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रविवार, 9 जनवरी 2011

एक डॉक्टर से बिनायक सेन तक...

डॉ. बिनायक सेन पिछले तीन-चार दशकों से छत्तीसगढ़ के ग़रीब और मज़लूम आदिवासी जनता के डॉक्टर ही नहीं, बल्कि उनके सच्चे हमदर्द भी रहे हैं। डॉ. सेन को अमरीका के ग्लोबल हेल्थ काउंसिल द्वारा स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के लिये वर्ष २००८ का जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया था। विडंवना यह रही कि इस पुरस्कार को स्वीकार करने के लिये स्वयं वाशिंगटन डी.सी जाने की अनुमति भारतीय राजसत्ता और न्याय तंत्र द्वारा उन्हें नहीं दी गई। वह उस वक्त रायपुर के जेल में बंद थे। आश्चर्य इस बात का है कि डॉ. सेन पर यह पाबंदियां उन्हीं कामों के लिये लगायी गयी है जिन कामों लिये इस विश्वविख्यात संस्था ने एशिया के किसी व्यक्ति को पहली बार सम्मानित किया था। चाहे जिस तरह भी छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने का आरोप मढ़ते रहे, लेकिन असल मामला जगजाहिर है कि डॉ. सेन ने जिस तरह से छत्तीसगढ़ सरकार के प्रोत्साहन पर हो रहे बेशक़ीमती ज़मीन के कॉरपोरेट लूट और सलवा जुडूम के गोरखधंधे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, सरकार इसी बात का बदला उनसे ले रही है।

जब वे सलाखों के पीछे थे तो ग़रीब, मज़दूर व आदिवासी ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के कई तेजस्वी लोगों ने डॉ. सेन के रिहाई के लिए हल्ला बोल दिया। एक व्यापक जन-आंदोलन के चलते उनको जमानत पर रिहा किया गया। पर, २४ दिसंबर, २०१० को रायपुर की निचली अदालत ने डॉ. सेन को राजद्रोह का दोषी क़रार दिया। भूलना नहीं चाहिए कि इसी न्याय व्यवस्था ने सन १९२२ में महात्मा गाँधी को भी राजद्रोही माना था। भारत में राज भले ही बदल गया हो, लेकिन न्यायिक व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर अब भी चल रही है। कौन सा व्यक्ति राजद्रोही है और कौन देशभक्त, इस सवाल के अदालती जवाब को पहले भी शक सी नज़रों से देखा जाता था और आज भी। लेकिन इतिहास हमेशा याद रखता है कि समाज में किस व्यक्ति की क्या भूमिका रही है। डॉ. सेन को मिले ताउम्र कैद-ए-बामशक़्क़त की सज़ा से भारत ही नहीं, दुनिया भर का नागरिक समाज सकते में आ गया है। देश-विदेश के सभी विचारवान लोग, अपने अलग-अलग राजनीतिक विविधताओं के साथ रायपुर न्यायालय के इस फैसले को लोकतंत्र की अवमानना के तौर पर देख रहे हैं।

जमानत के दौरान डॉ. सेन जब जेल से बाहर थे तो उनसे बातचीत करने का मौका मिला, जिसका सारांश हमे डॉ. बिनायक सेन की शख़्सियत को समझने में मदद करता है। इस बातचीत में मैंने डॉ. सेन से उनके जीवन के उन संदर्भों को जानने का प्रयास किया है, जिसके बाद से उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह से जन-कल्याण के कामों में लगा दिया। उक्त बातचीत के आधार पर डॉ. बिनायक सेन के जीवन वृत्त का एक खाका खींचने की कोशिश की गई है।

डॉ बिनायक सेन कहते हैं कि सन ७६ के आसपास जब वो क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज़ में पढ़ाई कर रहे थे, उस समय चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए पैसा कमाने से अधिक रुझान नए-नए तकनीकों के जरिए विज्ञान की गूढ़ता से साबिका करना था। डॉक्टर अकसर अपने देश से पलायन करके समृद्ध देशों में अपनी सेवाएँ देने को लालायित रहते थे। जहाँ उन्हें तकनीक से और अधिक रू-ब-रू होने मौका मिलने की उम्मीद थी। यह दौर तकनीकी चकाचौंध का दौर था। तकनीक विज्ञान का पर्याय होता दिख रहा था।

लेकिन इसी दौर में कुछ और भी था, जिसने बिनायक के ध्यान को विदेशी तकनीकों के तरफ़ नहीं, बल्कि अपने देश के झुग्गियों और ग़रीब मोहल्लों की ओर मोड़ा। बाल चिकित्सा में एम.डी. करते वक्त उनका उठना-बैठना ऐसे शिक्षकों के साथ हुआ, जो आमलोगों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे थे। उनमें से एक थी – डॉ. शीला परेरा। डॉ. परेरा पोषण विज्ञान की जानकार थी और उन्होंने बिनायक को ग़रीब बच्चों के पोषण संबंधित विषय पर काम करने को प्रोत्साहित किया। बिनायक का यह काम उनके एम.डी. के लघु-शोध की शक्ल में था। पहली बार अस्पताल और मेडिकल कॉलेज से निकल कर उन्हें मरीज़ों के मर्ज़ और मर्ज़ के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समझने का मौका मिला। धीरे-धीरे वो समझने लगे कि किसी रोग को समझने के लिए बस जीव-वैज्ञानिक व्याख्या ही महत्वपूर्ण नहीं, अपितु रोगों के मूल में मौज़ूद सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्याख्याएँ भी समझना ज़रूरी है।

बाल चिकित्सा में विशेषज्ञता हासिल करने के बजाय बिनायक को एक ऐसी नौकरी की तलाश थी, जहाँ वो रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों को बेहतर समझ सकें। साथ ही, वह सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए भी काम करना चाहते थे। उनकी तलाश दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्गत चल रहे सामाजिक औषधि व सामुदायिक स्वास्थ्य अध्ययन केंद्र पर जा कर थमीं। इसी बीच कुछ प्रगतिशील चिकित्सकों ने मिलकर मेडिको फ्रेंड्स सर्कल का गठन किया। इसका उद्देश्य बीमारियों और जनस्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल करना था। बिनायक इन दोनों मंचों के जरिए समाज में व्याप्त रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का अध्ययन कर रहे थे। मेडिको फ्रेंड्स सर्कल की कोई खास राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। उनमें से कुछ चिकित्सक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहे छात्र संषर्ष वाहिणी के समर्थक थे तो कुछ मार्क्सवादी। पर एक बात जो सामान्य थी वो यह कि सब यह मानते थे कि रोग के इलाज़ में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारकों का निपटारा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

यह एक ऐसा समय था, जब सरकारें सभी दिक़्क़तों का हल तकनीकों के जरिए ही संभव होते देख रही थी। जैसे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए उन्हें एकमात्र विकल्प हरित क्रांति के रूप में सूझा। या जैसे, मलेरिया के रोकथाम में उन्होंने डीडीटी को कारगार पाया। लेकिन, सरकारों ने इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि ये सारे तकनीकी उपाय लंबे समय तक नहीं टिकेंगे। इस विकास में पुनरुत्पादन की गंभीर समस्या थी। तकनीकों के जरिए कृत्रिम विकास ही संभव है, जो विकास की एक मुसलसल प्रक्रिया को जारी नहीं रख सकता। तकनीक बस वे कृत्रिम हालात तैयार कर सकती है, जिससे हालात खास परिस्थियों में सुधरते नज़र आते हैं। असल में हालत सुधरते नहीं, तकनीकों के हटते ही, स्थितियाँ और बुरी हो जाती हैं। तकनीकों के मुकाबिले तमाम समाजिक समस्याओं, रोगों और विपन्नता को हराने के लिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उपाय ही महत्वपूर्ण है, ऐसा सरकारें अब तक नहीं समझ पायीं हैं।

सन ’७८ में बिनायक का पत्नी इलीना के साथ मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले में आना हुआ, जहाँ उन्होंने गाँवों में घूम-घूम कर तपेदिक के ग़रीब मरीज़ों का इलाज़ किया। सन ’८१ में बिनायक और इलीना पीयूसीएल से जुड़े। यह वो समय था जब दल्ली राजहरा में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों का मज़बूत संगठन अस्तित्व में आ चुका था। इस मज़दूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ था। नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया। पीयूसीएल ने इस गिरफ़्तारी की जाँच के लिए एक दल को दल्ली राजहरा भेजा। बिनायक इस जाँच-दल के सदस्यों में से एक थे।

