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शनिवार, 20 अगस्त 2011

क्या है भारतीय होने का मतलब

- देवाशीष प्रसून

कौन है भारतीय और क्या है भारतीय होने का मतलबसवाल अहम है और जवाब परेशान करने वाला। दो घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगा। पहली तब की है, जब मैं आठवीं कक्षा में था। एक शिक्षक थे। वह बार-बार विद्यार्थियों को असल भारतीय होने की दुहाई देते थे। कहते थे अगर तुम असल भारतीय हो तो तुम्हें कर्मठ, ईमानदार, नेक और सच्चा होना चाहिए। गो कि जो कामचोर, बेईमान, बुरा और झूठा है, वह भारत का नागरिक तो हो सकता है, पर उसे असल भारतीय नहीं कहा जा सकता। बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह सोच एक राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा थी, लेकिन असल भारतीय होने का क्या मतलब है, यह गुत्थी अब तक अनसुलझी है। दूसरी घटना पिछले महीने की है, मैं एक मित्र से बात कर रहा था। बातों-बातों में भारतीयता को परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी। मोटे तौर पर जो बात सामने आई वह यह थी कि जो भारत में रहता है, वह भारतीय है। यही कारण है कि भारतीय होने का डोमेन या फलक बड़ा है, जिसमें संस्कृतियों का वैविध्य शामिल है, भाषाओं की बहुलता का भी समावेश है और जहां एक नहीं; धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर कई पहचान हैं।

जाहिर-सी बात है, जहाँ हम रहते हैं, वह जगह धीरे-धीरे हमारी पहचान का हिस्सा भी बन जाती हैं। इलाहाबाद की कोई लड़की लखनऊ चली जाती है, तो भले उसका कोई अच्छा और प्यारा-सा नाम हो, लेकिन उसे जानने-पहचाने वालों की नजरों में उस लड़की का एक बड़ा परिचय यह भी रहता है कि फलां लड़की इलाहाबाद की है। कई बार आप जाहिर न करे कि आप मन में किसी की छवि कैसे बनाते हैं, पर अवचेतन में उस व्यक्ति का इलाका उसकी पहचान का एक घटक जरूर होता है। कुछ समय पहले तक कुछ इलाकों में बहुओं को उसके शहर, जवार आदि के नाम से ही बुलाया जाता रहा है और आज भी कई जगहों पर परंपरा बरकरार है। यही कारण था कि ब्याह के बाद मिथिला से अवध आई सीता को मैथिली कहने वाले लोगों की कमी नहीं है। ऐसा सिर्फ औरतों के साथ ही नहीं होता, पुरुषों के लिए भी उसका इलाका उसकी पहचान का बड़ा आधार बनता है। आपने दाग देहलवी, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़ लखनवी, साहिर लुधियानवी जैसे कई अज़ीम शायरों के नाम के साथ उस शहर का तखल्लुस लगाते सुना होगा, जहां के वो हैं।
दरअसल, आप जहां रहते है, वहां की एक खास रहन-सहन का आप हिस्सा होते हैं। आप अपने इलाके में रचे-बसे खास तरह के संस्कारों को आत्मसात करते हैं। खास तरह की भाषा बोलते हैं और बातचीत का लहजा भी खास होता है। आपकी मान्यताओं में भी आपके क्षेत्र की झलक दिख सकती है। कहना यह है कि वह ठौर जहां से आप आते हैं, जहां आपका पालन-पोषण हुआ और आपकी मुकम्मल शख्सियत तैयार हुई, वहां की छाप जाने-अनजाने में आपकी पहचान का हिस्सा बन जाती हैं। पहचान का मतलब है, वो खास बात जो किसी एक को दूसरे से अलग बताती हो। भारतीयता अगर एक पहचान है तो भारतीयों में ऐसी क्या खास बात है, जो उसे दूसरों से अलग करती है?

फिर, सवाल घूम-फिर कर वही है कि भारतीय होने का क्या मतलब है भारत लाखों वर्ग मील में फैला वो भूखंड है, पर यहां एक तरह के लोग नहीं रहते। कुछ लोग आर्य नस्ल से ताल्लुक रखने का दावा करते हैं तो कुछ द्रविड। इनके अलावा आदिवासियों की भी अच्छी संख्या है। असलियत तो यह भी है कि सदियों से साथ रहते कई नस्लों आपस में इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचाना भी नहीं जा सकता। उत्तर में हिमालय में रहने वालों की अलग संस्कृति है तो सिंधु और गंगा के मैदानी इलाकों में कई तरह के लोग रहते हैं। दक्षिण भारत में अलग रहन-सहन है और पूर्वी व उत्तर पूर्वी भारत की अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें। भाषाओं की बात करें तो 29 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें बोलने वाले दस लाख से अधिक भारतीय हैं। 60 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें कम से कम लाख लोग तो बोलते ही हैं। यही नहीं, इनसे इतर 122 वो भाषाएं जिसे बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हजार है। यानी भाषा के आधार पर भारतीयता की कोई एक पहचान नहीं बनती है। ज्यादातर हिंदू मान्यताओं को मानने वाले भारतीयों की बड़ी के बावजूद हिंदू होना भी भारतीय होना नहीं है, क्योंकि मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध व जनजातीय मान्यताओं में आस्था रखने वाले भी भारतीय हैं। इनके अलावा लाखों नास्तिक लोगों से भी भारतीय होने की पहचान जुड़ी है।

तो फिर हमें उन मूल्यों व गुणों को तलाशना होगा जो कमोबेश सभी भारतीय में विद्यमान है। चरित्र का ऐसा गढ़न जो राष्ट्रीय नीतियों, बाज़ार और संस्कृति में होते फेरबदल के साथ लगभग सभी लोगों में आया हो। एक खास सामाजिक मूल्य की खोज, जिसका होना किसी के भारतीय होने को परिभाषित कर सके। भारत को अगर हम तीन अलग कालखंडों में बांटकर देखें तो बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आती है कि भारतीयता का विकास कैसे हुआ है।

अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भारत कई छोटी-छोटी हुकुमतों में बंटा था और सबकी अपनी-अपनी पहचान थी। क्षेत्र, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर इन छोटी हुकुमतों और इनमें रहने वाले लोगों को पहचाना जाता रहा होगा। उस समय भारत का आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में विकास नहीं हुआ था। फिर भी, एक खास बात थी जो उस वक्त के लोगों का एक पहचान निर्मित करती थी, वो था समाज का तानाबाना। समाज में उपस्थित सत्ता संबंध और परंपराएं। लेनदेन के पारंपरिक तरीके और विवाह संस्था। समाज की ये सारी चीजें राजा और उसकी शासन व्यवस्था के मुकाबिले अधिक स्थिर थी। सुनील खिलनानी द आइडिया ऑव इंडिया नामक किताब में लिखते हैं कि भारत में औपनिवेशिक सत्ता के जड़ जमाने से पहले राज्य की अवधारणा नहीं थी, उपमहाद्वीप में नाना प्रकार की संस्कृतियां और अर्थ-व्यवस्थाएं उपलब्ध थीं। भारतीय समाज व्यवस्था ने एक ऐसा ढांचा विकसित कर लिया था, जिसके लिए पूरे भारत में एक राज-सत्ता का बनना कोई मायने नहीं रखता था। खिलनानी का मानना है कि ऐसी स्थिति समाज में पैवस्त जातियों के मजबूत जड़ों के कारण थी। कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों के शासन से ठीक पहले भारतीय होने का मतलब यहां के बाशिंदे होने के साथ धर्म व जाति में अगाध श्रद्धा का होना और परंपराओं से अपना जीवन संचालित करना भर था।

अंग्रेजों ने जब भारत में अपना पैर जमाया तो सबसे बड़ा काम यह किया कि भारत को राष्ट्र के रूप में विकसित किया। पहली बार यहां के लोगों का सामना सदियों से सर्वशक्तिमान रहे जातीय समाज व्यवस्था से अधिक मजबूत राज्य सत्ता से हुआ। अंग्रेजों ने एक पूरे तंत्र का निर्माण किया, जिसमें न्यायालय, पुलिस व्यवस्था, स्कूल-कॉलेज, प्रशासनिक ढ़ांचा और समेकित अर्थव्यवस्था शामिल थी। इसने धर्म और जाति से इतर भी यहां लोगों की पहचान गढ़ने का काम किया। व्यवस्था जब पश्चिमी समाज से आयातित थी तो इसमें कौन शक कि नई भारतीयता पर पश्चिमी समाज का छाप न हो, लेकिन इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था। आधुनिकीकरण का एक दौर चला और कुछ लोगों को यूरोपीय ज्ञान को पढ़ने-समझने का मौका मिला। लोकतांत्रिक व समतामूलक समाज के सपने देखे जाने लगे और लोगों की अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी। भारत में जातीयता की शिकंजे कुछ कमजोर हुए, जिनसे देश में गिने-चुने लोगों की ही भले एक नए भारतीयता ने जन्म लिया। कमोबेश यही भारतीयता अब तक कायम है, अंतर बस इतना है कि धीरे-धीरे जातीय बंधनों के तार ढीले होते जा रहे हैं, समाज रूढ़ियों को नकारने लगा है। आज बतौर भारतीय अदिक विवेकी और संवेदनशील हो रहे हैं, लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि समाज अब अमेरीकी संस्कृति के अंधानुकरण में फंसता जा रहा है। बड़े पैमाने पर आज भी भारतीय मानस अंग्रेजों द्वारा बोई गुलाम संस्कृति से मुक्त नहीं हो पाया है। निष्कर्षतभारतीय होने का मतलब सामंती और जातीवादी मूल्यों से मुक्त होने की प्रक्रिया में लगा, एक विकासशील समाज का हिस्सा है। पुरातनपंथी बंधन अभी टूटे नहीं है, लेकिन कमजोर तो हुए हैं। उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते हुए भी आज का भारतीय अपने से इतर संस्कृति की नक़ल करने के भाव से उबर नहीं पाया है।

