त रहते हैं, उसे वैसे का वैसा ही रहने दिया गया और बीच वाले सीट को, जो अपेक्षाकृत बेहतर था, उखाड़ फेंका गया। नतीजतन यात्रियों की असुविधा जस की तस रही।
सवाल है कि यात्रियों को इन सब पर गुस्सा क्यों नहीं आता? आज ये सारी समता विरोधी स्थितियाँ व नीतियाँ किसी मोहनदास को बदलाब का महात्मा बनने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करती?
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संप्रति: पत्रकारिता एवं शोध
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बुधवार, 24 मार्च 2010

बाटला हाउस में हुए कत्लों की सच्चाई?

- देवाशीष प्रसून

बाटला हाउस में मुठभेड़ के नाम पर मारे गए लोगों की पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट बड़ी शिद्दत के बाद सूचना के अधिकार के जरिए अफ़रोज़ आलम साहिल के हाथ लग पायी है।पोस्ट मार्टम रिपोर्ट इसे कत्ल बता रही है।जबकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने तो दिल्ली पुलिस के ही दलीलों पर हामी भरी थी। बिना घटनास्थल पर पहुँचे और आसपास व संबंधित लोगों से बातचीत किए बगैर ही इस मामले को सही में एक मुठभेड़ मानते हुए आयोग ने दिल्ली पुलिस को बेदाग़ घोषित कर दिया था। और तो और, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पूरे मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के रपट पर आँखें मूंद कर विश्वास करते हुए किसी तरह के भी न्यायिक जाँच से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से पुलिस का मनोबल कमज़ोर होगा। यह चिंता का गंभीर विषय है कि किसी भी लोकतंत्र में मानवीय जीवन की गरिमा के बरअक्स पुलिस के मनोबल को इतना तवज्जो दिया जा रहा है। बहरहाल, आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट पर से पर्दा उठने के कारण नए सिरे से बाटला हाउस में पुलिस द्वारा किए गए नृशंस हत्याओं पर सवालिया निशान उठना शुरू हो गया है।

यह 13 सितंबर, 2008 के शाम की बात है, जब दिल्ली के कई महत्वपूर्ण इलाके बम धमाके से दहल गए थे। इसके बाद जो दिल्ली पुलिस के काम करने की अवैज्ञानिक कार्य-पद्धति दिखने को मिली, वह पूरी तरह से पूर्वाग्रह और मनगढ़ंत तर्कों पर आधारित है। बम धमाकों के तुरंत बाद ही पुलिस ने जामिया नगर के मुस्लिम बहुल बाटला हाउस इलाके के निवासियों को किसी पुख्ता सबूत के बगैर ही शक के घेरे में लेना और उनसे जबाव-तलब करना शुरू कर दिया था। अगले दिन ही, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल राशीद अगवाँ और तीस साल के अदनान फ़हद को पुलिस के विशेष दस्ते के द्वारा पूछताछ के लिए उठा लिया गया और फिर बारह घंटे के ज़ोर-आज़माइश के बाद उन्हें छोड़ा गया। 18 तारीख़ को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एक शोध-छात्र मो. राशिद को भी पूछताछ के लिए ले जाया गया और उसे ज़बरन यह स्वीकारने के लिए बार-बार बाध्य किया गया कि उसके संबंध आतंकियों से हैं। इस दौरान पुलिस ने उसे नंगा करके कई बार पीटा और तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। बाद में उसे 21 तारीख़ को छोड़ दिया गया।

इसी बीच 19 तारीख़ को दिल्ली पुलिस के विशेष दस्ते ने आनन-फानन में बाटला हाउस इलाके के एल -18 बिल्डिंग को चारों तरफ़ से घेर लिया। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक फ्लैट संख्या 108 के रहने वालों पर पुलिस ने गोलियाँ बरसायी गयीं। बाद में पुलिसिया सूत्रों से पता चला कि उक्त फ्लैट में इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकियों ने ठिकाना बनाया हुआ था, जिन्होंने पुलिस को आते ही उन पर गोलियां चलायी थी। जबाव में पुलिस के गोली से उन में से दो आतिफ़ अमीन और मो. साजिद की मौत हो गयी, दो लोग फरार हो गए और मो. सैफ़ को गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस के अनुसार बाटला हाउस के एल-18 में रहने वाले सभी लोग दिल्ली बम धमाके के लिए कथित तौर पर जिम्मेवार इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े हुए थे। इस कथित मुठभेड़ में घायल हुए इंस्पैक्टर मोहन चंद्र शर्मा को भी जान से हाथ धोना पड़ा।