बिनायक को जब इस इलाके की असलियत का पता चला तो उन्होंने यहीं रह कर लोगों के स्वास्थ्य के लिए काम करने का फ़ैसला लिया। नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों द्वारा संचालित अस्पताल में वे नियमित रूप से अपनी सेवाएँ देने लगे। इलीना भी स्त्री अधिकारों और शिक्षा के लिए काम करने लगीं। सन ’८८ में इन दोनों का रायपुर आना हुआ। जहाँ बिनायक ने तिलदा के एक ईसाई मिशनरी में काम किया। इलीना ने रूपांतर नाम से एक ग़ैर सरकारी संगठन की स्थापना की, जो मूलतः कामकाजी बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता था। ’९१ से बिनायक भी रूपांतर के साथ काम करने लगे।

छत्तीसगढ़ में महानदी बाँध के बनने से आदिवासियों का विस्थापन शुरू हो गया था। विस्थापित आदिवासी जनता जीवन-यापन के लिए जंगल में जाकर बस्तियाँ बसाने लगे। सरकार ने इसे आदिवासियों द्वारा जंगल का अतिक्रमण माना। ये बस्तियाँ सरकार के नज़र में ग़ैर-क़ानूनी व अनाधिकृत थी। इस कारण इन इलाकों में रहने वाले लोगों को सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रखा गया था। नगरी सेवा इलाके में भी कुछ ऐसे ही गाँव शामिल थे। सुखलाल नागे के बुलावे पर बिनायक ने यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराई।

पुलिसिया दमन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। ग़रीब और ग़रीब होते जा रहे थे। औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापन को आम जनता पर लादा जाने लगा। बस्तर में पीने के पानी का आभाव था, गंदा पानी पीने से लोगों के बीच हैजा फैल गया। सरकारी नीतियों से लोग त्रस्त होकर विरोध और प्रतिरोध करने लगे, तो उनके दमन के लिए उनका फर्ज़ी मुठभेड़ में विरोध करने वालों की लाश बिछाने की घटना आम हो गयी। लोगों के मानवीय अधिकारों के लिए आवाज़ बलंद करने और इन सभी परिस्थितियों से सामना करते हुए बिनायक ने अपने अंदर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता का विकास किया।

जैसे-जैसे समय बीतते गया, इलाके में कॉरपोरेट लूट बढ़ती गई। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से सरकार की ताक़तों में और भी इज़ाफ़ा हुआ। सन २००५ की बात है देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम को लागू किया। ग़ौर करें तो दोनों ही क़ानून जनविरोधी ही नहीं थे, बल्कि इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों व असहमतियों की स्वरों का गला घोंटने के लिहाज़ से बनाया गया था। एक लोकतांत्रिक समाज की एक जनतांत्रिक छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार जैसे व्यापारिक प्रतिष्ठान से गुप्त समझौता करती है। इसके बाद से यही सरकार आम जनता के सैन्यीकरण को प्रोत्साहित करने लगी। लक्ष्य था आदिवासियों की बेशक़ीमती ज़मीनों को इन कम्पनियों के लिए हथियाना। सलवा जुडूम के नाम को आम असैनिक जनता के सैन्यीकरण को नैतिक, आर्थिक. सामरिक और हथियारों से मदद कर के छत्तीसगढ़ में सरकार ने गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि बनाना शुरू किया। डॉ. सेन ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते उन्होंने देश भर के जागरूक लोगों को छत्तीसगढ़ में रहे इस अन्याय के प्रति आगाह किया और कालांतर में छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम को प्रश्रय देने के लिए शर्मिंदा होना पड़ा।

डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने के आरोप है, लेकिन डॉ. सेन का इस विषय पर बहुत पहले से स्पष्ट रूख रहा है। वे कहते हैं कि वह नक्सलियों की अनदेखी नहीं करते लेकिन उनके हिंसक तरीकों का समर्थन भी नहीं करते हैं। वह ज़ोर देते हुए कहते है कि मैंने हिंसा की बार-बार मुख़ालफ़त की है, चाहे वह हिंसा किसी ओर से की जा रही हो।


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बुधवार, 28 जुलाई 2010

विकास तो चाहिए, पर किस तरह?


- देवाशीष प्रसून

द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति तक साम्राज्यवादी ताक़तों को यह समझ में आ गया था कि अब केवल युद्धों के जरिए उनके साम्राज्य का विस्तार संभव नहीं है। उन्हें ऐसे कुछ तरक़ीब चाहिए थे, जिसके जरिए वे आराम से किसी भी कमज़ोर देश की राजनीति व अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर सकें। इसी सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के फलक पर ’विकास’ को फिर से परिभाषित किया गया। इससे पहले विकास का मतलब हर देश, हर समाज के लिए अपनी जरूरतों व सुविधा के मुताबिक ही तय होता था। पर, संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश व विश्व व्यापार संगठन जैसे ताकतवर प्रतिष्ठानाओं के उदय के बाद से विकास का मतलब औद्योगिकरण, शहरीकरण और पूँजी के फलने-फूलने के लिए उचित माहौल बनाए रखना ही रह गया। दुनिया भर के पूँजीपतियों की यह गलबहिया दरअसल साम्राज्यवाद के नये रूप को लेकर आगे बढ़ी। इस प्रक्रिया में दुनिया भर में बात तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने की हुई, लेकिन हुआ इससे बिल्कुल उलट।

भारत में शुरु से ही विकास के नाम पर गरीबों का अपने ज़मीन व पारंपरिक रोजगारों से विस्थापन हुआ है। जंगलों को हथियाने के लिए बड़े बेरहमी से आदिवासियों को बेदख़ल किया गया जो आज भी मुसलसल जारी है। आँकड़े बताते हैं कि सन ’४७ से सन २००० के बीच सिर्फ़ बाँधों के कारण लगभग चार करोड़ लोग विस्थापित हुए है, अन्य विकास परियोजना के आँकड़े अगर इसमें जोड़ दिए जायें तो विस्थापन का और भयानक चेहरा देखने को मिलेगा। विकास के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर मानवाधिकार उल्लंघन, सैन्यीकरण और संरचनात्मक हिंसा की घटनाओं में लगातार इज़ाफा हुआ है।

औद्योगीकरण, शहरीकरण, बाँध, खनिज उत्खनन और अब सेज़ जैसे पैमानों पर विकास की सीढ़ियों पर नित नए मोकाम पाने वाले हमारे देश में इस विकास के राक्षस ने कितना हाहाकार मचाया है, यह शहर में आराम की ज़िंदगी जी रहे अमीर या मध्यवर्गीय लोगों के कल्पना से परे है, पर देश में अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ता दायरा इस विभत्स स्थिति की असलियत चीख़-चीख़ कर बयान करता है। बतौर बानगी, देश में बहुसंख्यक लोग आज भी औसतन बीस रूपये प्रतिदिन पर गुज़रबसर कर रहे हैं और दूसरी ओर कुछ अन्य लोगों के बदौलत भारत दुनिया में एक मज़बूत अर्थव्यव्स्था के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। अलबत्ता, सरकार अपनी स्वीकार्यता बनाये रखने के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी सरीखे योजनाएं भी लागू करती हैं। पर, इस तरह की योजनाओं का व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते क्या हश्र हो रहा है, सबको पता है और फिर भी अगर साल भर में सौन दिन का रोज़गार मिल भी जाए तो बाकी दिन क्या मेहनतकश आम जनता पेट बाँध कर रहे? हमारी सरकार विकास को शायद इसी स्वरूप में पाना चाहती है?

