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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

ये साँप के केंचुल बदलने जैसा है


- देवाशीष प्रसून
भ्रष्टाचार, भूख, बेरोज़गारी और सरकार के जनविरोधी रवैये से कोफ़्त खाई मिस्र की जनता ने सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है। मुबारक़ ने जनता के असंतोष को भाँपते हुए अपने मंत्रीमंडल को बर्खास्त कर दिया और लोगों को यह भरोसा दिलाया कि देश में सामाजिक, लोकतांत्रिक और आर्थिक सुधारों को जल्द ही लागू किया जाएगा। भरोसा तो यह भी दिलाया है कि अगले बार वे राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव नहीं लडेंगे। लेकिन, मिस्र में एक हज़ार से अधिक लोग पुलिसिया दमन में घालय हो चुके हैं और अब तक कई जानें जा चुकी हैं, जिससे उनके मंसूबे पता चलते हैं। और इस बात की गारंटी कौन लेगा कि अगर मुबारक़ चले भी गए तो उनके जैसा कोई दूसरा मिस्र की गद्दी पर बैठेगा। अरब के शासकों के लिए तानाशाही शब्द का प्रचलन पश्चिमी मीडिया की देन है और हक़ीक़त यह है कि इन इलाक़ों में कठपुतली सरकारें काम करती हैं। इनका शासन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के इशारों पर वैश्विक पूँजी के हित में काम करता है। पूँजीवादी ताक़तें पेट्रो-ईंधन की अपनी भयंकर भूख के लिए अरब देशों पर बुरी तरह से आश्रित हैं और अपने हितों को साधने के लिए अरब-देशों में ऐसी सरकारें चाहते हैं, जिनकी बाग-डोर उनके हाथों में हो। खैर! मिस्र में ही नहीं सरकार से असंतुष्ठ लोगों का प्रतिरोध ट्यूनीशिया से शुरू होकर लेबनान, जॉर्डन, अल्जीरिया और यमन जैसे कई ऐसे अरब-देशों में जंगल की आग की तरह फैल रहा है, जहाँ पिछले कई सालों से लोग ग़रीबी और भ्रष्टाचार के कारण ख़स्ताहाल रहे हैं। यह बहस का दीग़र मुद्दा है कि जनता ने अगर ऐसे कठपुतली सरकारों को उखाड़ भी फेंका तो देश में कठमुल्लाओं के सत्ता हथियाने के ख़तरे से उन्हें कौन बचाएगा।
बहरहाल, बदहाली से बौखलाई अरब-देशों की जनता खुलेआम यह कह रही है कि अब ट्यूनीशिया ही एक उपाय है। मतलब कि जैसे ट्यूनीशिया की जनता ने अपने शासक को खदेड़ दिया, बाकी अरब-देश के लोग भी अपने यहाँ इस परिघटना को दोहरा कर रहेंगे। लेकिन सवाल कौंधता है कि जिस इंक़लाब-ए-यास्मीन के बाद तेईस सालों से लगातार राष्ट्रपति रहे बिन अली को राजपाट छोड़कर राजधानी से पलायन करना पड़ा, क्या सही में, इस इंक़लाब का अब तक मिला कुल हासिल वहाँ के जनता की जीत है? ऐसा क्या हुआ कि बिन अली ट्यूनीशिया से भागने के लिए मज़बूर हो गया? क्योंकि, तख़्तापटल के लिए किया गया कोई प्रतिरोध दूध-भात का कौर तो नहीं है, कि लोग सड़क पर उतर आए और इससे डर कर वर्षों से हुकुमत करने वाला दुम दबा कर भागने को मज़बूर हो जाए। इस पूरे परिघटना को और गहराई से समझने की ज़रूरत है। दरअसल, यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की चाल थी, जिसने पिछले सितंबर ट्यूनीशिया में बचे-खुचे सब्सिडी को खत्म करने का आदेश दिया था। और जिसके कारण महंगाई आसमान छूने लगी और फिर क्या था? त्रस्त जनता को मज़बूर होकर सड़कों पर उतरना पड़ा।
अरब में मीडिया भी राजनीतिक परिवर्तन की मांग को हवा देने लगा है। साथ ही, विकिलिक्स के खुलासों ने गुस्से की चिंगारी को हवा दी है। ट्विटर और फ़ेसबुक सरीखे सोशल नेटवर्किट की वेबसाइटों पर इस तरह के कई बहसें हुई, जिससे वहाँ यह जनमानस तैयार हुआ कि अब सत्ता में फेरबदल होना ही चाहिए। टेलीविज़न चाइनल अल-जज़ीरा की भूमिका भी इस मामले में बदलाव के मौसम को और सघन करने वाली ही रही। आधुनिक तकनीकों ने बहस-मुबाहिसों के लिए एक नया स्पेस गढ़ा है, पर इन बहस-मुबाहिसों को कौन शुरू और नियंत्रित करता है? क्या लोगों की सारी माँगें, स्वतःस्फूर्त होती हैं या उन्हें प्रेरित करने का सायास प्रयत्न किए जाते हैं? जो भी हो, अब तक जो ताक़तें मलाई काट रही थी, उनको भी को लग रहा है कि कहीं अगर सच में ये प्रतिरोध इंक़लाब बन गए और अरब-देशों में जनता की सरकार बनने लई तो फिर वहाँ उसने हितों को ख़तरा है। अगरचे राष्ट्रपति बदल दिया जाए तो लोगों का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा और उनके इशारे पर जो नए लोग शासन संभालेंगे, वह भी पहले के ही तरह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिए वैश्विक पूँजी के हितों का भी ख्याल रखेंगे। इस तर्क को इससे और मज़बूत मिलती है कि ट्यूनीशिया में बिन अली के जाने के बाद जो अंतरिम सरकार बनी, उसमें भी प्रधानमंत्री मोहम्मद ग़शूनी को ही बनाया गया, जो सन १९९९ से प्रधानमंत्री रहा है। कार्यकारी राष्ट्रपति फ़ोआद मेबाज़ा पिछली सरकार में संसद के अध्यक्ष थे। अंतरिम सरकार में मंत्री वगैरह भी लगभग वहीं हैं। यानी इस यास्मीनी इंक़लाब से बिन अली को तो जाना पड़ा, लेकिन व्यवस्था वही बनी रही। लोग कुछ दिनों तक रूमानियत में रहेंगे कि बहुत कुछ बदल गया पर सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहेगा। यानी कुल मिलाकर ट्यूनीशिया में चल रहे शासन व्यवस्था ने अपने आप में वही परिवर्तन लाये गए, जैसा कि एक साँप अपने केंचुल बदलने समय लाता है। केंचुल बदल जाने के बाद साँप के पास अपने पुराने मंशों को पूरा करने की और अधिक ताक़त व ताजगी आ जाती है।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

जैतापुर के बहाने जनता के लोकतंत्र की बात...

