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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

गोपनीयता बरतने का अमेरिकी करतब

-  देवाशीष प्रसून
आख़िरकार विकिलिक्स के संस्थापक जूलियन असांज को गिरफ़्तार कर ही लिया गया। उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप हैं। सवाल यह है कि क्या सच में यह मामला यौन-उत्पीड़न का है या विकिलिक्स द्वारा किए गए पर्दाफ़ाशों से संयुक्त राज्य अमरीका ही नहीं उसके तमाम पिट्ठू देश सकते में आ गए हैं? इस बात में कोई शक नहीं है कि जूलियन को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि उसने दुनिया की सबसे बड़ी सत्ता की गोपनीयता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। वर्ना, देखने वाली बात है कि दुनिया भर में यौन मामलों में अंतरराष्ट्रीय पुलिस और न्याय व्यवस्था की हरकत देखने को कितनी बार मिली है? आस्ट्रेलियाई नागरिक जूलियन को ब्रिटिश पुलिस ने लंडन में हिरासत में लिया है और उन पर न्यायिक मामला स्वीडन में लंबित है। गौरतलब है कि दुनिया भर में अपना रुतबा रखने वाले फ़िल्मकार केन लोच और पत्रकार जॉन पिल्जर जैसे विश्व विख्यात शख्सियतों के कुल एक लाख अस्सी हज़ार डॉलर के मुचलके पर भी जूलियन को जमानत पर नहीं छोड़ा जा रहा है। यौन-मामलों में इस तरह की सजगता क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पर सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच जूलियन पर न्यायिक कार्रवाई यौन अपराधों के मद्देनज़र हो रही है? जाहिर सी बात है कि विकिलिक्स ने खोजी पत्रकारिता का जो इतिहास रचा है, इसके लिए जूलियन को अमरीकी सत्ता अपने काबू में नहीं ले सकती थी, तो उन्हें दूसरे बहाने से कब्ज़े में लिया गया।
हालाँकि माहौल तो यह भी बनाया गया कि अल क़ायदा की तर्ज पर विकिलिक्स को भी आधिकारिक तौर पर एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया जाए, पर अब तक यह हो नहीं सका है। इस बाबत द हाऊस होमलैंड सुरक्षा समिति के अध्यक्ष पीटर किंग ने इसके लिए बहुत प्रयास किए। किंग ने अमरीका की राज्य सेकरेटरी हिलेरी क्लिंटन को एक आधिकारिक ख़त में लिखा था कि विकिलिक्स से देश की सुरक्षा को ख़तरा है, इसलिए विकिलिक्स को आतंकवादी संगठन घोषित कर देना चाहिए। दरअसल गोपणीय सूचनाओं के पर्दाफ़ाश के बाद अमरीका की स्थिति दुनिया भर में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं बची है। यह जाहिर हो गया है कि अमरीकी सरकार अन्य देशों और उसके प्रमुख के बारे में कितनी ओछी सोच रखती है। अब यह बात भी खुल-ए-आम हो गई है अमरीका की विदेश नीति किस तरह से अंतरराष्ट्रीय सौहार्द्य को ठेंगे पर रखती है और कैसे-कैसे उसने इराक को युद्ध में नेस्तोनाबूद कर दिया। विकिलिक्स ने अमरीका के अंतरराष्ट्रीय साख को धुँआ कर दिया है। अब इसके बाद मारे शर्म और जिल्लत के अमरीका और उसकी दुनिया भर फैली एजेंसियाँ जवाबी कार्रवाई कर विकिलिक्स को सबक सिखाना चाहती हैं। जब कूटनीतिक तरीकों से विकिलिक्स दवाब में नहीं आया तो इस सिलसिले में इन ताक़तों ने विकिलिक्स के वेबसाइट पर तकनीकी हमलों का बौछार कर दिया। इंटरनेट के क़ानूनों और नैतिकताओं को ताख पर रख कर विकिलिक्स पर बड़े जोरदार तरीके से वाइरसों के हमले हुए। इससे भी मामला क़ाबू में नहीं आया तो विकिलिक्स को वेबसाइट चलाने की सेवा जो कंपनी दे रही थी, उसे खोपचे में लेते हुए विकिलिक्स के कामकाज को ठप्प किया गया। बेचारी कंपनी ने बहाना यह बनाया कि विकिलिक्स पर होने वाले वाइरस हमले इतने तीव्र हैं कि अगर उसे बंद न किया जाता हो पूरी इंटरनेट व्यवस्था ही मटियामेट हो जाती। इसे कहते हैं, मना करने पर भी कोई आपकी बात न मानें तो उसे मज़बूर कर देना कि वह चाह कर भी कुछ कर न सके। और अमरीका इसमें माहिर है।
और याद होगा कि किस तरह से पहली बार जब विकिलिक्स ने कई आँखें खोलने वाली सूचनाओं की गोपनीयता को खत्म किया था तो स्वीडन की सत्ता उसे पहले ही तमाम तरह की धमकियाँ दे चुकी थी। लेकिन विकिलिक्स बिना किसी दवाब में आए गुप्त सूचनाओं का पर्दाफ़ाश करते रहा। दरअसल गौर करें तो अमरीका हमेशा से ही सूचनाओं की गोपनीयता को लेकर संवेदनशील रहा है। सन चौरासी की बात है कि अमरीका ने इसी तरह से यूनेस्को पर भी यों कूटनीतिक हमला किया था। यूनेस्को के साथ अमरीका के तू तू-मैं मैं का सबब मैकब्राइड समिति के सुझावों के तहत बनाए जाने वाली नई विश्व सूचना व संचार व्यवस्था को तवज्जो देना था। तब आलम यह था कि सूचना व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण से अमरीका इतना बौखला गया कि उसने यूनेस्को के अपने सारे संबंध तोड़ लिए। विश्व सामंजस्य की लफ़्फ़ाजी करने वाला अमरीका इतना ज़िद्दी है कि वह अंतरराष्ट्रीय शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति को समर्पित संयुक्त राष्ट्र के इस उपांग से उन्नीस साल तक मुँह फैलाए रहा, जब तक कि यूनेस्को ने अपनी संचार नीतियों में अमूलचूल बदलाव नहीं लाए।
अमरीका ही नहीं, दुनिया में मौज़ूद तमाम साम्राज्यवादी ताक़तों के इस फ़ितरत पर गौर करें। वह गोपनीयता को लेकर बड़े संवेदनशील रहे हैं। भारत में भी देखिए मीडिया और सियासत के बंदरबाट से जुड़े बड़े-बड़े खलीफ़ाओं की गद्दियाँ नीरा राडिया के टेप्स के बेपर्द होने से हिल गईं हैं। सीधे-सीधे यह मामला सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों के भ्रष्टाचार और गोरखधंधा को उन लोगों से छुपा के रखने का है, जो उन्हें इन सत्ता के सिंहासन पर बैठाते हैं और इस तरह के खुलासे सत्तासीनों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं।
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संप्रति:       पत्रकार व मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