देश में विकास में मद्देनज़र ऊर्जा की बहुत अधिक खपत है और विकास के पथ पर बढ़ते हुए ऊर्जा की जरूरतें बढ़ेंगी ही। ऊर्जा के नए श्रोतों में सरकार ने न्यूक्लियर ऊर्जा के काफी उम्मीदें पाल रखी हैं। जबकि कई विकसित देशों ने न्यूक्लियर ऊर्जा के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए इनके उत्पादन के लिए प्रयुक्त रियेक्टरों पर लगाम लगा रखा है, वहीं भारत सरकार को अपने यहाँ इन्हीं यम-रूप उपकरणों को स्थापित करने की सनक है। और अब आलम यह है कि न्यूक्लियर क्षति के लिए नागरिक देयता विधेयक पर सार्वजनिक चर्चा किए बिना ही इसे पारित करवाने की कोशिश की गई। इसमें यह प्रावधान था कि भविष्य में बिजली-उत्पादन के लिए लग रहे न्यूक्लियर संयंत्रों में यदि कोई दुर्घटना हो जाए, तो उसको बनाने या चलाने वाली कंपनी के बजाय भारत सरकार क्षतिपूर्ति के लिए ज़िम्मेवार होगी। अनुमान है कि ऐसी किसी भी स्थिति में भारत सरकार को जनता के खजाने से हर बार कम से कम इक्कीस अरब रूपये का खर्च करने पड़ेंगे। विदेशी निगमों को बिना कोई दायित्व सौंपे ही, उनके फलने-फूलने के लिए उचित महौल बनाए रखने के पीछे हमारी सरकार की क्या समझदारी हो सकती है? सरकार के लिए विकास का यही मतलब है क्या?

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में उन्नत गुणवत्ता वाले लौह अयस्क प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। यह जगह पारंपरिक तौर पर आदिवासियों का बसेरा है और वे इस इलाके में प्रकृति का संरक्षण करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं। इन आदिवासियों का जीवन यहाँ के जंगलों के बिना उनके रोजगार और सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन से विस्थापन जैस होगा। सरकार को विकास के नाम पर यह ज़मीन चाहिए, भले ही, ये आदिवासी जनता कुर्बान क्यों न हो जायें और पर्यावरण संरक्षण की सारी कवायद भाड़ में जाए। इस कारण से जो ज़द्दोजहद है, उसकी परिणति गृहयुद्ध जैसी स्थिति में है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। सूत्रों से पता चलता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न गांवों के अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था का एकमात्र उद्देश्य विकास करना है। सवाल यह है कि यह विकास किसका होगा और किसके मूल्य पर होगा?

विकास के इस साम्राज्यवादी मुहिम में उलझे अपने इस कृषिप्रधान राष्ट्र में आज खेती की इतनी बुरी स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? विदेशी निगम के हितों को ध्यान में रखकर वैश्विक दैत्याकार प्रतिष्ठानों के शह पर हुई हरित क्रांति अल्पकालिक ही रही। जय किसान के सारे सरकारी नारे मनोहर कहानियों से अधिक कुछ नहीं थे। खेती में अपारंपरिक व तथाकथित आधुनिक तकनीकों के प्रवेश ने किसानों को बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों व सिंचाई, कटाई और दउनी आदि कामों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नियंत्रित उद्योगों के उत्पादों पर निर्भर कर दिया है। हरित क्रांति के आह्वाहन से पहले भारतीय किसान बीज-खाद आदि के लिए सदैव आत्मनिर्भर रहते थे। लेकिन कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा लादे गये आयातित विकास योजनाओं ने किसानों को हर मौसम में नए बीज और खेतीबाड़ी में उपयोगी ज़रूरी चीज़ों के लिए बाज़ार पर आश्रित कर दिया है। बाज़ार पैसे की भाषा जानता है। और किसानों के पास पैसे न हो तो भी सरकार ने किसानों के लिए कर्ज की समुचित व्यवस्था कर रखी है। इस तरह से हमारी कल्याणकारी सरकारों ने आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और संपन्न किसानों को कर्ज के चंगुल में फँसाते हुए ’ऋणं कृत्वा, घृतं पित्वा’ की संस्कृति का वाहक बनाने का लगातार सायास व्यूह रचा है। छोटे-छोटे साहूकारों को किसानों का दुश्मन के रूप में हमेशा से देखा जाते रहा है, पर अब सरकारी साहूकारों के रूप में अवतरित बैंकों ने भी किसानों का पोर-पोर कर्ज में डुबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कर्ज न चुकाने की बेवशी से आहत लाखों किसानों के आत्महत्या का सिलसिला जो शुरु हुआ, ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

कृषि में विकास का कहर यहाँ थमा नहीं है, हाल में पता चला है कि हरित क्रांति के दूसरे चरण को शुरु करने को लेकर जोर-शोर से सरकारी तैयारियाँ चल रही है। छ्त्तीसगढ़ में धान की कई ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जिनकी गुणवत्ता और उत्पादन हाइब्रिड धान से कहीं अधिक है और कीमत बाज़ार में उपलब्ध हाइब्रिड धान से बहुत ही कम। फिर भी, दूसरी हरित क्रांति की नए मुहिम में कृषि विभाग ने निजी कंपनियों को बीज, खाद और कीटनाशक दवाइयों का ठेका देने का मन बना लिया है। ठेका देने का आशय यह है कि उन्हीं किसानों को राज्य सरकार बीज, खाद या कीटनाशक दवाइयों के लिए सब्सिडी देगी, जो ठेकेदार कंपनियों से ये समान खरीदेंगे, अन्यथा किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि इस तरह से ये निजी कंपनीयां किसानों को अपने द्वारा उत्पादित बीज महंगे दामों पर बेचेगी और एक बड़ी साजिश के तहत किसानों के पास से देशी बीज लुप्त हो जायेंगे। बाद में फिर किसानों को अगर खेतीबाड़ी जारी रखनी होगी तो मज़बूरन इन कंपनियों से बीज वगैरह खरीदने को बाध्य होना पड़ेगा। यह किसानों को खेती की स्वतंत्रता को बाधित करके उन्हें विकल्पहीन बनाने का तरीका है। कुल मिलाकर खेतीबाड़ी को एक पुण्यकर्म से बदल कर अभिशाप में तब्दील करने के लिए सरकार ने कई प्रपंच रचे हैं। जिससे कोफ़्त खाकर लोग आत्मनिर्भर होने के बजाये पूँजीवादी निगमों की नौकरियों को अधिक तवज्जों देने को मज़बूर हो।

विकास के तमाम उद्यमों के वाबज़ूद, हमारा देश पिछले कुछ महीनों से कमरतोड़ महंगाई के तांडव को झेलता आ रहा है। दाल, चावल, खाद्य तेलों और सब्जियों जैसी ज़रूरी खाद्य वस्तुओं के आसमान छूती कीमतों के आगे सरकार हमेशा घुटने टेकती ही दिखी। पेट्रोल व डीज़ल के उत्पाद के बढ़ते दाम से ज़रूरत की अन्य चीज़ों की कीमत महंगे ढुलाई के कारण बढेगी ही और यों बढ़ रही कीमतों से पूरा जनजीवन त्राहिमाम कर रहा है। बेहतर जीवन स्थिति बनाना भर ही सरकार का काम है। असामान्य रूप से बढ़ती कीमतों के लिए एक तरफ अपनी लाचारी दिखाते हुए सरकार दूसरी ओर, यह डींग हाँकने से परहेज़ भी नहीं करते कि देश ने इतना विकास कर लिया है कि भारत की गिनती अब विश्व के अग्रनी देशों में हो रही है। अगर किसी देश की अधिकतर जनता को यह नहीं पता हो कि वह जी-तोड़ मेहनत के बाद वह जितना कमायेगा, उसमें उसका और उसके परिवार का पेट कैसे भर पायेगा, तो इससे ज्यादा अनिश्चितता क्या हो सकती है? बढ़ती महंगाई को एक सामान्य परिघटना के रूप में प्रस्तुत करना सर्वथा अनुचित है। देश की सरकार की नैतिक ज़िम्मेवारी है, कि देश की जनता को अपना जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिए वह अनुकूल परिस्थिति बनाए रखे, जिसमें विकासवादी सरकारों को कोई मतलब नहीं दिखता। लोग सोचने को मज़बूर हो रहे हैं कि इस देश में विकास तो रहा है, जोकि बकौल सरकार होना ही चाहिए, लेकिन यह किस तरह और किनके लिए हो रहा है?