-  देवाशीष प्रसून
आबादी के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा हम करते हैं। लेकिन हमारी आबादी का एक हिस्सा आने वाले गणतंत्र दिवस का विरोध करने वाला है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जैतापुर इलाके में सत्तर स्कूलों के लगभग ढ़ाई हज़ार विद्यार्थियों ने वहाँ बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरोध में ऐसा निर्णय लिया है। पिछले दिनों इन विद्यार्थियों ने स्कूल नहीं जाने का निर्णय तब लिया जब जिला प्रशासन ने शिक्षकों को विद्यार्थियों के समक्ष परमाणु ऊर्जा का गुणगान करने के निर्देश दिए थे। पूरे देश में एक बड़ा संघर्ष हर तरफ़ चल रहा है। एक ऐसा संघर्ष, जिसमें आमलोग अपना लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे हैं तो सरकार अपने लोकतंत्र की दुहाई दे रही है। जनता और सरकार के लोकतंत्र में एक बुनियादी फ़र्क़ है। जनता के लिए लोकतंत्र का मतलब मूल्यों पर आधारित वह सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें भलाई बिना भेदभाव के हमेशा आमलोगों की होती है। लेकिन, इसके ऊलट सरकार के लिए लोकतंत्र का मतलब बस अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए चुनावी राजनीति के गुणा-गणित तक ही सीमित होकर रह गया है। सरकार कोई भी हो, उनके लिए मुख्य मुद्दा है विकास। और, विकास की अंधी दौड़ ने हमारे समय में समाज के तमाम घटकों और खासतौर से शासन व्यवस्था से लोकतांत्रिक मूल्यों को बड़े जबर्दस्त तरीके से ग़ायब किया है। यक़ीनन यह लोगों के लिए चिंता का एक गंभीर विषय बनकर रह गया है। इस दौड़ में अब तक किन लोगों का विकास हुआ है और किनका विनाश, यह बात अब किसी से छुपी हुई नहीं है। तथाकथित विकास की राह पर जनहित के परखच्चे उड़ाते हुए सरकारों को लोकतंत्र की कोई परवाह नहीं है।
आज देश में अलग-अलग तरीकों से लोग अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लड़ रहे हैं। जैतापुर के लोगों के बीच भड़के गुस्से का कारण यह है कि सरकार जैतापुर में दुनिया में सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने वाले संयंत्रों को लगवाने वाली है। जहाँ-जहाँ पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लगाए जा रहे हैं या लगाने की योजना है, वहाँ के लोगों के बीच अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा का एक भयानक माहौल गहराया हुआ है। इन इलाकों में परमाणु ऊर्जा के लिए संयंत्र लगाने से रोकने का मामला यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए अपने जीवन की रक्षा के साथ-साथ अपने लोकतंत्र की रक्षा करने का भी है। यह कौन भूला होगा कि किस तरह से सन २००७ में देश की बड़ी आबादी भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के ख़िलाफ़ थी। वामदलों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और संसद में लगभग ४८ फीसदी से अधिक सांसदों के मुख़ालफ़त के बाद भी सरकार ने परमाणु-ऊर्जा के लिए अमेरिका के साथ समझौते किए। पर लोग महसूस करते है कि संसद में बैठे मुट्ठी भर लोग उन लोगों की ज़िंदगी के बारे में फैसले नहीं ले सकते है। उन्हें पता है कि लोकतंत्र का अस्तिव केवल संसदीय शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि अधिक से अधिक लोगों के हित में ही ज़िंदा रह सकता है।
लोग लड़ इसलिए रहे हैं कि क्योंकि उन्होने देखा हैं कि कैसे कालापक्कम, तारापुर, बुलंदशहर और कोटा में स्थापित परमाणु बिजली संयंत्रों में दुर्घटनाएँ हुईं। जिससे मोटे तौर पर आजतक लगभग ९१० मिलियन अमेरिकी डॉलर के नुक़सान का बोझ देश के सार्वजनिक ख़ज़ाने को झेलना पड़ा। और तो और, इसके अलावा जनजीवन, पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर पड़ रहे दूरगामी कुप्रभावों की गणना की जानी तो अब तक बाकी है। इससे सबक लेने के बजाय सरकार देश में कई जगहों पर परमाणु ऊर्जा से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को स्थापित व क्रियाशील करने के लिए जी-जान से जुटी हुई है। तमिलनाडु के कुडानकुलम और कालापक्कम, गुजरात के काकरापाड़ व राजस्थान के रनाटभाटा और बांसवारा में कई संयंत्र निर्माणाधीन हैं। कुडानकुलम, कर्नाटक के कैगा और महाराष्ट्र के जैतापुर में और २१ संयंत्रों को लगाने की योजना स्वीकृत की गई है। कई अन्य इलाकों व संयंत्रों के लिए भी योजनाएँ प्रस्तावित हैं।

सत्तारूढ़ काँग्रेस ने लोगों के गुस्से को ठंडा करने के लिए एक दल को जैतापुर भेजने का फैसला लिया था, लेकिन वे उन गड़बड़ियों के कैसे सुधार पायेंगे, जो सरकार ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाने के लिए की हैं। अध्ययनों के आधार पर यह खुलासा किया गया कि इसके लिए गलत तरीके से बंज़र बता कर लगभग हज़ार एकड़ उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। दूसरा, जैतापुर पूरी तरह से एक भूकंप संभावित इलाका है, यानि भूकंप आने पर रेडियोधर्मी रिसाव से भयानक जान-माल का नुक़सान लंबे समय तक होता रहेगा। दुर्घटना के कारण नियंत्रित नाभिकीय अभिक्रियाएँ यदि अनियंत्रित हो गई तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के तर्ज़ पर ये संयंत्र अपने देश में फटने वाले परमाणु बम सरीखे हो सकते हैं। डर और बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि जिस फ्रांसिसी कंपनी के गठजोड़ से यह परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा रहे है, सुरक्षा को लेकर उनका रिकॉर्ड बुरा रहा है। तीसरा, यह पर्यावरण और इससे जुड़े जीव और वनस्पति को भी यह बुरी तरह प्रभावित करेगा। इसका समुद्र से बहुत अधिक मात्रा में पानी लेना और उपयोग के बाद खौलते हुए पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से कोंकण से सटा हुआ पूरा समुद्री इलाका समुद्री-जीवों के श्मशान में तब्दील हो जायेगा और इससे कोंकण का मौज़ूदा प्राकृतिक स्वरूप भहरा जायेगा। मतलब यह है कि वहाँ, भविष्य में, किसान और समुद्र पर आश्रित लोगों का, खासकर मछुआरों का भूखों मरना साफ़ दिख रहा है। चौथा, सरकार ने परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी कचरे से निबटारे का कोई ऐसा सूत्र जनता को नहीं बताया, जिससे लोग सहज महसूस कर सकें। जैतापुर में परमाणु संयंत्रों को असुरक्षित बताने पर देश-विदेश में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस को दिए जाने वाले सहायता राशि पर एनपीसीआईएल ने रोक लगा दिया है। विरोध के सभी स्वरों को सरकार अपने संरचनात्मक और राजकीय हिंसा का शिकार बना रही है। जो लोग सरकार की राय से सहमत नहीं हैं, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है, उन पर फर्जी मुकदमे थोपे जा रहे हैं।
परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए यों जनता के लोकतंत्र पर सरकार के जो हमले हो रहे हैं, उनके कारणों को समझना ज़रूरी है। कौन नहीं जानता कि पेट्रोल और कोयले दुनिया से जल्द ही खत्म हो जायेंगे? ग़ौरतलब है कि बिजली और पेट्रोल की खोज से पहले भी मानव-समाज, संस्कृति और उसकी इहलीला तो फल-फूल ही रही थी और आज भी दुनिया भर की एक बड़ी आबादी इन सुविधाओं से महरूम है। भविष्य में भी रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों जैसे कि पवन ऊर्जा या सौर्य ऊर्जा से काम लिया जा सकता है। लेकिन, छोटे-बड़े कल-कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा की माँग बिना पेट्रोल और कोयला के पूरी नहीं हो पायेगी और ऊर्जा के बड़े स्रोतों के अभाव में मौज़ूदा व्यवस्था पूरी तरह ढ़ह जायेगी। ऐसे में पूँजीपतियों का दुनिया भर में फैला गोरखधंधा और विश्व राजनीति में गहरी पैठ को हवा होने से कोई नहीं रोक पायेगा। तो ऊर्जा को लेकर पूँजीवाद की चिंता उनकी पूरी वज़ूद से जुड़ी हुई है। अगर वे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की एक क़ामयाब संरचना नहीं खड़ी कर पाए तो उनकी सत्ता का बिला जाना तय है। उन्हें परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प दीख रहा है। परमाणु ऊर्जा परियोजना शुरू करने की सरकारी छटपटाहट ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत की संरचना को जैसे तैसे, बड़ी जल्दबाज़ी में खड़ा करने की ज़द्दोज़हद है और इसके बरअक्स बेचारी मज़लूम, पर मेहनतकश आवाम अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए है।
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सोमवार, 17 जनवरी 2011

चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा सबूत: डॉ. बिनायक सेन



विवेक जायसवाल

 हम जिस दौर में जी रहे हैं सारी दुनिया मे यह सवाल बार-बार सामने आता है कि हिंसा चाहे वह राज्य सत्ता की हो या प्रतिरोध की, कहां तक जायज है. यह एक ऐसा समय है जब एक तरफ मानवाधिकारों व हाशिए पर खड़े वंचित लोगों के अधिकारों को हासिल करने की लड़ाईयां चल रही हैं और दूसरी तरफ लगातर प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली सरमाएदारों का कब्जा होता जा रहा है. इन्हीं मौजू सवालों पर बातचीत करते हुए डॉ.बिनायक सेन ने कहा कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद चलता-फिरता अकाल ही हिंसा का सबसे बड़ा कारण है. उनसे यह बातचीत पिछले सितंबर वर्धा स्थित उनके आवास पर हो रही थी.इस बातचीत के दौरान डॉ.सेन की जीवन संगिनी और स्त्री अधिकार आंदोलनों से जुड़ीं शिक्षाविद प्रो.इलीना सेन और साथी पत्रकार देवाशीष प्रसून भी मौजूद थे.

हिंसा पर हमारी बातचीत की शुरुआत में ही डॉ. सेन अपने खयालों में तीस साल पहले चले गए और अपने मित्र और बांग्ला के प्रसिद्ध कवि गाजी मुहम्मद अंसार की ये पंक्तियां सुनाईं.

यहां शाम ढलती है

एक विस्तारित इलाके पर

बाघ के पंजे के समान

मुल्लाओं के घर में धान भरा है ठसाठस

अकाल सिर्फ मेरे मुहल्ले में।


जाहिर है कि जिस अकाल की बात यहां हो रही है वह एक खास वर्ग,समुदाय और विभिन्न भौगोलिक और राजनीतिक हालातों में रहने वाले लोगों के लिए अलग-अलग है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो नामक एक सरकारी संस्था है, जो भारत के विभिन्न इलाकों में पोषण की स्थिति का समय-समय पर आकलन करता रहता है। इसके आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. सेन बताते हैं कि पूरे देश की वयस्क आबादी का एक तिहाई हिस्सा से ज्यादा जीर्ण कुपोषण का शिकार है। बॉडी मास सूचकांक (बीएमआई) कुपोषण को मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है और अगर किसी व्यक्ति का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है तो यह माना जाता है वह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत के ३७% पुरुष और ३९% महिलाएं जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी समुदाय के ४०%से ज्यादा लोगों का बॉडी मास सूचकांक यदि १८.५ से कम हो तो वह उस समुदाय को अकालग्रस्त माना जा सकता है। भारत में कुल आबादी के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह स्थिति मौजूद है। भारत में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों की आधी जनसंख्या का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। अनुसूचित जातियों के मामले में यह मामला और भी वीभत्स हो जाता है क्योंकि इनकी कुल जनसंख्या के ६०%हिस्से का बॉडी मास सूचकांक १८.५ से कम है। उड़ीसा की कुल आबादी का ४०% हिस्सा भी इसी तरह जीर्ण कुपोषण का शिकार है। देश का दूसरा सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय अर्जित करने वाले राज्य महाराष्ट्र की भी स्थिति शर्मनाक है क्योंकि यहां के ३३% वयस्क भी जीर्ण कुपोषण के शिकार हैं। यह वयस्क के आंकड़े हैं। बच्चों की स्थिति इससे भी चिंताजनक है। उम्र, वजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार भारत के पांच साल से कम उम्र के बच्चों की ४५% आबादी कुपोषित है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जानी मानी अर्थविद्‍ उत्सा पटनायक के मुताबिक १९९१ में जहां औसतन एक परिवार में ८८० किलोग्राम अनाज की सालाना खपत थी वह २००४ में घटकर ७७० किलोग्राम तक हो गई। ११० किलोग्राम अनाज की यह औसत कमी की ज्यादा मार गरीब परिवारों पर ही पड़ी है क्योंकि संपन्न परिवारों में अनाज की खपत यकीनन बढ़ी है. यही चलता-फिरता अकाल है, जो भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से में मौजूद है और समाज में व्याप्त हिंसा का सबसे बड़ा सबूत है। ऐसे में इस अकालग्रस्त आबादी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह कैसे अपनी जिंदगी बचाए रखे। इस जिंदगी को बचाए रखने के लिए यह सबसे जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों तक इनकी पहुंच बनी रहे। आज जो स्थिति है उसमें संपन्न वर्ग के लोग इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार बनाने में लगे हुए हैं और राज्य सत्ता इस पूरी प्रक्रिया में संपन्न वर्ग के लोगों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित लोगों को इससे वंचित कर दिया जाता है। ऐसा करके उनको सिर्फ उनकी जमीन से ही बेदखल नहीं किया जाता बल्कि यह एक सामाजिक विस्थापन भी है। साथ ही यह प्रक्रिया उनके और पर्यावरण के बीच के सह अस्तित्व को भी तोड़ती है। ऐसे में इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जहां उनकी जिंदगी पर ही खतरा मंडराने लगता है। यह जो परिस्थिति निर्मित हो रही है इसको जनसंहार कहते हैं। जनसंहार के अपराध की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें जनसंहार को परिभाषित करने की कोशिश की गई। जनसंहार कई तरीकों से हो सकता है जैसे हथियारों का इस्तेमाल करके लोगों को मारा जाए या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाए जिससे लोगों के जिंदा रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए। देश का सरमायादार तबका राज्य सत्ता की गारंटी के साथ इसी तरह के हालात पैदा कर रहा है। ऐसा लगता है कि यह प्रक्रिया देश में मौजूद कुछ सौ करोड़पतियों और अरबपतियों के हित में है लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली है। यह स्वाभाविक है कि ऐसे लोग जिनका अस्तित्व खतरे में है वह अपनी रक्षा के लिए इसका प्रतिरोध करेंगे। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोगों के पास अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्रतिरोध के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यही प्रतिरोध ही प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा सकता है।

डॉ. सेन को बीच में टोकते हुए प्रसून ने पूछा कि यह स्थिति देश में ही है या वैश्विक स्तर पर भी है? जबाब में डॉ. सेन बोलते हैं कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल भारत में है बल्कि यह प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित जैसे कई देशों में जहां अभी तक प्राकृतिक संसाधन गरीब लोगों के हाथ में रहे है, वहां यह कमोवेश जारी है। आजकल जिन समाजों को तथाकथित संपन्न माना जा रहा है वह भी इसी प्रक्रिया से होकर गुजरे हैं। उन समाजों में भी प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को वंचित करके संपन्नता हासिल की गई है।

प्राकृतिक संसाधन से आशय सिर्फ जल, जंगल और जमीन से ही नहीं है। इसका एक वृहत्तर आशय जैव विविधता से भी है। सतत विकास का जो विज्ञान है उसको बाधित किया जा रहा है। बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण के कारण संसाधनों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर पूंजीपति निगमों के मातहत हो गया है। यह भी हिंसा का एक क्रूरतम रूप है। डॉ. सेन निजीकरण की इस प्रक्रिया को किसानों के हाथों से संसाधनों के छीने जाने का एक बड़ा कारण मानते हैं। किसानों के विज्ञान को समाप्त करने का यह एक तरीका है।