विश्वशक्ति बनते भारत की कुपोषित-बीमार आबादी

- देवाशीष प्रसून

पूरी दुनिया में यह अभियान जोर-शोर से चल रह है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन का क़ानूनन अधिकार मिले। हमारे देश में भी लोगों ने इस बाबत कमर कस ली है। सरकार की नीति तो यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों को प्रतिमाह पैंतीस किलोग्राम अनाज सस्ते दर पर उपलब्ध करायी जाए, पर इस सरकारी नीति को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करते वक्त अगर नौकरशाही और ठेकेदारों की सेंधमारी न हुई होती तो शायद नज़ारा कुछ और ही होता। गौरतलब है कि सरकारी योजनाकारों द्वारा गरीबी की रेखा व प्रति परिवार सस्ते दर पर अनाज की मात्रा का आकलन भी बेहद अदूरदर्शी और मनगढ़ंत लगता है। बहरहाल, तक़रीबन ११० करोड़ की आबादी वाले देश में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक सन २००६ तक २५.१५ करोड़ लोग यानी आबादी का कम से कम बीस फीसदी हिस्सा भीषण रूप से कुपोषित था। यह हालात कमोबेश बरकरार है। जाहिर है इसका प्रमुख कारण खाने-पीने की चीज़ों का लोगों की पहुँच से बाहर होना है क्योंकि शौकिया तो कोई भूखा नहीं ही रहेगा।

जून २०१० में जारी विश्व बैंक का रपट कहता है कि भारत में जनवरी २०१० तक भोजन के थोक मूल्यों में वित्तीय वर्ष २००८-०९ के बनिस्बत जो बदलाव आए हैं, उससे भोजन तक लोगों की पहुँच मुश्क़िल हुई है। चीनी की कीमत ४२ फीसदी बढ़ी है और अनाज १४ फीसदी महँगे हुए हैं। दालों की कीमत में औसतन २८ फीसदी का उछाल आया है जबकि दूध, अंडे, मछलियों और सब्जियों के भाव भी मई तक ३५ फीसदी बढ़कर आसमान छूने लगे हैं। हालाँकि दूसरी ओर देखने वाली बात यह है कि इसी वक्त भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूँ और चावल का ४७५ लाख टन भंडारण हो चुका था, जो कि बफ़र स्टॉक से २७५ लाख टन फ़ाज़िल है। यानी खेती-किसानी की खस्ताहाल स्थिति के बावज़ूद भी सरकारी गोदामों में इतना अनाज तो है ही कि लोग भूखों न मरें। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में उनकी क्षमता से अधिक अनाज ठूँसे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। भूखे लोगों तक अनाजों को मुहैया कराने के बजाए विडंबना यह है कि या तो इन्हें चूहें हज़म कर जाते हैं या सड़ने के बाद इसे पानी में बहाया जा रहा है। अफ़सोस कि आज तक इन अनाजों के समुचित वितरण का सटीक और असरदार तरीका नहीं ढ़ूँढ़ा जा सका है। सरकार के लिए अब सिर्फ़ योजनाएँ बनाना नाकाफी है, ज्यादा ज़रूरी यह है ऐसी वितरण प्रणाली खड़ी की जाए जिससे ज़रूरतमंद लोगों का पेट आसानी से भर सके और हमारा समाज लंबे समय से चले आ रहे कुपोषण से मुक्त हो पाये।