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सोमवार, 14 जून 2010

नक्सलवाद और सरकार के अंतर्विरोध

- देवाशीष प्रसून

भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक रपटों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति है और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति विद्यमान है। यानी, देश के सत्ता तंत्र का इस मोर्चे पर विफल होने को लेकर कोई दो-राय नहीं है।

एक और सरकारी दस्तावेज़ का उद्धहरण लें। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया, जो यह जायजा लेता कि भू-सुधार के अधूरे कामों के मद्देनज़र राज्य के कृषि संबंधों की अभी क्या स्थिति है? माननीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में काम कर रहे इस आयोग द्वारा मार्च ’०९ में ड्राफ़्ट किये गए रपट के पहले भाग के चौथे अध्याय में जिक्र है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। रपट में अपनी ज़मीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों को ही भाकपा(माओवादी) के सदस्य के रूप में संबोधित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सरकारी दस्तावेज़ कहता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न सात गांवों व आसपास के इलाकों का अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। ये कोलंबस के बाद आदिवासी जमीन की लूट खसोट का सबसे बड़ा मामला है। ये वाक्य मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर नक्सल समर्थक होने की चिप्पी लगाकर मुझे प्रताड़ित किया जा सकता है, अब हर कोई अरुंधती जैसा बहादुर तो नहीं हो सकता! सच मानिये लूट-खसोट का यह आरोप उपरोक्त बताये गए ड्राफ्ट रपट से ही उद्धृत है। आश्चर्य है कि यहाँ जिस ड्राफ्ट रपट का जिक्र हो रहा है, इसका अंतिम स्वरूप जब अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया गया तो रपट का उपरोक्त पूरा हिस्सा ही गायब था। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था के गोरखधंधा को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यों व्यक्त किया है कि “ एक ही संविधान के नीचे...भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम...’दया है’...और भूख में...तनी हुई मुट्ठी का नाम...नक्सलवाड़ी है।

हालांकि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता है। लेकिन जब जनसाधारण पर व्यवस्था की संरचनात्मक हिंसा की सारी हदें पार हो जाती हैं तो इतिहास साक्षी रहा है कि आत्मरक्षा में लोगों की प्रतिहिंसा को टाला नहीं जा सका है। इस वर्गसंघर्ष में हो रही हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले में, हाल में, नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में लगाये गए प्रेशर बम से दो बार बड़ी संख्या में लोग मरे हैं। यह दिल दहला देने वाली घटना थी। पहले हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ७६ सशस्त्र जवान मारे गए। सरकार ने इसे जनसंवेदना से जोड़ना चाहा जैसे कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हुआ सबसे बड़ा हमला था। माहौल बनाया गया कि थलसेना और वायुसेना की मदद से नक्सलवाद जैसे ठोस जनसंघर्ष को बिल्कुल वैसे ही कुचला जाये, जैसे श्री लंका में तमिलों के जनसंघर्षों को कुचला गया। लेकिन, लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध की स्थिति है और युद्ध में सैनिक तो शहीद होते ही हैं। बुद्धिजीवियों ने नक्सली हिंसा के बरअक्स छत्तीसगढ़ में चल रहे इस युद्ध का विरोध किया। थल व वायु द्वारा नक्सलियों पर हमले पर आम-राय नहीं बन पायी। पर, नक्सलियों के अगली घटना ने कई लोगों के मन में नक्सलियों के लिए घृणा भर दिया है। इसमें एक ऐसी बस को निशाना बनाया गया जिसमें सवार कई निहत्थी औरतों और बच्चों की जान गयी। लेकिन, इस मामले में एक सवाल ऐसा है जो परेशान किये जाता है। एक युद्धक्षेत्र में हथियारबंद विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को आमलोगों, महिलाओं और बच्चों के साथ एक ही बस में क्यों भेजा गया? जबकि सैन्य बलों पर नक्सलियों का मंडराता खतरा दक्षिणी छत्तीसगढ़ में आमबात है, तो फिर क्या निर्दोष लोगों को एसपीओ के साथ भेज कर बतौर ’चारा’ इस्तेमाल किया गया, जिससे नक्सलियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले के लिए जनमानस तैयार हो सके? यह बस एक प्रश्न है, कोई इल्ज़ाम नहीं है सरकार पर। जबकि बकौल भारतीय वायुसेना जाहिर है कि वे चुनिंदा लोगों से लड़ने (सेलेक्टड कॉमवेट) में दक्ष नहीं है, इनकी दक्षता निशाने का मुकम्मल विनाश(टोटल कॉमवेट) करने में है, तो ऐसे में नक्सलियों के विरुद्ध अगर हवाई हमला हुआ तो स्पष्ट है कई निर्दोष जाने जायेंगी।

हाल में ही एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी है, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, डेढ़ सौ लोग मारे गए और दो सौ घायल हुए। आनन-फानन में बिना जाँच पड़ताल किये ही इसे नक्सली आतंक का नाम दिया गया। जबकि पाँच जून को एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में आयी ख़बर के मुताबिक माओवादियों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और भरोसा दिलाया कि माओवादियों द्वारा किसी यात्री ट्रेन व आमलोगों पर हमला नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के पीछे कौन है, वे इसकी जाँच कर रहे हैं और इसके दोषियों बख्शा नहीं जायेगा।

अलबत्ता सरकारी रपटों के मुताबिक नक्सलवाद की जड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विषमता में है। पर, दूसरी ओर सरकार और उनका पूरा प्रचार तंत्र नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। विचारने वाली बात है कि नक्सलवाद से किसको ख़तरा है? क्या गरीब, विपन्न, आदिवासी लोगों व उद्योगों, ख्रेतों और अन्य जगहों पर विषम परिस्थितियों में काम करने वाले बहुसंख्य मेहनतकश जनता को नक्सलवाद से ख़तरा है? या फिर देश के मुट्ठी भर पूँजीपतियों और उनकी ग़ुलामी घटने वाली करोड़ों मध्यवर्गीय जनता के लिए नक्सलवाद संकट का विषय है। ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना होगा।(समाप्त)

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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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रविवार, 24 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ के अनुभव