पानी के मामले को जमीन से भी ज्यादा गंभीर मानते हुए डॉ. सेन कहते हैं कि जिस तरह से लोगों को पानी से वंचित करके अवैध तरीकों से तमाम औद्योगिक इलाकों में पानी का दुरुपयोग हो रहा है वह भी हिंसा का नृशंस रूप है। यह लगातार लोगों के स्वास्थ्य और कृषि पर बुरा असर डाल रहा है। बतौर बानगी बिजली के प्रयोग से उद्योगों और वाणिज्यिक खेती के लिए जो पानी जमीन से निकाला जाता है और इसके बाद जो पानी लोगों को उपलब्ध होता है उसमें आर्सेनिक, फ्लोराइड जैसे कई खतरनाक रसायन घुले होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। आंध्रप्रदेश के नालगोंडा के पानी में मानव शरीर के द्वारा बर्दाश्त किए जाने की क्षमता से दस गुना ज्यादा फ्लोराइड है। बंगाल में भी यह आर्सेनिक जहर का काम कर रहा है। पंजाब में तो पानी का स्तर इतना नीचे चला गया है कि आम किसानों द्वारा इसे निकालकर खेती मे प्रयोग करना नामुमकिन है।

मैंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ लोग कहते हैं कि हर क्षेत्र में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को बढ़ाया है। ऐसा कहने पर उनका इशारा प्रतिरोध की हिंसा की ओर होता है। क्या ऐसा कहना सही है? जबाब में डॉ. सेन कहते हैं प्रतिरोध को हिंसक और अहिंसक में बांटना दरअसल मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान बंटाना है। भारत में प्रतिरोध एक सतरंगी फेनामेना है। सरकार इसे एक ही रंग में रंगने पर उतारू है। आम लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध के विविध तरीकों को सरकार एक ही रंग में रंगकर अपनी सैन्य कार्रवाईयों को उचित ठहराने की कोशिश करती है जोकि ठीक नहीं है। देश में प्रतिरोध के बहुत सारे सृजनात्मक तरीके भी उभरकर सामने आए हैं जो निरंतर जारी हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संसाधनों पर केंद्रीकरण को बढ़ाने की सैन्यीकृत प्रक्रियाओं का प्रतिरोध आवश्यक है। प्रतिरोध जायज है परंतु हम इसके सैन्यीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। मेरी राय में शांतिपूर्वक प्रयासों से ही प्रतिरोध लंबे समय तक चलना संभव होगा।

ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्य द्वारा की जाने वाली ढांचागत व सैन्य हिंसा का शांतिपूर्ण प्रतिरोध संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. सेन ने जोर देते हुए कहा कि मुझे लगता है कि यह अनिवार्य है और यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध करना ही जनता के हित में है। यदि जनता ने अपने इस प्रतिरोध को सैन्य प्रक्रिया में तब्दील होने दिया तो नुकसान जनता का ही होगा। संगठित हिंसा की समाप्ति सृजनात्मक प्रतिरोध से ही संभव है, जिससे ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जिसमें न्याय, भाईचारा और प्रेम हो।
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प्रस्तुति- विवेक जायसवाल
ई-मेल v.mgahv@gmail.com

रविवार, 9 जनवरी 2011

एक डॉक्टर से बिनायक सेन तक...

डॉ. बिनायक सेन पिछले तीन-चार दशकों से छत्तीसगढ़ के ग़रीब और मज़लूम आदिवासी जनता के डॉक्टर ही नहीं, बल्कि उनके सच्चे हमदर्द भी रहे हैं। डॉ. सेन को अमरीका के ग्लोबल हेल्थ काउंसिल द्वारा स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के लिये वर्ष २००८ का जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया था। विडंवना यह रही कि इस पुरस्कार को स्वीकार करने के लिये स्वयं वाशिंगटन डी.सी जाने की अनुमति भारतीय राजसत्ता और न्याय तंत्र द्वारा उन्हें नहीं दी गई। वह उस वक्त रायपुर के जेल में बंद थे। आश्चर्य इस बात का है कि डॉ. सेन पर यह पाबंदियां उन्हीं कामों के लिये लगायी गयी है जिन कामों लिये इस विश्वविख्यात संस्था ने एशिया के किसी व्यक्ति को पहली बार सम्मानित किया था। चाहे जिस तरह भी छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने का आरोप मढ़ते रहे, लेकिन असल मामला जगजाहिर है कि डॉ. सेन ने जिस तरह से छत्तीसगढ़ सरकार के प्रोत्साहन पर हो रहे बेशक़ीमती ज़मीन के कॉरपोरेट लूट और सलवा जुडूम के गोरखधंधे के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, सरकार इसी बात का बदला उनसे ले रही है।

जब वे सलाखों के पीछे थे तो ग़रीब, मज़दूर व आदिवासी ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के कई तेजस्वी लोगों ने डॉ. सेन के रिहाई के लिए हल्ला बोल दिया। एक व्यापक जन-आंदोलन के चलते उनको जमानत पर रिहा किया गया। पर, २४ दिसंबर, २०१० को रायपुर की निचली अदालत ने डॉ. सेन को राजद्रोह का दोषी क़रार दिया। भूलना नहीं चाहिए कि इसी न्याय व्यवस्था ने सन १९२२ में महात्मा गाँधी को भी राजद्रोही माना था। भारत में राज भले ही बदल गया हो, लेकिन न्यायिक व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर अब भी चल रही है। कौन सा व्यक्ति राजद्रोही है और कौन देशभक्त, इस सवाल के अदालती जवाब को पहले भी शक सी नज़रों से देखा जाता था और आज भी। लेकिन इतिहास हमेशा याद रखता है कि समाज में किस व्यक्ति की क्या भूमिका रही है। डॉ. सेन को मिले ताउम्र कैद-ए-बामशक़्क़त की सज़ा से भारत ही नहीं, दुनिया भर का नागरिक समाज सकते में आ गया है। देश-विदेश के सभी विचारवान लोग, अपने अलग-अलग राजनीतिक विविधताओं के साथ रायपुर न्यायालय के इस फैसले को लोकतंत्र की अवमानना के तौर पर देख रहे हैं।

जमानत के दौरान डॉ. सेन जब जेल से बाहर थे तो उनसे बातचीत करने का मौका मिला, जिसका सारांश हमे डॉ. बिनायक सेन की शख़्सियत को समझने में मदद करता है। इस बातचीत में मैंने डॉ. सेन से उनके जीवन के उन संदर्भों को जानने का प्रयास किया है, जिसके बाद से उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह से जन-कल्याण के कामों में लगा दिया। उक्त बातचीत के आधार पर डॉ. बिनायक सेन के जीवन वृत्त का एक खाका खींचने की कोशिश की गई है।

डॉ बिनायक सेन कहते हैं कि सन ७६ के आसपास जब वो क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज़ में पढ़ाई कर रहे थे, उस समय चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए पैसा कमाने से अधिक रुझान नए-नए तकनीकों के जरिए विज्ञान की गूढ़ता से साबिका करना था। डॉक्टर अकसर अपने देश से पलायन करके समृद्ध देशों में अपनी सेवाएँ देने को लालायित रहते थे। जहाँ उन्हें तकनीक से और अधिक रू-ब-रू होने मौका मिलने की उम्मीद थी। यह दौर तकनीकी चकाचौंध का दौर था। तकनीक विज्ञान का पर्याय होता दिख रहा था।

लेकिन इसी दौर में कुछ और भी था, जिसने बिनायक के ध्यान को विदेशी तकनीकों के तरफ़ नहीं, बल्कि अपने देश के झुग्गियों और ग़रीब मोहल्लों की ओर मोड़ा। बाल चिकित्सा में एम.डी. करते वक्त उनका उठना-बैठना ऐसे शिक्षकों के साथ हुआ, जो आमलोगों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे थे। उनमें से एक थी – डॉ. शीला परेरा। डॉ. परेरा पोषण विज्ञान की जानकार थी और उन्होंने बिनायक को ग़रीब बच्चों के पोषण संबंधित विषय पर काम करने को प्रोत्साहित किया। बिनायक का यह काम उनके एम.डी. के लघु-शोध की शक्ल में था। पहली बार अस्पताल और मेडिकल कॉलेज से निकल कर उन्हें मरीज़ों के मर्ज़ और मर्ज़ के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समझने का मौका मिला। धीरे-धीरे वो समझने लगे कि किसी रोग को समझने के लिए बस जीव-वैज्ञानिक व्याख्या ही महत्वपूर्ण नहीं, अपितु रोगों के मूल में मौज़ूद सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्याख्याएँ भी समझना ज़रूरी है।

