देवाशीष प्रसून
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार– न्हायी कुंई,
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार– न्हायी कुंई,
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
अज्ञेय ने अपने समय की ही नहीं, बल्कि बाद की पीढ़ियों की अनुभूतियों को भी शब्द देने का काम किया है, तभी तो जब बात सुंदरता की शुरू करनी थी तो सहसा उनके ये शब्द दिमाग के तहख़ानों से निकल कर सबसे पहले सामने आए। हो सकता है कि इस कविता का संदर्भ दूसरा रहा हो, लेकिन अहम बात है कि कवि ने बख़ूबी यह कहा है कि ख़ूबसूरती को हम प्रतीकों में पहचानते आए हैं और यह प्रतीक देश-काल, समाज-संस्कृति और आर्थिक-राजनीतिक माहौल के साथ बदलते रहते हैं। गो कि इनमें से किसी एक ने अपना जरा-सा भी रंग बदला कि जनमानस में व्याप्त ख़ूबसूरती के पैमाने ख़ुद-ब-ख़ुद बदलने लगे।
इंसान हो या कोई जानवर, सभी की अपनी पसंद-नापसंद होती है। किसी को कोई ख़ूबसूरत लगता है; तो किसी और को कोई दूसरा। इंसान मूलतः एक खोजी जीव है, जो हमेशा कारणों की खोज करते रहा है। तभी तो, तमाम तरह की जिज्ञासाओं को शांत करने के साथ-साथ, इंसान ने अपनी अनुभूतियों के भी कारणों को खोजने का प्रयास किया है। दुनिया के सभी देशों, तमाम समयों और संस्कृतियों में ख़ूबसूरती के अपने मानक रहे हैं और इन सभी मानकों की दार्शनिक व्याख्या भी रही है। अगरचे, मोटे तौर पर पूछें कि ख़ूबसूरती क्या है, तो एक सीधा-साधा और सर्वमान्य-सा ज़वाब होगा कि वह कुछ भी जो दिखने-सुनने में अच्छा लगे या उसके बारे में सोचने आदि से इंद्रियों और दिमाग को आनंद मिलता हो या अंतरात्मा को संतोष की अनुभूति होती है, वह ख़ूबसूरत है। लेकिन, अहम सवाल यह है कि ऐसा क्या है और किस कारण वह ऐसा है कि उसमें किसी की इंद्रियों और दिमाग को आनंद देने की क्षमता विकसित हो गई है? जाहिर-सी बात है कि इसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं, जो अलग-अलग देशों और अलग-अलग समयों के कारण अपना एक अलग स्वरूप रचते हैं।
भारत की बात करें तो यहाँ पौराणिक और दार्शनिक तौर पर सुंदरता के बारे में ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ का दर्शन प्रचलित रहा है। मतलब यह है कि जो सत्य है, वही शिव है, यानी शुभ है और सही अर्थ में वही सुंदर भी है। भारतीय चिंतन परंपरा में सुंदरता की पूरी अवधारणा ‘भाव’ और ‘रस’ के रूप में व्याख्यायित होती रही है। भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ के छठे और सातवें अध्याय में इसके बारे में विस्तारपूर्वक लिखा और इससे ही, भारतीय सौंदर्यशास्त्र की आधारभूत अवधारणाएँ बनीं। भरत मुनि के मुताबिक किसी भी कला की सुंदरता उसके ‘भाव’ और ‘रस’ पर आधारित रहती है।
यह तो बात भारत की रही, पर यूनानी सभ्यता में भी ख़ूबसूरती के बारे में ख़ूब चिंतन हुआ है। पायथागोरस सुकरात के समय से पहले के दार्शनिक हैं। वह एक जाने-माने गणितज्ञ और दार्शनिक थे। यह वही पायथागोरस हैं, जिनके नाम से त्रिकोणमिति का पायथागोरस थेओरम आज भी मशहूर है। उनका मानना था कि ख़ूबसूरती और गणित के बीच में गहरा रिश्ता होता है। मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति या वस्तु के अस्तित्व का गणितीय आयाम अगर सटीक है तो वह चीज़ ख़ूबसूरत होगी। उन्होंने कहा था कि जिन चीज़ों का निर्माण समरूपता और सममिति के सुनहरे अनुपात के अनुरूप होता है, वे चीज़ें ज़्यादा आकर्षक दिखती हैं। प्राचीन यूनानी स्थापत्य का निर्माण, पायथागोरस के इसी सौंदर्य-सिद्धांत को ध्यान में रख कर किया गया। समय बीतने पर, ख़ूबसूरती के बारे में यूनानी दर्शन के आधार-स्तंभ प्लेटो ने सुझाया कि ख़ूबसूरती एक ऐसा ख़याल है, जो दूसरे सभी ख़यालों से परे है। इसका आशय यह लगाया जा सकता है कि प्लेटो का मानना था कि ख़ूबसूरती को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। लेकिन, प्लेटो की यह अवधारणा अरस्तू के पल्ले नहीं पड़ी। अरस्तू प्लेटो का प्रमुख आलोचक और उनका सबसे क़ाबिल शिष्य था। अरस्तू की नज़रों में ख़ूबसूरती का रिश्ता सीधे-सीधे सदाचार और नेक-नियत होने से है। जाहिर है कि अरस्तू इंसानी ख़ूबसूरती के बारे में यह कह रहे होंगे।