बहरहाल, पहचान निर्मिति के समाजशास्त्र को दूसरे तरीके भी समझा जा सकता है। इसे 'स्व' और 'अन्य' में बांटकर भी समझा जा सकता है। 'स्व' का मतलब मैं और मेरे अलावा बाकी सब 'अन्य'। भारतीय होने का मतलब है कि वह अंग्रेज या अमेरीकी या रूसी नहीं है। याने भारतीय 'स्व' में वे सारे गुण होंगे, जो उसे दूसरे देशों के लिए 'अन्य' बनाएंगे। इसमें काबिल-ए-गौर है कि भारत के संदर्भ में बाकी 'अन्य' में से एक ऐसा एक 'अन्य' होता है, जिससे या तो वह प्रेरणा ग्रहण करता है या बैर निभाता है। दोनों ही स्थितियों में 'स्व' याने भारतीयता का चरित्र प्रभावित होता है। अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय 'स्व' का 'अन्य' कोई नहीं था। भले ही बाहरी दुनिया के साथ कारोबार होते रहे हो, वृहतर समाज पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कटा था। ऐसे में भारतीयों का 'अन्य' परलोक या ईश्वर से संबंधित था, तभी तो धर्म और जातियां इतनी हावी थी। अंग्रेजों के समय 'अन्य' अंग्रेज बने। फलतअंग्रेजी सभ्यता का भारतीयता पर गजब का प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के जाने के बाद याने भारत के स्वाधीन होने के बाद भारत के 'स्व' में कई 'अन्य' आए और उनका प्रभाव भारतीयता पर स्पष्ट दिखता है। मसलन, शुरूआती दौर में भारतीयता ने रूस से प्रेरणा ग्रहण की, तो इसका अमेरीका विरोधी चरित्र उभरा। फिर एक समय आया जब भारत पाकिस्तान से दुश्मनी निभा रहा था, उस वक्त के भारतीय अपनी तुलना पाकिस्तान से करते हैं। उदारीकरण के बाद भारत का प्रेरक 'अन्य' अमेरीका बना, इसलिए भारतीय  'स्व' में अमेरीका के प्रति सद्भाव झलकता है।

'स्व' और 'अन्य' के आधार पर परिभाषित भारतीयता भी उसी ओर इशारा करती है, जहां हम पहले निष्कर्ष पर पहुंचे थे। लेकिन संपूर्णता में अगर कहे तो कई पिछड़ी संस्कृतियों के अवशेषों के बावजूद कुछ तो है, जो भारतीय होने को सम्मान का विषय बनाती है। यह वही बात है जो आठवीं कक्षा में मेरे शिक्षक सिखाया करते थे। मैं इसे यों कहूंगा कि भारतीय होने में जितनी भी खामी है, वह एक तरह का भटकाव है और हमेशा ही सकारात्मक धारा मौजूद रही है, जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और समतामूलक भारतीयता के निर्माण के लिए प्रयासरत रही है। उसी धारा के बदौलत कई भारतीय मिल जाएंगे जो मानवीय जीवन का आदर्श स्थापित कर रहे हैं।

अहा! ज़िंदगी (अगस्त 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। 
इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें- 
अहा! ज़िंदगी, 
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग, 
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान...

- देवाशीष प्रसून

अगर कोई आपसे पूछे कि क्या भारत की लड़कियाँ बदल रही हैं, तो आप क्या ज़वाब देंगे? हो सकता है कि ज्यादातर लोग यह कहें कि यक़ीनन भारत की लड़कियाँ बदल रही है। वह वैसी तो बिल्कुल नहीं रही हैं, जैसी कि एक हिंदुस्तानी लड़की के बारे में आम धारणा रही है। हिंदुस्तानी लड़की के बारे में आम धारणा यही बनी हुई है कि वे स्वभाव से शर्मिली होती हैं, समझ से भोली-भाली और संस्कार से ऐसी कि घर-परिवार और समाज की इंच-इंच इज़्ज़त-आबरू का सारा दारोमदार उन्हीं के बदौलत बचा रहता है। क्या कहिए? बिल्कुल गाय है गाय, मेरी बेटी! पिछले पीढ़ी के माता-पिता अपनी बेटी की प्रशंसा इन्हीं रूपकों में करते थे और ऐसा करके गर्व से फूले नहीं समाते थे। बहरहाल आज बदलाव यह है कि अब के माताओं और पिताओं को अपने बेटी के बारे में इन रूपकों का इस्तेमाल करने का मौका कम ही मिलता है। आज की लड़कियों के लिए उनकी ज़िंदगी की बेहतरी और तरक्की से जुड़े संभवनाओं के फलक में बहुत विस्तार हुआ है। उन्होंने घर के चाहरदीवारों से बाहर की दुनिया में भी अपनी मौज़ूदगी को बड़ी मुखरता के साथ दर्ज किया है। साथ ही, समाज का एक बड़ा तबका ऐसा उभरा है, जिसके लिए लड़कियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली तथाकथित प्रशंसाओं की पुरानी शब्दावलियों का निहितार्थ अब अपमानजनक या नहीं तो कम से कम मज़ाक के मायने तक तो सिमट ही चुका है। आज लड़कियों को मुकम्मल इंसान का दर्जा दिया जाता है और कोई बेवकूफ़ ही उनकी तुलना गाय वगैरह से करेगा। महानगरों और शहरी समाज में वे दिन अब लद चुके हैं जब लड़कियों की इच्छा और पसंद-नापसंद की समाज में कोई अहमियत नहीं थी।

ज़माना बदल चुका है। नैतिकताएँ बदली हैं। दरअसल नैतिकताओं का कोई कालजयी स्वरूप कभी रहता भी नहीं है। नैतिकताओं का अपना देशकाल होता है और समय-समय पर इनके पैमाने बदलते रहते हैं। लड़कियों का बदलने का मामला बहुत हद तक समाज की बदलती नैतिकताओं से भी जुड़ा हुआ है। नैतिकताओं का रिश्ता मानवीय मूल्यों से जुड़ा होता है और मानवीय मूल्य हमेशा मौज़ूदा राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक ढ़ाँचे में ही बनते और बिगड़ते रहते हैं। कल के मुकाबिले आज मानवीय मूल्यों में ज़मीन-आसमान का अंतर आया है। क्योंकि, समाज का पोर-पोर बदल रहा है। मगर, गौरतलब यह भी है कि भारत में कोई एक समाज तो विद्यमान है नहीं। इस कारण बदलते समाज का मतलब देश में हर तबके, हर क्षेत्र, हर जाति और कुल मिलाकर देश में जी रहे, मर रहे तमाम तरह के समाजों के लिए अलग-अलग है। इससे जाहिर है कि बदलाव के इस दौर में लड़कियों का बदलना भी छोटे-बड़े हर समाज की लड़कियों के लिए अलग-अलग ही होगा। बदलती हुई लड़कियों के बारे सबसे स्पष्ट बदलाव मध्यम वर्ग की लड़कियों में देखे जा सकते हैं, जिनके तक संचार और सूचना के अत्याधुनिक माध्यमों की पहुँच बहुत सुलभ है। समाज में हो रहे वैचारिक व सांस्कृतिक उलटफेर की प्रक्रिया में इंटरनेट, एफ़.एम. रेडियो और टेलीविज़न के कार्यक्रमों ने लड़के-लड़कियों की सोचने-समझने की प्रक्रिया खासा प्रभावित किया है। मोबाईल, इंटरनेट और ब्लॉग के बढ़ते चलन ने लोगों को अपने आसपास के प्रत्यक्ष समाज के काट कर एक छद्म मायावी समाज तक ही सीमित कर दिया है।

फिलहाल, इस क्रम में आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना ज़रूरी होगा कि लड़कियाँ ही सिर्फ़ नहीं बदल रही, पूरा समाज बदला है तो लड़के भी पहले जैसे नहीं रहे पर हम मुख्य विषय पर लौटते हैं और वह है देश में लड़कियों का बदलना। हमें यह स्वीकारना होगा कि आज भी देश में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा का स्तर बहुत अधिक ऊँचा नहीं है। मगर फिर भी पहले के बरअक्स महिलाओं के बीच साक्षरता बढ़ी है। देश में सन ’५१ तक ८.८६ फीसदी महिलाएँ ही पढ़ी-लिखी थी पर पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या सन ’६१ में बढ़ कर १५.३३ फीसदी हुई। यह संख्या सन ’७१ तक और बढ़ते हुए २१.९७ फीसदी और सन ’८१ में हुए जनगणना के मुताबिक २८.४७ फीसदी तक पहुँच गयी थी। भारत की बदलती लड़कियों के बीच सकारात्मक बदलाव यह आया है कि २००१ में संपन्न हुए जनगणना के मुताबिक देश की ४९६,४५३,५५६ महिलाओं की आबादी में से तक़रीबन २८,०२८,२०५ लड़कियाँ ही भले दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर सकी हो, लेकिन उनके बीच का ५३.७ फीसदी हिस्सा आज लिखने-पढ़ने के क़ाबिल बन गया है। क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि देश की ७२.९ फीसदी से अधिक शहरी महिलाओं के पास आज लिखने-पढ़ने का हुनर है और देश भर में २८७ ऐसे जिले हैं, जिनकी पचास से पचहत्तर फीसदी महिलाएँ लिखने और पढ़ने में सक्षम हैं। हालाँकि साक्षरता शिक्षा का पैमाना नहीं होता है, फिर भी शिक्षित होने के लिए वांछित आवश्यकता तो है ही। देखने वाली बात है कि २००१ तक देश के कुल स्नातकों में एक-तिहाई महिलाएँ थी और संभवतः आज स्थिति आज और बेहतर ही हुई होगी। शैक्षणिक क्षेत्र में प्रगति के पथ पर सतत बढ़ने वाली लड़कियों के लिए बदलाव का परावर्तन अन्य दूसरे क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है। २००१ के आँकड़े बताते हैं कि देश में ४०२२३४७२४ लोगों की कुल काम करने वाली आबादी में से १२७२२०२४८ उन महिलाओं की संख्या है, जो खुद और अपने आश्रितों के लिए सिर्फ़ रोटियाँ बनाती और परोसती ही नहीं हैं, बल्कि रोटियाँ कमाती भी थी। कोई शक करने वाली बात नहीं है कि अब तक इस संख्या में और इज़ाफ़ा ही हुआ होगा। आप रोजगार के तमाम क्षेत्रों में अपना परचम लहराती लड़कियों को देख सकते हैं। आलम यह है कि खेती-किसानी, मज़दूरी और तथाकथित श्रम के अकुशल क्षेत्रों में खून-पसीना बहाने के अलावा चिकित्सा, अध्यापन, इंजीनियरिंग, मीडिया, प्रबंधन, अनुसंधान, खेलकूद, राजनीति, क़ानून, विज्ञान, खगोलशास्त्र, मार्केटिंग, बैंकिंग, पर्यटन, सिनेमा और प्रशासनिक सेवाओं जैसे अतिदक्षता वाले क्षेत्रों में भी लड़कियों को अपनी मज़बूत मौज़ूदगी दर्ज करते देखा जा सकते हैं। उनके जीवन में घर-परिवार के लिए कुछ करने के साथ-साथ अपने करिअर में भी ऊँचे मुकाम पर पहुँचाने का माद्दा बहुत साफ-साफ दिखता है। आज की बदलती लड़कियों के जीवन में दौलत और शोहरत के लिए कुछ भी कर-गुज़रने की ललक देखी जा सकती है। लड़कियों के इस बदलाव ने यह साबित किया है, वे किसी भी मामले में लड़कों से कमतर नहीं हैं। वो लगातार उस रूढ़िगत मानसिकता को चुनौती दे रही हैं कि जिसके शिकार लोगों का मानना होता है कि लड़कियाँ बस घर की शोभा बन कर रहें, तो अच्छा, नहीं तो अगर वह घर से बाहर निकली तो परिवार और समाज का अमंगल ही करती हैं।