बाल चिकित्सा में विशेषज्ञता हासिल करने के बजाय बिनायक को एक ऐसी नौकरी की तलाश थी, जहाँ वो रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों को बेहतर समझ सकें। साथ ही, वह सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए भी काम करना चाहते थे। उनकी तलाश दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्गत चल रहे सामाजिक औषधि व सामुदायिक स्वास्थ्य अध्ययन केंद्र पर जा कर थमीं। इसी बीच कुछ प्रगतिशील चिकित्सकों ने मिलकर मेडिको फ्रेंड्स सर्कल का गठन किया। इसका उद्देश्य बीमारियों और जनस्वास्थ्य के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल करना था। बिनायक इन दोनों मंचों के जरिए समाज में व्याप्त रोगों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों का अध्ययन कर रहे थे। मेडिको फ्रेंड्स सर्कल की कोई खास राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। उनमें से कुछ चिकित्सक जयप्रकाश के नेतृत्व में चल रहे छात्र संषर्ष वाहिणी के समर्थक थे तो कुछ मार्क्सवादी। पर एक बात जो सामान्य थी वो यह कि सब यह मानते थे कि रोग के इलाज़ में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारकों का निपटारा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

यह एक ऐसा समय था, जब सरकारें सभी दिक़्क़तों का हल तकनीकों के जरिए ही संभव होते देख रही थी। जैसे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए उन्हें एकमात्र विकल्प हरित क्रांति के रूप में सूझा। या जैसे, मलेरिया के रोकथाम में उन्होंने डीडीटी को कारगार पाया। लेकिन, सरकारों ने इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि ये सारे तकनीकी उपाय लंबे समय तक नहीं टिकेंगे। इस विकास में पुनरुत्पादन की गंभीर समस्या थी। तकनीकों के जरिए कृत्रिम विकास ही संभव है, जो विकास की एक मुसलसल प्रक्रिया को जारी नहीं रख सकता। तकनीक बस वे कृत्रिम हालात तैयार कर सकती है, जिससे हालात खास परिस्थियों में सुधरते नज़र आते हैं। असल में हालत सुधरते नहीं, तकनीकों के हटते ही, स्थितियाँ और बुरी हो जाती हैं। तकनीकों के मुकाबिले तमाम समाजिक समस्याओं, रोगों और विपन्नता को हराने के लिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उपाय ही महत्वपूर्ण है, ऐसा सरकारें अब तक नहीं समझ पायीं हैं।

सन ’७८ में बिनायक का पत्नी इलीना के साथ मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले में आना हुआ, जहाँ उन्होंने गाँवों में घूम-घूम कर तपेदिक के ग़रीब मरीज़ों का इलाज़ किया। सन ’८१ में बिनायक और इलीना पीयूसीएल से जुड़े। यह वो समय था जब दल्ली राजहरा में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों का मज़बूत संगठन अस्तित्व में आ चुका था। इस मज़दूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ था। नियोगी को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया। पीयूसीएल ने इस गिरफ़्तारी की जाँच के लिए एक दल को दल्ली राजहरा भेजा। बिनायक इस जाँच-दल के सदस्यों में से एक थे।

बिनायक को जब इस इलाके की असलियत का पता चला तो उन्होंने यहीं रह कर लोगों के स्वास्थ्य के लिए काम करने का फ़ैसला लिया। नियोगी के नेतृत्व में मज़दूरों द्वारा संचालित अस्पताल में वे नियमित रूप से अपनी सेवाएँ देने लगे। इलीना भी स्त्री अधिकारों और शिक्षा के लिए काम करने लगीं। सन ’८८ में इन दोनों का रायपुर आना हुआ। जहाँ बिनायक ने तिलदा के एक ईसाई मिशनरी में काम किया। इलीना ने रूपांतर नाम से एक ग़ैर सरकारी संगठन की स्थापना की, जो मूलतः कामकाजी बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता था। ’९१ से बिनायक भी रूपांतर के साथ काम करने लगे।

छत्तीसगढ़ में महानदी बाँध के बनने से आदिवासियों का विस्थापन शुरू हो गया था। विस्थापित आदिवासी जनता जीवन-यापन के लिए जंगल में जाकर बस्तियाँ बसाने लगे। सरकार ने इसे आदिवासियों द्वारा जंगल का अतिक्रमण माना। ये बस्तियाँ सरकार के नज़र में ग़ैर-क़ानूनी व अनाधिकृत थी। इस कारण इन इलाकों में रहने वाले लोगों को सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रखा गया था। नगरी सेवा इलाके में भी कुछ ऐसे ही गाँव शामिल थे। सुखलाल नागे के बुलावे पर बिनायक ने यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराई।

पुलिसिया दमन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। ग़रीब और ग़रीब होते जा रहे थे। औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापन को आम जनता पर लादा जाने लगा। बस्तर में पीने के पानी का आभाव था, गंदा पानी पीने से लोगों के बीच हैजा फैल गया। सरकारी नीतियों से लोग त्रस्त होकर विरोध और प्रतिरोध करने लगे, तो उनके दमन के लिए उनका फर्ज़ी मुठभेड़ में विरोध करने वालों की लाश बिछाने की घटना आम हो गयी। लोगों के मानवीय अधिकारों के लिए आवाज़ बलंद करने और इन सभी परिस्थितियों से सामना करते हुए बिनायक ने अपने अंदर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता का विकास किया।

जैसे-जैसे समय बीतते गया, इलाके में कॉरपोरेट लूट बढ़ती गई। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से सरकार की ताक़तों में और भी इज़ाफ़ा हुआ। सन २००५ की बात है देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम और छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम को लागू किया। ग़ौर करें तो दोनों ही क़ानून जनविरोधी ही नहीं थे, बल्कि इन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों व असहमतियों की स्वरों का गला घोंटने के लिहाज़ से बनाया गया था। एक लोकतांत्रिक समाज की एक जनतांत्रिक छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार जैसे व्यापारिक प्रतिष्ठान से गुप्त समझौता करती है। इसके बाद से यही सरकार आम जनता के सैन्यीकरण को प्रोत्साहित करने लगी। लक्ष्य था आदिवासियों की बेशक़ीमती ज़मीनों को इन कम्पनियों के लिए हथियाना। सलवा जुडूम के नाम को आम असैनिक जनता के सैन्यीकरण को नैतिक, आर्थिक. सामरिक और हथियारों से मदद कर के छत्तीसगढ़ में सरकार ने गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि बनाना शुरू किया। डॉ. सेन ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते उन्होंने देश भर के जागरूक लोगों को छत्तीसगढ़ में रहे इस अन्याय के प्रति आगाह किया और कालांतर में छत्तीसगढ़ सरकार को सलवा जुडूम को प्रश्रय देने के लिए शर्मिंदा होना पड़ा।

डॉ. सेन पर नक्सली डाकिया होने के आरोप है, लेकिन डॉ. सेन का इस विषय पर बहुत पहले से स्पष्ट रूख रहा है। वे कहते हैं कि वह नक्सलियों की अनदेखी नहीं करते लेकिन उनके हिंसक तरीकों का समर्थन भी नहीं करते हैं। वह ज़ोर देते हुए कहते है कि मैंने हिंसा की बार-बार मुख़ालफ़त की है, चाहे वह हिंसा किसी ओर से की जा रही हो।