२०१० के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक के मुताबिक ’सबसे भूखा कौन?’ के मुकाबिले में भारत अपने पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान और नेपाल से बहुत आगे है। कुल १२२ देशों में हुए अध्ययन में भारत ५५वाँ सबसे भूखा देश है। एक दूसरे स्रोत से पता चलता है कि दुनिया के कुल ९२.५ करोड़ लोगों की भूखी आबादी में से ४५.६ करोड़ लोग भारत में रहते हैं। क्या कारण है कि करीबन साढ़े आठ फीसदी की दर से तरक्की करने वाली इस देश की अर्थव्यव्स्था पर आश्रित आबादी में दो-तिहाई महिलाओं के शरीर में खून की कमी एक आम बात बन कर रह गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने भले ही, अस्थाई ही सही, सदस्यता हासिल की हो, लेकिन एक सवाल फन काढ़े खड़ा है कि जब इसके पाँच साल से छोटे बच्चे की लगभग आधी आबादी दिल दहलाने वाली कुपोषण का शिकार है तो भविष्य में इस देश की सुरक्षा की जिम्मेवारी किनके कंधों पर होगी? याद रहे, बचपन में मनुष्य का विकासशील शरीर अगर पर्याप्त पोषण जुटा नहीं पाता है तो इसका खामियाजा उसे ताउम्र भुगतना पड़ता है। भारतीय बच्चों में व्याप्त कुपोषण दरअसल देश की इंसानी नस्ल को शारीरिक और मानसिक तौर पर लाचार और कमजोर बना रहा है और इस कारण देश की सुरक्षा ही क्या, अब उसके पूरे अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि देश में होने वाली कुल बीमारियों में से २२ फीसदी बचपन में हुए कुपोषण के कारण होती हैं। सोचिए अब ऐसे हालात हैं तो क्या है इस देश का भविष्य? यही नहीं, कुपोषण का मामला इतना सपाट भी नहीं है, समाज के अलग-अलग तबकों की अलग-अलग कहानी है। ग़ौर करने वाली बात है कि देश में बच्चियाँ बच्चों से अधिक कुपोषित हैं और अनुसूचित जातियों व जनजातियों में कुपोषण का आँकड़ा सामान्य से कहीं अधिक है।

देश में भूख की इस गंभीर स्थिति के बाद भी सरकार के जानिब से बार बार इस तरह की बयानबाज़ी सुनने को मिलती रहती है कि हिंदुस्तान एक ताक़तवर मुल्क बनने की राह में बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। इन सरकारी दावों को विश्व अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे भी खूब हवा देते हैं। मीडिया का एक धड़ा भी इनके हाँ में हाँ मिलाता है। वाकई भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूती के पायदानों पर नित नई ऊँचाईयाँ हासिल कर रही है और इसके मद्देनज़र इस तरह की बातों का होना लाज़िमी भी है। लेकिन, आश्चर्य यह है कि आँकड़े तो कुछ और ही हाल बयान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पाँच साल पहले तक देश की ४१.१ फीसदी आबादी दिन भर में एक डॉलर याने चालीस-पैंतालिस रूपये से अधिक कमा नहीं पाती थी। यह स्थिति कमोबेश बरकरार है।

मगर, गौरतलब है कि अब भारत सरकार की बढ़ती कूवत की कई उदाहरण मिलने लगे हैं। ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों का है, जिसमें सरकार लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धनराशि और संसाधन खर्च कर रही है। किंतु, भारत की तुलना एक ऐसे परिवार से की जा सकती है, जहाँ बच्चे भूख से बिलख रहे हों और पिता अतिथियों को आमंत्रित करके स्वागत में राजसी भोजन परोस रहा है। हालाँकि इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के राजसत्ता की हैसियत पिछले दशकों के बरअक्स बहुत बढ़ी है, पर इसका फायदा अधिकतर जनता के नसीब में नहीं है। देश की ज्यादातर जनता अकाल जैसी स्थितियों में अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए कोल्हू का बैल बनी हुई है। जाहिर है उस देश की अमीरी का क्या मतलब, जिस देश में लोगों का स्वास्थ्य विश्व मानकों से बहुत नीचे हो। यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि महँगे कपडों से अपने कोढ़ को छुपाने की कोशिश की जा रही हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस साल जारी किए आँकड़ों से पता चलता है कि आज भी भारत में बच्चे को जन्म देते वक्त हर एक लाख माँओं में से साढ़े चार सौ माँएँ स्वर्ग सिधार जाती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति जलवायु के कारण नहीं है, क्योंकि अपने पड़ोस में बसा देश श्रीलंका प्रसव के दौरान एक लाख में केवल अठावन माँओं की जान को बचा पाने में चूकता है। यही संख्या पाकिस्तान में तीन सौ बीस माँएँ प्रति लाख माँ है, जो अधिक होने के बाद भी भारत से कम ही है। चीन में भी एक लाख माँओं में से पैंतालिस माँएँ मरने को विवश हैं, याने यह दर भारत में मरने वाली माँओं का दसवाँ हिस्सा मात्र है। खाद्य एवं कृषि संगठन से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक सन २००७ में हुई गणना में यह पाया गया कि भारत में दस हज़ार बच्चों में से औसतन ५४३ बच्चे जन्मते ही मर जाते हैं और ७१८ बच्चे पाँच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते हैं। यह सारे आँकड़े देशभर का औसत हैं और गाँवों की स्थिति तो और भी विभत्स है।

