- देवाशीष प्रसून
कौन है भारतीय और क्या है भारतीय होने का मतलब? सवाल अहम है और जवाब परेशान करने वाला। दो घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगा। पहली तब की है, जब मैं आठवीं कक्षा में था। एक शिक्षक थे। वह बार-बार विद्यार्थियों को असल भारतीय होने की दुहाई देते थे। कहते थे अगर तुम असल भारतीय हो तो तुम्हें कर्मठ, ईमानदार, नेक और सच्चा होना चाहिए। गो कि जो कामचोर, बेईमान, बुरा और झूठा है, वह भारत का नागरिक तो हो सकता है, पर उसे असल भारतीय नहीं कहा जा सकता। बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह सोच एक राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा थी, लेकिन असल भारतीय होने का क्या मतलब है, यह गुत्थी अब तक अनसुलझी है। दूसरी घटना पिछले महीने की है, मैं एक मित्र से बात कर रहा था। बातों-बातों में भारतीयता को परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी। मोटे तौर पर जो बात सामने आई वह यह थी कि जो भारत में रहता है, वह भारतीय है। यही कारण है कि भारतीय होने का डोमेन या फलक बड़ा है, जिसमें संस्कृतियों का वैविध्य शामिल है, भाषाओं की बहुलता का भी समावेश है और जहां एक नहीं; धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर कई पहचान हैं।
जाहिर-सी बात है, जहाँ हम रहते हैं, वह जगह धीरे-धीरे हमारी पहचान का हिस्सा भी बन जाती हैं। इलाहाबाद की कोई लड़की लखनऊ चली जाती है, तो भले उसका कोई अच्छा और प्यारा-सा नाम हो, लेकिन उसे जानने-पहचाने वालों की नजरों में उस लड़की का एक बड़ा परिचय यह भी रहता है कि फलां लड़की इलाहाबाद की है। कई बार आप जाहिर न करे कि आप मन में किसी की छवि कैसे बनाते हैं, पर अवचेतन में उस व्यक्ति का इलाका उसकी पहचान का एक घटक जरूर होता है। कुछ समय पहले तक कुछ इलाकों में बहुओं को उसके शहर, जवार आदि के नाम से ही बुलाया जाता रहा है और आज भी कई जगहों पर परंपरा बरकरार है। यही कारण था कि ब्याह के बाद मिथिला से अवध आई सीता को मैथिली कहने वाले लोगों की कमी नहीं है। ऐसा सिर्फ औरतों के साथ ही नहीं होता, पुरुषों के लिए भी उसका इलाका उसकी पहचान का बड़ा आधार बनता है। आपने दाग देहलवी, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़ लखनवी, साहिर लुधियानवी जैसे कई अज़ीम शायरों के नाम के साथ उस शहर का तखल्लुस लगाते सुना होगा, जहां के वो हैं।
दरअसल, आप जहां रहते है, वहां की एक खास रहन-सहन का आप हिस्सा होते हैं। आप अपने इलाके में रचे-बसे खास तरह के संस्कारों को आत्मसात करते हैं। खास तरह की भाषा बोलते हैं और बातचीत का लहजा भी खास होता है। आपकी मान्यताओं में भी आपके क्षेत्र की झलक दिख सकती है। कहना यह है कि वह ठौर जहां से आप आते हैं, जहां आपका पालन-पोषण हुआ और आपकी मुकम्मल शख्सियत तैयार हुई, वहां की छाप जाने-अनजाने में आपकी पहचान का हिस्सा बन जाती हैं। पहचान का मतलब है, वो खास बात जो किसी एक को दूसरे से अलग बताती हो। भारतीयता अगर एक पहचान है तो भारतीयों में ऐसी क्या खास बात है, जो उसे दूसरों से अलग करती है?
