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मंगलवार, 25 जनवरी 2011

जैतापुर के बहाने जनता के लोकतंत्र की बात...

-  देवाशीष प्रसून
आबादी के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा हम करते हैं। लेकिन हमारी आबादी का एक हिस्सा आने वाले गणतंत्र दिवस का विरोध करने वाला है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जैतापुर इलाके में सत्तर स्कूलों के लगभग ढ़ाई हज़ार विद्यार्थियों ने वहाँ बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरोध में ऐसा निर्णय लिया है। पिछले दिनों इन विद्यार्थियों ने स्कूल नहीं जाने का निर्णय तब लिया जब जिला प्रशासन ने शिक्षकों को विद्यार्थियों के समक्ष परमाणु ऊर्जा का गुणगान करने के निर्देश दिए थे। पूरे देश में एक बड़ा संघर्ष हर तरफ़ चल रहा है। एक ऐसा संघर्ष, जिसमें आमलोग अपना लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे हैं तो सरकार अपने लोकतंत्र की दुहाई दे रही है। जनता और सरकार के लोकतंत्र में एक बुनियादी फ़र्क़ है। जनता के लिए लोकतंत्र का मतलब मूल्यों पर आधारित वह सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें भलाई बिना भेदभाव के हमेशा आमलोगों की होती है। लेकिन, इसके ऊलट सरकार के लिए लोकतंत्र का मतलब बस अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए चुनावी राजनीति के गुणा-गणित तक ही सीमित होकर रह गया है। सरकार कोई भी हो, उनके लिए मुख्य मुद्दा है विकास। और, विकास की अंधी दौड़ ने हमारे समय में समाज के तमाम घटकों और खासतौर से शासन व्यवस्था से लोकतांत्रिक मूल्यों को बड़े जबर्दस्त तरीके से ग़ायब किया है। यक़ीनन यह लोगों के लिए चिंता का एक गंभीर विषय बनकर रह गया है। इस दौड़ में अब तक किन लोगों का विकास हुआ है और किनका विनाश, यह बात अब किसी से छुपी हुई नहीं है। तथाकथित विकास की राह पर जनहित के परखच्चे उड़ाते हुए सरकारों को लोकतंत्र की कोई परवाह नहीं है।
आज देश में अलग-अलग तरीकों से लोग अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लड़ रहे हैं। जैतापुर के लोगों के बीच भड़के गुस्से का कारण यह है कि सरकार जैतापुर में दुनिया में सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने वाले संयंत्रों को लगवाने वाली है। जहाँ-जहाँ पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लगाए जा रहे हैं या लगाने की योजना है, वहाँ के लोगों के बीच अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा का एक भयानक माहौल गहराया हुआ है। इन इलाकों में परमाणु ऊर्जा के लिए संयंत्र लगाने से रोकने का मामला यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए अपने जीवन की रक्षा के साथ-साथ अपने लोकतंत्र की रक्षा करने का भी है। यह कौन भूला होगा कि किस तरह से सन २००७ में देश की बड़ी आबादी भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के ख़िलाफ़ थी। वामदलों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और संसद में लगभग ४८ फीसदी से अधिक सांसदों के मुख़ालफ़त के बाद भी सरकार ने परमाणु-ऊर्जा के लिए अमेरिका के साथ समझौते किए। पर लोग महसूस करते है कि संसद में बैठे मुट्ठी भर लोग उन लोगों की ज़िंदगी के बारे में फैसले नहीं ले सकते है। उन्हें पता है कि लोकतंत्र का अस्तिव केवल संसदीय शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि अधिक से अधिक लोगों के हित में ही ज़िंदा रह सकता है।
लोग लड़ इसलिए रहे हैं कि क्योंकि उन्होने देखा हैं कि कैसे कालापक्कम, तारापुर, बुलंदशहर और कोटा में स्थापित परमाणु बिजली संयंत्रों में दुर्घटनाएँ हुईं। जिससे मोटे तौर पर आजतक लगभग ९१० मिलियन अमेरिकी डॉलर के नुक़सान का बोझ देश के सार्वजनिक ख़ज़ाने को झेलना पड़ा। और तो और, इसके अलावा जनजीवन, पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर पड़ रहे दूरगामी कुप्रभावों की गणना की जानी तो अब तक बाकी है। इससे सबक लेने के बजाय सरकार देश में कई जगहों पर परमाणु ऊर्जा से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को स्थापित व क्रियाशील करने के लिए जी-जान से जुटी हुई है। तमिलनाडु के कुडानकुलम और कालापक्कम, गुजरात के काकरापाड़ व राजस्थान के रनाटभाटा और बांसवारा में कई संयंत्र निर्माणाधीन हैं। कुडानकुलम, कर्नाटक के कैगा और महाराष्ट्र के जैतापुर में और २१ संयंत्रों को लगाने की योजना स्वीकृत की गई है। कई अन्य इलाकों व संयंत्रों के लिए भी योजनाएँ प्रस्तावित हैं।