लेकिन, गौरतलब है कि पूरे मामले में पुलिस, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और न्यायालयों के अपारदर्शी रवैये से यह मामला साफ़ तौर पर मुठभेड़ से इतर मासूम लोगों को घेर कर उनकी क्रूर हत्या करने का प्रतीत होता है। विभिन्न मानवाधिकार संगठनों के इस शक को बाटला हाउस में मारे गए लोगों के पोस्ट मार्टम की रपट ने और पुख्ता किया है।

पोस्ट मोर्टम के रपट के मुताबिक आतिफ़ अमीन और मो. साजिद के शरीरों पर मौत से पहले किसी खुरदरी वस्तु या सतह से लगी गहरी चोट विद्यमान है। सवाल उठना लाजिमी है कि अगर दोनों ओर से गोलीबारी चल रही थी तो दोनों के शरीर पर मार-पीट के जैसे निशान कैसे आये? ध्यान देने वाली बात है कि दोनों ही मृतकों ने अगर पुलिस से मुठभेड़ में आमने-सामने की लड़ाई लड़ी होती, तो उनके शरीर के अगले हिस्से में गोली का एक न एक निशान तो होता, जो कि नहीं था। आतिफ़ और साजिद के अन्त्येष्टि के समय मौज़ूद लोगों के मुताबिक दोनों शवों के रंग में फर्क था, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि उन दोनों की मौत अलग-अलग समय पर हुई थी। प्रश्न है कि क्या उन्हें पहले से ही प्रताड़ित किया जा रहा था और बाद में उन पर गोलियाँ दागी गयी?

चार पन्नों के रपट में साफ़ तौर पर लिखा है कि आतिफ़ अमीन की मौत का कारण सदमा और कई चोटों की वजह से खून बहना है। चौबीस साल के आतिफ़ के शरीर में कुल मिलाकर इक्कीस ज़ख्म थे। उस के शरीर में हुए ज्यादातर ज़ख्म पीछे की तरफ़ से किए गए थे, वह भी कंधों के नीचे और पीठ पर। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि, आतिफ़ पर पीछे की ओर से कई बार गोलियाँ चलायी गयीं।

सत्रह साल के मो. साजिद की लाश के पोस्ट मोर्टम से पता चलता है कि उसके सिर पर गोलियों के तीन ज़ख्मों में से दो उसके शरीर में ऊपर से नीच की ओर दागे गए हैं। ये भी प्रतीत होता है कि साजिद को जबरदस्ती बैठा कर ऊपर से उसके ललाट, पीठ और सिर में गोलियाँ दागी गयीं।

साजिद और आतिफ़ की हत्या को मुठभेड़ के नाम पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पूरे मामले में सीधे रूप से जुड़ा हुआ मो. सैफ़ अब तक पुलिस हिरासत में है। अगर पुलिस की मानें तो मो. सैफ़ को वहीं से गिरफ़्तार किया गया, जहाँ आतिफ़ और साजिद की मौत हुई थी। ऐसे में उसके बयान का महत्व बढ़ जाता है, जिसे को पुलिस ने अब तक बाहर नहीं आने दिया है। साथ ही, इस मामले पर दिल्ली पुलिस का ’मुठभेड़ कैसे हुआ’ के बारे में बार-बार बदलता स्टैंड भी यह स्वीकारने नहीं देता है कि मृतकों की मौत किसी मुठभेड़ में हुई है। अपितु लगता यह है कि मृतक निहत्थे थे और उन्हें घेर कर वहशियाना तरीके से मारा गया।


तालिका 1: आतिफ़ की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या (रपट के मुताबिक) ज़ख्म का आकार ज़ख्म कहाँ पर है

14 1 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

9 2X1 सेमी, 1 सेमी घर्षण और गहरा गड्ढा पीठ पर बायीं ओर

13 9.2 सेमी घर्षण और 3x1 सेमी गहरा गड्ढा पीठ की मध्य रेखा, गर्दन के नीचे

8 1.5 x1 सेमी गहरा गड्ढा दायें कंधे पर की हड्डी का हिस्सा, मध्य रेखा से 10 सेमी दूर और दायें कंधे से 7 सेमी नीचे