लड़कियों के बदलने का यह सिलसिला सिर्फ़ शिक्षा और रोज़गार से ही नहीं जुड़ा हुआ है। ये मुसलसल आगे भी बढ़ता है और सामाजिक ताने-बाने में लड़कियों की मौज़ूदगी को फिर से परिभाषित करता है। देश में अब तक हुए जनगणनाओं पर नज़र डालें तो पता चलता है कि जहाँ सन ’३१ तक ज्यादातर लड़कियों की शादी बारह-तेरह साल में हो जाया करती थी, वही नब्बे के दशक के आते आते यह बदलाव हमें देखने को मिलता है कि लड़कियाँ औसतन उन्नीस साल के बाद ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने लगीं थी। २००१ की जनगणना के मुताबिक देश में प्रति दस हज़ार विवाहिताओं में केवल उनसठ लड़कियाँ ही चौदह साल की उम्र पूरी होने से पहले विवाह के बंधन में बंधती थी। यही नहीं, कुल विवाहित महिलाओं की आबादी में से सिर्फ़ पाँच फीसदी ऐसी लड़कियाँ थी जो उन्नीस साल से कम उम्र में शादी कर लेती थी, बाकी पनचानवे फीसदी लड़कियों को शादी जैसे परिपक्व रिश्ते को बनाने में और वक्त लगता था। यह नौ साल पहले की तस्वीर है, आज और बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है।

औरतों के लिए शादी का मतलब जाति और वर्ग को बनाए रखने साथ-साथ अपने शरीर और श्रम को पुरूषवादी सत्ता-तंत्र के नियंत्रण में सौंपने भर होता है। शादी का यह मामला लड़कियों के लिए सीधे-सीधे उनके माँ बनने की क्षमता से जुड़ा रहता है। पारंपरिक तौर पर स्त्री-पुरूष के बीच प्रेम-संबंध के हर तरह के मामलों को वर्जनाओं में गिना जाते रहा है और समाज लड़कियों के लिए अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने को घोर-अनैतिक मानते रहा है। अंतर्जातीय विवाहों से जातियों के बीच का आपसी गिरह खुलने लगती हैं और खासकर लड़कियों के कुल, उसकी मर्यादा, परिजनों की इज़्ज़त और समाज के मान-सम्मान पर गहरा वार होने का एक भयावह छद्म उभर कर सामने आता है। दरअसल मामला यह है कि लड़कियों को अपने परिवार, जाति और समुदाय की इज़्ज़त का प्रतीक माना जाता रहा है। औरतों का यह फर्ज़ तय किया गया है कि वह समाज द्वारा गढे गये नियमों का पालन करते हुये अपने से जुड़े लोगों के इज़्ज़त की रक्षा करे पर ये इज़्ज़त, कुछ और नहीं, केवल औरतों के यौनिकता पर मर्दवादी शिकंजा है। लेकिन, अध्ययन बताते हैं कि अंतर्जातीय विवाह पितृसत्ता की गुलामी से स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए एक संभावित मार्ग है, क्योंकि ऐसे मामलों में फैसला करने का अधिकार लड़कियों के पास होता है। विवाह से जुड़े तमाम दकियानूसी मान्यताओं को बरकरार रखने के लिए पहले परंपराओं का सहारा लिया जाता है और फिर अंत में हिंसा का। हिंसा के इस प्रक्रिया की शुरूआत मौन असहयोग से शुरू होकर क्रूरतम हत्या तक पहुँच सकती है। लड़की अगर अपना जीवनसाथी स्वयं चुनती है तो इसका मतलब यह निकाला जाता है कि वह अपनी यौनिकता और यौन-साथी चुनने में अपने विवेक और पसंद की प्रमुखता का दावा कर रही है। यह लड़की की ओर से इस बात के संकेत हैं कि वह अपनी मेहनत करने की और संतानोत्पति की क्षमता का भी निर्णय अब स्वयं ही करेगी। ऐसी हर कोशिश पितृसत्ता के नज़र में लड़कियों द्वारा किया गया बगावत हैं, जिससे तिलमिलाया समाज किसी भी तरह की हिंसा के मार्फ़त भी हर हालत को हालात वापस अपने क़ाबू में कर लेना चाहता है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि आज की लड़कियों ने लंबी लड़ाइयों के बाद इस मर्दवादी समाज से बहुत हद तक अपनी आज़ादी को हासिल किया है। शहरों और महानगरों में उच्च व मध्य वर्ग की लड़कियों का एक बुलंद तबका है जिसके लिए बहुत हो-हल्ला होने और खाप पंचायतों की बढ़ती चौकसी के बाद भी आज प्रेम करना और अपना मनमाफ़िक जीवनसाथी चुनना, चाहे वह अपने से इतर जाति ही का क्यों न हो, एक आम बात हो गई है। आज की बदलती हुई लड़कियों के लिए शादी का मतलब पुरूष साथी के प्रति समर्पण नहीं, बल्कि पूरे जीवन जीने में भागीदारी का एहसास करना है।

एक बात और जिससे लड़कियों में रहे बदलाव कि चिह्नित किया जा सकता है और वह है उनका माँ बनना। इस मामले में कुछ आँकड़ों से बदलाव के हालात को बेहतर समझा जा सकता है। वर्ष ७१-७२ की बात है, जब भारत में एक औरत जीवन भर में औसतन ५.३५ बार माँ बनती थी। सन २००६ आते आते यह स्थिति इस तरह से बदली कि एक औरत को जीवन भर में औसतन २.८० बार ही प्रसव पीड़ा झेलना पड़ता था। इन आँकड़ों से यह समझ में आता है कि लड़कियों के जीवन में गुणात्मक बदलाव आया है और पहले की तरह अब उन्हें बच्चे जनने की मशीन नहीं समझा जाता है। प्रजनन के मामले में बदलती प्रवृति के पीछे सबसे बड़ा कारण बढ़ती जागरूकता के साथ साथ गर्भ-निरोध के विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल करना है। सन ’८८ तक पंद्रह से चौवालिस साल की ४४.९ प्रतिशत औरतें किसी न किसी तरह की गर्भ-निरोधक तकनीक का इस्तेमाल करती थी पर यह प्रतिशतता साल २००५-०६ तक बढ़कर ५६.३ हो गयी। याने शिक्षा और रोजगार के अलावा लड़कियों के जीवन आया बड़ा बदलाव वैवाहिक रिश्तों में आई परिपक्वता और यौन-संबंधों में समझदारी का बढ़ना भी शामिल है।

कुल मिला कर यह तो बिल्कुल साफ़ है कि भारत की लड़कियाँ बदल गई हैं और यह बदलने का सिलसिला अभी खत्म होने वाला नहीं दीखता हैं। पर, बदलती हुई इन लड़कियों के बारे में एक बात विचार करने का गंभीर विषय यह है कि पुरुष प्रधान समाज की ये लड़कियाँ क्या अब भी अपने मनोगत गुलामी से मुक्त हो पाई हैं?

पिछले ज़माने की बात है कि लड़कियों का पूरा का पूरा सौंदर्यबोध उनके शर्म-ओ-हया के साथ जुड़ा हुआ था। गोटेदार चुन्नी-लहंगा, सलवार-कमीज़ और रंग-बिरंगी साड़ियों को पहन कर वह इतराती फिरती थी। आज तरक्की यह हुई है कि इन पारंपरिक वस्त्र विन्यास से जुड़े हुए दुपट्टों, नक़ाबों और घूँघट जैसे दमघोंटू फैशन को नकार कर आज की बदलती लड़कियाँ बेहतर आरामदेह लिबास को पहनना पसंद करने लगी हैं। लेकिन दूसरी ओर, अंधाधूंध बाज़ारू फैशन ने भी लड़कियों के फैशन में बहुत बदलाव लाए हैं। ’मेरा शरीर, मेरी ज़िंदगी’ के सिद्धांत पर जो सरमायापरस्त फ़ैशन का चलन बढ़ा है उसमें पहरावे इतने तंग होने लगे हैं कि लड़कियों को यह एहसास तक भी नहीं होता कि उनका शरीर कितने कष्ट सहके आधुनिक बाज़ार द्वारा बनाए सौंदर्यभ्रम को झेल रहा है। बाज़ार के साज़िशों में गिरफ़्त आज की बदलती हुई लड़कियाँ खुद को पिछले ज़माने के श्रृंगार और आभूषण आदि अलंकरणों से मुक्त नहीं कर पाई हैं। जुल्म यह है कि बाज़ार इन भड़काऊ लिबास, श्रृंगार के साधनों और ज़ेवरों के जरिए लड़कियों को बेहतर इंसान बनने के बदले उपभोग की वस्तु के रूप में ढालने की मनोवैज्ञानिक जुगत में लगा रहता है।