स्वास्थ्य संबंधी तकनीकियों का तड़ित गति से विकास होने के बाद भी यह सवाल क्यों खड़ा है कि देश में कुपोषण, बीमारियों और देखभाल की कमी के कारण अकालमृत्युओं की संख्या आसपास के अन्य देशों से अधिक है? जबाव जाहिर है कि भारत में विदेशियों को भले ही स्वास्थ्य पर्यटन पर आने के लिए रिझाया जा रहा हो, आमलोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ या तो नदारद हैं या नाकाफी। मौज़ूदा दशक पर एक नज़र दौड़ाए तो पायेंगे कि शहरी और ग्रामीण इलाकों को एकसाथ मिलाकर भारत में औसतन १६६७ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी एक चिकित्सक पर हैं। औसत का गणित यह है तो कहना न होगा कि ग्रामीण इलाकों मे जहाँ चिकित्सकों की कमी जगजाहिर है, वहाँ इस औसत से कितने अधिक लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा एक चिकित्सक पर होगा। याद रहे कि विश्वशक्ति बनने के होड़ में शामिल चीन और पाकिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बेहतर ही है।

देश में आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के कमी के क्या कारण हैं? सरकार जहाँ सैन्यीकरण पर पानी की तरह पैसा बहा रही है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन के रपट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद का ४.१ फीसदी खर्चा स्वास्थ्य पर किया जाता है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का २६.२ फीसदी बोझ ही सरकारी ख़जाने पर पड़ता है बाकी ७३.८ फीसदी देनदारी जनता की होती है। कुल मिलाकर देखे तो भारत में स्वास्थ्य के लिए सालाना १०९ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं और इसमें भी सरकारी हिस्सेदारी अत्यल्प है। चीन में स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च के २३३ डॉलर की राशि की भारत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। अरे! भारत से अधिक तो भूटान स्वास्थ्य मद में १८८ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च करता है।

कुल मिलाकर देखें तो एक बड़ा सवाल उभर के सामने आता है कि जहाँ की बीस फीसदी आबादी कुपोषित हो और बीमारियों का गिरफ़्त इतना विभत्स हो, वह देश किन आधारों पर किन लोगों के हित में विश्वशक्ति बनने के दावे पेश कर रहा है?

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संप्रति: पत्रकार और मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय

संपर्क सूत्र: देवाशीष प्रसून, ओझा-निवास, महामाया मार्केट, के के रोड, मोहल्ला जुरावन सिंह, लालबाग़ मुख्य डाकघर, दरभंगा – 846004 (बिहार)

दूरभाष: 09555053370 ई-मेल: prasoonjee@gmail.com

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

पितृसत्ता यों ही नहीं क़ायम है अब तक....

- देवाशीष प्रसून


यह एक ऐसा समय है, चारों ओर जब, स्त्री को उसके अपने अधिकारों से तआरुफ़ करवाने की मुहिम चल रही है, विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन जैसे पाठ्यक्रमों के जरिए समाज में समतामूलक हालातों के निर्माण के लिए ज़मीन-आसमान एक किए जा रहे हैं, महिलाओं को समाज के दक़ियानूसी बंधनों से मुक्त करवाने के लिए नारीवादी संगठनों ने जंग छेड़ रखी है और स्त्री-उत्थान व समतामूलक समाज के निर्माण के लिए सरकारों द्वारा भी योजनाओं, आरक्षण और क़ानूनी प्रावधानों का सुरसार देखने को मिलते रहता है। आधी आबादी के सदियों से दमित और शोषित जीवन को मुख्यधारा में लाकर उन्हें एक मुकम्मल इंसानी रुतबा देने के लिए ऐसे कई प्रयास चल रहे हैं और विडंबना यह है कि ऐसे ही इस समय में ’नया ज्ञानोदय’ नाम की हिंदी साहित्यिक पत्रिका बेवफ़ाई पर विमर्श चला रही है। और तो और, इस विमर्श के दरमियाँ एक ऐसा बयान आता है जो घोर स्त्री-विरोधी होने के साथ-साथ समाज में चल रहे तमाम मुक्तिगामी और प्रगतिशील स्त्री-विमर्शों को गाली देता है। एक लेखक, जो पूर्व पुलिस अधिकारी और वर्तमान में कुलपति भी है, अपने साक्षात्कार में कहता है कि हिंदी लेखिकाओं का एक बड़ा वर्ग है, जिनमें होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनमें सबसे बड़ी ’छिनाल’ कौन है। हदें लांघते हुए उसने यह भी कहा कि नारीवाद का विमर्श अब बेवफ़ाई के बड़े महोत्सव में बदल गया है।


यह बयान सड़क पर यों ही आवारागर्दी करते, नशे में धुत्त, किसी कुंठित इंसान की ओर से नहीं आया है, आता तो शायद, पूरा समाज इसे नज़रअंदाज़ कर देता, लेकिन यह बयान था विभूति नारायण राय का, जो सन ७५ बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के भारतीय पुलिस सेवा से संबद्ध रहे हैं। पूरा का पूरा हिंदी समाज इस बदतमीज़ी व अश्लिल बयानबाज़ी से भड़क उठा है और राय पर कार्रवाई की माँग तेज़ हो गयी है। साल २००८ की बात है, राय को महात्मा गांधी के आदर्शों पर स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालय – महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा का कुलपति नियुक्त किया गया था। महात्मा गांधी आज अगर ज़िंदा होते और सुनते कि उनके परंपरा के एक वाहक ने यों महिलाओं का अपमान किया है तो यक़ीनन शर्म से गढ़ जाते! लेकिन सरकार अब तक इस मामले में नरमी ही दिखा रही है। नौकरी से निकाले जाने के डर के मारे और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की डाँट-डपट के बाद राय ने माफी माँगते हुए कहा कि एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर मुझे ऐसे ’अनुपयुक्त शब्दों’ का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था, जिनसे लेखिकाओं की भावनाओं के ठेस पहुँची। माफीनामे से ज़ाहिर है कि राय को स्त्रियों के प्रति अपने दुर्भावनापूर्ण और दुराग्रहग्रस्त सोच के लिए कोई पछतावा नहीं है।