15 0.5 सेमी व्यास, गहरा गड्ढा निचले पीठ की मध्य रेखा, गर्दन से 44 सेमी नीचे

6 1.5 X1 सेमी, आकार में अंडाकार बायीं जांघ का अंदरूनी हिस्सा (ऊपर की ओर), बाये चूतड़ों पर ज़ख्म संख्या 20 जहाँ से धातु का एक टुकड़ा मिला से जुड़ा हुआ। बंदूक की गोली का निशान संख्या 20 आश्चर्यजनक रूप बहुत बड़ा 5x2.2 सेमी का है।

10 1x0.5 सेमी दायें कंधे से 5 सेमी नीचे और बीच से 14 सेमी नीचे

11 1x0.5 सेमी कंधे के हड्डी के बीच, मध्य रेखा के 4 सेमी दायें

12 2x1.5 सेमी पीठ के दायीं ओर, मध्य रेखा से 15 सेमी, दायें कंधे से 29 सेमी नीचे

16 1 सेमी व्यास दायीं बांह की कलाई और पिछला बाहरी हिस्सा


तालिका 2: साजिद की लाश पर पाये गए ज़ख्मों का ब्यौरा

बंदूक की गोली का निशान संख्या 1 दायें तरफ़ माथे पर आगे के ओर(ललाट पर)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 2 दायें तरफ़ ललाट पर

बंदूक की गोली का निशान संख्या 5 दायें कंधे की ऊपरी किनारा (नीचे की तरफ जा रहा)

बंदूक की गोली का निशान संख्या 8 बायीं छाती के पीछे( गर्दन से 12 सेमी )

बंदूक की गोली का निशान संख्या 10 सिर के पिछले हिस्से का बायां भाग



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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