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पुराने घरों को उजाड़ कर बसता लवासा

- देवाशीष प्रसून


सरकार ने अपने कामों की फेहरिस्तों में विकास को सबसे अव्वल रखा है। देश में होने वाले विकास का सुख चाहे कोई भी उठाए, पर हम देख सकते हैं कि इसका मूल्य समाज का कमज़ोर तबके को ही चुकाता पड़ता है। मामला बाँध बनाने का हो, औद्योगिकरण या सेज़ का या शहरीकरण का, इसके लिए आवश्यक ज़मीने अक्सर ग़रीबों और आदिवासियों से ही अधिग्रहित की जाती हैं। इसके विरोध में, हमारे सामने लालगढ़, नंदीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर, रायगढ़ और नर्मदा बचाओ जैसे जन-आंदोलनों के कई उदाहरण मौज़ूद हैं। इन आंदोलनों को विकास के अंतर्विरोध के रूप में देखा जा सकता है। वैसे तो देश में गरीबों, दमितों व आदिवासियों के हित के लिए, मानवाधिकार की रक्षा के लिए और जनकल्याण को ध्यान में रख कर कई क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन असल धरातल पर बड़े-बड़े निगमों के हित के सामने ये अमूमन धरे के धरे रह जाते हैं।

देशभर में रफ़्तार पकड़ रही विकास की गाड़ी न जाने कितने गरीबों के घरों को हमेशा-हमेशा के लिए रौंद कर बेरोक-टोक आगे बढ़ रही है। नियमों को सरमायापरस्त ताक़तों के हक में तोड़ना-मरोड़ना और इसका विरोध करने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की ख़बरे आना आम बात हैं। जहाँ-तहाँ अंधाधूंध चल रहे कई विकास परियोजनाओं में से एक है पुणे और मुंबई के बीच बसाया जा रहा हिल स्टेशन लवासा। इसमें हो रही अनियमितताओं के बारे में शिक़ायते होनी तो शुरू हो गई है, पर चंद लोग इसकी गंभीरता को अपने पैसे और पहुँच के बदौलत कुचलना चाहते हैं।


लवासा वरसगाँव बांध के नज़दीकी इलाकों में फैला हुआ लगभग पच्चीस हज़ार एकड़ ज़मीन का वो टुकड़ा है, जिस पर कुछ बिल्डरों, नेताओं और मुट्ठी भर ताक़तवर लोगों के द्वारा भविष्य के एक पहाड़ी शहर का सपना संजोया जा रहा है। पर, खेती-किसानी के लिए उर्वर यह ज़मीन और सदियों से आदिवासियों-किसानों का बसेरा रहे इस वनक्षेत्र का लवासा शहर में तब्दील होना कई अनियमितताओं, स्थानीय लोगों के साथ हुई ज्यादतियों और उनको विस्थापित करने की कई साजिशों व अनदेखियों से पटा पड़ा है। २००१ में काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के महाराष्ट्र में सत्ता में आने के बाद द लेक सीटी कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के जानिब से आए इकलौते प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाते लवासा नाम से अत्याधुनिक हिल स्टेशन विकसित करने का ठेका बिना किसी निविदा आमंत्रित किए उक्त कंपनी को दे दिया था। जाने-माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे की माने तो इस हिल स्टेशन के चलते महाराष्ट्र सरकार ने कई नियमों को ताक पर रखते हुए क़ानून-व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाया है व वहाँ पर पीढ़ियों से गुज़र-बसर कर रहे हज़ारों आम आदिवासी लोगों के वाजिब अधिकारों का लगातर हनन किया है।

ग़ौरतलब है कि केंद्र की सरकार में कृषि मंत्री व महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता शरद पवार का सीधे तौर पर हित लवासा कारपोरेशन के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनकी बेटी सुप्रिया सुळे और दामाद सदानंद सुळे की इस कंपनी में अच्छी हिस्सेदारी रही है। सुळे दंपत्ति को लवासा निगम में मालिकाना हिस्सेदारी दिए जाने के बाद से इस प्रोजेक्ट ने तूफ़ान से तेज़ रफ़्तार हासिल किया है।

१९७४ की बात है कि सार्वजनिक हित के काम के लिए बनाए जा रहे वरसगाँव बांध के लिए सरकार ने भू-अधिग्रहण किया, जिसके कुछ हिस्सा अब तक परती था। उच्च न्यायालय ने इस ज़मीन को इसके पुराने मालिकों को लौटाने के बजाए सार्वजनिक हित के काम में ही लगाने का फैसला लिया था। राज्य के जल संसाधन निगम के मातहत काम करने वाले महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास निगम ने मनमाने तरीकों से लवासा के मालिकों को ज़मीन का यह १४१.१५ हेक्टेयर का टुकड़ा बहुत सस्ते दर पर उपलब्ध करा दिया। यही नहीं, देखने वाली बात यह भी है कि लवासा को वरसगाँव बांध से ३.०३ टीएमसी पानी देने का फैसला भी लिया गया। इस बांध के पानी से पुणे शहर की तमाम ज़रूरतें पूरी होती हैं और पिछले कुछ सालों से पुणेवासियों को पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। बावज़ूद इसके सरकार ने यह फैसला पुणे की ज़रूरतों के बारे में सोचे बिना ही ले लिया। शक की सूईयाँ फिर शरद पवार की ओर घूमती हैं, क्योंकि ये सारे फैसले उनके भतीजे अजीत पवार ने लिए थे। चिंता का विषय यह है कि अजीत को अब महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया है, याने पवार लवासा मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।

तत्कालिक राज्स्व मंत्री नारायण राणे का बयान आया कि इस मामले में कुछ अनियमितताएँ तो हैं, लेकिन इन अनियमितताओं को हर्ज़ाने वगैरह से नियमित कर लिया जाएगा। माने इरादा सफ़्फ़ाक़ साफ़ है कि कुछ भी हो जाए, भले नियमों और आमलोगों के हितों की धज्जियाँ ही क्यों न उड़ा दी जाए, लवासा तो बन कर ही रहेगा। लेकिन, पर्यावरण सुरक्षा की अनदेखियाँ को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त लगीं और तब से वहाँ के कामकाज को ठप्प किए जाने का आदेश है। देखने वाली बात है कि अब पर्यावरण मंत्रालय को लवासा कंपनी के लोग कब और कैसे मैनेज करेंगे।

प्रधानमंत्री को लिखे एक चिट्ठी में अन्ना हज़ारे ने ज़िक्र किया है कि इस प्रोजेक्ट के नाम पर बीस भली-भांति बसे हुये गाँवों को तबाह और हज़ारों लोगों को बेघर किया जा रहा है। सोचने वाली बात है कि अगर सरकार चुनिंदा लोगों के लिए नए अत्याधुनिक मानकों पर आधारित कई शहरें बसा भी ले तो उन गरीबों का क्या होगा जिनको अपने जगहों से बेघर कर दिया गया हो। इतनी ज़्यादतियों के बाद भी वे रहेंगे तो इसी देश, इसी समाज में। लेकिन जब हज़ारों को उजाड़ कर कुछ सौ के एहतिआत का क्या ख्याल रखा जाएगा, तो इससे पैदा हुई असमानताओं का सरकार किन तर्कों से बचाव करेगी। देश में अट्टालिकाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन विश्व बैंक के मुताबिक भारत की कुल चौदह फीसदी शहरी आबादी अब तक झुग्गियों में रहती है। जाहिर है लवासा जैसे शहरीकरण और विकास योजनाओं के चलते देश में अब तक चिह्नित कुल ५२००० झोपड़पट्टियों में कुछ इज़ाफा ही हो होगा। जाहिर सी बात है सामाजिक विषमता कोई प्रेम और सौहार्द का माहौल तो बनाएगी नहीं, इस भेदभाव से वैमनस्य ही भड़केगा।

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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