बहरहाल, यहाँ सोचने वाली बात है कि विभूति नारायण राय के इस बयान के जड़ में किस तरह की मनःस्थिति काम कर रही है? ग़ौरतलब है कि हमारे समाज में यह पुरानी धारणा रही है कि जो लड़कियाँ पढ़ती-लिखती है, अपने अधिकारों को समझने–बूझने लगती हैं और पुरूषप्रधान समाज के सनातनी परंपरा के दायरों को तवज्जह नहीं देतीं, उनका चरित्र अच्छा नहीं माना जाता। औरतें घर की दहलीज़ में रहे तो सती, वर्ना कुलक्षणी। लेकिन आधुनिक वैचारिकी ने इस सोच को नकारा है और स्त्री-मुक्ति के संघर्ष और विमर्श का लंबा इतिहास रचा है। सही है कि स्त्री-विमर्श सिर्फ़ देह-विमर्श नहीं है, लेकिन स्त्री-विमर्श से देह-विमर्श को पूरी तरह ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता है। वर्ग और जाति विभाजित समाज में स्त्री का सर्वहारा वर्ग और दलित जाति से भिन्न होने के पीछे उसका देह ही तो विद्यमान है। तो ऐसे में लेखिकाएँ अपने संघर्षों में सामाजिक वर्जनाओं से बाहर निकलेंगी ही, पर साँकलों का यह टूटना राय जैसे पुरोधाओं को कैसे हज़म हो? राय अगर विक्टोरियन मूल्यों के अवमूल्यन को ही छिनाल होना कहते हैं तो वो यह भी बतायें कि इसी समाज में सत्ताधारी पुरुष लेखकों द्वारा नई लेखिकाओं का यौन-शोषण होता रहा है कि नहीं? अगर हाँ, तो ऐसे संबंधों के संदर्भ का आत्मकथा में ज़िक्र न करते हुए उसे दफ़न कर दिया जाये? ताकि इससे उन चरित्रहीन मर्दों की सामाजिक इज़्ज़त बनी रहे।


एक बात और, न्यूज़ चैनलों पर राय सफ़ाई देते हुए फिर रहे हैं कि ’छिनाल’ शब्द के प्रयोग में ऐसी क्या आपत्ति? यह तो लोक का एक प्रचलित शब्द है। कोई बताए उनको कि हमारा लोक कितना मर्दवादी रहा है और इस लोक में सबसे ज़्यादा प्रचलित शब्दों में वो शब्द आते हैं, जिनका ज़िक्र माँ-बहन की गालियों के लिए होता है। तो ऐसे शब्दों का सरेआम सभ्य समाज में प्रयोग कितना बर्दाश्त-ए-क़ाबिल है?


अंत में सबसे महत्वपूर्ण सोचना यह है कि राय पर क्या कार्रवाई होगी? माफी माँग लेने के बाद ऐसे लोग, जो वाचिक रूप में बलात्कार करते फिरते हैं, उन्हें क्या हमारा समाज कभी माफ कर पायेगा? भूलना नहीं चाहिए कि यह ऐसे स्त्री-विरोधी लोगों और उनका बचाव करने वाले लोगों के सत्ता में क़ाबिज़ रहने के बदौलत ही है कि समाज में पितृसत्ता अब तक क़ायम है।


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बुधवार, 28 जुलाई 2010

विकास तो चाहिए, पर किस तरह?


- देवाशीष प्रसून

द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति तक साम्राज्यवादी ताक़तों को यह समझ में आ गया था कि अब केवल युद्धों के जरिए उनके साम्राज्य का विस्तार संभव नहीं है। उन्हें ऐसे कुछ तरक़ीब चाहिए थे, जिसके जरिए वे आराम से किसी भी कमज़ोर देश की राजनीति व अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर सकें। इसी सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के फलक पर ’विकास’ को फिर से परिभाषित किया गया। इससे पहले विकास का मतलब हर देश, हर समाज के लिए अपनी जरूरतों व सुविधा के मुताबिक ही तय होता था। पर, संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश व विश्व व्यापार संगठन जैसे ताकतवर प्रतिष्ठानाओं के उदय के बाद से विकास का मतलब औद्योगिकरण, शहरीकरण और पूँजी के फलने-फूलने के लिए उचित माहौल बनाए रखना ही रह गया। दुनिया भर के पूँजीपतियों की यह गलबहिया दरअसल साम्राज्यवाद के नये रूप को लेकर आगे बढ़ी। इस प्रक्रिया में दुनिया भर में बात तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने की हुई, लेकिन हुआ इससे बिल्कुल उलट।

भारत में शुरु से ही विकास के नाम पर गरीबों का अपने ज़मीन व पारंपरिक रोजगारों से विस्थापन हुआ है। जंगलों को हथियाने के लिए बड़े बेरहमी से आदिवासियों को बेदख़ल किया गया जो आज भी मुसलसल जारी है। आँकड़े बताते हैं कि सन ’४७ से सन २००० के बीच सिर्फ़ बाँधों के कारण लगभग चार करोड़ लोग विस्थापित हुए है, अन्य विकास परियोजना के आँकड़े अगर इसमें जोड़ दिए जायें तो विस्थापन का और भयानक चेहरा देखने को मिलेगा। विकास के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर मानवाधिकार उल्लंघन, सैन्यीकरण और संरचनात्मक हिंसा की घटनाओं में लगातार इज़ाफा हुआ है।