आज के ज़माने की बदली हुई लड़कियों को भी आप पिछले दशक की लड़कियों के ही तरह टेलिविज़न चाइनलों पर आने वाली रोने-धोने, सौतन के झगड़ों और साज़िशों से भरपूर तमाम कुंठित विचारों से लबरेज़ धारावाहिक तमाशों से चिपका पा सकते हैं। लड़कियों के अवचेतन को मर्दवादी गुलामी में फँसाये रखने में फैशन के साथ-साथ टेलीविज़न के प्रतिगामी कार्यक्रमों की भी बड़ी भूमिका है। गो कि तमाम धारावाहिकों के कतार में बतौर बानगी कलर्स टेलीविज़न चाइनल के धारावाहिक कार्यक्रम ’बालिका वधू’ को ही लें, जिसे हर उम्र की महिलाएँ बड़े चाव से देखती हैं। इस कहानी का केंद्रीय किरदार एक बालिका है, जिसकी शादी कर दी गई है। कम उम्र की बच्ची होने के बावज़ूद भी यह वधू कई लड़कियों का आदर्श चरित्र बन कर उभरती है। इसी तरह से स्टार प्लस पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक कार्यक्रम ’तेरे लिए’ को आज की लड़कियाँ बहुत दीवानगी के साथ देखती है। आश्चर्य का विषय यह है कि इन धारावाहिकों की कहानियाँ बाल विवाह जैसे अतिपिछड़ी कारिस्तानियों को भी बड़े रूमानियत भरे ख्यालों के साथ पेश करती हैं और इसके बाद भी आज की लड़कियाँ ऐसे कार्यक्रमों पर अपनी जान छिड़कती हैं। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ये कार्यक्रम आज की लड़कियों में जो बदलाव ला रहे हैं, उसके क्या सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम होने वाले हैं।

फैशन, जीवन में तमाम पहलूओं में पसंदगी-नापसंदगी और टेलीविज़न कार्यक्रमों की दीवानगी जैसी चीज़ों की एक ऐसी लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है, जो किसी न किसी तरह से पिछड़ी व प्रतिगामी मानसिकता व संस्कृति को प्रश्रय देती हैं और यह दंग करने वाली बात है भारत की बदलती हुई लड़कियाँ भी इसे तहेदिल से पसंद करती हैं। तरक्की के तमाम संकेतों के साथ-साथ आज की बदलती हुई लड़कियों का मनोगत गुलामी से न उबर पाना यह सोचने के लिए फिर से मज़बूर करता है कि क्या लड़कियों का यों बदलना क्या सचमुच खुश होने वाली बात है?

(अहा!जिंदगी दिसंबर २०१० में प्रकाशित आलेख)

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

ये साँप के केंचुल बदलने जैसा है


- देवाशीष प्रसून
भ्रष्टाचार, भूख, बेरोज़गारी और सरकार के जनविरोधी रवैये से कोफ़्त खाई मिस्र की जनता ने सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है। मुबारक़ ने जनता के असंतोष को भाँपते हुए अपने मंत्रीमंडल को बर्खास्त कर दिया और लोगों को यह भरोसा दिलाया कि देश में सामाजिक, लोकतांत्रिक और आर्थिक सुधारों को जल्द ही लागू किया जाएगा। भरोसा तो यह भी दिलाया है कि अगले बार वे राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव नहीं लडेंगे। लेकिन, मिस्र में एक हज़ार से अधिक लोग पुलिसिया दमन में घालय हो चुके हैं और अब तक कई जानें जा चुकी हैं, जिससे उनके मंसूबे पता चलते हैं। और इस बात की गारंटी कौन लेगा कि अगर मुबारक़ चले भी गए तो उनके जैसा कोई दूसरा मिस्र की गद्दी पर बैठेगा। अरब के शासकों के लिए तानाशाही शब्द का प्रचलन पश्चिमी मीडिया की देन है और हक़ीक़त यह है कि इन इलाक़ों में कठपुतली सरकारें काम करती हैं। इनका शासन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के इशारों पर वैश्विक पूँजी के हित में काम करता है। पूँजीवादी ताक़तें पेट्रो-ईंधन की अपनी भयंकर भूख के लिए अरब देशों पर बुरी तरह से आश्रित हैं और अपने हितों को साधने के लिए अरब-देशों में ऐसी सरकारें चाहते हैं, जिनकी बाग-डोर उनके हाथों में हो। खैर! मिस्र में ही नहीं सरकार से असंतुष्ठ लोगों का प्रतिरोध ट्यूनीशिया से शुरू होकर लेबनान, जॉर्डन, अल्जीरिया और यमन जैसे कई ऐसे अरब-देशों में जंगल की आग की तरह फैल रहा है, जहाँ पिछले कई सालों से लोग ग़रीबी और भ्रष्टाचार के कारण ख़स्ताहाल रहे हैं। यह बहस का दीग़र मुद्दा है कि जनता ने अगर ऐसे कठपुतली सरकारों को उखाड़ भी फेंका तो देश में कठमुल्लाओं के सत्ता हथियाने के ख़तरे से उन्हें कौन बचाएगा।
बहरहाल, बदहाली से बौखलाई अरब-देशों की जनता खुलेआम यह कह रही है कि अब ट्यूनीशिया ही एक उपाय है। मतलब कि जैसे ट्यूनीशिया की जनता ने अपने शासक को खदेड़ दिया, बाकी अरब-देश के लोग भी अपने यहाँ इस परिघटना को दोहरा कर रहेंगे। लेकिन सवाल कौंधता है कि जिस इंक़लाब-ए-यास्मीन के बाद तेईस सालों से लगातार राष्ट्रपति रहे बिन अली को राजपाट छोड़कर राजधानी से पलायन करना पड़ा, क्या सही में, इस इंक़लाब का अब तक मिला कुल हासिल वहाँ के जनता की जीत है? ऐसा क्या हुआ कि बिन अली ट्यूनीशिया से भागने के लिए मज़बूर हो गया? क्योंकि, तख़्तापटल के लिए किया गया कोई प्रतिरोध दूध-भात का कौर तो नहीं है, कि लोग सड़क पर उतर आए और इससे डर कर वर्षों से हुकुमत करने वाला दुम दबा कर भागने को मज़बूर हो जाए। इस पूरे परिघटना को और गहराई से समझने की ज़रूरत है। दरअसल, यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की चाल थी, जिसने पिछले सितंबर ट्यूनीशिया में बचे-खुचे सब्सिडी को खत्म करने का आदेश दिया था। और जिसके कारण महंगाई आसमान छूने लगी और फिर क्या था? त्रस्त जनता को मज़बूर होकर सड़कों पर उतरना पड़ा।
अरब में मीडिया भी राजनीतिक परिवर्तन की मांग को हवा देने लगा है। साथ ही, विकिलिक्स के खुलासों ने गुस्से की चिंगारी को हवा दी है। ट्विटर और फ़ेसबुक सरीखे सोशल नेटवर्किट की वेबसाइटों पर इस तरह के कई बहसें हुई, जिससे वहाँ यह जनमानस तैयार हुआ कि अब सत्ता में फेरबदल होना ही चाहिए। टेलीविज़न चाइनल अल-जज़ीरा की भूमिका भी इस मामले में बदलाव के मौसम को और सघन करने वाली ही रही। आधुनिक तकनीकों ने बहस-मुबाहिसों के लिए एक नया स्पेस गढ़ा है, पर इन बहस-मुबाहिसों को कौन शुरू और नियंत्रित करता है? क्या लोगों की सारी माँगें, स्वतःस्फूर्त होती हैं या उन्हें प्रेरित करने का सायास प्रयत्न किए जाते हैं? जो भी हो, अब तक जो ताक़तें मलाई काट रही थी, उनको भी को लग रहा है कि कहीं अगर सच में ये प्रतिरोध इंक़लाब बन गए और अरब-देशों में जनता की सरकार बनने लई तो फिर वहाँ उसने हितों को ख़तरा है। अगरचे राष्ट्रपति बदल दिया जाए तो लोगों का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा और उनके इशारे पर जो नए लोग शासन संभालेंगे, वह भी पहले के ही तरह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिए वैश्विक पूँजी के हितों का भी ख्याल रखेंगे। इस तर्क को इससे और मज़बूत मिलती है कि ट्यूनीशिया में बिन अली के जाने के बाद जो अंतरिम सरकार बनी, उसमें भी प्रधानमंत्री मोहम्मद ग़शूनी को ही बनाया गया, जो सन १९९९ से प्रधानमंत्री रहा है। कार्यकारी राष्ट्रपति फ़ोआद मेबाज़ा पिछली सरकार में संसद के अध्यक्ष थे। अंतरिम सरकार में मंत्री वगैरह भी लगभग वहीं हैं। यानी इस यास्मीनी इंक़लाब से बिन अली को तो जाना पड़ा, लेकिन व्यवस्था वही बनी रही। लोग कुछ दिनों तक रूमानियत में रहेंगे कि बहुत कुछ बदल गया पर सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहेगा। यानी कुल मिलाकर ट्यूनीशिया में चल रहे शासन व्यवस्था ने अपने आप में वही परिवर्तन लाये गए, जैसा कि एक साँप अपने केंचुल बदलने समय लाता है। केंचुल बदल जाने के बाद साँप के पास अपने पुराने मंशों को पूरा करने की और अधिक ताक़त व ताजगी आ जाती है।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

जैतापुर के बहाने जनता के लोकतंत्र की बात...