वे पुलिस थे, पुलिस हैं और पुलिस ही रहेंगे

- देवाशीष प्रसून
भारत में कई संस्थान उच्च शिक्षा और शोध की दिशा में कार्यरत हैं। उनके बावज़ूद, हिंदी में मौलिक सोच के विकास और शोध की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र में महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की नींव रखी गयी थी। शुरू से ही विभिन्न कारणों से विश्वविद्यालय विवादों में घिरा रहा। आजकल यह विश्वविद्यालय कुलपति विभूतिनारायण राय की तानाशाही को लेकर चर्चा में हैं।
विभूतिनारायण राय भारतीय पुलिस सेवा से संबंद्ध रहे है और यह उनकी कार्य-संस्कृति से भी स्पष्ट दिखता है। हमेशा से वे पुलिस अधिकारी रहे हैं और अब विश्वविद्यालय में भी पुलिसिया संस्कृति के कांटे बो रहे हैं। अपनी किसी असुविधा के लिए एक टार्गेट को चुनना और उसके ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करने में ये माहिर रहे हैं। शोध और अध्यापन के बरअक्स हिंदी-समय, कथा-समय और इस सरीखे हिंदी के साहित्यकारों का मेला लगा कर विभूति तालियाँ सुनने में मज़ा लेते हैं। पर उनके द्वारा लिए गये कुछ अहम फैसले उनकी कार्य-संस्कृति का आईना बनकर सामने आते हैं। गोया, दो बार छात्र-प्रतिनिधियों को बिना विद्यार्थियों की सहमति से विद्या-परिषद के बतौर सदस्य मनोनीत किया गया। हाल में जो व्यक्ति विद्या-परिषद में छात्र-प्रतिनिधि मनोनीत हुआ है, वो एक साथ विश्वविद्यालय से हर माह निश्चित राशि लेकर पब्लिसिटी अधिकारी और पीएच.डी. शोधार्थी है।पीएच डी के लिए भी सरकार हर महीने एक निश्चित राशि शोधवृति के रूप में देती है। विश्वविद्यालय में काम करने वाले को बतौर छात्र-प्रतिनिधि थोपना ही विभूति का विश्वविद्यालय में लोकतंत्रीकरण है।
संतोष बघेल दलित हैं और उन्होंने यहीं से एम.फिल. किया और वह जेआरएफ़ भी है। अपनी इसी योग्यता के साथ उसने पीएच.डी, के लिए आवेदन किया था। खाली सीट के बावज़ूद, बिना लंबी लड़ाई, उन्हें दाखिला नहीं मिल पाया। हाल में एम.फिल. में स्वर्ण पदक प्राप्त लेकिन जाति से दलित छात्र राहुल कांबळे को आखिरकार पीएच.डी. से महरूम रखा गया। प्रवेश परीक्षा में उसका चयन नहीं हो पाया था, पर चयनित एक अभ्यर्थी ने जब दाख़िला नहीं लिया तो तीसरे नंबर पर होने के कारण राहुल ने अपना दावा पेश किया। सीट खाली रह गयी, लेकिन कुलपति राय की दुआ से राहुल को उसके आमरण अनशन के वाबज़ूद भी विश्वविद्यालय से विदाई लेनी पड़ी। बहाना बनाया गया कि उक्त सीट पिछड़े अभ्यर्थी के लिए आरक्षित है तो एक दलित को कैसे मिल सकती है।
कुलपति राय को विरोध के स्वर बर्दाश्त नहीं है, कठपुतली बने कुलानुशासक फट से विद्यार्थियों को नोटिस थमाते फिरते हैं। शोध के एक छात्र अनिल ने बताया कि उसको कई बार अपनी असहमतियों के कारण अनुशासनात्मक कार्रवाई से भरा धमकी-पत्र मिलता रहा है। कारण अलग-अलग रहे हैं। आख़िरकार उसे विश्वविद्यालय ने निष्कासित करने से भी कोई गुरेज़ नहीं किया गया। बहना बनाया गया एक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश। ज्ञात हो कि देश-दुनिया के हर विश्वविद्यालय में किसी भी विभाग में आये दिन संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं और आयोजक अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता के लिए प्रयासरत रहते हैं। लेकिन, खबरदार विभूति के राज में किसी अकादमिक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश व सहभागिता पर निष्कासन भी हो सकता है, जैसा कि अनिल के साथ हुआ।
छात्राओं का पुरुष-छात्रावास में प्रवेश वर्जित है। पूछे जाने पर कुलपति कहते है कि लड़कियाँ टॉफी जैसी होती है,जिनका 'इस्तेमाल' लड़के करना चाहते हैं। इसलिए यह कदम एहतियातन उठाया गया। गौरतलब हो कि इस विश्वविद्यालय परिसर में न्यूनतम शिक्षा एम.ए. स्तर की है। याने इस विश्वविद्यालय के सभी छात्र-छात्राएं व्यस्क है। तो फिर इस तरह की नैतिक पुलिसिंग क्यों? क्या कुलपति राय के संप्रदायिकता विरोधी नक़ाब से निकल कर बजरंज दल का कार्यकर्ता झांकने लगा है?
मनमानियों की कड़ी में एक दिन विद्यार्थियों के हितैषी व लोकप्रिय शिक्षक प्रो अनिल चमड़िया की नियुक्ति विश्वविद्यालय प्रशासन ने ख़त्म कर दी। यह पुलिस अधिकारी राय में विश्वविद्यालय में आने के बाद सबसे बड़ा, लेकिन फर्जी, मुठभेड़ बनता दिखाई दे रहा है। कुलपति राय ने जब महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति का पदभार संभाला तब पहली बार की गयी नियमित नियुक्तियों के जरिए अनिल कुमार राय उर्फ़ अंकित और अनिल चमड़िया ने बतौर प्रोफ़ेसर जनसंचार विभाग में अध्यापन की जिम्मेवारी दी गयी। अनिल चमड़िया का बतौर अथिति शिक्षक विद्यार्थियों को मार्गदशन पिछले चार सालों में कई बार मिलता रहा है। चमड़िया देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के क्षेत्र में विशिष्ठ हैसियत रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) नयी दिल्ली में अध्यापन करते रहे थे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे देश के जाने-माने पत्रकार के साथ-साथ वर्धा, दिल्ली समेत देश के कई पत्रकारिता विभागों के विद्यार्थियों के सबसे प्रिय और सक्षम शिक्षक रहे हैं। प्रो. अंकित को एक दिन की सिनियारिटी के चलते विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया, सो वे प्रशासनिक कामों में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। जो भी हो छात्र-छात्राओं का प्रो. राय से अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले साबिका नहीं पड़ा। लेकिन, उनके कारण विभाग में बढ़ते अफ़सरशाही के चलते विद्यार्थियों में आक्रोश ज़रूर बढ़ रहा था। इसी बीच कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों, अख़बारों और पत्रिकाओं ने प्रो. अनिल कुमार राय अंकित द्वारा नक़ल कर पुस्तके छपवाने के मामले को सार्वजिनक कर दिया। प्रो. अंकित न तो पढाते थे और फिर इस तरह के पुख्ता सबूतों के साथ लगाए गए आरोप के कारण विद्यार्थिओं के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा बढ़ने लगी। इस दौरान विद्यार्थियों का मन किसी प्रकार के असुरक्षा से मोड़ कर अपनी पढ़ाई कोई ओर केंद्रित करवाने के लिए प्रो. चमड़िया ने दिन-रात एक कर दिया।
प्रो चमड़िया कहते हैं कि कुलपति शुरू से ही उनके हर प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया करते थे। चमड़िया चाहते थे कि देश भर की सारी पत्र-पत्रिकाएं विभाग में आयें, जिनसे पत्रकारिता के विद्यार्थियों की समझ व्यापक हो सके, जिसे कुलपति ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने विद्यार्थियों को गाँव-गाँव घूमकर रपट लिखने का आदेश दिया। कुलपति ने अपने मौखिक आश्वासन के बावज़ूद विश्वविद्यालय की ओर से इसके लिए कोई इंतेज़ामात नहीं होने दिये गए। एक प्रोफेसर को दिए जाने वाली न्यूनतम सुविधाओं से उन्हें महरूम रखा गया।
