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सोमवार, 14 सितंबर 2009

सरकार आरक्षण के आगे भी सोचे

- देवाशीष प्रसून

मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले की गुन्दिया बाई अहिरबार विक्रमपुरा गाँव की और प्रेमरानी प्रजापति चंदवारा गाँव की सरपंच हैं। अधेड़ उम्र की दोनों महिलाएं सरपंच होने के बावज़ूद अपने इलाके से चार सालों से निष्कासित हैं। जहाँ उनका अपना घर है और अपना समाज बसता है, उस गाँव में उनके परिवार का हुक्का-पानी बंद है। चैंकानेवाली बात है कि इस प्रतिबंधित इलाके की आम जनता ने अपने मताधिकार के बल पर इन महिलाओं को अपना सरपंच चुना था। जाहिर है, यह जानने की इच्छा होगी ही कि ऐसी कौन-सी मुसीबत आन पड़ी कि इन औरतों को अपने घर जाने से रोका जा रहा है। ऐसा करनेवाली कौन-सी शक्तियाँ हैं, जो भारत सरकार की न्याय व्यवस्था को ठेंगा दिखा रही हैं। मामले की जड़ में उनका औरत होना और खासकर दलित औरत होकर भी सरपंच बन बैठना है। जाहिर है, सामंती समाज के पैरोकारों को यह बात नागवार गुजरी होगी। ऐसे में खिसियायी बिल्लियों ने इन महिलाओं को अपने परिवार के साथ डरा-धमका कर गाँव से बाहर खदेड़ने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। कानून और व्यवस्था का ध्यान रखनेवाले सरकारी मुलाज़िम भी चुपचाप तमाशा देखते रहे। लोकतंत्र की हार और सामंतवाद की जीत का परचम यों लहराया है कि इन दोनों महिलाओं ने अगले चुनाव से अपने को अलग रखने का फैसला कर लिया है। क्या कारण है कि पिछले साढ़े छह दशकों से लोकतंत्र और सामाजिक समता का नारा लगाता हमारा देश अब भी समाज के उपेक्षित लोगों को न्याय दिलाने में विफल रहा है? जैसे कोई ताश का खेल चल रहा है और सामाजिक न्याय का नाम लेने पर हमारी सरकारों के पास आरक्षण के पत्तों के अलावा और कोई चाल नहीं बची हो। दरअसल सामाजिक विषमता के कारणों और इसके निवारण के प्रति सरकारें गंभीर नहीं हैं। पिछली पीढ़ी से हासिल आरक्षण के एक फार्मूले की बदौलत ही सरकार मानती है कि एक न एक दिन समाज में समरसता और न्याय की स्थिति पैदा हो जायेगी। मगर अफसोस, अगर ऐसा होना होता तो देश में अब तक दलितों और आदिवासियों पर इतना अत्याचार बदस्तूर जारी नहीं रहता, महिलाओं की गरिमा यों असुरक्षित न रहती और कम से कम सरपंच बन जाने के बाद तो दलित महिलाओं को सामंती गुंडों का शिकार न होना पड़ता।
हाल में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने पंचायती चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या तैंतीस फीसदी सेे बढ़ा कर पचास फीसदी कर दी। कुछ अख़बार कहने लगे कि अब तो आधी पंचायत ही महिलाओं की हो गई। उनकी मानंे तो महिलाओं का स्वर अब और बुलंद होगा। मध्य प्रदेश में पंचायती चुनावों में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत सीटें पहले से ही आरक्षित हैं और वहाँ के दो गाँवों का उदाहरण हम देख चुके हैं। आशय यह है कि महज इन सीटों के बढ़ने से महिलाओं की स्थिति को कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है। यह नजारा आम है कि पंचायत और निगम स्तर पर आरक्षण के आधार पर जनप्रतिनिधि चुनी महिलाएं अपने पति के हाथों की कठपुतलियाँ बन कर रह जाती हैं। खुलेआम ऐसे जनप्रतिनिधियों के पतियों को अपनी पत्नियों के बदले सरकारी कामकाज में जुटे देखा जाता हैं।
दिसम्बर, 1990 में सरकार को सौंपे गये मंडल आयोग के प्रतिवेदन में आरक्षण के साथ-साथ और कई सिफ़ारिशें थीं। आयोग के मुताबिक़ आरक्षण और आर्थिक सहयोग के अलावा दमितों के हक़ में उचित माहौल बनाना ज्यादा ज़रूरी काम था। पर आरक्षण के बावजूद समाज में बढ़ती खाई को कुछ सरकारी आँकड़ों के मार्फ़त समझा जा सकता है। वर्ष, 2006 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार उन्मूलन) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत देश के न्यायालयों में कुल 103758 मामले दलितों और 20368 मामले आदिवासियों पर हुए अत्याचारों के दर्ज थे। 992 दलितों ने और 312 आदिवासियों ने अपनी शिकायतें वापस ले लीं। सिर्फ़ 5575 लोगों को दलितों पर और 1207 लोगों को आदिवासियों पर अत्याचार करने का दोषी पाया गया। गौरतलब है कि 14360 दलितों और 3038 आदिवासियों के आरोप को न्यायालय ने बेबुनियाद बताया और आरोपितों को मुक्त कर दिया गया। इन आँकड़ों ने इस बात को स्थापित किया है कि आरक्षण, कानूनों और आर्थिक सहयोग के बरअक्स दमितों के उत्थान के लिए एक लोकतांत्रिक चेतना के विकास के बिना सारे उपाय अधूरे हैं।
दरअसल यह मामला सत्ता संबंध का है। यह देखना होगा कि कोई शक्ति अपनी सत्ता किस तरह से कायम रखती है। सत्ता संबंध को स्थापित करने का सबसे ज़ोरदार तरीका सांस्कृतिक तौर अपना वर्चस्व स्थापित करने में निहित है। इसके अन्तर्गत सांस्कृतिक तौर पर किसी खास हित समूह को इतना कमज़ोर किया जाता है कि उनमें विरोध या प्रतिरोध के स्वर ही कमज़ोर पड़ जाते हैं। फिर उन्हें जैसे हाँको, वे वैसा ही करेंगे। चाहे उन्हें सरपंच बनाओ या मुख्यमंत्री। कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक उनकी स्वतंत्र चेतना का विकास नहीं होता, तब तक आरक्षण जैसे सामाजिक न्याय के उपाय नाकाफी रहेंगे। कहने का मतलब यह है कि समाज और तंत्र के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में आरक्षण एक जरूरी उपकरण है, कोई आखिरी उपाय नहीं। परंतु, सरकारों ने अपने व्यवहारों से दिखाया है कि आरक्षण ही इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय है। दरअसल इस दृष्टि के साथ नीतियाँ बनाना सामाजिक विसंगतियों से उबरने के पर्याप्त साधन नहीं दे सकते हैं। इन विसंगतियों से पूर्णतः मुक्ति पाने के सबसे महत्वपूर्ण रास्ते को सांस्कृतिक क्रांति के रूप मे देखा जा सकता है। इसमें सारे सत्ता संबंध लोकतांत्रिक बनाने के लिए उचित माहौल के निर्माण में शिक्षा, कला और राजनीति को पूरे जोर से कार्यरत होना होगा।