छत्तीसगढ़ में ...
(डायरी के कुछ अंश, जनवरी २०१० के समयांतर में प्रकाशित)
- देवाशीष प्रसून
९ दिसंबर
सूचना मिली कि १२ और १३ दिसंबर २००९ को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पूरे देश से लगभग पच्चीस नारी अधिकार संगठनों की कार्यकर्त्ताएँ इकट्ठा
होने वाली हैं, जो राज्य सत्ता द्वारा किए जाने वाले दमनों के दौरान किए जाने वाली यौन-हिंसा पर अपनी जानकारियों, अनुभवों और इसके खिलाफ़ किए गए अपने संघर्षों को साझा करेंगी। यह कार्यक्रम २४ और २५ अक्टूबर २००९ को भोपाल में हुए यौन हिंसा एवं राजकीय दमन के विरुद्ध महिलाओं के साझा अभियान की निरंतरता में था। कार्यक्रम के अगले चरण में यह भी यह तय था १४ तारीख को इस सम्मेलन से कुछ प्रतिनिधि दंतेवाड़ा जिले के नेंड्रा गाँव में
जाकर बलात्कार-पीड़ित महिलाओं के प्रति अपनी हमदर्दी व्यक्त करेंगी। मैंने
निर्णय लिया कि मुझे भी इस आयोजन का एक हिस्सा बनना है। कारण - अव्वल तो ऐसे आयोजनों से देश के सुदूर इलाकों में हो रहें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का पता चलता है। दूसरा यह है कि इन आयोजनों में शिरकत करने से आमलोगों और जनजीवन से जुड़ी उन ख़बरों की जानकारी होती है, जो आज व्यावसायिक मीडिया के जरिए लोगों तक नहीं पहुँच रही हैं। वहाँ जाने का तीसरा और सबसे मह्त्वपूर्ण आकर्षण दंतेवाड़ा जाकर अपने देश के एक ऐसे हिस्से को समझना-बूझना था, जिसे तनावग्रस्त घोषित करके सरकार ने विदेशवत कर दिया है, जहाँ आप प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध नहीं आ-जा सकते हैं।
१२ दिसंबर
सुबह रायपुर पहुँचा। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्त्ताओं ने इस सम्मेलन में ठहरने और भोजन आदि की व्यवस्था संभाल रखी थी। नियत समय पर बैठक शुरू हुई। कार्यक्रम की शुरूआत में ही नारायणपटना में हुई राजकीय दमन पर चिंता व्यक्त की गई। वहाँ के आदिवासियों इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि जिन ज़मीनों को उनके पूर्वजों ने जंगल की सफाई करके खेती योग्य बनाया था, उस पर उनका हक़ होना चाहिए। लेकिन पुलिस ने मौज़ूदा ज़मींदारों का साथ दिया। आदिवासियों के प्रति अपने सौतेला रवैये के कारण पुलिस इस आंदोलन को कुलचने में लगी रही। आंदोलनकारियों की धर-पकड़ शुरू हुई। महिलाओं के खिलाफ यौन-हिंसा की गई। त्राहिमाम करते हुए जब आदिवासी जनता थाने में पहुँची, तब पुलिस ने उन पर गोलियाँ दागनी शुरू की, जिसके कारण दो लोगों की हत्या हुई और पच्चीसों लोग घायल हुए। इस मामले के तह तक जानने के लिए नारी अधिकार आंदोलनों से जुड़ी हुई कुछ महिलाएं उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक गई। मैं यह जानकर पहले दंग हुआ और फिर क्रोधित कि किस तरह से ज़मींदारों के गुंडों ने पुलिस की शह पर इस प्रतिनिधिमंडल की महिलाओं पर फब्तियाँ कसी, उन्हें लिंग आधारित गालियाँ दी और उनके वाहन चालक पर जानलेवा हमला किया। आज बैठक के पहले दौर में ही नारायणपटना के इन वारदातों की भर्त्सना करते हुए निंदा प्रस्ताव पारित किया गया।
बैठक के अगले चरण में नारी अधिकार संगठन की प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी
समस्याओं और उनसे जूझने के अपने संघर्षों से वाक़िफ़ कराया। अगर मैं नारी
अधिकार संगठनों की मौज़ूदा स्थिति में समस्याओं का सूत्रीकरण करूँ तो मैं बाज़ार के वर्चस्व को उनका दुश्मन पाता हूँ। जैसे एक प्रतिनिधि से यह जानकारी मिली कि किस तरह से यौन शक्तिवर्धक दवाओं के कारण स्त्रियों पर
उनके पतियों के द्वारा बर्बर यौन-हिंसा के मामले सामने आये हैं। जान कर दिल दहल गया कि एक महिला ने तो अपने पति के यौन-अत्याचारों से तंग आकर अपने योनिद्वार पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग़ लगा लिया। बाज़ार में सर्वत्र उपलब्ध ब्लू फ़िल्मों की सीडी पर चर्चा करते हुए एक प्रतिनिधि कहा कि इन फ़िल्मों के कारण पुरूष दाम्पत्य जीवन में स्त्रियों को उपभोग की वस्तु तक सीमित करके देखने लगे है और इस तरह से महिलाओं पर यौन हिंसा में इज़ाफ़ा हुआ है। पूरे बैठक के दौरान कई नारी अधिकार कार्यकर्ताओं ने कई बार शराब के चंगुल में फँसे पुरूषों द्वारा की जाने वाली हिंसा के लिए चिंता व्यक्त करते हुए इसके ख़िलाफ़ अपने संघर्षों के बारे में अपनी बात रखी।
१३ दिसंबर
सुबह नाश्ते के वक्त भोपाल से आयी एक कार्यकर्ता से बातों-बातों में बताया कि लेधा के मामले में आगे क्या हुआ? तारीख ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन यह मामला सन २००५-६ का रहा होगा। लेधा की शादी सरगुजा जिले के रमेश नगेशिया से हुई थी। चूँकी रमेश माओवादी विचारधारा का समर्थक था, इसलिए पुलिस ने लेधा पर भी नक्सली होने का ठप्पा लगाकर तीन सीआरपीफ जवानों की हत्या के अरोप में धर लिया। गिरफ़्तारी के वक्त वह गर्भवती थी। वकील
अमरनाथ पाण्डेय की कोशिशों के बल पर उसे प्रसव के लिए एक महीने की जमानत मिली, लेकिन कुल ढेड़ साल के कारावास के बाद ही उसे झूठे आरोप से मुक्त करवाया जा सका। पुलिस के बहलाने-फुसलाने पर लेधा ने अपने पति को
आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया। परंतु जब रमेश आत्मसमर्पण के लिए थाने में उपस्थित हुआ तो पुलिस अधीक्षक एस आर पी कल्लूरी के इशारे पर उसे गोली मार दी गई। लेधा का मुँह बंद करने के लिए उसे भी मारने क आदेश कल्लूरी ने दिया, लेकिन फिर यह कह कर उसकी हत्या नहीं की गई कि एक औरत की जान लेने की क्या ज़रूरत है? उसे चुप करने के लिए मौत से बड़ी प्रताड़ना भी हो सकती है। भय और शोक में लेधा तीन महीनों के लिए अपने मायके अंबिकापुर चली गयी। उसके लौटने पर घात लगा बैठी पुलिस उसे बलरामपुर थाने ले गई, जहाँ कल्लूरी ने उस पर यौन-अत्याचार किया। विद्रुप मानसिकता के पुलिस कर्मियों ने उसके योनि में हरी मिर्च डाल कर हैवानियत की सारे हदें लाँघ ली। लगातार दस दिनों तक यह सिलसिला चलते रहा। इस इलाके का कुख्यात एसपीओ धीरज जायसवाल एक ऐसा अतातायी है, जो जब चाहे किसी के साथ बलात्कार कर सकता है या किसी को भी नक्सली बताकर उसकी हत्या कर दे। धीरज ने भी थाने में लेधा के साथ शराब पी कर बलात्कार किया। पीयूसीएल की मदद से लेधा ने कल्लूरी और अन्य के ख़िलाफ़ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में मुकदमा किया था। भोपाल की जिस महिला से मैं लेधा के बारे में बातें कर रहा था, उन्होंने बड़े अफ़सोस के साथ बताया कि दवाब में आकर लेधा ने अपनी शिक़ायत वापस ले ली है।
१४ दिसंबर को दंतेवाड़ा जाने की योजना पर बातचीत होने पर पता चला कि वहाँ पहुँच कर हम हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम में जायेंगे और फिर
वहाँ की आदिवासी महिलाओं से मुलाक़ात होगी। यह भी पता चला कि हिमांशु
दंतेवाड़ा के नेंड्रा से शांति स्थापना और न्याय का माहौल बनाने की अपील के साथ पदयात्रा शुरू करने वाले हैं। हिमांशु एक गांधीवादी कार्यकर्ता है, जो अपने एनजीओ वनवासी चेतन आश्रम के जरिए जनकल्याण की सरकारी योजनाओं
को पूरा करते रहे है। लेकिन जब से हिमांशु ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार आदिवासियों को शिविरों से निकाल कर वापस गाँवों में उनका पुनर्वास करने का मुहिम छेड़ी है, तब से सरकार और व्यापारी वर्ग उन्हें नक्सली संबोधित करने लगा है। एक अख़बार से पता चला कि १० दिसंबर, मानवाधिकार दिवस के रोज राज्य समर्थित प्रतिक्रियावादी व्यापारियों के समूह ने माँ दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच के नाम से हिमांशु की गिरफ़्तारी की माँग की। जबकि विडंबना यह है कि वनवासी चेतना आश्रम के कार्यकर्ता दंतेवाड़ा में जो काम कर रहे हैं, उसे छत्तीसगढ़ सरकार को ही करना चाहिए था। इसके बरअक्स, सरकार आश्रम के कार्यकर्ताओं का दमन कर रही है। आश्रम के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। १० दिसंबर की ही बात है कि लगभग दिन के ढ़ाई बजे भैरामपुर पुलिस थाने के टीआई आश्रम से स्वयंसेवी कोपा कुंजाम को दंतेवाड़ा पुलिस कोतवाली में पूछताछ के बहाने ले गये। अल्बन टोप्पो एक अधिवक्ता हैं और इस समय आश्रम में मौज़ूद थे। क़ानूनविद होने के नाते उन्होंने कोपा के साथ कोतवाली जाना ज़रूरी समझा। उन दोनों को दंतेवाड़ा के बदले जबरन बीजापुर ले जाया गया, जहाँ दोनों की बुरी तरह पिटाई की गई।