-  देवाशीष प्रसून
आबादी के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा हम करते हैं। लेकिन हमारी आबादी का एक हिस्सा आने वाले गणतंत्र दिवस का विरोध करने वाला है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जैतापुर इलाके में सत्तर स्कूलों के लगभग ढ़ाई हज़ार विद्यार्थियों ने वहाँ बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरोध में ऐसा निर्णय लिया है। पिछले दिनों इन विद्यार्थियों ने स्कूल नहीं जाने का निर्णय तब लिया जब जिला प्रशासन ने शिक्षकों को विद्यार्थियों के समक्ष परमाणु ऊर्जा का गुणगान करने के निर्देश दिए थे। पूरे देश में एक बड़ा संघर्ष हर तरफ़ चल रहा है। एक ऐसा संघर्ष, जिसमें आमलोग अपना लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे हैं तो सरकार अपने लोकतंत्र की दुहाई दे रही है। जनता और सरकार के लोकतंत्र में एक बुनियादी फ़र्क़ है। जनता के लिए लोकतंत्र का मतलब मूल्यों पर आधारित वह सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें भलाई बिना भेदभाव के हमेशा आमलोगों की होती है। लेकिन, इसके ऊलट सरकार के लिए लोकतंत्र का मतलब बस अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए चुनावी राजनीति के गुणा-गणित तक ही सीमित होकर रह गया है। सरकार कोई भी हो, उनके लिए मुख्य मुद्दा है विकास। और, विकास की अंधी दौड़ ने हमारे समय में समाज के तमाम घटकों और खासतौर से शासन व्यवस्था से लोकतांत्रिक मूल्यों को बड़े जबर्दस्त तरीके से ग़ायब किया है। यक़ीनन यह लोगों के लिए चिंता का एक गंभीर विषय बनकर रह गया है। इस दौड़ में अब तक किन लोगों का विकास हुआ है और किनका विनाश, यह बात अब किसी से छुपी हुई नहीं है। तथाकथित विकास की राह पर जनहित के परखच्चे उड़ाते हुए सरकारों को लोकतंत्र की कोई परवाह नहीं है।
आज देश में अलग-अलग तरीकों से लोग अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लड़ रहे हैं। जैतापुर के लोगों के बीच भड़के गुस्से का कारण यह है कि सरकार जैतापुर में दुनिया में सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने वाले संयंत्रों को लगवाने वाली है। जहाँ-जहाँ पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लगाए जा रहे हैं या लगाने की योजना है, वहाँ के लोगों के बीच अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा का एक भयानक माहौल गहराया हुआ है। इन इलाकों में परमाणु ऊर्जा के लिए संयंत्र लगाने से रोकने का मामला यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए अपने जीवन की रक्षा के साथ-साथ अपने लोकतंत्र की रक्षा करने का भी है। यह कौन भूला होगा कि किस तरह से सन २००७ में देश की बड़ी आबादी भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के ख़िलाफ़ थी। वामदलों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और संसद में लगभग ४८ फीसदी से अधिक सांसदों के मुख़ालफ़त के बाद भी सरकार ने परमाणु-ऊर्जा के लिए अमेरिका के साथ समझौते किए। पर लोग महसूस करते है कि संसद में बैठे मुट्ठी भर लोग उन लोगों की ज़िंदगी के बारे में फैसले नहीं ले सकते है। उन्हें पता है कि लोकतंत्र का अस्तिव केवल संसदीय शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि अधिक से अधिक लोगों के हित में ही ज़िंदा रह सकता है।
लोग लड़ इसलिए रहे हैं कि क्योंकि उन्होने देखा हैं कि कैसे कालापक्कम, तारापुर, बुलंदशहर और कोटा में स्थापित परमाणु बिजली संयंत्रों में दुर्घटनाएँ हुईं। जिससे मोटे तौर पर आजतक लगभग ९१० मिलियन अमेरिकी डॉलर के नुक़सान का बोझ देश के सार्वजनिक ख़ज़ाने को झेलना पड़ा। और तो और, इसके अलावा जनजीवन, पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर पड़ रहे दूरगामी कुप्रभावों की गणना की जानी तो अब तक बाकी है। इससे सबक लेने के बजाय सरकार देश में कई जगहों पर परमाणु ऊर्जा से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को स्थापित व क्रियाशील करने के लिए जी-जान से जुटी हुई है। तमिलनाडु के कुडानकुलम और कालापक्कम, गुजरात के काकरापाड़ व राजस्थान के रनाटभाटा और बांसवारा में कई संयंत्र निर्माणाधीन हैं। कुडानकुलम, कर्नाटक के कैगा और महाराष्ट्र के जैतापुर में और २१ संयंत्रों को लगाने की योजना स्वीकृत की गई है। कई अन्य इलाकों व संयंत्रों के लिए भी योजनाएँ प्रस्तावित हैं।

सत्तारूढ़ काँग्रेस ने लोगों के गुस्से को ठंडा करने के लिए एक दल को जैतापुर भेजने का फैसला लिया था, लेकिन वे उन गड़बड़ियों के कैसे सुधार पायेंगे, जो सरकार ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाने के लिए की हैं। अध्ययनों के आधार पर यह खुलासा किया गया कि इसके लिए गलत तरीके से बंज़र बता कर लगभग हज़ार एकड़ उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। दूसरा, जैतापुर पूरी तरह से एक भूकंप संभावित इलाका है, यानि भूकंप आने पर रेडियोधर्मी रिसाव से भयानक जान-माल का नुक़सान लंबे समय तक होता रहेगा। दुर्घटना के कारण नियंत्रित नाभिकीय अभिक्रियाएँ यदि अनियंत्रित हो गई तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के तर्ज़ पर ये संयंत्र अपने देश में फटने वाले परमाणु बम सरीखे हो सकते हैं। डर और बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि जिस फ्रांसिसी कंपनी के गठजोड़ से यह परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा रहे है, सुरक्षा को लेकर उनका रिकॉर्ड बुरा रहा है। तीसरा, यह पर्यावरण और इससे जुड़े जीव और वनस्पति को भी यह बुरी तरह प्रभावित करेगा। इसका समुद्र से बहुत अधिक मात्रा में पानी लेना और उपयोग के बाद खौलते हुए पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से कोंकण से सटा हुआ पूरा समुद्री इलाका समुद्री-जीवों के श्मशान में तब्दील हो जायेगा और इससे कोंकण का मौज़ूदा प्राकृतिक स्वरूप भहरा जायेगा। मतलब यह है कि वहाँ, भविष्य में, किसान और समुद्र पर आश्रित लोगों का, खासकर मछुआरों का भूखों मरना साफ़ दिख रहा है। चौथा, सरकार ने परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी कचरे से निबटारे का कोई ऐसा सूत्र जनता को नहीं बताया, जिससे लोग सहज महसूस कर सकें। जैतापुर में परमाणु संयंत्रों को असुरक्षित बताने पर देश-विदेश में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस को दिए जाने वाले सहायता राशि पर एनपीसीआईएल ने रोक लगा दिया है। विरोध के सभी स्वरों को सरकार अपने संरचनात्मक और राजकीय हिंसा का शिकार बना रही है। जो लोग सरकार की राय से सहमत नहीं हैं, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है, उन पर फर्जी मुकदमे थोपे जा रहे हैं।
परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए यों जनता के लोकतंत्र पर सरकार के जो हमले हो रहे हैं, उनके कारणों को समझना ज़रूरी है। कौन नहीं जानता कि पेट्रोल और कोयले दुनिया से जल्द ही खत्म हो जायेंगे? ग़ौरतलब है कि बिजली और पेट्रोल की खोज से पहले भी मानव-समाज, संस्कृति और उसकी इहलीला तो फल-फूल ही रही थी और आज भी दुनिया भर की एक बड़ी आबादी इन सुविधाओं से महरूम है। भविष्य में भी रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों जैसे कि पवन ऊर्जा या सौर्य ऊर्जा से काम लिया जा सकता है। लेकिन, छोटे-बड़े कल-कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा की माँग बिना पेट्रोल और कोयला के पूरी नहीं हो पायेगी और ऊर्जा के बड़े स्रोतों के अभाव में मौज़ूदा व्यवस्था पूरी तरह ढ़ह जायेगी। ऐसे में पूँजीपतियों का दुनिया भर में फैला गोरखधंधा और विश्व राजनीति में गहरी पैठ को हवा होने से कोई नहीं रोक पायेगा। तो ऊर्जा को लेकर पूँजीवाद की चिंता उनकी पूरी वज़ूद से जुड़ी हुई है। अगर वे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की एक क़ामयाब संरचना नहीं खड़ी कर पाए तो उनकी सत्ता का बिला जाना तय है। उन्हें परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प दीख रहा है। परमाणु ऊर्जा परियोजना शुरू करने की सरकारी छटपटाहट ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत की संरचना को जैसे तैसे, बड़ी जल्दबाज़ी में खड़ा करने की ज़द्दोज़हद है और इसके बरअक्स बेचारी मज़लूम, पर मेहनतकश आवाम अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए है।
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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

रविवार, 16 जनवरी 2011

हिंसा एक बहुआयामी मसला है...