फिर, सवाल घूम-फिर कर वही है कि भारतीय होने का क्या मतलब है? भारत लाखों वर्ग मील में फैला वो भूखंड है, पर यहां एक तरह के लोग नहीं रहते। कुछ लोग आर्य नस्ल से ताल्लुक रखने का दावा करते हैं तो कुछ द्रविड। इनके अलावा आदिवासियों की भी अच्छी संख्या है। असलियत तो यह भी है कि सदियों से साथ रहते कई नस्लों आपस में इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचाना भी नहीं जा सकता। उत्तर में हिमालय में रहने वालों की अलग संस्कृति है तो सिंधु और गंगा के मैदानी इलाकों में कई तरह के लोग रहते हैं। दक्षिण भारत में अलग रहन-सहन है और पूर्वी व उत्तर पूर्वी भारत की अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें। भाषाओं की बात करें तो 29 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें बोलने वाले दस लाख से अधिक भारतीय हैं। 60 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें कम से कम लाख लोग तो बोलते ही हैं। यही नहीं, इनसे इतर 122 वो भाषाएं जिसे बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हजार है। यानी भाषा के आधार पर भारतीयता की कोई एक पहचान नहीं बनती है। ज्यादातर हिंदू मान्यताओं को मानने वाले भारतीयों की बड़ी के बावजूद हिंदू होना भी भारतीय होना नहीं है, क्योंकि मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध व जनजातीय मान्यताओं में आस्था रखने वाले भी भारतीय हैं। इनके अलावा लाखों नास्तिक लोगों से भी भारतीय होने की पहचान जुड़ी है।
तो फिर हमें उन मूल्यों व गुणों को तलाशना होगा जो कमोबेश सभी भारतीय में विद्यमान है। चरित्र का ऐसा गढ़न जो राष्ट्रीय नीतियों, बाज़ार और संस्कृति में होते फेरबदल के साथ लगभग सभी लोगों में आया हो। एक खास सामाजिक मूल्य की खोज, जिसका होना किसी के भारतीय होने को परिभाषित कर सके। भारत को अगर हम तीन अलग कालखंडों में बांटकर देखें तो बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आती है कि भारतीयता का विकास कैसे हुआ है।
अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भारत कई छोटी-छोटी हुकुमतों में बंटा था और सबकी अपनी-अपनी पहचान थी। क्षेत्र, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर इन छोटी हुकुमतों और इनमें रहने वाले लोगों को पहचाना जाता रहा होगा। उस समय भारत का आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में विकास नहीं हुआ था। फिर भी, एक खास बात थी जो उस वक्त के लोगों का एक पहचान निर्मित करती थी, वो था समाज का तानाबाना। समाज में उपस्थित सत्ता संबंध और परंपराएं। लेनदेन के पारंपरिक तरीके और विवाह संस्था। समाज की ये सारी चीजें राजा और उसकी शासन व्यवस्था के मुकाबिले अधिक स्थिर थी। सुनील खिलनानी द आइडिया ऑव इंडिया नामक किताब में लिखते हैं कि भारत में औपनिवेशिक सत्ता के जड़ जमाने से पहले राज्य की अवधारणा नहीं थी, उपमहाद्वीप में नाना प्रकार की संस्कृतियां और अर्थ-व्यवस्थाएं उपलब्ध थीं। भारतीय समाज व्यवस्था ने एक ऐसा ढांचा विकसित कर लिया था, जिसके लिए पूरे भारत में एक राज-सत्ता का बनना कोई मायने नहीं रखता था। खिलनानी का मानना है कि ऐसी स्थिति समाज में पैवस्त जातियों के मजबूत जड़ों के कारण थी। कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों के शासन से ठीक पहले भारतीय होने का मतलब यहां के बाशिंदे होने के साथ धर्म व जाति में अगाध श्रद्धा का होना और परंपराओं से अपना जीवन संचालित करना भर था।