१३ दिसंबर की रात और १४ का पूरा दिन
रात को ग्यारह बजे चार गाड़ियों पर सवार हम दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुए।
हमारे दल में ३४ महिलाएँ और ५ पुरूष थे। हमलोग आराम से रायपुर से निकले और धमतरी में भी हमें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही हम कांकेर की सीमा पर पहुँचे प्रतिकूल स्थितियाँ सामने आने लगी ।
रात के साढ़े बारह बज रहे थे। यह चारामा बस पड़ाव था। पड़ाव के सामने ही
पुलिस की चौकी थी, जहाँ हमें रोका गया था। पहले लगा कि यह रूटीन जाँच-पड़ताल है, फिर महसूस होने लगा कि हमें जानबूझ कर परेशान किया जा रहा
है। ज्यादातर पुलिस वाले नशे में थे। एक वर्दीधारी कहता है कि महिलाओं वाली गाडी को जाने दो और बाकी को रोक लो। हमने विरोध किया, वैसे भी सभी गाड़ियों में महिलाएँ थी। खैर, फिर चारों गाड़ी के चालकों को थाने के अंदर ले जाया गया। हमारे साथ आए लोगों को नाम, उम्र, पिता का नाम, पता आदि दर्ज किया जाने लगा। वह भय का माहौल बना रहे थे। लड़कियों से जानकारी लेते वक्त उनके लहज़े से अश्लीलता झलकती थी। एहतियातन जब मैं एक पुलिसकर्मी के पीछे जाकर खड़ा हो गया, यह देखने के लिए कि वह महिला साथियों से कैसा व्यवहार कर रहा है तो उसने बड़े सहज भाव में मुझसे कहा कि "नाम ही लिख रहे हैं, रेप नहीं कर रहे हैं"। मैं स्तब्ध रह गया। कितना आसान है इस आदमी के लिए महिलाओं पर क्रूरतम अत्याचार करना। मैं समझ गया कि यह उनके लिए आम बात थी। आये दिन वो ऐसी ज़्यादतियाँ करते होंगे। मैं सहम कर कुछ देर वही खड़ा रहा। कुछ देर बाद मैं एक और पुलिसकर्मी से बात करने लगा। मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ का है। वह कानपुर का था। मैंने जब यह जानना चाहा कि उसे इस तनावग्रस्त इलाके में अपने घर से दूर रह कर काम करना कैसा लगता है, तो मेरी उम्मीद के विपरीत उसने कहा कि बहुत मज़ा आता है, क्योंकि यहाँ लड़ने के मौके खूब मिलते हैं। आत्ममुग्धता के साथ उसने बताया कि दस नक्सलियों को मार कर ही वह हवलदार बना है। मैंने जानना चाहा कि वह कैसे आम ग्रामीण आदिवासी और नक्सली के बीच में फ़र्क़ करता है तो वह निरुत्तर हो गया। कुछ देर के रुक कर उसने कहा कि मेरा काम मारना है, बस मारना। घंटे भर में हमारे साथ के सभी लोगों का परिचय लिखा जा चुका था। पुलिस ने हमारी चार गाड़ियों में से एक गाड़ी के दस्तावेज़ अधूरे पाये और एक चालक का लाइलेंस नहीं था। मज़बूरन हमारी एक गाड़ी को रोक लिया गया। बाकी की तीन गाड़ियाँ अपने-अपने सवार को लेकर आगे बढ़ीं और जिस गाड़ी को रोक लिया गया था, उसके
सवार बस से आगे बढ़े।
लगभग बीस मिनट में हम माकड़ी में थे। डेढ बज रहे थे। बाकी के तीनों चालकों ने आगे जाने को एमदम मना कर दिया। शायद उन्हें चारामा थाने में बहुत डराया-धमकाया गया हो। और पुलिस को भी जो दस्तावेज़ चाराम में ठीक लग रहे थे, यहाँ गड़बड़ लगने लगे थे। जो भी हो, हम अब बिना गाड़ी के थे। महेंद्रा कंपनी की दो बसें माकड़ी ढाबे पर लगी हुई थी। उसके चालकों ने सवारियों को चढ़ाने की पहलकदमी दिखायी। हमें भी दंतेवाड़ा पहुँचाने को कोई जरिया चाहिए था, सो हमने तय किया कि हम आगे की सफ़र इन्हीं बसों से करेंगे। ढाई-तीन बजे हम माकड़ी ढाबे से निकले। लगभग बीस किलोमीटर की ही दूरी तय की होगी कि केशकाल में हमें फिर रोका गया, हमसे हमारी पूरी जानकारी दोबारा ली गई।
केशकाल के बाद फरसगाँव में भी जाँच-पड़ताल की पुनः सारी औपचारिकताएँ पूरी की गई। वो हमें रोक नहीं सकते थे तो लग रहा था कि वो हमें ज्यादा से
ज्यादा जितना विलंब करवा सकते थे, करवा रहे थे ।
बस में हल्की झपकी लगी होगी कि ऐसा महसूस किया कि बस रुकी हुई है। सुबह साढ़े पाँच-छ बज रहे थे। हमारी बस को कोंडागाँव पुलिस चौकी के नज़दीक रोक दिया गया था। फिर से वही जाँच-पड़ताल। साथ के लोग जो हमारे दल का हिस्सा नहीं थे, वे असहज महसूस करने लगे थे। वे लोग इस रास्ते से हमेशा गुज़रते रहते थे। कंडक्टर ने कहा कि पुलिस का हमारी कंपनी के बस के साथ पिछले पाँच सालों में पहली बार ऐसा व्यवहार रहा है। साथी सवारियों में गुस्सा बढ़ रहा था। उन्हें बताया गया कि माकड़ी से चढ़े ३९ लोग जब तक बस में रहेंगे, उन्हें ऐसे ही परेशान किया जायेगा। तब इन लोगों ने हम पर बस से
उतर जाने का दबाव बनाया। हमें लगा कि पुलिस हमसे बस छोड़ने को कह रही है, इसलिए हम ३९ लोग तत्काल बस से उतर गए। सामने ही कोंडागाँव पुलिस चौकी थी।
हमारे पूछने पर पुलिस के एक कर्मचारी ने कहा कि हमने तो आपको उतरने के
लिए नहीं कहा है, हम तो बस रुटीन जाँच-पड़ताल करे रहे थे। हमलोग ठगे से रह गए। वापस लौट कर हमने बस को पकड़ना चाहा, लेकिन जाहिर है पुलिस का दवाब बस वाले पर बना हुआ था। दरअसल पुलिस जाहिर तौर पर हमें रोक नहीं रही थी, सिर्फ़ बार-बार किए जाने जाँच-पड़ताल के नाम पर हमें समय पर दंतेवाड़ा पहुँचने नहीं देना चाहती थी, लेकिन बिना जाहिर किए वह बस वालों पर दवाब बनाकर हमें रोक भी रही थी। फिर हमने थाना प्रभारी के समक्ष अपनी सारी बातें रखी और छ्त्तीसगढ़ की आथितेय को धिक्कार देते हुए उस पर दवाब बनाने की कोशिश की। हमारे कुछ साथी उससे अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे। उन्हें बार-बार कहा गया कि पूरे देश में इसका बहुत ग़लत संदेश जायेगा। तब अचानक हमसे हमदर्दी जताते हुए हमारे लिए तीन जीप की व्यवस्था की गई। हमें यह भी कहा गया कि आगे कोरेनार के पास तीन-चार हज़ार लोग रास्ता जाम किए हुए हैं और पुलिस उनसे हमारी रक्षा नहीं कर सकती है। यह इशारा था कि पुलिस से आप तो बच सकते हैं, लेकिन सलवा जुडूम से आपको कौन बचायेगा?
आठ-नौ बजे तक स्पष्ट हो गया कि हमें दंतेवाड़ा पहुँचने के लिए कुछ और उपाय करने होंगे। कोंडागाँव का बस पड़ाव नज़दीक ही था। हमने तय किया कि अब वहीं से जगदलपुर के लिए बस करेंगे। जगदलपुल में एसपी से मिलकर आगे की योजना के बारे में सोचा जायेगा। स्थितियों को देखते हुए या तो आगे जाया जायेगा या वहीं प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके वापस रायपुर लौटना पड़ेगा। कुछ देर बाद हम जगदलपुल जाने वाली एक बस पर चढ़े, लेकिन अभी सभी लोग चढ़े भी नहीं होंगे कि बस मैनेजर ने कहा कि वह हमलोगों को जगदलपुर नहीं ले जा सकता है। कारण पूछने पर कोई जवाब नहीं मिला, फिर पता चला कि उसे पुलिस ने निर्देशित किया है। हम बुरी तरह थक चुके थे और दंतेवाड़ा जाने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था। आखिरकार, वापस रायपुर जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। देखते ही देखते कोंडागाँव बस पड़ाव पर कुछ पत्रकार जमा होने लगे। उनमें कौन पत्रकार था और खुफ़िया पुलिस यह जानना बहुत मुश्क़िल था। आसपास के लोगों और तथाकथित पत्रकारों से हमारे दल के लोगों ने बातचीत कर अपने पक्ष से उनलोगों को अवगत कराया।
फिर हम सब एक बस पर बैठे, जो हमें वापस रायपुर ले जाती। बस जब कांकेर के नये बस अड्डे पर पहुँची तो १५-२० लोगों वहाँ हमारा इंतज़ार कर रहे थे।
हमें देखते ही वह नारा लगाने लगे कि "नक्सलियों के नेता वापस जाओ",
"नक्सल समर्थक वापस जाओ"। हम हतप्रभ थे। मेरे मन में एक सवाल कौंधा कि क्या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हित में सोचना नक्सली होना है? आश्चर्य है इस राज्य के मानवता पर ! नारे लगाते कुछ लोगों में से यह भी सुनने में आया कि "उतारो उनको, मारो सालों को"। स्वाभाविक है, हम डर गये थे। कांकेर के पुराने बस अड्डे पर आते ही तुरंत तीन-चार लोग कैमरा ले कर बस में घुस गये और हमारे दल की युवा लड़कियों की तस्वीरें लेने लगे। मेरे विरोध करने पर उनमें से एक ने कहा कि "हम पत्रकार हैं, हमें अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो"। इसी तथाकथित पत्रकार ने नीचे उतर कर बस के पहिये का हवा निकाल दिया। जाहिर है, वो पत्रकार नहीं कोई लंपट असामाजिक तत्व ही थे।
इसी तरह कुछ देर तक जूझने के बाद हमारी बस आगे बढ़ी। इस बार हम सही-सलामत रायपुर पहुँच गये।
लेकिन, मामला यहाँ ख़त्म नहीं हुआ था। जब शाम को हम रायपुर में प्रेस से
मुख़ातिब होना चाह रहे थे, तो भाजपा के कुछ नेताओं ने प्रेस का ध्यान
बँटाने के लिए फिर वही बेबुनियादी नारे लगाने शुरू किए, जो कांकेर के बस
अड्डे पर लग रहे थे।
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सोमवार, 16 नवंबर 2009