(डॉ. इलीना सेन ने अपने जीवन का लंबा अरसा महिला अधिकारों को हासिल करने के संघर्ष और वंचितों के शिक्षा के लिए खर्च किया है और वर्तमान में वह वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग का नेतृत्व कर रही हैं। इस आलेख को प्रो. सेन से हुई बातचीत के आधार पर देवाशीष प्रसून ने लोकमत समाचार के दीपावली विशेषांक २०१० के लिए लिपिबद्ध किया था।)
मुझसे यह कहा जाना कि जब मैं 'किसकी हिंसा, कैसी हिंसा?' पर टिप्पणी करूँ तो लिंग आधारित हिंसा के मद्देनज़र करूँ, अनुचित है। मेरा मानना है कि हिंसा के कई आयाम हैं और सभी आयामों पर बातचीत होनी चाहिए। जहाँ तक बात लिंग आधारित हिंसा की है तो उस पर हर किसी को बात करनी चाहिए और चूँकि मैं एक महिला हूँ और स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत रही हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मुझसे बस इसी संदर्भ में बातचीत की जाए। बहरहाल, हम मुख्य विषय की ओर लौटें।
सवाल है कि हिंसा में जिस बढ़ोत्तरी की बात हो रही है, उसे कौन बढ़ा रहा है? मेरा मानना है कि मौज़ूदा हालातों में राष्ट्र-राज्य भी टूटने के कगार पर है और जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें सत्ता का केंद्रीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विश्व व्यापार को चलाने वाली शक्तियों के हक में हो रहा है। राष्ट्र-राज्य का स्वरूप हमेशा से बदलता रहा है। हमारे बचपन के समय की बात करें तो उस वक्त राष्ट्र-राज्य का स्वरूप सैद्धांतिक तौर पर निर्विवादित रूप से कल्याणकारी था। कल्याण के बारे में निश्चित तौर पर विकसित और अवकसित देशों में अपने-अपने पैमाने रहे हैं, लेकिन भारत जैसे देश में भी अपने हर नागरिक को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करना राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य माना जाता था। अब इस कर्तव्य का पालन हुआ, नहीं हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। लेकिन अब जो व्यवस्था जड़ जमा रही है, उसके प्रभाव में राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। जाहिर-सी बात है कि नई व्यवस्था जिनके हित में काम कर रही है, वे ही इस बढ़ते हुए हिंसा के लिए जिम्मेवार हैं। वैश्विक वित्तीय पूँजी के फलने-फूलने के लिए तमाम तरह की कोशिशें की जा रही है, जो कि कई तरह के हिंसाओं का मूल कारण है। अपनी ज़िंदगी में और ऐतिहासिक याददाश्त से भी हमने जाना है कि मंदियों और महामंदियों की न जाने कितनी सारी विफलताओं के बाद भी पूँजीवादी व्यवस्था बार-बार उठकर खड़ा हुआ है दुनिया पर अपना कब्ज़ा बरकरार रखने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में हिंसा और दमन का लंबा दौर देखने को मिलता है। यहाँ पर मैं जिक्र करना चाहूँगी पितृसत्ता का, क्योंकि पितृसत्ता के बारे में मेरी जो समझ है कि यह उन लोगों की सत्ता है जो नैतिकताओं को अपने हित में परिभाषित करते हैं और अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हर प्रकार से प्रपंच, बल और हिंसा का प्रयोग करते हैं।
हिंसा का ताना-बाना बहुत जटिल है। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हिंसक शक्तियाँ कई अन्य सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का भी सहारा लेती हैं। अब बस्तर की ही बात करें। बस्तर में जिस तरह से कंपनियों ने अपना पैर पसारना चाहा, वहाँ अपने खास तरह की हिंसा को स्थापित करने के लिए उन्होंने राज्य सत्ता का सहारा लिया। जबकि अगर आप संविधान को देख लें तो ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है। मेरा मानना है कि भारत का संविधान एक बहुत ही प्रगतिशील दस्तावेज़ है, लेकिन व्यवस्था पर काबिज़ लोग हमेशा उसकी गलत व्याख्या करते रहे हैं। राज्य सत्ता के साथ-साथ इन ताक़तों ने पितृसत्ता का भी सहारा लिया। जब मूल निवासियों को गाँव से खदेड़ा जाता है या औद्योगिक हितों के लिए उन्हें अपने ज़मीन से विस्थापित किया जाता है तो निश्चित तौर से हिंसा की सबसे बड़ी शिकार औरतें होती हैं। ऐसा आदिम काल से भी चलता आ रहा है कि अपनी सत्ता और वर्चस्व को स्थापित करने के लिए हमलावर औरतों पर यौन-हिंसा करते रहे है। बलात्कार तो एक चरम है, लेकिन बाहरी सत्ता के आक्रमण में औरतें यौन-हिंसा के कई चरणों से होकर गुज़रती हैं। इस तरह की हिंसा सिर्फ़ औरतों के ख़िलाफ़ नहीं होती, बल्कि ऐसा करना इन औरतों से संबंधित पूरे के पूरे समुदाय को कमज़ोर बताकर उन्हें अपमानित करने की एक युक्ति बनकर सामने आता है। विस्थापन और उससे संबंधित हिंसा के अलावा भी और कई अन्य क्षेत्र हैं, जहाँ इन बड़ी पूँजी वाली कंपनियों ने हिंसा में कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
गरीबी भी हिंसा का भयावह चेहरा है। आम धारणा है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, लेकिन मैं इसे मुख्य कारण नहीं मानती। मुझे लगता है कि गरीबी का सबसे बड़ा कारण उपलब्ध संसाधनों के वितरण में पाँव पसारी हुई निर्मम कुव्यवस्था कारगार है। हालाँकि जनसंख्या एक मसला तो है, लेकिन अपने आप में वह गौण है और भारत में गरीबी को लेकर जनसंख्या जिम्मेवार नहीं है। आप टेलीविज़न में आ रही समाचारों और बहसों को देखिए। देश में कई गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं। देश में अब तक अनाजो को बाँटने के सही तरीकों को विकसित नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री का मानना है कि अनाज मुफ़्त में नहीं दिए जा सकते हैं, क्योंकि इससे लोगों की आदतें खराब हो जायेंगी। आप मुफ़्त में नहीं देंगे, आपके पास बाँटने का भी कोई तरीका नहीं है और आप केवल खरीद रहे हैं! यह एक गज़ब विडंबना है। देश में अनाज के उत्पादन और वितरण के बीच कोई रिश्ता समझ में नहीं आता है। हालिया, मैंने एक टेलीविज़न कार्यक्रम में देखा कि पंजाब सरकार के जानिब से एक महिला बोल रही थी कि गोदाम में पड़े अनाज भले ही पंजाब की धरती हो, लेकिन वह भारतीय खाद्य निगम की संपत्ति हैं, पंजाब का उससे कोई लेना देना नहीं है। लोग भूखे हैं, अनाज गोदाम में सड़ रहा है और सरकारी प्रतिष्ठान बाल की खाल निकालने में मशगूल हैं। इतिहासकारों ने बंगाल के ऐतिहासिक अकाल के कारणों को शोध किया तो यह पाया था कि वहाँ तब खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं थी, बस उसे लोगों तक पहुँचने से रोका गया था। मेरी माँ बताती है जोकि उस वक्त स्कूल या कॉलेज पढ़ती रही होगी कि अकाल खत्म होने के बाद के दिनों में गोदामों में बंद अनाजों को नदी में बहाया गया, क्योंकि वह सड़ गए थे। सन बयालिस से आज तक इस स्थिति में कोई अमूलचूल बदलाव नहीं आया है। संसाधनों का वितरण इतना असमान है कि कुछ लोगों के पास इतना कुछ है कि वह इतने खाए-अघाए हैं, उन्हें समझ नहीं आता कि वह इन चीज़ों का क्या करें और दूसरी तरफ़ ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जिनके पास कुछ नहीं है। विकास के मौज़ूदा स्वरूप की बात करें तो यह भी गरीबी का एक बड़ा कारण है। एक तरफ़ देश में ऐसी जगहें भी हैं, जहाँ बस पकड़ने के लिए लोगों पंद्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और दूसरी ओर देश में स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग भी बने हैं, जहाँ बिना रूके आप अपनी मंजिल तक अपनी गाड़ियाँ दौड़ा सकते हैं। विकास के नाम पार जो तकनीकों और संयंत्रों को आयातित किया जाता है, वह भी जिम्मेवार हैं गरीबी के लिए। आप बिजली, डीज़ल और पेट्रोल जैसे ईंधन पर चलने वाले संयंत्रों का सस्ता भी नहीं मान सकते, क्योंकि ये ईंधन जल्दी ही इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने वाले है। लेकिन आयातित संयंत्रों के इस्तेमाल की इस प्रक्रिया से बहुतायत में उपलब्ध मज़दूरों को खलिहर रहना पड़ता है, जो कि घूम-फिर कर गरीबी जैसी हिंसा का कारण बनता है। इसके तर्कों के आधार पर मैं कहना चाहूँगी कि जिस तरह से जनसंख्या को गरीबी का सबसे बड़ा कारण माना जाता है, यह अनुचित है। हालाँकि सरकार ने इसे गरीबी का सबसे बड़ा कारण मानते हुए परिवार नियोजन को कार्यक्रमों को खूब तबज्जो दिया है।
परिवार नियोजन के कार्यक्रमों में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्त्री के स्वास्थ्य को केवल उसके प्रजनन क्षमता के साथ जोड़ कर देखा जाता है और यह बहुत ही हिंसात्मक तरीका है औरतों के बारे में सोचने का। औरतों की, मर्दों की तरह, कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं, लेकिन स्त्री स्वास्थ्य के मुद्दों को हमेशा बच्चों के साथ जोड़ कर या प्रजनन के साथ जोड़ कर देखा जाते रहा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत को जो बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय अनुदान मिले, उसमें जनसंख्या का नियंत्रण एक महत्वपूर्ण शर्त रही है और ऐसे में औरतों का शरीर प्रजनन नियंत्रण तकनीकों का शिकार बनता है। इस मामले में भी भेदभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। स्त्री नसबंदी, पुरूष नसबंदी की तुलना में खतरनाक है, मगर फिर भी ज्यादातर मामलों में नसबंदी स्त्रियाँ ही करवाती हैं। सरकारें भी भ्रामक प्रचार करवाने से गुरेज नहीं करती है कि गर्भनिरोधक गोलियों का महिलाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। जबकि सच यह है कि गर्भनिरोधक गोलियों का स्त्री हॉरमोन पर गंभीर और लंबे समय पर पता चलने वाला दुष्प्रभाव होता है। देश में पुरुषों की तुलना में महिलाएँ बहुत कम हैं। कारण कई हैं। बालिकाओं के देखरेख में लापरवाही या नहीं तो कोख में ही उनकी हत्या हो जाती है। क़ानूनों को धत्ता बताते हुए धड़ल्ले से महिला भ्रूण हत्या का अपराध होते रहता है। यह भी हिंसा का एक विभत्स चेहरा है। इसे विज्ञान द्वारा किए गए हिंसा के रूप में देखा जा सकता है।
नौकरीपेशा या मध्य-आय वाले लोगों का एक ऐसा तबका है, जो एक साथ इन कंपनियों के लिए आवश्यक मानव संसाधन की भी पूर्ति करता है और इनके उत्पादों का बाज़ार भी बनता है। लेकिन गौर करें तो हम देखेंगे, कि यहाँ भी एक अलग तरह की हिंसा होती है। तरह तरह की युक्तियों का इस्तेमाल किया जाता है। गो कि लोगों में खास चीज़ों के लिए अलग किस्म की एक चाहत पैदा करना, यह भी एक हिंसात्मक कार्रवाई है। किसी लड़के या लड़की के व्यक्तित्व को स्वभाविक तरीके से विकसित नहीं होने दिया जाता है। जिस तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है कि उसमें व्यक्तित्व निर्माण के बदले उनमें बाज़ार के हित में काम करने वाली खास तरह की इच्छाएँ जन्म लेती हैं, जो आगे चल कर कुंठाओं को पैदा करती हैं। इसे भी हिंसा माना जा सकता है, जिसके कारण लोगों की शख़्सियत का सकरात्मक विकास नहीं हो पाता है और इंसान चाहतों का दास बनकर रह जाता है। जहाँ तक महिलाओं या लड़कियों का सवाल है तो मामला थोड़ा और गंभीर हो जाता है। जिस तरह के टेलीविज़न शो आजकल आ रहे हैं, उसमें आप देख सकते हैं कि किस तरह से औरतों को या तो वस्तुओं का उपभोग करने वाली अन्यथा उपभोग करने वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महंगे लिबास में सजी-सँवरी आकर्षक, पर अपने अधिकारों से विमुख महिलाएँ। अगर स्त्रियों को मौका मिले तो उनका व्यक्तित्व पुरुषों के समकक्ष निखर सकता है, लेकिन इस तरह से उनके मौके ही खत्म कर दिए जाते हैं। यह भी उतना ही हिंसात्मक है पर दिखता बहुत मनोरम है।
अगला सवाल यह है कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृति ने तो क्या हिंसा को नहीं बढ़ाया है? मैं इस बात से सहमत हूँ कि हिंसा के बढ़ने का कारण केंद्रीकरण की प्रवृति है। खास कर मैं सूचना तकनीकी के क्षेत्र में हो रहे केंद्रीकरण की बात करना चाहूँगी। एक कोने से कहीं कानाफूसी चालू हुई और यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है और इस बात को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि वो सत्य हो। सच को झूठ और झूठ को सच बनाना आसान हुआ है। हिंसात्मक विचारों का संक्रमण बढ़ा है। इसके लिए वो लोग जिम्मेवार हैं जो बड़े स्तर सूचनाओं के प्रवाह को संचालित करते हैं। सूचना तकनीक के अलावा भी अन्य कई क्षेत्र हैं , जहाँ केंद्रीकरण की प्रक्रिया ने हिंसा की आग को हवा दिया है। जैसे कि हम खेती-किसानी की बात कर लें। छ्त्तीसगढ़ में कुछ तीन हज़ार किस्म के धान के बीज पाए जाते थे, जिनमें यह खास बात थी वह अलग-अलग प्रकार के जलवायु के मुताबिक उपयोगी हुआ करते थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के झासे में आकर हमारे देशी वैज्ञानिकों ने अपने जैव विविधता को दरकिनार करते हुए कुछ चुनिंदा कृत्रिम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया। इसका नतीजा आज यह है कि हमारे पारंपरिक बीज लुप्त हो रहे हैं और एक बहुत बड़े धरोहर से हमने हाथ धो दिया। एक ऐसा धरोहर जिसको न तो रासायनिक खादों की जरूरत थी, न ही कीटनाशकों की। कुल मिलाकर यह खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को नष्ट करके उसके केंद्रीकरण का मामला है। कुछ लोगों का अपने ज्ञान को बेहतर बताकर ज्ञान की पुरानी परंपरा को नष्ट करना भी हिंसा को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार केंद्रीकरण का नमूना है।
अंतिम सवाल कि संगठित हिंसा की समाप्ति किस संगठित प्रयास से संभव है के जवाब में मुझे कहना है कि इसके लिए लोगों के बीच संवाद और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने पर काफी ज़ोर देना पड़ेगा। कुल मिलाकर समाज को बनाने वाले और चलाने वाले तमाम घटकों को व उनके बीच के परस्पर रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है।
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रविवार, 9 जनवरी 2011

