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गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

लोकतांत्रिक समाज में मानवाधिकार संघर्ष की ज़रूरत

- देवाशीष प्रसून
मानवाधिकार दिवस, १० दिसंबर, के मद्देनज़र यह सोचना ज़रूरी है कि अगर कोई लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था जनता के हित में काम करती है तो उस समाज में मानवाधिकार पर विमर्श और उसे हासिल करने के लिए संघर्ष का क्या औचित्य बनता है? जब सत्ता की कमान जनता के ही हाथों में है तो जनता के ही मानवीय अधिकारों की सुरक्षा के लिए लगातार दावा करते रहने की ज़रूरत क्यों है? लेकिन, इतिहास साक्षी रहा है कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में लोगों को अपने मानवाधिकार को हासिल करने और बनाये रखने के लिए हमेशा लड़ते रहना पड़ा है। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या सही में लोकतंत्र जनता के ही शासन का नाम है या आजकल जिन व्यवस्थाओं को लोकतांत्रिक होने की बातें होती हैं, वहां सच में लोकतंत्र नहीं होता हैं?
दरअसल सत्ता हमेशा ताक़तवरों और कमज़ोरों के बीच एक धुरी का काम करती है। किसी भी सत्ता तंत्र में सत्ता की बाग-डोर ताक़तवरों के हाथ में होती है। संसदीय लोकतंत्र एक ऐसी अनूठी व्यवस्था है जिसमें आम जनता, जो आमतौर पर कमज़ोर है, अपने बीच के मज़बूत लोगों को अपने वोट के बल पर और अधिक ताक़तवर बनाकर उसे अपने ऊपर शासन करने के लिए चुनती है। मतलब, मौज़ूदा लोकतंत्र में शासन व्यवस्था जनता की नहीं, बल्कि जनता के द्वारा चुने गए ताक़तवर लोगों की है। ताक़तवर लोगों के शासन में कमज़ोर लोगों के अधिकार के लिए चौकन्ना रहने की खास ज़रूरत है। यही कारण है कि भारत सहित विश्व के तमाम लोकतांत्रिक देशों में मानवाधिकार को हासिल करने और बचाये रखने के लिए हमेशा संघर्षरत रहना पड़ा है।
अपने देश का ही उदाहरण लें भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इस बड़प्प्न का आधार लोकतांत्रिक मूल्यों के बजाय मतदाताओं की सर्वाधिक संख्या है। पर, इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र की हवा उत्तर-पूर्वी राज्यों जम्मू कश्मीर में सैन्य-बलों द्वारा मुसलसल जारी मानवाधिकार के हनन को प्राप्त वैधानिकता के कारण फुस्स हो जाती है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार देने वाले क़ानूनों के चलते इन इलाकों में आये दिन मानवाधिकार की धज्जियाँ उड़ती रहती हैं। सशस्त्र बल को महज शक के आधार पर किसी पर गोली चलाने का अधिकार मिला हुआ है। सैन्य-बल के लिए क़ानून और व्यवस्था के नाम पर किसी की हत्या के साथ-साथ बलात्कार और लोगों को हिरासत में लेकर प्रताड़ित करना आम बात है। साथ ही वह, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १९७() के आधार पर ड्यूटी के वक्त की गई कैसी भी कार्रवाई के लिए, किसी भी तरह के न्यायिक जाँच से मुक्त भी है। आफ़्सपा जैसे अंधे क़ानून को निरस्त करने की माँग को लेकर इम्फाल की इरोम शर्मिला चानु भूख हड़ताल पर है। इस साल छह नवंवर को इस हड़ताल के नौ साल पूरे हो गए लेकिन भारत सरकार कानों में तेल डालकर बैठी है।देश के खनिज संपन्न क्षेत्रों में भी इस छद्म लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ने नक्सलवाद के नाम पर आदिवासी बहुल जनता के मानवाधिकार तहसनहस कर रखा है।