औद्योगीकरण, शहरीकरण, बाँध, खनिज उत्खनन और अब सेज़ जैसे पैमानों पर विकास की सीढ़ियों पर नित नए मोकाम पाने वाले हमारे देश में इस विकास के राक्षस ने कितना हाहाकार मचाया है, यह शहर में आराम की ज़िंदगी जी रहे अमीर या मध्यवर्गीय लोगों के कल्पना से परे है, पर देश में अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ता दायरा इस विभत्स स्थिति की असलियत चीख़-चीख़ कर बयान करता है। बतौर बानगी, देश में बहुसंख्यक लोग आज भी औसतन बीस रूपये प्रतिदिन पर गुज़रबसर कर रहे हैं और दूसरी ओर कुछ अन्य लोगों के बदौलत भारत दुनिया में एक मज़बूत अर्थव्यव्स्था के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। अलबत्ता, सरकार अपनी स्वीकार्यता बनाये रखने के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी सरीखे योजनाएं भी लागू करती हैं। पर, इस तरह की योजनाओं का व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते क्या हश्र हो रहा है, सबको पता है और फिर भी अगर साल भर में सौन दिन का रोज़गार मिल भी जाए तो बाकी दिन क्या मेहनतकश आम जनता पेट बाँध कर रहे? हमारी सरकार विकास को शायद इसी स्वरूप में पाना चाहती है?

देश में विकास में मद्देनज़र ऊर्जा की बहुत अधिक खपत है और विकास के पथ पर बढ़ते हुए ऊर्जा की जरूरतें बढ़ेंगी ही। ऊर्जा के नए श्रोतों में सरकार ने न्यूक्लियर ऊर्जा के काफी उम्मीदें पाल रखी हैं। जबकि कई विकसित देशों ने न्यूक्लियर ऊर्जा के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए इनके उत्पादन के लिए प्रयुक्त रियेक्टरों पर लगाम लगा रखा है, वहीं भारत सरकार को अपने यहाँ इन्हीं यम-रूप उपकरणों को स्थापित करने की सनक है। और अब आलम यह है कि न्यूक्लियर क्षति के लिए नागरिक देयता विधेयक पर सार्वजनिक चर्चा किए बिना ही इसे पारित करवाने की कोशिश की गई। इसमें यह प्रावधान था कि भविष्य में बिजली-उत्पादन के लिए लग रहे न्यूक्लियर संयंत्रों में यदि कोई दुर्घटना हो जाए, तो उसको बनाने या चलाने वाली कंपनी के बजाय भारत सरकार क्षतिपूर्ति के लिए ज़िम्मेवार होगी। अनुमान है कि ऐसी किसी भी स्थिति में भारत सरकार को जनता के खजाने से हर बार कम से कम इक्कीस अरब रूपये का खर्च करने पड़ेंगे। विदेशी निगमों को बिना कोई दायित्व सौंपे ही, उनके फलने-फूलने के लिए उचित महौल बनाए रखने के पीछे हमारी सरकार की क्या समझदारी हो सकती है? सरकार के लिए विकास का यही मतलब है क्या?

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में उन्नत गुणवत्ता वाले लौह अयस्क प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। यह जगह पारंपरिक तौर पर आदिवासियों का बसेरा है और वे इस इलाके में प्रकृति का संरक्षण करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं। इन आदिवासियों का जीवन यहाँ के जंगलों के बिना उनके रोजगार और सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन से विस्थापन जैस होगा। सरकार को विकास के नाम पर यह ज़मीन चाहिए, भले ही, ये आदिवासी जनता कुर्बान क्यों न हो जायें और पर्यावरण संरक्षण की सारी कवायद भाड़ में जाए। इस कारण से जो ज़द्दोजहद है, उसकी परिणति गृहयुद्ध जैसी स्थिति में है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। सूत्रों से पता चलता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न गांवों के अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था का एकमात्र उद्देश्य विकास करना है। सवाल यह है कि यह विकास किसका होगा और किसके मूल्य पर होगा?

विकास के इस साम्राज्यवादी मुहिम में उलझे अपने इस कृषिप्रधान राष्ट्र में आज खेती की इतनी बुरी स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? विदेशी निगम के हितों को ध्यान में रखकर वैश्विक दैत्याकार प्रतिष्ठानों के शह पर हुई हरित क्रांति अल्पकालिक ही रही। जय किसान के सारे सरकारी नारे मनोहर कहानियों से अधिक कुछ नहीं थे। खेती में अपारंपरिक व तथाकथित आधुनिक तकनीकों के प्रवेश ने किसानों को बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों व सिंचाई, कटाई और दउनी आदि कामों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नियंत्रित उद्योगों के उत्पादों पर निर्भर कर दिया है। हरित क्रांति के आह्वाहन से पहले भारतीय किसान बीज-खाद आदि के लिए सदैव आत्मनिर्भर रहते थे। लेकिन कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा लादे गये आयातित विकास योजनाओं ने किसानों को हर मौसम में नए बीज और खेतीबाड़ी में उपयोगी ज़रूरी चीज़ों के लिए बाज़ार पर आश्रित कर दिया है। बाज़ार पैसे की भाषा जानता है। और किसानों के पास पैसे न हो तो भी सरकार ने किसानों के लिए कर्ज की समुचित व्यवस्था कर रखी है। इस तरह से हमारी कल्याणकारी सरकारों ने आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और संपन्न किसानों को कर्ज के चंगुल में फँसाते हुए ’ऋणं कृत्वा, घृतं पित्वा’ की संस्कृति का वाहक बनाने का लगातार सायास व्यूह रचा है। छोटे-छोटे साहूकारों को किसानों का दुश्मन के रूप में हमेशा से देखा जाते रहा है, पर अब सरकारी साहूकारों के रूप में अवतरित बैंकों ने भी किसानों का पोर-पोर कर्ज में डुबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कर्ज न चुकाने की बेवशी से आहत लाखों किसानों के आत्महत्या का सिलसिला जो शुरु हुआ, ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