पुराने घरों को उजाड़ कर बसता लवासा

- देवाशीष प्रसून


सरकार ने अपने कामों की फेहरिस्तों में विकास को सबसे अव्वल रखा है। देश में होने वाले विकास का सुख चाहे कोई भी उठाए, पर हम देख सकते हैं कि इसका मूल्य समाज का कमज़ोर तबके को ही चुकाता पड़ता है। मामला बाँध बनाने का हो, औद्योगिकरण या सेज़ का या शहरीकरण का, इसके लिए आवश्यक ज़मीने अक्सर ग़रीबों और आदिवासियों से ही अधिग्रहित की जाती हैं। इसके विरोध में, हमारे सामने लालगढ़, नंदीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर, रायगढ़ और नर्मदा बचाओ जैसे जन-आंदोलनों के कई उदाहरण मौज़ूद हैं। इन आंदोलनों को विकास के अंतर्विरोध के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो देश में गरीबों, दमितों व आदिवासियों के हित के लिए, मानवाधिकार की रक्षा के लिए और जनकल्याण को ध्यान में रख कर कई क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन असल धरातल पर बड़े-बड़े निगमों के हित के सामने ये अमूमन धरे के धरे रह जाते हैं।

देशभर में रफ़्तार पकड़ रही विकास की गाड़ी न जाने कितने गरीबों के घरों को हमेशा-हमेशा के लिए रौंद कर बेरोक-टोक आगे बढ़ रही है। नियमों को सरमायापरस्त ताक़तों के हक में तोड़ना-मरोड़ना और इसका विरोध करने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की ख़बरे आना आम बात हैं। जहाँ-तहाँ अंधाधूंध चल रहे कई विकास परियोजनाओं में से एक है पुणे और मुंबई के बीच बसाया जा रहा हिल स्टेशन लवासा। इसमें हो रही अनियमितताओं के बारे में शिक़ायते होनी तो शुरू हो गई है, पर चंद लोग इसकी गंभीरता को अपने पैसे और पहुँच के बदौलत कुचलना चाहते हैं।


लवासा वरसगाँव बांध के नज़दीकी इलाकों में फैला हुआ लगभग पच्चीस हज़ार एकड़ ज़मीन का वो टुकड़ा है, जिस पर कुछ बिल्डरों, नेताओं और मुट्ठी भर ताक़तवर लोगों के द्वारा भविष्य के एक पहाड़ी शहर का सपना संजोया जा रहा है। पर, खेती-किसानी के लिए उर्वर यह ज़मीन और सदियों से आदिवासियों-किसानों का बसेरा रहे इस वनक्षेत्र का लवासा शहर में तब्दील होना कई अनियमितताओं, स्थानीय लोगों के साथ हुई ज्यादतियों और उनको विस्थापित करने की कई साजिशों व अनदेखियों से पटा पड़ा है। २००१ में काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र में सत्ता में आने के बाद द लेक सीटी कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के जानिब से आए इकलौते प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाते लवासा नाम से अत्याधुनिक हिल स्टेशन विकसित करने का ठेका बिना किसी निविदा आमंत्रित किए उक्त कंपनी को दे दिया था। जाने-माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे की माने तो इस हिल स्टेशन के चलते महाराष्ट्र सरकार ने कई नियमों को ताक पर रखते हुए क़ानून-व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाया है व वहाँ पर पीढ़ियों से गुज़र-बसर कर रहे हज़ारों आम आदिवासी लोगों के वाजिब अधिकारों का लगातर हनन किया है।

ग़ौरतलब है कि केंद्र की सरकार में कृषि मंत्री व महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता शरद पवार का सीधे तौर पर हित लवासा कारपोरेशन के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनकी बेटी सुप्रिया सुळे और दामाद सदानंद सुळे की इस कंपनी में अच्छी हिस्सेदारी रही है। सुळे दंपत्ति को लवासा निगम में मालिकाना हिस्सेदारी दिए जाने के बाद से इस प्रोजेक्ट ने तूफ़ान से तेज़ रफ़्तार हासिल किया है।

१९७४ की बात है कि सार्वजनिक हित के काम के लिए बनाए जा रहे वरसगाँव बांध के लिए सरकार ने भू-अधिग्रहण किया, जिसके कुछ हिस्सा अब तक परती था। उच्च न्यायालय ने इस ज़मीन को इसके पुराने मालिकों को लौटाने के बजाए सार्वजनिक हित के काम में ही लगाने का फैसला लिया था। राज्य के जल संसाधन निगम के मातहत काम करने वाले महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम ने मनमाने तरीकों से लवासा के मालिकों को ज़मीन का यह १४१.१५ हेक्टेयर का टुकड़ा बहुत सस्ते दर पर उपलब्ध करा दिया। यही नहीं, देखने वाली बात यह भी है कि लवासा को वरसगाँव बांध से ३.०३ टीएमसी पानी देने का फैसला भी लिया गया। इस बांध के पानी से पुणे शहर की तमाम ज़रूरतें पूरी होती हैं और पिछले कुछ सालों से पुणेवासियों को पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। बावज़ूद इसके सरकार ने यह फैसला पुणे की ज़रूरतों के बारे में सोचे बिना ही ले लिया। शक की सूईयाँ फिर शरद पवार की ओर घूमती हैं, क्योंकि ये सारे फैसले उनके भतीजे अजीत पवार ने लिए थे। चिंता का विषय यह है कि अजीत को अब महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया है, याने पवार लवासा मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।

तत्कालिक राज्स्व मंत्री नारायण राणे का बयान आया कि इस मामले में कुछ अनियमितताएँ तो हैं, लेकिन इन अनियमितताओं को हर्ज़ाने वगैरह से नियमित कर लिया जाएगा। माने इरादा सफ़्फ़ाक़ साफ़ है कि कुछ भी हो जाए, भले नियमों और आमलोगों के हितों की धज्जियाँ ही क्यों न उड़ा दी जाए, लवासा तो बन कर ही रहेगा। लेकिन, पर्यावरण सुरक्षा की अनदेखियाँ को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त लगीं और तब से वहाँ के कामकाज को ठप्प किए जाने का आदेश है। देखने वाली बात है कि अब पर्यावरण मंत्रालय को लवासा कंपनी के लोग कब और कैसे मैनेज करेंगे।

प्रधानमंत्री को लिखे एक चिट्ठी में अन्ना हज़ारे ने ज़िक्र किया है कि इस प्रोजेक्ट के नाम पर बीस भली-भांति बसे हुये गाँवों को तबाह और हज़ारों लोगों को बेघर किया जा रहा है। सोचने वाली बात है कि अगर सरकार चुनिंदा लोगों के लिए नए अत्याधुनिक मानकों पर आधारित कई शहरें बसा भी ले तो उन गरीबों का क्या होगा जिनको अपने जगहों से बेघर कर दिया गया हो। इतनी ज़्यादतियों के बाद भी वे रहेंगे तो इसी देश, इसी समाज में। लेकिन जब हज़ारों को उजाड़ कर कुछ सौ के एहतिआत का क्या ख्याल रखा जाएगा, तो इससे पैदा हुई असमानताओं का सरकार किन तर्कों से बचाव करेगी। देश में अट्टालिकाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन विश्व बैंक के मुताबिक भारत की कुल चौदह फीसदी शहरी आबादी अब तक झुग्गियों में रहती है। जाहिर है लवासा जैसे शहरीकरण और विकास योजनाओं के चलते देश में अब तक चिह्नित कुल ५२००० झोपड़पट्टियों में कुछ इज़ाफा ही हो होगा। जाहिर सी बात है सामाजिक विषमता कोई प्रेम और सौहार्द का माहौल तो बनाएगी नहीं, इस भेदभाव से वैमनस्य ही भड़केगा।

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दूरभाष: 09555053370
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