जनसंचार विभाग में पीएच.डी. प्रवेश की परीक्षा आयोजित की गयी। अभ्यर्थियों को लगा कि प्रवेश-परीक्षा में कुछ छोटाला है।इस बाबत शिक़ायत पत्र कुलपति को सौंपी गयी।माँग थी कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक सार्वजनिक किए जायें।पूरी प्रक्रिया में कई लोग शामिल थे।कई विश्वविद्यालय के शिक्षक थे तो प्रो. राममोहन पाठक जैसे कई बाहरवाले भी। कुलपति ने परीक्षाफल को निरस्त कर दिया और पुनः परीक्षा आयोजित की गयी, लेकिन जो काम आज तक नहीं हुआ वह कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक को सार्वजनिक किया जाना। जबकि सात महीने बीत चुके हैं। बाद में सारी धांधलियों का दोष प्रो. चमड़िया पर मढ़ा गया। कहा गया कि उन्होंने साक्षात्कार के अंकों के साथ छेड़-छाड़ किया है। अगर ऐसा है भी तो वे सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाने चाहिए थे। सिर्फ़ साक्षात्कार ही नहीं, उत्तर-पुस्तिकाओं के विश्वसनीयता को सबके सामने रखा जाये। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता। प्रो चमड़िया से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा अंक देते वक्त उनसे एक गलती हो गयी थी, गलत को सही करके उन्होंने अपने सुधार पर अपना हस्ताक्षर किया है। वे कहते हैं कि सुधार करना कोई अपराध नहीं हो सकता है। अगर विश्वविद्यालय इसे गलती मान ही रहा था तो फिर उसने परीक्षा परिणाम ही क्यों प्रकाशित किया।बाद में आयोजित परीक्षा में तो सचमुच योजनाबद्ध तरीके से उच्चाधिकारियों ने धांधली की।पूरी परीक्षा की प्रक्रिया एक व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी रही और परीक्षा परिणाम के वक्त पीएचडी के लिए निर्धारित सीटों की संख्या दस से तेरह कर दी गई।साक्षात्कार के पैनल में अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कोई पर्यवेक्षक नहीं था जोकि नियमत अनिवार्य है।
बहरहाल इससे अधिक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि केवल राष्ट्रपति द्वारा कार्य-परिषद के लिए नियुक्त सदस्यों को ही पूरी कार्य-परिषद करार देने के बाद उनकी आनन-फानन में बैठक बुलायी गई और अनिल चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ तथा उनके साथ किये गये बाकी ग्यारह नियुक्त्तियों को स्वीकृत करवाया गया। इस पर कुलपति ने कहा कि कार्य-परिषद के सभी सदस्य तुले हुए थे कि अनिल चमड़िया की नियुक्ति खारिज़ हो। सदस्यों ने कहा कि यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वे प्रोफ़ेसर के लिए निर्धारित योग्यता पूरी नहीं करते हैं। इस संदर्भ में कार्य-परिषद सदस्या मृणाल पाण्डेय ने बताया कि कुलपति राय ने पहले ही हमें आगाह कर दिया था कि न्यायालय में विश्वविद्यालय प्रशासन ने चमड़िया जी की नियुक्ति को बतौर गलती स्वीकार किया है कानूनी फजीहत से बचने के लिए चमड़िया जी की नियुक्ति खारिज़ की गई। एक और सदस्य प्रो कृष्ण कुमार से पता चला कि कुलपति विभूति जी अनिल चमड़िया की नियुक्ति को निरस्त करने के प्रस्ताव के साथ बैठक में आये थे। कृष्ण कुमार ने बातचीत में कई बार ज़ोर देते हुए कहा कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र लिख कर यह निर्देशित किया है कि जब तक कार्य-परिषद की बैठक के मिनट्स पर उनके संस्तुतियाँ नहीं जाती, प्रशासन कोई भी निर्णय लागू नहीं कर सकता है। और यह कि अब तक संस्तुतियाँ भेजी नहीं गयी हैं। लेकिन ज्ञात हो कि २७ जनवरी के शाम साढ़े सात बजे अनिल चमड़िया को २५ जनवरी को निर्गत उनकी नौकरी छीने जाने का पत्र आवास पर भेजा गया था। यानी कुलपति महोदय ने कार्य-परिषद के सदस्यों के बारे में दुष्प्रचार किया, उनके शैक्षणिक साख पर बट्टा लगाने की कोशिश की और उनकी आधिकारिक संस्तुतियों के बिना निर्णयों को लागू किया, जिनमें अंकित समेत ११ शिक्षकों नियुक्ति को पक्का करना और अनिल चमड़िया को बाहर का रास्ता दिखाना शामिल था। एक और गंभीर मामला भी ध्यान देने योग्य है। कुलपति जी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि अनिल चमड़िया प्रोफ़ेसर पद के लिए निर्धारित योग्यता नहीं रखते हैं। स्क्रूट्नी के वक्त कुलपति से यह गलती हुयी कि उन्हें साक्षात्कर के लिए बुलाया गया। जबकि, विश्वविद्यालय के वेबसाइट और रोज़गार समाचार में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा १९९८ में जारी शैक्षणिक पात्रता के न्यूनतम ज़रूरतों के दिशानिर्देशों के आधार पर कई पदों के लिए आवेदन मँगवाये गये। कालांतर में इन्हीं विज्ञापित पदों पर १२ शिक्षकों की नियुक्ति हुई। आज कुलपति अपनी गलती स्वीकार रहे हैं तो सारी नियुक्तियाँ खारिज होनी चाहिए।
वर्धा परिसर में विभूति की मनमानियों के प्रतिरोध का स्वर मुखर हो गया है। अनिल चमडिया के इस मामले से पूर्व लगभग एक महीने तक परिसर में दलित विद्यार्थियों का आंदोलन चला था। दलित विद्यार्थी अब भी प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का बहिष्कार कर रहे हैं। छात्र-छात्राएं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए अपना विरोध कर रहे हैं। ब्लॉग पर विद्यार्थी अनिल चमड़िया के समर्थन और कुलपति के विरोध में टिप्पणियाँ लिखने लगे हैं। नाटक खेले जाने लगे हैं। कविताएं लिखी जाने लगी है। २२ छात्र-छात्राओं ने लिखित तौर पर विभाग छोड़ने की बात कही हैं। प्रो. चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ करने का विरोध लगभग दो सौ विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में ८४ विद्यार्थियों ने अपने दस्तख़त के साथ किया है। यही नहीं, राजेंद्र यादव व अरूंधति राय सरीखे देश के कई बुद्धिजीवियों ने अपने हस्ताक्षर के साथ कुलपति राय के इस कदम की भर्त्सना की है। विश्वविद्यालय में राय का सिंहासन डोलने लगा है।
राय किस्से-कहानियाँ लिखते रहे हैं और प्रकाशक भी उन्हें छापते भी रहे। अब छापने की वज़ह इनके साहित्य की गुणवत्ता थी या प्रकाशकों को मिला सरकारी ख़रीद का आश्वासन, यह तहक़ीकात का विषय हो सकता है। इनका जनसंपर्क हमेशा से ही अचूक रहा, जिसके कारण लोगों के मन में इनकी छवि एक प्रगतिशील व्यक्ति की रही। लेकिन आज विश्वविद्यालय में जिस कार्य-संस्कृति और अकादमिक माहौल के ये जनक हैं, उसके मद्देनज़र विभूतिनारायण राय ने जो जीवन भर प्रशंसाएं अर्जित की हैं, उन पर शक होना स्वभाविक है।