कृषि में विकास का कहर यहाँ थमा नहीं है, हाल में पता चला है कि हरित क्रांति के दूसरे चरण को शुरु करने को लेकर जोर-शोर से सरकारी तैयारियाँ चल रही है। छ्त्तीसगढ़ में धान की कई ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जिनकी गुणवत्ता और उत्पादन हाइब्रिड धान से कहीं अधिक है और कीमत बाज़ार में उपलब्ध हाइब्रिड धान से बहुत ही कम। फिर भी, दूसरी हरित क्रांति की नए मुहिम में कृषि विभाग ने निजी कंपनियों को बीज, खाद और कीटनाशक दवाइयों का ठेका देने का मन बना लिया है। ठेका देने का आशय यह है कि उन्हीं किसानों को राज्य सरकार बीज, खाद या कीटनाशक दवाइयों के लिए सब्सिडी देगी, जो ठेकेदार कंपनियों से ये समान खरीदेंगे, अन्यथा किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि इस तरह से ये निजी कंपनीयां किसानों को अपने द्वारा उत्पादित बीज महंगे दामों पर बेचेगी और एक बड़ी साजिश के तहत किसानों के पास से देशी बीज लुप्त हो जायेंगे। बाद में फिर किसानों को अगर खेतीबाड़ी जारी रखनी होगी तो मज़बूरन इन कंपनियों से बीज वगैरह खरीदने को बाध्य होना पड़ेगा। यह किसानों को खेती की स्वतंत्रता को बाधित करके उन्हें विकल्पहीन बनाने का तरीका है। कुल मिलाकर खेतीबाड़ी को एक पुण्यकर्म से बदल कर अभिशाप में तब्दील करने के लिए सरकार ने कई प्रपंच रचे हैं। जिससे कोफ़्त खाकर लोग आत्मनिर्भर होने के बजाये पूँजीवादी निगमों की नौकरियों को अधिक तवज्जों देने को मज़बूर हो।

विकास के तमाम उद्यमों के वाबज़ूद, हमारा देश पिछले कुछ महीनों से कमरतोड़ महंगाई के तांडव को झेलता आ रहा है। दाल, चावल, खाद्य तेलों और सब्जियों जैसी ज़रूरी खाद्य वस्तुओं के आसमान छूती कीमतों के आगे सरकार हमेशा घुटने टेकती ही दिखी। पेट्रोल व डीज़ल के उत्पाद के बढ़ते दाम से ज़रूरत की अन्य चीज़ों की कीमत महंगे ढुलाई के कारण बढेगी ही और यों बढ़ रही कीमतों से पूरा जनजीवन त्राहिमाम कर रहा है। बेहतर जीवन स्थिति बनाना भर ही सरकार का काम है। असामान्य रूप से बढ़ती कीमतों के लिए एक तरफ अपनी लाचारी दिखाते हुए सरकार दूसरी ओर, यह डींग हाँकने से परहेज़ भी नहीं करते कि देश ने इतना विकास कर लिया है कि भारत की गिनती अब विश्व के अग्रनी देशों में हो रही है। अगर किसी देश की अधिकतर जनता को यह नहीं पता हो कि वह जी-तोड़ मेहनत के बाद वह जितना कमायेगा, उसमें उसका और उसके परिवार का पेट कैसे भर पायेगा, तो इससे ज्यादा अनिश्चितता क्या हो सकती है? बढ़ती महंगाई को एक सामान्य परिघटना के रूप में प्रस्तुत करना सर्वथा अनुचित है। देश की सरकार की नैतिक ज़िम्मेवारी है, कि देश की जनता को अपना जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिए वह अनुकूल परिस्थिति बनाए रखे, जिसमें विकासवादी सरकारों को कोई मतलब नहीं दिखता। लोग सोचने को मज़बूर हो रहे हैं कि इस देश में विकास तो रहा है, जोकि बकौल सरकार होना ही चाहिए, लेकिन यह किस तरह और किनके लिए हो रहा है?