कुछ दूसरे देशों और अलग समयों की बात करते हैं। स्कॉटलैंड के दार्शनिक फ्रैंसिस हचशियन ने ज़ोर देते हुए कहा था कि सुंदरता विविधता में एकता और एकता में विविधता का ही दूसरा नाम है। यह एक बड़ा दर्शन है, जो कहता है मानवीय वैविध्य के तमाम घटकों के बीच सह-अस्तित्व की धारणा ही ख़ूबसूरती का मूल भाव है। कहने का मतलब, ऐसी कोई भी चीज़ सुंदर है, जो आसपास की चीज़ों को अपने में शामिल करने के बाद भी अपनी सभी इकाईयों के विशिष्ट चरित्र और गुणों को नष्ट नहीं करती है। लेकिन इसके विपरीत, उत्तर-आधुनिक संदर्भों में अंग्रेज दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे की मानें तो ख़ूबसूरती दरअसल शक्तिशाली और प्रभावशाली होने की प्रबल इच्छा का परावर्तन है। बाद के दिनों में, रोजर स्क्रहन और फ्रेडरिक टर्नर ने सुंदरता को एक अहम मानवीय मूल्य माना, जबकि इलेन स्कैरी ने इसे हमेशा न्याय और समरसता से जोड़ कर देखा।
ख़ूबसूरती के पैमाने देश, समाज और समय के साथ-साथ धार्मिक मान्यताओं से भी प्रभावित होते रहे हैं। इसका एक अहम नमूना इस्लामी सौंदर्यबोध है, जिसके तहत वही चीज़ें ख़ूबसूरत हैं, जिनका रिश्ता ख़ुदा या उनके बंदों से है। इसी तरह से जापान में भी ख़ूबसूरती के मानक कई तरह के दर्शनों से प्रभावित होते हैं। सिंटो बौद्ध का दर्शन बौद्ध धर्म पर आधारित है। इसके अलावा, जापान में और भी कई तरह के सौंदर्यबोध हैं, जैसे कि वबी-सबी, मियाबी, शिबुई, इकी, जो-हा-क्यू, यूगेन, गेरडो, इनसो और कवाई। इन सभी दर्शनों पर विस्तार से अलग बात से की जा सकती है।
भारतीय, इस्लामी, जापानी, पुरातन यूनानी और यूरोप के आधुनिक व उत्तर-आधुनिक दार्शनिकों के साथ-साथ चीन का भी सौंदर्य के बारे में सधा हुआ दर्शन रहा है। हालाँकि चीन का जनजीवन हमेशा बाहरी दुनिया को एक पहेली ही लगा, फिर भी चीन के लोगों का अपना एक सौंदर्यबोध है, जो उनकी सांस्कृतिक पहचान भी है। चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस कहते हैं कि सुंदरता मानव स्वभाव को विस्तार देने वाला वह भाव है, जो लोगों को मानवता की ओर वापस लौटने को प्रेरित करता है।
कुल मिलाकर विभिन्न देशों और संस्कृतियों में ख़ूबसूरती के बारे में जो पैमाने विकसित हुए हैं, वह वहाँ की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितयों का सह-उत्पाद ही रहे हैं। इंसानी जरूरतों के मुताबिक ही उनके रूझान बनते हैं और यह रूझान ही तय करता है कि किस व्यक्ति को क्या ख़ूबसूरत लगेगा और किस को क्या नहीं। दरअसल, ख़ूबसूरती जीने की ललक है।
अफ्रीका के लोगों का रंग अमूमन काला होता है और हिंदुस्तान में गोरे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है। यही कारण है कि अफ्रीका और हिंदुस्तान में अलग-अलग ढ़ंग से ख़ूबसूरती के पैमाने विकसित हुए हैं। अफ्रीकी देशों में लड़कों का दिल ब्लैक ब्यूटी फिदा होता है और इसके उलट, हिंदुस्तानी छोरे की पसंद ऐसी है कि वह गोरी लड़कियों पर अपनी जान छिड़कते हैं। लेकिन, फिर ऐसे भी प्रेमी-युगलों को आपने देखा होगा, जिनके मन में सुंदरता का पैमाना रंग-रूप नहीं, बल्कि मन-मस्तिष्क रहता है। याने जितने लोग, उतने ही पैमाने हैं ख़ूबसूरती के इस दुनिया में।
अहा! ज़िंदगी खूबसूरती विशेषांक (जुलाई 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें-
अहा! ज़िंदगी,
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग,
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 (राजस्थान)
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