यह तो देश के सुदूर इलाकों का हाल है देश की राजधानी में मानवाधिकार के हालातों पर क्या कहना? हमारे यहाँ की लोकतांत्रिक सरकार ने मानवाधिकार के रक्षा के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का इंतज़ाम कर रखा है। लेकिन अकसर होता यह है कि जब कभी भी सरकारी मशीनरी के द्वारा मानवाधिकर हनन किया जाता है, ऐसे वक्त में, यह आयोग सरकार को बेदाग़ बताने के लिए ही प्रकट होती है। देश की न्याय व्यवस्था भी इस आयोग की दलीलों के हाँ में हाँ मिलाती ही नज़र आती है। याद ही होगा कि कैसे पिछले साल १९ सितंबर को दिल्ली के बाटला हाऊस इलाके में पुलिस ने दो लोगों को भारतीय मुजाहिदीन मानकर उन्हें घेरा और मुठभेड़ के नाम पर उन पर गोलियाँ बरसायी। इस दौरान मुठभेड़ो के माहिर एक इंस्पेक्टर की भी जान गई। हालाँकि यह जाँच का विषय है कि शहीद इंस्पेक्टर पर गोली किसने चलाई? इसकी निष्पक्ष न्यायिक जाँच से दूध का दूध और पानी का पानी हो पाता। लेकिन, आयोग ने इस मामले में दिल्ली पुलिस के दलीलों पर ही हामी भरी और बिना घटनास्थल पर पहुँचे और संबंधित लोगों से बातचीत किए बगैर दिल्ली पुलिस को बेदाग़ घोषित कर दिया। और तो और, सर्वोच्च न्यायालय इस पूरे मामले में राष्ट्रीय मानवाधिक आयोग के रपट को सही ठहराते हुए किसी भी न्यायिक जाँच से इसलिए मुकर गया, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से पुलिस का मनोबल कमज़ोर होगा। न्याय के मंदिर में न्याय, इंसानी ज़िंदगी व उसकी अस्मिता से अधिक सत्ता के किसी उपांग के मनोबल को महत्वपूर्ण माना जाना चिंता का एक गंभीर विषय है।
मुठभेड़ों के मामले में अकसर सैन्य-बल की यह दलील सामने आती है कि पहले हमला वे करते हैं, जिनके साथ पुलिस का मुठभेड़ होता है और फिर जबावी हमले में सैन्य-बल की तरफ़ से कार्रवाई की जाती हैं। सैन्य-बलों के लिए काम करने वाले लोगों की मौत की दुहाई दी जाती है और प्रश्न किया जाता है कि ऐसे में क्या उन पुलिस कर्मचारियों के मानवाधिकार का हनन नहीं होता? क्या उन्हें आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? परंतु, उनका ऐसा कहना दो चीज़ों को घालमेल करने जैसा है। सशस्त्र बलों के लिए काम करने वाला कोई इंसान तब तक ही एक आम इंसान है, जब तक उसे सत्ता ने विशेषाधिकार नहीं दिये हैं। सत्ता से विशेषाधिकार पाने के बाद वह आम इंसान नहीं बचता उसके लिए जैसे निर्देश जारी होंगे, बिना सोचे-समझे उस निर्देशानुसार काम करने वाले किसी व्यक्ति को आम इंसान कैसे माना जा सकता है? इस तरह तो वह बस सत्ता-तंत्र के एक हथियार के रूप में तब्दील होकर रह जाता है। लुब्बे-लुबाब यह है कि लोगों को समाज और सत्ता तंत्र के औज़ारों के बीच का अंतर समझना चाहिए। पुलिस जैसे सत्ता तंत्र के औज़ारों का काम आरोपी या अपराधी को न्याय के लिए न्यायालय में प्रस्तुत करना है। ये नहीं कि वे उन्हें सज़ा देते फ़िरें। क्या भारत में पुलिस कर्मचारियों का निशाना इतना कच्चा है कि किसी आरोपी या अपराधी को अपने वश में करने के लिए वह उसके जाँघ या पैर पर निशाना साधने के बजाय उन्हें ढ़ेर कर देती हैं?
उपरोक्त उदाहरणों से साफ़ है कि भारत जैसा लोकतांत्रिक देश सिर्फ़ नाम का लोकतांत्रिक है।शासन व्यवस्था के काम करने के तौर-तरीकों से ऐसा महसूस नहीं होता है कि हम एक लोकतांत्रिक समाज में रह रहे हैं। असल में इस लोकतंत्र में एक सामंती कहावत चरितार्थ होती कि 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' तो आज ज़रूरत है कि एक लोकतांत्रिक माहौल को बनाने और इसकी रक्षा करने के लिए आम जनता अपनी कमर कस ले। बार-बार मानवाधिकार सरीखे अपने तमाम अधिकारों के लिए दावा ठोकते रहने की ज़रूरत है।(समाप्त)
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