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सोमवार, 10 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

- देवाशीष प्रसून-

एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।

इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।

यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।

तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।

इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।

इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।

अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।

इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।

दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।

अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रख जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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दूरभाष: 09555053370,
ई-मेल: prasoonjee@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

Sanjeet Tripathi ने कहा…

पूरी रिपोर्ट में यह कहीं नहीं लिखा है कि कैसे अंतिम दिन नक्सलियों ने विस्फोट कर 8 जवानों की जान ली। तब इन यात्रियों को मुंह छिपाने की लिए जगह नहीं बची, गए थे एक समूह में लौटे एक एक अलग अलग बचते बचाते। वाकई अगर विस्फोट के दिन ये समूह आम लोगों के सामने पड़ गया होता तो वे इन्हें रोककर जरुर पूछते कि क्या हुआ कर लिए नक्सलियों से शांति की अपील सरकार से तो कर ही ली थी न। कितनी सुनी आपकी नक्सलियों ने।

वापसी के बाद रायपुर में मीडिया वाले इन्हें ढूंढते रहे, विस्फोट पर पूछने के लिए लेकिन्…
लेकिन कहां थे ये

Ashok Kumar pandey ने कहा…

यह फासीवाद की प्रवृति है जिसमे आप या तो सत्ता के साथ हैं या उसके शत्रु…किसी तीसरे पक्ष या जिसे सिविल सोसाईटी कहते हैं से उसे नफ़रत होती है…

इन शांति यात्रियों को सलाम…