वे पुलिस थे, पुलिस हैं और पुलिस ही रहेंगे

- देवाशीष प्रसून
भारत में कई संस्थान उच्च शिक्षा और शोध की दिशा में कार्यरत हैं। उनके बावज़ूद, हिंदी में मौलिक सोच के विकास और शोध की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र में महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की नींव रखी गयी थी। शुरू से ही विभिन्न कारणों से विश्वविद्यालय विवादों में घिरा रहा। आजकल यह विश्वविद्यालय कुलपति विभूतिनारायण राय की तानाशाही को लेकर चर्चा में हैं।
विभूतिनारायण राय भारतीय पुलिस सेवा से संबंद्ध रहे है और यह उनकी कार्य-संस्कृति से भी स्पष्ट दिखता है। हमेशा से वे पुलिस अधिकारी रहे हैं और अब विश्वविद्यालय में भी पुलिसिया संस्कृति के कांटे बो रहे हैं। अपनी किसी असुविधा के लिए एक टार्गेट को चुनना और उसके ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करने में ये माहिर रहे हैं। शोध और अध्यापन के बरअक्स हिंदी-समय, कथा-समय और इस सरीखे हिंदी के साहित्यकारों का मेला लगा कर विभूति तालियाँ सुनने में मज़ा लेते हैं। पर उनके द्वारा लिए गये कुछ अहम फैसले उनकी कार्य-संस्कृति का आईना बनकर सामने आते हैं। गोया, दो बार छात्र-प्रतिनिधियों को बिना विद्यार्थियों की सहमति से विद्या-परिषद के बतौर सदस्य मनोनीत किया गया। हाल में जो व्यक्ति विद्या-परिषद में छात्र-प्रतिनिधि मनोनीत हुआ है, वो एक साथ विश्वविद्यालय से हर माह निश्चित राशि लेकर पब्लिसिटी अधिकारी और पीएच.डी. शोधार्थी है।पीएच डी के लिए भी सरकार हर महीने एक निश्चित राशि शोधवृति के रूप में देती है। विश्वविद्यालय में काम करने वाले को बतौर छात्र-प्रतिनिधि थोपना ही विभूति का विश्वविद्यालय में लोकतंत्रीकरण है।
संतोष बघेल दलित हैं और उन्होंने यहीं से एम.फिल. किया और वह जेआरएफ़ भी है। अपनी इसी योग्यता के साथ उसने पीएच.डी, के लिए आवेदन किया था। खाली सीट के बावज़ूद, बिना लंबी लड़ाई, उन्हें दाखिला नहीं मिल पाया। हाल में एम.फिल. में स्वर्ण पदक प्राप्त लेकिन जाति से दलित छात्र राहुल कांबळे को आखिरकार पीएच.डी. से महरूम रखा गया। प्रवेश परीक्षा में उसका चयन नहीं हो पाया था, पर चयनित एक अभ्यर्थी ने जब दाख़िला नहीं लिया तो तीसरे नंबर पर होने के कारण राहुल ने अपना दावा पेश किया। सीट खाली रह गयी, लेकिन कुलपति राय की दुआ से राहुल को उसके आमरण अनशन के वाबज़ूद भी विश्वविद्यालय से विदाई लेनी पड़ी। बहाना बनाया गया कि उक्त सीट पिछड़े अभ्यर्थी के लिए आरक्षित है तो एक दलित को कैसे मिल सकती है।
कुलपति राय को विरोध के स्वर बर्दाश्त नहीं है, कठपुतली बने कुलानुशासक फट से विद्यार्थियों को नोटिस थमाते फिरते हैं। शोध के एक छात्र अनिल ने बताया कि उसको कई बार अपनी असहमतियों के कारण अनुशासनात्मक कार्रवाई से भरा धमकी-पत्र मिलता रहा है। कारण अलग-अलग रहे हैं। आख़िरकार उसे विश्वविद्यालय ने निष्कासित करने से भी कोई गुरेज़ नहीं किया गया। बहना बनाया गया एक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश। ज्ञात हो कि देश-दुनिया के हर विश्वविद्यालय में किसी भी विभाग में आये दिन संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं और आयोजक अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता के लिए प्रयासरत रहते हैं। लेकिन, खबरदार विभूति के राज में किसी अकादमिक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश व सहभागिता पर निष्कासन भी हो सकता है, जैसा कि अनिल के साथ हुआ।
छात्राओं का पुरुष-छात्रावास में प्रवेश वर्जित है। पूछे जाने पर कुलपति कहते है कि लड़कियाँ टॉफी जैसी होती है,जिनका 'इस्तेमाल' लड़के करना चाहते हैं। इसलिए यह कदम एहतियातन उठाया गया। गौरतलब हो कि इस विश्वविद्यालय परिसर में न्यूनतम शिक्षा एम.ए. स्तर की है। याने इस विश्वविद्यालय के सभी छात्र-छात्राएं व्यस्क है। तो फिर इस तरह की नैतिक पुलिसिंग क्यों? क्या कुलपति राय के संप्रदायिकता विरोधी नक़ाब से निकल कर बजरंज दल का कार्यकर्ता झांकने लगा है?