सत्तारूढ़ काँग्रेस ने लोगों के गुस्से को ठंडा करने के लिए एक दल को जैतापुर भेजने का फैसला लिया था, लेकिन वे उन गड़बड़ियों के कैसे सुधार पायेंगे, जो सरकार ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाने के लिए की हैं। अध्ययनों के आधार पर यह खुलासा किया गया कि इसके लिए गलत तरीके से बंज़र बता कर लगभग हज़ार एकड़ उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। दूसरा, जैतापुर पूरी तरह से एक भूकंप संभावित इलाका है, यानि भूकंप आने पर रेडियोधर्मी रिसाव से भयानक जान-माल का नुक़सान लंबे समय तक होता रहेगा। दुर्घटना के कारण नियंत्रित नाभिकीय अभिक्रियाएँ यदि अनियंत्रित हो गई तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के तर्ज़ पर ये संयंत्र अपने देश में फटने वाले परमाणु बम सरीखे हो सकते हैं। डर और बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि जिस फ्रांसिसी कंपनी के गठजोड़ से यह परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा रहे है, सुरक्षा को लेकर उनका रिकॉर्ड बुरा रहा है। तीसरा, यह पर्यावरण और इससे जुड़े जीव और वनस्पति को भी यह बुरी तरह प्रभावित करेगा। इसका समुद्र से बहुत अधिक मात्रा में पानी लेना और उपयोग के बाद खौलते हुए पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से कोंकण से सटा हुआ पूरा समुद्री इलाका समुद्री-जीवों के श्मशान में तब्दील हो जायेगा और इससे कोंकण का मौज़ूदा प्राकृतिक स्वरूप भहरा जायेगा। मतलब यह है कि वहाँ, भविष्य में, किसान और समुद्र पर आश्रित लोगों का, खासकर मछुआरों का भूखों मरना साफ़ दिख रहा है। चौथा, सरकार ने परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी कचरे से निबटारे का कोई ऐसा सूत्र जनता को नहीं बताया, जिससे लोग सहज महसूस कर सकें। जैतापुर में परमाणु संयंत्रों को असुरक्षित बताने पर देश-विदेश में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस को दिए जाने वाले सहायता राशि पर एनपीसीआईएल ने रोक लगा दिया है। विरोध के सभी स्वरों को सरकार अपने संरचनात्मक और राजकीय हिंसा का शिकार बना रही है। जो लोग सरकार की राय से सहमत नहीं हैं, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है, उन पर फर्जी मुकदमे थोपे जा रहे हैं।
परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए यों जनता के लोकतंत्र पर सरकार के जो हमले हो रहे हैं, उनके कारणों को समझना ज़रूरी है। कौन नहीं जानता कि पेट्रोल और कोयले दुनिया से जल्द ही खत्म हो जायेंगे? ग़ौरतलब है कि बिजली और पेट्रोल की खोज से पहले भी मानव-समाज, संस्कृति और उसकी इहलीला तो फल-फूल ही रही थी और आज भी दुनिया भर की एक बड़ी आबादी इन सुविधाओं से महरूम है। भविष्य में भी रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों जैसे कि पवन ऊर्जा या सौर्य ऊर्जा से काम लिया जा सकता है। लेकिन, छोटे-बड़े कल-कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा की माँग बिना पेट्रोल और कोयला के पूरी नहीं हो पायेगी और ऊर्जा के बड़े स्रोतों के अभाव में मौज़ूदा व्यवस्था पूरी तरह ढ़ह जायेगी। ऐसे में पूँजीपतियों का दुनिया भर में फैला गोरखधंधा और विश्व राजनीति में गहरी पैठ को हवा होने से कोई नहीं रोक पायेगा। तो ऊर्जा को लेकर पूँजीवाद की चिंता उनकी पूरी वज़ूद से जुड़ी हुई है। अगर वे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की एक क़ामयाब संरचना नहीं खड़ी कर पाए तो उनकी सत्ता का बिला जाना तय है। उन्हें परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प दीख रहा है। परमाणु ऊर्जा परियोजना शुरू करने की सरकारी छटपटाहट ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत की संरचना को जैसे तैसे, बड़ी जल्दबाज़ी में खड़ा करने की ज़द्दोज़हद है और इसके बरअक्स बेचारी मज़लूम, पर मेहनतकश आवाम अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए है।
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रविवार, 9 जनवरी 2011