नक्सलवाद के बहाने असहमतियों पर निशाना

देवाशीष प्रसूननक्सलवाद के नाम पर सरकार तमाम तरह की असहमतियों के स्वर पर निशाना साध रही है। सरकारें कुछ ऐसे चीज़ों का हौआ बना कर रखती हैं जिन्हें वो किसी भी गंभीर असहमति या असहमति से उपजे प्रतिरोध के स्वर के विरोध में खड़ा कर सकें। ऐसा करने के बाद प्रतिरोधी लोगों की सारी लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों को ख़त्म मान लिए जाता है। फिर सरकारों को मनमाने तरीके से अपने विरोधियों को चुप कराने में आसानी होती है। जैसे, अमरीका के पास आतंकवाद नाम का हौआ है, जिसे वह उन देशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता है, जो अमरीका के वर्चस्व को नहीं स्वीकारते हैं। भारतीय सत्ता तंत्र के पास भी नक्सलवाद नाम का एक ऐसा ही हौआ है, जिसे वह तमाम असहमतियों के स्वर के विरोध में इस्तेमाल कर धड़ल्ले से उनका दमन करता फिरता है।
छत्तीसगढ़ के पीयूसीएल, वनवासी चेतना आश्रम, दांतेवाड़ा और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क, दिल्ली के पीयूडीआर, मल्कानगिरी के मन्नाधिकार व ज़िला आदिवासी एकता संघ और उड़िसा के एक्शन एड के संयुक्त 15 सदस्यीय जाँच दल द्वारा हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ नक्सल विरोधी अभियान ग्रीन हंट के तहत 17 सितंबर को दांतेवाड़ा के गचनपल्ली में 6 लोगों की कोबरा, स्थानीय पुलिस, विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) और सलवा जुडूम के कार्यकर्त्ता बोड्डू राजा के नेतृत्व में हत्याएँ की गई। दांतेवाड़ा के ही गोमपद और चिंतागुफा में 1 अक्टूबर को फर्जी मुठभेड़ में भी कई हत्याएँ हुई। पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के हवाले से पता चलता है कि 8 नवंबर को रोहतास जिले से पाँच लोगों को पुलिस ने उठाया और इनमें से किसी को भी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने अगले दिन सोनभद्र के चोपन जंगलों में उनमें से एक कमलेश चौधरी को सीपीआई(माओवादी) का एरिया कमांडर बताकर फर्ज़ी मुठभेड़ में मार गिराया। बाकी चार लोग अब तक लापता हैं। ऐसी सैन्य कार्रवाईयों का सिलसिला पूरे देश में लगातार चल रहा है।
बीते दिनों, पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेन समिति(पीसीएपीए) ने पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जबरन भू-अधिग्रहन के ख़िलाफ़ हल्ला बोला था। इस जन आंदोलन को कई जाने-माने बुद्धिजिवियों के साथ-साथ ममता बैनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस और सीपीआई(माओवादी) का भी समर्थन प्राप्त है। इसके नेता छत्रधर महतो को मुख्यमंत्री की हत्या के कोशिश और सीपीआई(माओवादी) से संबंध के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। इस गिरफ़्तारी के विरोध में पीसीएपीए कार्यकर्ताओं ने झाड़ग्राम में भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन को चार घंटे तक घेरे रखा। उनकी संख्या इतनी थी कि अगर वे हिंसा पर उतारू होते तो रेल का एक भी यात्री या कर्मचारी ज़िंदा न बचने पाता। उन्हें रोकने के लिए न कोई सेना थी न कोई पुलिस। लेकिन किसी को हताहत करने के बजाय इस दौरान उन्होंने सरकार से उनके साथी छत्रधर महतो को रिहा करने की माँग रखी। एक ओर जहाँ, देश में रेल का घेराव विरोध प्रदर्शन का आम तरीका रहा है, वहीं सरकार ने इसे माओवादियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा और तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियारों से लैस इन आदिवासियों को नक्सली समझा। अगर सच में वे नक्सली ही हैं, जैसा कि सरकार का मानना है, तो इस पूरे प्रकरण ने यह स्थापित किया है कि देश में माओवादियों की एक सामर्थ्यपूर्ण राजनीतिक और सैन्य स्थिति है। साथ ही यह भी संदेश पुरज़ोर तरीके से गया है कि देश के कुछ हिस्सों में गृहयुद्ध की स्थिति है। हालांकि, सरकार ही स्वयं, स्पष्ट शब्दों में गृहयुद्ध की स्थिति से इंकार करती है।
भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक प्रतिवेदनों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के मध्य विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति व जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति मौज़ूद है। दरअसल इस स्वीकारोक्ति के बाद भी सरकार का अपनी अकर्मण्यता से उबरने का कोई प्रयास नहीं दिखता है। इसके बजाय, वो यथास्थिति बनाये रखने के सारे संभंव प्रयास में लिप्त है। कोई अगर सरकार की मनमानियों का गंभीर विरोध करे, तो पूरा सरकारी तंत्र उसको नक्सली सिद्ध करने पर तुल जाता है।
पूरी सरकारी मशनरी ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा मान लिया है और ऐसा मानना, उनके लिए आप्तवचन है। वर्ष 2005-06 में सरकार ने कई महत्वाकांक्षी विकास परियोजनाओं के मद्देनज़र कुछ अहम फैसले लिए। इसी वर्ष नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा संबंधी व्यय स्कीम में केन्द्र सरकार ने नक्सली राजनीति के असर वाले प्रदेशों के लिए प्रतिपूर्ति की दर पचास प्रतिशत से बढ़ाकर शत- प्रतिशत कर दिया गया। इस राशि के अग्रिम भुगतान की व्यवस्था की गई। राज्यों की सरकारों को पुलिस आधुनिकीकरण स्कीम के तहत आधुनिक हथियारों, मोबीलिटी, संचार उपकरण और प्रशिक्षण के आधारभूत ढाँचे के उन्नयन हेतु खर्च राशि के कम से कम तीन-चौथाई प्रतिपूर्ति का इंतज़ाम किया गया। साथ ही, नौ राज्यों के 76 नक्सल प्रभावित जिलों को प्रति जिला दो करोड़ रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से पुलिसिया ढाँचे को मज़बूत करने के लिए मिलनी शुरू हुई। नक्सल प्रभावित राज्यों में, प्रत्यक्ष तौर पर, युवाओं को रोज़गार प्रदान करने के लिए इंडिया रिज़र्व बटालियनों