अंग्रेजों ने जब भारत में अपना पैर जमाया तो सबसे बड़ा काम यह किया कि भारत को राष्ट्र के रूप में विकसित किया। पहली बार यहां के लोगों का सामना सदियों से सर्वशक्तिमान रहे जातीय समाज व्यवस्था से अधिक मजबूत राज्य सत्ता से हुआ। अंग्रेजों ने एक पूरे तंत्र का निर्माण किया, जिसमें न्यायालय, पुलिस व्यवस्था, स्कूल-कॉलेज, प्रशासनिक ढ़ांचा और समेकित अर्थव्यवस्था शामिल थी। इसने धर्म और जाति से इतर भी यहां लोगों की पहचान गढ़ने का काम किया। व्यवस्था जब पश्चिमी समाज से आयातित थी तो इसमें कौन शक कि नई भारतीयता पर पश्चिमी समाज का छाप न हो, लेकिन इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था। आधुनिकीकरण का एक दौर चला और कुछ लोगों को यूरोपीय ज्ञान को पढ़ने-समझने का मौका मिला। लोकतांत्रिक व समतामूलक समाज के सपने देखे जाने लगे और लोगों की अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी। भारत में जातीयता की शिकंजे कुछ कमजोर हुए, जिनसे देश में गिने-चुने लोगों की ही भले एक नए भारतीयता ने जन्म लिया। कमोबेश यही भारतीयता अब तक कायम है, अंतर बस इतना है कि धीरे-धीरे जातीय बंधनों के तार ढीले होते जा रहे हैं, समाज रूढ़ियों को नकारने लगा है। आज बतौर भारतीय अदिक विवेकी और संवेदनशील हो रहे हैं, लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि समाज अब अमेरीकी संस्कृति के अंधानुकरण में फंसता जा रहा है। बड़े पैमाने पर आज भी भारतीय मानस अंग्रेजों द्वारा बोई गुलाम संस्कृति से मुक्त नहीं हो पाया है। निष्कर्षत: भारतीय होने का मतलब सामंती और जातीवादी मूल्यों से मुक्त होने की प्रक्रिया में लगा, एक विकासशील समाज का हिस्सा है। पुरातनपंथी बंधन अभी टूटे नहीं है, लेकिन कमजोर तो हुए हैं। उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते हुए भी आज का भारतीय अपने से इतर संस्कृति की नक़ल करने के भाव से उबर नहीं पाया है।
बहरहाल, पहचान निर्मिति के समाजशास्त्र को दूसरे तरीके भी समझा जा सकता है। इसे 'स्व' और 'अन्य' में बांटकर भी समझा जा सकता है। 'स्व' का मतलब मैं और मेरे अलावा बाकी सब 'अन्य'। भारतीय होने का मतलब है कि वह अंग्रेज या अमेरीकी या रूसी नहीं है। याने भारतीय 'स्व' में वे सारे गुण होंगे, जो उसे दूसरे देशों के लिए 'अन्य' बनाएंगे। इसमें काबिल-ए-गौर है कि भारत के संदर्भ में बाकी 'अन्य' में से एक ऐसा एक 'अन्य' होता है, जिससे या तो वह प्रेरणा ग्रहण करता है या बैर निभाता है। दोनों ही स्थितियों में 'स्व' याने भारतीयता का चरित्र प्रभावित होता है। अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय 'स्व' का 'अन्य' कोई नहीं था। भले ही बाहरी दुनिया के साथ कारोबार होते रहे हो, वृहतर समाज पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कटा था। ऐसे में भारतीयों का 'अन्य' परलोक या ईश्वर से संबंधित था, तभी तो धर्म और जातियां इतनी हावी थी। अंग्रेजों के समय 'अन्य' अंग्रेज बने। फलत: अंग्रेजी सभ्यता का भारतीयता पर गजब का प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के जाने के बाद याने भारत के स्वाधीन होने के बाद भारत के 'स्व' में कई 'अन्य' आए और उनका प्रभाव भारतीयता पर स्पष्ट दिखता है। मसलन, शुरूआती दौर में भारतीयता ने रूस से प्रेरणा ग्रहण की, तो इसका अमेरीका विरोधी चरित्र उभरा। फिर एक समय आया जब भारत पाकिस्तान से दुश्मनी निभा रहा था, उस वक्त के भारतीय अपनी तुलना पाकिस्तान से करते हैं। उदारीकरण के बाद भारत का प्रेरक 'अन्य' अमेरीका बना, इसलिए भारतीय 'स्व' में अमेरीका के प्रति सद्भाव झलकता है।
'स्व' और 'अन्य' के आधार पर परिभाषित भारतीयता भी उसी ओर इशारा करती है, जहां हम पहले निष्कर्ष पर पहुंचे थे। लेकिन संपूर्णता में अगर कहे तो कई पिछड़ी संस्कृतियों के अवशेषों के बावजूद कुछ तो है, जो भारतीय होने को सम्मान का विषय बनाती है। यह वही बात है जो आठवीं कक्षा में मेरे शिक्षक सिखाया करते थे। मैं इसे यों कहूंगा कि भारतीय होने में जितनी भी खामी है, वह एक तरह का भटकाव है और हमेशा ही सकारात्मक धारा मौजूद रही है, जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और समतामूलक भारतीयता के निर्माण के लिए प्रयासरत रही है। उसी धारा के बदौलत कई भारतीय मिल जाएंगे जो मानवीय जीवन का आदर्श स्थापित कर रहे हैं।
अहा! ज़िंदगी (अगस्त 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी।
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अहा! ज़िंदगी,
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग,
मालवीय नगर, जयपुर - 302015