पुराने घरों को उजाड़ कर बसता लवासा

- देवाशीष प्रसून


सरकार ने अपने कामों की फेहरिस्तों में विकास को सबसे अव्वल रखा है। देश में होने वाले विकास का सुख चाहे कोई भी उठाए, पर हम देख सकते हैं कि इसका मूल्य समाज का कमज़ोर तबके को ही चुकाता पड़ता है। मामला बाँध बनाने का हो, औद्योगिकरण या सेज़ का या शहरीकरण का, इसके लिए आवश्यक ज़मीने अक्सर ग़रीबों और आदिवासियों से ही अधिग्रहित की जाती हैं। इसके विरोध में, हमारे सामने लालगढ़, नंदीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर, रायगढ़ और नर्मदा बचाओ जैसे जन-आंदोलनों के कई उदाहरण मौज़ूद हैं। इन आंदोलनों को विकास के अंतर्विरोध के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो देश में गरीबों, दमितों व आदिवासियों के हित के लिए, मानवाधिकार की रक्षा के लिए और जनकल्याण को ध्यान में रख कर कई क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन असल धरातल पर बड़े-बड़े निगमों के हित के सामने ये अमूमन धरे के धरे रह जाते हैं।

देशभर में रफ़्तार पकड़ रही विकास की गाड़ी न जाने कितने गरीबों के घरों को हमेशा-हमेशा के लिए रौंद कर बेरोक-टोक आगे बढ़ रही है। नियमों को सरमायापरस्त ताक़तों के हक में तोड़ना-मरोड़ना और इसका विरोध करने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की ख़बरे आना आम बात हैं। जहाँ-तहाँ अंधाधूंध चल रहे कई विकास परियोजनाओं में से एक है पुणे और मुंबई के बीच बसाया जा रहा हिल स्टेशन लवासा। इसमें हो रही अनियमितताओं के बारे में शिक़ायते होनी तो शुरू हो गई है, पर चंद लोग इसकी गंभीरता को अपने पैसे और पहुँच के बदौलत कुचलना चाहते हैं।


लवासा वरसगाँव बांध के नज़दीकी इलाकों में फैला हुआ लगभग पच्चीस हज़ार एकड़ ज़मीन का वो टुकड़ा है, जिस पर कुछ बिल्डरों, नेताओं और मुट्ठी भर ताक़तवर लोगों के द्वारा भविष्य के एक पहाड़ी शहर का सपना संजोया जा रहा है। पर, खेती-किसानी के लिए उर्वर यह ज़मीन और सदियों से आदिवासियों-किसानों का बसेरा रहे इस वनक्षेत्र का लवासा शहर में तब्दील होना कई अनियमितताओं, स्थानीय लोगों के साथ हुई ज्यादतियों और उनको विस्थापित करने की कई साजिशों व अनदेखियों से पटा पड़ा है। २००१ में काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र में सत्ता में आने के बाद द लेक सीटी कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के जानिब से आए इकलौते प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाते लवासा नाम से अत्याधुनिक हिल स्टेशन विकसित करने का ठेका बिना किसी निविदा आमंत्रित किए उक्त कंपनी को दे दिया था। जाने-माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे की माने तो इस हिल स्टेशन के चलते महाराष्ट्र सरकार ने कई नियमों को ताक पर रखते हुए क़ानून-व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाया है व वहाँ पर पीढ़ियों से गुज़र-बसर कर रहे हज़ारों आम आदिवासी लोगों के वाजिब अधिकारों का लगातर हनन किया है।