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सोमवार, 14 जून 2010

नक्सलवाद और सरकार के अंतर्विरोध

- देवाशीष प्रसून

भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक रपटों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति है और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति विद्यमान है। यानी, देश के सत्ता तंत्र का इस मोर्चे पर विफल होने को लेकर कोई दो-राय नहीं है।

एक और सरकारी दस्तावेज़ का उद्धहरण लें। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया, जो यह जायजा लेता कि भू-सुधार के अधूरे कामों के मद्देनज़र राज्य के कृषि संबंधों की अभी क्या स्थिति है? माननीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में काम कर रहे इस आयोग द्वारा मार्च ’०९ में ड्राफ़्ट किये गए रपट के पहले भाग के चौथे अध्याय में जिक्र है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। रपट में अपनी ज़मीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों को ही भाकपा(माओवादी) के सदस्य के रूप में संबोधित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सरकारी दस्तावेज़ कहता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न सात गांवों व आसपास के इलाकों का अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। ये कोलंबस के बाद आदिवासी जमीन की लूट खसोट का सबसे बड़ा मामला है। ये वाक्य मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर नक्सल समर्थक होने की चिप्पी लगाकर मुझे प्रताड़ित किया जा सकता है, अब हर कोई अरुंधती जैसा बहादुर तो नहीं हो सकता! सच मानिये लूट-खसोट का यह आरोप उपरोक्त बताये गए ड्राफ्ट रपट से ही उद्धृत है। आश्चर्य है कि यहाँ जिस ड्राफ्ट रपट का जिक्र हो रहा है, इसका अंतिम स्वरूप जब अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया गया तो रपट का उपरोक्त पूरा हिस्सा ही गायब था। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था के गोरखधंधा को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यों व्यक्त किया है कि “ एक ही संविधान के नीचे...भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम...’दया है’...और भूख में...तनी हुई मुट्ठी का नाम...नक्सलवाड़ी है।

हालांकि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता है। लेकिन जब जनसाधारण पर व्यवस्था की संरचनात्मक हिंसा की सारी हदें पार हो जाती हैं तो इतिहास साक्षी रहा है कि आत्मरक्षा में लोगों की प्रतिहिंसा को टाला नहीं जा सका है। इस वर्गसंघर्ष में हो रही हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले में, हाल में, नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में लगाये गए प्रेशर बम से दो बार बड़ी संख्या में लोग मरे हैं। यह दिल दहला देने वाली घटना थी। पहले हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ७६ सशस्त्र जवान मारे गए। सरकार ने इसे जनसंवेदना से जोड़ना चाहा जैसे कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हुआ सबसे बड़ा हमला था। माहौल बनाया गया कि थलसेना और वायुसेना की मदद से नक्सलवाद जैसे ठोस जनसंघर्ष को बिल्कुल वैसे ही कुचला जाये, जैसे श्री लंका में तमिलों के जनसंघर्षों को कुचला गया। लेकिन, लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध की स्थिति है और युद्ध में सैनिक तो शहीद होते ही हैं। बुद्धिजीवियों ने नक्सली हिंसा के बरअक्स छत्तीसगढ़ में चल रहे इस युद्ध का विरोध किया। थल व वायु द्वारा नक्सलियों पर हमले पर आम-राय नहीं बन पायी। पर, नक्सलियों के अगली घटना ने कई लोगों के मन में नक्सलियों के लिए घृणा भर दिया है। इसमें एक ऐसी बस को निशाना बनाया गया जिसमें सवार कई निहत्थी औरतों और बच्चों की जान गयी। लेकिन, इस मामले में एक सवाल ऐसा है जो परेशान किये जाता है। एक युद्धक्षेत्र में हथियारबंद विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को आमलोगों, महिलाओं और बच्चों के साथ एक ही बस में क्यों भेजा गया? जबकि सैन्य बलों पर नक्सलियों का मंडराता खतरा दक्षिणी छत्तीसगढ़ में आमबात है, तो फिर क्या निर्दोष लोगों को एसपीओ के साथ भेज कर बतौर ’चारा’ इस्तेमाल किया गया, जिससे नक्सलियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले के लिए जनमानस तैयार हो सके? यह बस एक प्रश्न है, कोई इल्ज़ाम नहीं है सरकार पर। जबकि बकौल भारतीय वायुसेना जाहिर है कि वे चुनिंदा लोगों से लड़ने (सेलेक्टड कॉमवेट) में दक्ष नहीं है, इनकी दक्षता निशाने का मुकम्मल विनाश(टोटल कॉमवेट) करने में है, तो ऐसे में नक्सलियों के विरुद्ध अगर हवाई हमला हुआ तो स्पष्ट है कई निर्दोष जाने जायेंगी।

हाल में ही एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी है, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, डेढ़ सौ लोग मारे गए और दो सौ घायल हुए। आनन-फानन में बिना जाँच पड़ताल किये ही इसे नक्सली आतंक का नाम दिया गया। जबकि पाँच जून को एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में आयी ख़बर के मुताबिक माओवादियों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और भरोसा दिलाया कि माओवादियों द्वारा किसी यात्री ट्रेन व आमलोगों पर हमला नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के पीछे कौन है, वे इसकी जाँच कर रहे हैं और इसके दोषियों बख्शा नहीं जायेगा।

अलबत्ता सरकारी रपटों के मुताबिक नक्सलवाद की जड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विषमता में है। पर, दूसरी ओर सरकार और उनका पूरा प्रचार तंत्र नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। विचारने वाली बात है कि नक्सलवाद से किसको ख़तरा है? क्या गरीब, विपन्न, आदिवासी लोगों व उद्योगों, ख्रेतों और अन्य जगहों पर विषम परिस्थितियों में काम करने वाले बहुसंख्य मेहनतकश जनता को नक्सलवाद से ख़तरा है? या फिर देश के मुट्ठी भर पूँजीपतियों और उनकी ग़ुलामी घटने वाली करोड़ों मध्यवर्गीय जनता के लिए नक्सलवाद संकट का विषय है। ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना होगा।(समाप्त)

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