मनमानियों की कड़ी में एक दिन विद्यार्थियों के हितैषी व लोकप्रिय शिक्षक प्रो अनिल चमड़िया की नियुक्ति विश्वविद्यालय प्रशासन ने ख़त्म कर दी। यह पुलिस अधिकारी राय में विश्वविद्यालय में आने के बाद सबसे बड़ा, लेकिन फर्जी, मुठभेड़ बनता दिखाई दे रहा है। कुलपति राय ने जब महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति का पदभार संभाला तब पहली बार की गयी नियमित नियुक्तियों के जरिए अनिल कुमार राय उर्फ़ अंकित और अनिल चमड़िया ने बतौर प्रोफ़ेसर जनसंचार विभाग में अध्यापन की जिम्मेवारी दी गयी। अनिल चमड़िया का बतौर अथिति शिक्षक विद्यार्थियों को मार्गदशन पिछले चार सालों में कई बार मिलता रहा है। चमड़िया देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के क्षेत्र में विशिष्ठ हैसियत रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) नयी दिल्ली में अध्यापन करते रहे थे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे देश के जाने-माने पत्रकार के साथ-साथ वर्धा, दिल्ली समेत देश के कई पत्रकारिता विभागों के विद्यार्थियों के सबसे प्रिय और सक्षम शिक्षक रहे हैं। प्रो. अंकित को एक दिन की सिनियारिटी के चलते विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया, सो वे प्रशासनिक कामों में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। जो भी हो छात्र-छात्राओं का प्रो. राय से अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले साबिका नहीं पड़ा। लेकिन, उनके कारण विभाग में बढ़ते अफ़सरशाही के चलते विद्यार्थियों में आक्रोश ज़रूर बढ़ रहा था। इसी बीच कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों, अख़बारों और पत्रिकाओं ने प्रो. अनिल कुमार राय अंकित द्वारा नक़ल कर पुस्तके छपवाने के मामले को सार्वजिनक कर दिया। प्रो. अंकित न तो पढाते थे और फिर इस तरह के पुख्ता सबूतों के साथ लगाए गए आरोप के कारण विद्यार्थिओं के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा बढ़ने लगी। इस दौरान विद्यार्थियों का मन किसी प्रकार के असुरक्षा से मोड़ कर अपनी पढ़ाई कोई ओर केंद्रित करवाने के लिए प्रो. चमड़िया ने दिन-रात एक कर दिया।
प्रो चमड़िया कहते हैं कि कुलपति शुरू से ही उनके हर प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया करते थे। चमड़िया चाहते थे कि देश भर की सारी पत्र-पत्रिकाएं विभाग में आयें, जिनसे पत्रकारिता के विद्यार्थियों की समझ व्यापक हो सके, जिसे कुलपति ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने विद्यार्थियों को गाँव-गाँव घूमकर रपट लिखने का आदेश दिया। कुलपति ने अपने मौखिक आश्वासन के बावज़ूद विश्वविद्यालय की ओर से इसके लिए कोई इंतेज़ामात नहीं होने दिये गए। एक प्रोफेसर को दिए जाने वाली न्यूनतम सुविधाओं से उन्हें महरूम रखा गया।
जनसंचार विभाग में पीएच.डी. प्रवेश की परीक्षा आयोजित की गयी। अभ्यर्थियों को लगा कि प्रवेश-परीक्षा में कुछ छोटाला है।इस बाबत शिक़ायत पत्र कुलपति को सौंपी गयी।माँग थी कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक सार्वजनिक किए जायें।पूरी प्रक्रिया में कई लोग शामिल थे।कई विश्वविद्यालय के शिक्षक थे तो प्रो. राममोहन पाठक जैसे कई बाहरवाले भी। कुलपति ने परीक्षाफल को निरस्त कर दिया और पुनः परीक्षा आयोजित की गयी, लेकिन जो काम आज तक नहीं हुआ वह कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक को सार्वजनिक किया जाना। जबकि सात महीने बीत चुके हैं। बाद में सारी धांधलियों का दोष प्रो. चमड़िया पर मढ़ा गया। कहा गया कि उन्होंने साक्षात्कार के अंकों के साथ छेड़-छाड़ किया है। अगर ऐसा है भी तो वे सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाने चाहिए थे। सिर्फ़ साक्षात्कार ही नहीं, उत्तर-पुस्तिकाओं के विश्वसनीयता को सबके सामने रखा जाये। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता। प्रो चमड़िया से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा अंक देते वक्त उनसे एक गलती हो गयी थी, गलत को सही करके उन्होंने अपने सुधार पर अपना हस्ताक्षर किया है। वे कहते हैं कि सुधार करना कोई अपराध नहीं हो सकता है। अगर विश्वविद्यालय इसे गलती मान ही रहा था तो फिर उसने परीक्षा परिणाम ही क्यों प्रकाशित किया।बाद में आयोजित परीक्षा में तो सचमुच योजनाबद्ध तरीके से उच्चाधिकारियों ने धांधली की।पूरी परीक्षा की प्रक्रिया एक व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी रही और परीक्षा परिणाम के वक्त पीएचडी के लिए निर्धारित सीटों की संख्या दस से तेरह कर दी गई।साक्षात्कार के पैनल में अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कोई पर्यवेक्षक नहीं था जोकि नियमत अनिवार्य है।