ग़ौरतलब है कि केंद्र की सरकार में कृषि मंत्री व महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता शरद पवार का सीधे तौर पर हित लवासा कारपोरेशन के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनकी बेटी सुप्रिया सुळे और दामाद सदानंद सुळे की इस कंपनी में अच्छी हिस्सेदारी रही है। सुळे दंपत्ति को लवासा निगम में मालिकाना हिस्सेदारी दिए जाने के बाद से इस प्रोजेक्ट ने तूफ़ान से तेज़ रफ़्तार हासिल किया है।

१९७४ की बात है कि सार्वजनिक हित के काम के लिए बनाए जा रहे वरसगाँव बांध के लिए सरकार ने भू-अधिग्रहण किया, जिसके कुछ हिस्सा अब तक परती था। उच्च न्यायालय ने इस ज़मीन को इसके पुराने मालिकों को लौटाने के बजाए सार्वजनिक हित के काम में ही लगाने का फैसला लिया था। राज्य के जल संसाधन निगम के मातहत काम करने वाले महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम ने मनमाने तरीकों से लवासा के मालिकों को ज़मीन का यह १४१.१५ हेक्टेयर का टुकड़ा बहुत सस्ते दर पर उपलब्ध करा दिया। यही नहीं, देखने वाली बात यह भी है कि लवासा को वरसगाँव बांध से ३.०३ टीएमसी पानी देने का फैसला भी लिया गया। इस बांध के पानी से पुणे शहर की तमाम ज़रूरतें पूरी होती हैं और पिछले कुछ सालों से पुणेवासियों को पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। बावज़ूद इसके सरकार ने यह फैसला पुणे की ज़रूरतों के बारे में सोचे बिना ही ले लिया। शक की सूईयाँ फिर शरद पवार की ओर घूमती हैं, क्योंकि ये सारे फैसले उनके भतीजे अजीत पवार ने लिए थे। चिंता का विषय यह है कि अजीत को अब महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया है, याने पवार लवासा मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।

तत्कालिक राज्स्व मंत्री नारायण राणे का बयान आया कि इस मामले में कुछ अनियमितताएँ तो हैं, लेकिन इन अनियमितताओं को हर्ज़ाने वगैरह से नियमित कर लिया जाएगा। माने इरादा सफ़्फ़ाक़ साफ़ है कि कुछ भी हो जाए, भले नियमों और आमलोगों के हितों की धज्जियाँ ही क्यों न उड़ा दी जाए, लवासा तो बन कर ही रहेगा। लेकिन, पर्यावरण सुरक्षा की अनदेखियाँ को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त लगीं और तब से वहाँ के कामकाज को ठप्प किए जाने का आदेश है। देखने वाली बात है कि अब पर्यावरण मंत्रालय को लवासा कंपनी के लोग कब और कैसे मैनेज करेंगे।

प्रधानमंत्री को लिखे एक चिट्ठी में अन्ना हज़ारे ने ज़िक्र किया है कि इस प्रोजेक्ट के नाम पर बीस भली-भांति बसे हुये गाँवों को तबाह और हज़ारों लोगों को बेघर किया जा रहा है। सोचने वाली बात है कि अगर सरकार चुनिंदा लोगों के लिए नए अत्याधुनिक मानकों पर आधारित कई शहरें बसा भी ले तो उन गरीबों का क्या होगा जिनको अपने जगहों से बेघर कर दिया गया हो। इतनी ज़्यादतियों के बाद भी वे रहेंगे तो इसी देश, इसी समाज में। लेकिन जब हज़ारों को उजाड़ कर कुछ सौ के एहतिआत का क्या ख्याल रखा जाएगा, तो इससे पैदा हुई असमानताओं का सरकार किन तर्कों से बचाव करेगी। देश में अट्टालिकाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन विश्व बैंक के मुताबिक भारत की कुल चौदह फीसदी शहरी आबादी अब तक झुग्गियों में रहती है। जाहिर है लवासा जैसे शहरीकरण और विकास योजनाओं के चलते देश में अब तक चिह्नित कुल ५२००० झोपड़पट्टियों में कुछ इज़ाफा ही हो होगा। जाहिर सी बात है सामाजिक विषमता कोई प्रेम और सौहार्द का माहौल तो बनाएगी नहीं, इस भेदभाव से वैमनस्य ही भड़केगा।

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