के गठन का फैसला लिया गया। लेकिन, असलियत यह थी यह राज्यों में पीड़ित जनता के असहमति के स्वर को दबाने के लिए पीड़ित लोगों में ही कुछ को सुरक्षा व्यवस्था में शामिल करना के जुगाड़ था । छत्तीसगढ़ में ’सलवा जुडूम’, झारखंड में ’नागरिक सुरक्षा समिति’, तथा बंगाल के जंगल महल क्षेत्र में ’संत्रास प्रतिरोध समिति’, ’घोस्कर वाहिनी’ और ’हरमद बलो’ जैसे ग्राम सुरक्षा या नागरिक सुरक्षा समितियों के लिए केन्द्र सरकार की ओर से एकमुश्त अनुदान और विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के लिए मानदेय का प्रबंध किया गया। फलस्वरूप आमलोगों पर अत्याचार बढ़ा। “फूट डालो, शासन करो” की नीति अपनाते हुए सरकार ने किसानों-आदिवादियों को अपनी ज़मीन और रोज़गार से विस्थापित करने के लिए उनमें से ही कुछ लोगों का इस्तेमाल किया। लोगों के मन आतंक पैदा करने के लिए जनसंहार, आतंक, बलात्कार तथा घरों को जलाने की कई वारदातें हुईं।
वर्ष 2005-06 में किए गये इन सब इंतज़ामात का सबसे बड़ा कारण बड़े संख्या में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) की स्थापना करने हेतु तैयारियाँ थी। किसानों के लिए ज़मीन और आदिवासियों के लिए जंगल उनके जीवन और आजीविका का आधार है। सरकार सेज़ों, बाँधों और औद्योगिकरण के जरिए जिस विकास का सपना देखती है, उसमें किसानों को ज़मीन से और आदिवासियों को जंगल से महरूम होना पड़ता है। किसी की चाहे कोई भी विचारधारा हो, लेकिन जब उससे उसके जीवन का आधार छीना जायेगा तो वह इसका आखिरी दम तक विरोध करेगा। इन विरोधों पर काबू करने के लिए सरकार ने नक्सलवाद का एक ऐसे हथियार के रूप में चिह्नित किया, जिसके नाम पर सारी असहमतियों को निर्ममता से दबाया जा सके। वक्त आने पर हुआ भी ऐसा ही। सिंगूर, नंदीग्राम, कलिंगनगर और लालगढ़ जैसे कई जगह पर देश में सेज के विरोध में लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण तरीकों से संघर्षरत आम भुक्त-भोगी जनता को नक्सली या नक्सल समर्थित बताकर निशाना बनाया गया। संभव है कि बाद में मजबूरन, उनमें से कई लोगों को आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाया हो, लेकिन इसके लिए सरकार ने ही उन्हें उकसाया। हिंसा जायज नहीं है, लेकिन क्या उसे सहना भी वाजिब है? परंतु सरकार ने पूर्णत: अहिंसक असहमतियों पर नक्सलवाद के नाम पर निशाना साधने से भी कोई गुरेज नहीं किया है। छत्तीसगढ़ में कार्यरत गांधीवादी एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम को ही बतौर उदाहरण लें, जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलवा जुडूम के बाद हुए विस्थापित आदिवासियों के पुनर्वास के सिफारिशों को लागू करवाने के लिए काम करती है। यह काम उन्हें तब मँहगा पड़ा, जब आश्रम के ढाँचे को गिरवाया दिया गया। सरकार ने इस आश्रम के लोगों द्वारा लिंगागिरी, बासगुडा और नेंद्रा में आदिवासियों के लिए भेजे जाने वाले चावल को यह आरोप लगाते हुए अपने कब्जे में ले लिया कि यह चावल नक्सलियों के लिए भेजे जा रहे थे। इस संगठन के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। याद ही होगा कि इसी सरकार ने आदिवासियों के स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए समर्पित चिकित्सक डॉ. बिनायक सेन पर भी नक्सली डाकिया का आरोप मढ़ कर लगभग दो सालों तक उन्हें सलाखों के पीछे रखा था।
छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2005 में अंत तक राज्य के औद्योगिक विकास के लिए एस्सार और टाटा उद्योग समूह के साथ गुप्त समझौते किये। सरकार इन औद्योगिक घरानों को ज़रूरी ज़मीन, खदानों का पट्टा, बिजली और पानी की सुविधा उपलब्ध करवाने को प्रतिबद्ध थी। टाटा के लिए लोहांडीगुडा में और धुरली व भंसी में एस्सार के लिए भू-अधिग्रहण होना तय था। इन जगहों पर इसका घोर विरोध हुआ। साथ ही, जगदलपुर, दांतेवाड़ा एवं अधिग्रहण के अन्य प्रस्तावित इलाकों में भी विरोध-प्रदर्शन हुए। पेसा क़ानून के अनुसार इन सारी ज़मीनों के बारे में फैसला लेने का अधिकार ग्राम सभा को है। ग्राम सभा के रजिस्टरों के छेड़छाड़ की गयी, जिसके कारण जनता का सरकार के प्रति गुस्सा भड़का। प्रतिरोध लगातार जारी रहा। जबावन, सरकार ने सलवा जुडूम के ज़ोर पर नक्सलियों का हौआ खड़ा करते हुए हज़ारों आदिवासियों को गाँवों खाली करने पर मज़बूर किया। बहाना बनाया गया कि यह शांति स्थापना के लिए जनता का स्वतः स्फूर्त प्रयास है, जिसमें आदिवासियों की नक्सलियों से रक्षा के लिए उन्हें गाँव से बाहर निकाला जा रहा है। लेकिन, हुआ यह कि फिर आदिवासियों को अपने गाँव लौटने से मनाही हो गयी। अगर फिर भी अब कोई अपने घर लौटने की, अपने खेतों में काम करने और शिविरों की अमानवीय ज़िंदगी से छुटकारा पाने की हिम्मत करता है तो उसे नक्सली घोषित कर दिया जाता है।
आदिवासी देश की ज़्यादातर खनिज संपदा के रखवाले रहे हैं। सरकार के नज़रों में आज इस संपदा की ज़रुरत वैश्विक पूँजी को फलने-फूलने के लिए है। ऐसी स्थिति में सरकारों की नज़रें आदिवसियों की पारंपरिक संपत्तियों पर गड़ी हुई है। सरकारें औद्योगीकरण के लिए निगमों के साथ गुप्त समझौते कर रही है। आदिवासियों से बेशक़ीमती ज़मीन छीन कर निगमों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। जल, जंगल और ज़मीन का अंधाधून लूट जारी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ते या मुफ़्त में ही बिजली, पानी, खनिज और सुरक्षा मुहैय्या कराने में सरकारें प्रतिबद्ध है। विकास के प्रति सरकार की यह सनक भारतीय लोकतंत्र के धराशाही होने की ओर इशारा करता है। विरोध और असहमतियों की सभी आवाज़ों को दबाने के लिए नए-नए हथकंडे तैयार किये जा रहे हैं। (समाप्त)
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