बहरहाल इससे अधिक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि केवल राष्ट्रपति द्वारा कार्य-परिषद के लिए नियुक्त सदस्यों को ही पूरी कार्य-परिषद करार देने के बाद उनकी आनन-फानन में बैठक बुलायी गई और अनिल चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ तथा उनके साथ किये गये बाकी ग्यारह नियुक्त्तियों को स्वीकृत करवाया गया। इस पर कुलपति ने कहा कि कार्य-परिषद के सभी सदस्य तुले हुए थे कि अनिल चमड़िया की नियुक्ति खारिज़ हो। सदस्यों ने कहा कि यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वे प्रोफ़ेसर के लिए निर्धारित योग्यता पूरी नहीं करते हैं। इस संदर्भ में कार्य-परिषद सदस्या मृणाल पाण्डेय ने बताया कि कुलपति राय ने पहले ही हमें आगाह कर दिया था कि न्यायालय में विश्वविद्यालय प्रशासन ने चमड़िया जी की नियुक्ति को बतौर गलती स्वीकार किया है कानूनी फजीहत से बचने के लिए चमड़िया जी की नियुक्ति खारिज़ की गई। एक और सदस्य प्रो कृष्ण कुमार से पता चला कि कुलपति विभूति जी अनिल चमड़िया की नियुक्ति को निरस्त करने के प्रस्ताव के साथ बैठक में आये थे। कृष्ण कुमार ने बातचीत में कई बार ज़ोर देते हुए कहा कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र लिख कर यह निर्देशित किया है कि जब तक कार्य-परिषद की बैठक के मिनट्स पर उनके संस्तुतियाँ नहीं जाती, प्रशासन कोई भी निर्णय लागू नहीं कर सकता है। और यह कि अब तक संस्तुतियाँ भेजी नहीं गयी हैं। लेकिन ज्ञात हो कि २७ जनवरी के शाम साढ़े सात बजे अनिल चमड़िया को २५ जनवरी को निर्गत उनकी नौकरी छीने जाने का पत्र आवास पर भेजा गया था। यानी कुलपति महोदय ने कार्य-परिषद के सदस्यों के बारे में दुष्प्रचार किया, उनके शैक्षणिक साख पर बट्टा लगाने की कोशिश की और उनकी आधिकारिक संस्तुतियों के बिना निर्णयों को लागू किया, जिनमें अंकित समेत ११ शिक्षकों नियुक्ति को पक्का करना और अनिल चमड़िया को बाहर का रास्ता दिखाना शामिल था। एक और गंभीर मामला भी ध्यान देने योग्य है। कुलपति जी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि अनिल चमड़िया प्रोफ़ेसर पद के लिए निर्धारित योग्यता नहीं रखते हैं। स्क्रूट्नी के वक्त कुलपति से यह गलती हुयी कि उन्हें साक्षात्कर के लिए बुलाया गया। जबकि, विश्वविद्यालय के वेबसाइट और रोज़गार समाचार में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा १९९८ में जारी शैक्षणिक पात्रता के न्यूनतम ज़रूरतों के दिशानिर्देशों के आधार पर कई पदों के लिए आवेदन मँगवाये गये। कालांतर में इन्हीं विज्ञापित पदों पर १२ शिक्षकों की नियुक्ति हुई। आज कुलपति अपनी गलती स्वीकार रहे हैं तो सारी नियुक्तियाँ खारिज होनी चाहिए।
वर्धा परिसर में विभूति की मनमानियों के प्रतिरोध का स्वर मुखर हो गया है। अनिल चमडिया के इस मामले से पूर्व लगभग एक महीने तक परिसर में दलित विद्यार्थियों का आंदोलन चला था। दलित विद्यार्थी अब भी प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का बहिष्कार कर रहे हैं। छात्र-छात्राएं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए अपना विरोध कर रहे हैं। ब्लॉग पर विद्यार्थी अनिल चमड़िया के समर्थन और कुलपति के विरोध में टिप्पणियाँ लिखने लगे हैं। नाटक खेले जाने लगे हैं। कविताएं लिखी जाने लगी है। २२ छात्र-छात्राओं ने लिखित तौर पर विभाग छोड़ने की बात कही हैं। प्रो. चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ करने का विरोध लगभग दो सौ विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में ८४ विद्यार्थियों ने अपने दस्तख़त के साथ किया है। यही नहीं, राजेंद्र यादव व अरूंधति राय सरीखे देश के कई बुद्धिजीवियों ने अपने हस्ताक्षर के साथ कुलपति राय के इस कदम की भर्त्सना की है। विश्वविद्यालय में राय का सिंहासन डोलने लगा है।
राय किस्से-कहानियाँ लिखते रहे हैं और प्रकाशक भी उन्हें छापते भी रहे। अब छापने की वज़ह इनके साहित्य की गुणवत्ता थी या प्रकाशकों को मिला सरकारी ख़रीद का आश्वासन, यह तहक़ीकात का विषय हो सकता है। इनका जनसंपर्क हमेशा से ही अचूक रहा, जिसके कारण लोगों के मन में इनकी छवि एक प्रगतिशील व्यक्ति की रही। लेकिन आज विश्वविद्यालय में जिस कार्य-संस्कृति और अकादमिक माहौल के ये जनक हैं, उसके मद्देनज़र विभूतिनारायण राय ने जो जीवन भर प्रशंसाएं अर्जित की हैं, उन पर शक होना स्वभाविक है।