विश्वशक्ति बनते भारत की कुपोषित-बीमार आबादी

- देवाशीष प्रसून

पूरी दुनिया में यह अभियान जोर-शोर से चल रह है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन का क़ानूनन अधिकार मिले। हमारे देश में भी लोगों ने इस बाबत कमर कस ली है। सरकार की नीति तो यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों को प्रतिमाह पैंतीस किलोग्राम अनाज सस्ते दर पर उपलब्ध करायी जाए, पर इस सरकारी नीति को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करते वक्त अगर नौकरशाही और ठेकेदारों की सेंधमारी न हुई होती तो शायद नज़ारा कुछ और ही होता। गौरतलब है कि सरकारी योजनाकारों द्वारा गरीबी की रेखा व प्रति परिवार सस्ते दर पर अनाज की मात्रा का आकलन भी बेहद अदूरदर्शी और मनगढ़ंत लगता है। बहरहाल, तक़रीबन ११० करोड़ की आबादी वाले देश में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक सन २००६ तक २५.१५ करोड़ लोग यानी आबादी का कम से कम बीस फीसदी हिस्सा भीषण रूप से कुपोषित था। यह हालात कमोबेश बरकरार है। जाहिर है इसका प्रमुख कारण खाने-पीने की चीज़ों का लोगों की पहुँच से बाहर होना है क्योंकि शौकिया तो कोई भूखा नहीं ही रहेगा।

जून २०१० में जारी विश्व बैंक का रपट कहता है कि भारत में जनवरी २०१० तक भोजन के थोक मूल्यों में वित्तीय वर्ष २००८-०९ के बनिस्बत जो बदलाव आए हैं, उससे भोजन तक लोगों की पहुँच मुश्क़िल हुई है। चीनी की कीमत ४२ फीसदी बढ़ी है और अनाज १४ फीसदी महँगे हुए हैं। दालों की कीमत में औसतन २८ फीसदी का उछाल आया है जबकि दूध, अंडे, मछलियों और सब्जियों के भाव भी मई तक ३५ फीसदी बढ़कर आसमान छूने लगे हैं। हालाँकि दूसरी ओर देखने वाली बात यह है कि इसी वक्त भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूँ और चावल का ४७५ लाख टन भंडारण हो चुका था, जो कि बफ़र स्टॉक से २७५ लाख टन फ़ाज़िल है। यानी खेती-किसानी की खस्ताहाल स्थिति के बावज़ूद भी सरकारी गोदामों में इतना अनाज तो है ही कि लोग भूखों न मरें। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में उनकी क्षमता से अधिक अनाज ठूँसे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। भूखे लोगों तक अनाजों को मुहैया कराने के बजाए विडंबना यह है कि या तो इन्हें चूहें हज़म कर जाते हैं या सड़ने के बाद इसे पानी में बहाया जा रहा है। अफ़सोस कि आज तक इन अनाजों के समुचित वितरण का सटीक और असरदार तरीका नहीं ढ़ूँढ़ा जा सका है। सरकार के लिए अब सिर्फ़ योजनाएँ बनाना नाकाफी है, ज्यादा ज़रूरी यह है ऐसी वितरण प्रणाली खड़ी की जाए जिससे ज़रूरतमंद लोगों का पेट आसानी से भर सके और हमारा समाज लंबे समय से चले आ रहे कुपोषण से मुक्त हो पाये।

२०१० के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक के मुताबिक ’सबसे भूखा कौन?’ के मुकाबिले में भारत अपने पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान और नेपाल से बहुत आगे है। कुल १२२ देशों में हुए अध्ययन में भारत ५५वाँ सबसे भूखा देश है। एक दूसरे स्रोत से पता चलता है कि दुनिया के कुल ९२.५ करोड़ लोगों की भूखी आबादी में से ४५.६ करोड़ लोग भारत में रहते हैं। क्या कारण है कि करीबन साढ़े आठ फीसदी की दर से तरक्की करने वाली इस देश की अर्थव्यव्स्था पर आश्रित आबादी में दो-तिहाई महिलाओं के शरीर में खून की कमी एक आम बात बन कर रह गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने भले ही, अस्थाई ही सही, सदस्यता हासिल की हो, लेकिन एक सवाल फन काढ़े खड़ा है कि जब इसके पाँच साल से छोटे बच्चे की लगभग आधी आबादी दिल दहलाने वाली कुपोषण का शिकार है तो भविष्य में इस देश की सुरक्षा की जिम्मेवारी किनके कंधों पर होगी? याद रहे, बचपन में मनुष्य का विकासशील शरीर अगर पर्याप्त पोषण जुटा नहीं पाता है तो इसका खामियाजा उसे ताउम्र भुगतना पड़ता है। भारतीय बच्चों में व्याप्त कुपोषण दरअसल देश की इंसानी नस्ल को शारीरिक और मानसिक तौर पर लाचार और कमजोर बना रहा है और इस कारण देश की सुरक्षा ही क्या, अब उसके पूरे अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि देश में होने वाली कुल बीमारियों में से २२ फीसदी बचपन में हुए कुपोषण के कारण होती हैं। सोचिए अब ऐसे हालात हैं तो क्या है इस देश का भविष्य? यही नहीं, कुपोषण का मामला इतना सपाट भी नहीं है, समाज के अलग-अलग तबकों की अलग-अलग कहानी है। ग़ौर करने वाली बात है कि देश में बच्चियाँ बच्चों से अधिक कुपोषित हैं और अनुसूचित जातियों व जनजातियों में कुपोषण का आँकड़ा सामान्य से कहीं अधिक है।

देश में भूख की इस गंभीर स्थिति के बाद भी सरकार के जानिब से बार बार इस तरह की बयानबाज़ी सुनने को मिलती रहती है कि हिंदुस्तान एक ताक़तवर मुल्क बनने की राह में बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। इन सरकारी दावों को विश्व अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे भी खूब हवा देते हैं। मीडिया का एक धड़ा भी इनके हाँ में हाँ मिलाता है। वाकई भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूती के पायदानों पर नित नई ऊँचाईयाँ हासिल कर रही है और इसके मद्देनज़र इस तरह की बातों का होना लाज़िमी भी है। लेकिन, आश्चर्य यह है कि आँकड़े तो कुछ और ही हाल बयान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पाँच साल पहले तक देश की ४१.१ फीसदी आबादी दिन भर में एक डॉलर याने चालीस-पैंतालिस रूपये से अधिक कमा नहीं पाती थी। यह स्थिति कमोबेश बरकरार है।

मगर, गौरतलब है कि अब भारत सरकार की बढ़ती कूवत की कई उदाहरण मिलने लगे हैं। ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों का है, जिसमें सरकार लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धनराशि और संसाधन खर्च कर रही है। किंतु, भारत की तुलना एक ऐसे परिवार से की जा सकती है, जहाँ बच्चे भूख से बिलख रहे हों और पिता अतिथियों को आमंत्रित करके स्वागत में राजसी भोजन परोस रहा है। हालाँकि इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के राजसत्ता की हैसियत पिछले दशकों के बरअक्स बहुत बढ़ी है, पर इसका फायदा अधिकतर जनता के नसीब में नहीं है। देश की ज्यादातर जनता अकाल जैसी स्थितियों में अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए कोल्हू का बैल बनी हुई है। जाहिर है उस देश की अमीरी का क्या मतलब, जिस देश में लोगों का स्वास्थ्य विश्व मानकों से बहुत नीचे हो। यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि महँगे कपडों से अपने कोढ़ को छुपाने की कोशिश की जा रही हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस साल जारी किए आँकड़ों से पता चलता है कि आज भी भारत में बच्चे को जन्म देते वक्त हर एक लाख माँओं में से साढ़े चार सौ माँएँ स्वर्ग सिधार जाती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति जलवायु के कारण नहीं है, क्योंकि अपने पड़ोस में बसा देश श्रीलंका प्रसव के दौरान एक लाख में केवल अठावन माँओं की जान को बचा पाने में चूकता है। यही संख्या पाकिस्तान में तीन सौ बीस माँएँ प्रति लाख माँ है, जो अधिक होने के बाद भी भारत से कम ही है। चीन में भी एक लाख माँओं में से पैंतालिस माँएँ मरने को विवश हैं, याने यह दर भारत में मरने वाली माँओं का दसवाँ हिस्सा मात्र है। खाद्य एवं कृषि संगठन से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक सन २००७ में हुई गणना में यह पाया गया कि भारत में दस हज़ार बच्चों में से औसतन ५४३ बच्चे जन्मते ही मर जाते हैं और ७१८ बच्चे पाँच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते हैं। यह सारे आँकड़े देशभर का औसत हैं और गाँवों की स्थिति तो और भी विभत्स है।

स्वास्थ्य संबंधी तकनीकियों का तड़ित गति से विकास होने के बाद भी यह सवाल क्यों खड़ा है कि देश में कुपोषण, बीमारियों और देखभाल की कमी के कारण अकालमृत्युओं की संख्या आसपास के अन्य देशों से अधिक है? जबाव जाहिर है कि भारत में विदेशियों को भले ही स्वास्थ्य पर्यटन पर आने के लिए रिझाया जा रहा हो, आमलोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ या तो नदारद हैं या नाकाफी। मौज़ूदा दशक पर एक नज़र दौड़ाए तो पायेंगे कि शहरी और ग्रामीण इलाकों को एकसाथ मिलाकर भारत में औसतन १६६७ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी एक चिकित्सक पर हैं। औसत का गणित यह है तो कहना न होगा कि ग्रामीण इलाकों मे जहाँ चिकित्सकों की कमी जगजाहिर है, वहाँ इस औसत से कितने अधिक लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा एक चिकित्सक पर होगा। याद रहे कि विश्वशक्ति बनने के होड़ में शामिल चीन और पाकिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बेहतर ही है।

देश में आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के कमी के क्या कारण हैं? सरकार जहाँ सैन्यीकरण पर पानी की तरह पैसा बहा रही है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन के रपट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद का ४.१ फीसदी खर्चा स्वास्थ्य पर किया जाता है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का २६.२ फीसदी बोझ ही सरकारी ख़जाने पर पड़ता है बाकी ७३.८ फीसदी देनदारी जनता की होती है। कुल मिलाकर देखे तो भारत में स्वास्थ्य के लिए सालाना १०९ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं और इसमें भी सरकारी हिस्सेदारी अत्यल्प है। चीन में स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च के २३३ डॉलर की राशि की भारत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। अरे! भारत से अधिक तो भूटान स्वास्थ्य मद में १८८ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च करता है।

कुल मिलाकर देखें तो एक बड़ा सवाल उभर के सामने आता है कि जहाँ की बीस फीसदी आबादी कुपोषित हो और बीमारियों का गिरफ़्त इतना विभत्स हो, वह देश किन आधारों पर किन लोगों के हित में विश्वशक्ति बनने के दावे पेश कर रहा है?

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संप्रति: पत्रकार और मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय

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