- देवाशीष प्रसून
लिंग आधारित सत्ता संबंध
दुनिया में कहीं भी, किसी भी समाज में, किसी भी दो या अधिक इंसानों के बीच जितने भी संबंध हमने देखे हैं, हमने पाया है कि उनमें किसी न किसी स्तर पर एक सत्ता-संबंध (रिलेशन ऑफ़ पॉवर) मौज़ूद है। इस सत्ता-संबंध का निर्धारण इंसानों के आपसी उत्पादन संबंधों पर निर्भर करता है। किसी खास माहौल में उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में लाभांवित होने वाले और उस लाभ का मूल्य अपने श्रम से चुकाने वाले के बीच का संबंध उत्पादन संबंध कहलाता है। अगर कोई उत्पादन संबंध ऐसा हो जिसमें उत्पादन की ज़िम्मेवारियाँ और मिलने वाले लाभ के बीच कोई तारतम्यता नहीं हो तो एक असमान और दमनकारी सत्ता-संबंध का पनपना लाज़िमी है। सत्ता-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक भी हो सकते हैं, बशर्ते उत्पादक को अपने उत्पादन में पूरा हक़ मिले और किसी दूसरे के हक़ पर मुँह मारने वाला कोई नहीं हो।
स्त्रियों और पुरूषों के बीच क़ायम विश्वव्यापी सत्ता-संबंध के मूल में स्त्रियों द्वारा किये गये श्रम पर उनके हक़ को नज़रंदाज़ करना है। स्त्रियों का हक़ मार कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने पुरूषों को लाभांवित करने के कई क्रूर तरीके ईजाद किये हैं।
स्त्री-पुरूष असमानता और ज़ेंडर-भेदभाव की जड़ में मूलतः उत्पादन संबंधों का स्त्री-विरोधी होना है। कुल मिलाकर स्त्री-मुक्ति की सारी आकांक्षाएं उत्पादन संबंधों में एक ईमानदार हक़ पाने की है। वस्तुतः इस हक़ के साथ ही स्त्रियाँ स्वस्थ ज़िन्दगी के लिए जरूरी सभी अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हो पायेंगी। इस तरह से अपने इंसान होने के सुखद एहसास का मज़ा लेते हुये एक सम्पूर्ण ज़िन्दगी जीने का यह सपना हर स्त्री देखती है। लेकिन, अफ़सोस कि अब तक यह सपना हक़ीक़त से दूर है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्त्री-श्रम के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की ज़रूरत है।
लिंग आधारित श्रम विभाजन
(Sexual division of labour)
कारखानों, व्यापारों, खेतीबाड़ी या सेवा-क्षेत्र आदि में भी महिलाएं घर से बाहर निकल कर अपनी मेहनत से घर के लिए रोटी कमाती हैं। साथ ही वे देश के विकास के लिए भी पुरूषों के बराबर दिन-रात अपना खून-पसीना एक करती हैं। हमारा समाज इन कामकाजी महिलाओं के श्रम को ही बस संज्ञान में लेता है। हालाँकि, इस मामले में भी समाज का पुरूष वर्चस्व उनके क़ाबिलियत को पुरूष सहकर्मियों के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही मानता है। और इस तरह घर से बाहर निकल कर भी स्त्रियाँ इस असमान सत्ता-संबंध से मुक्त नहीं हो पाती हैं।
लेकिन, स्त्री- श्रम का मसला इससे ज़्यादा व्यापक है। वह महिला जो अपना पूरा जीवन घर में चाहर-दीवारी में गुज़ारने को अभिशप्त है और दिन रात अपने परिवार के उत्थान के लिए खटती है, बात उनके श्रम की भी होनी चाहिए। माँ बनने की अद्भूत क्षमता से लैस स्त्रियाँ सिर्फ़ समाज में इंसानों की नयी पौध को ही नहीं जनती, बल्कि उन्हें अपने देखभाल और परवरिश से सींच कर एक सक्षम मनुष्य बनाती हैं। इस सक्षम मनुष्य का निर्माण ही भविष्य की उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का निरंतर स्रोत बना रहता है। इस प्रक्रिया में उत्पादन और पुनरुत्पादन की पूरी जिम्मेवारी स्त्रियों की ही रहती है। एक नौकरीपेशा स्त्री या पुरूष से कहीं ज़्यादा मेहनत करने वाली इन महिलाओं के लिए हमारा अंधा समाज कहता है - अरे ! मेरी माँ, मेरी बीबी या मेरी बहन कुछ भी तो नहीं करती , वह तो घर में ही रहती है। यहाँ तक की हमारी सरकार भी इन स्त्रियों के श्रम को अनुत्पादक मानती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद नहीं बढ़ता।
और तो और, उन महिलाओं का दुःख कौन जाने, जो घर में भी परंपरागत तरीक़े से सामाजिक पुनरुत्पादन के सभी जिम्मेवारियों को निभाने के साथ-साथ बाहर जा कर रोज़ी-रोटी भी कमाती हैं। आज ऐसी औरतों की एक बढ़ती संख्या है। इनकी तो दुगनी पेड़ाई हो जाती है और तब भी, समाज में अधिकारों और सुविधाओं की बात आये तो उन्हें फिर पीछे ही रहना पड़ता है।
उत्पादन, सामाजिक पुनरुत्पादन एवं इसकी राजनीति
स्त्री-श्रम का उत्पादन की प्रक्रिया में होने वाले योगदान का सूत्रीकरण करें, तो पायेंगे कि स्त्री का श्रम उत्पादन की निम्नलिखित शाखाओं में महत्वपूर्ण योगदान करता है:-
1. उत्पादन: महिलाएं घर से बाहर और घर में जीविका कमाने के लिए श्रम करती है। रोजी-रोटी कमाने के लिए समाज के हर वर्ग से महिलाएं उत्पादन के इस क्षेत्र में पुरूषों से ज्यादा परिश्रम करती हैं। स्त्रियों का ज्यादातर काम अकुशल माना जाता है और अपने कामों को पूरा करने के लिए उन्हें पुरूषों की तुलना में बेतहाशा मेहनत करनी पड़ती है। स्त्रियों के काम को अकुशल मानने के पीछे पुरुषकेन्द्रीयता (Andro-centricity) के तर्क सामने आते हैं।
2. पुनरुत्पादन: महिलाएं जीवन के उत्पादन का काम भी करती हैं। गर्भ में होने वाले शिशु को नौ महीनों तक पालती है। फिर उन्हें एक भीषण प्रसव-पीड़ा सहकर जन्म देती है। और जब तक नवजात अपने पैरों पर खड़ा न हो जाये, तब तक उसकी परवरिश करती हुई स्त्रियाँ मानव जीवन के निरंतर चलते पुनरुत्पादन के इस प्रक्रिया में अपना श्रम खर्च करती हैं। गर्भ-धारण और प्रसव जैसे काम प्राकृतिक रूप स्त्रियों के जिम्मे है। हालांकि पुनरुत्पादन के कुछ ऐसे काम भी हैं, जिन्हे ज़बरन उन पर थोपा गया है, जो पुरुष भी कर सकते हैं, परंतु सामान्यतः करते नहीं। यह काम है, जो जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने वाले काम हैं, गोया – भोजन तैयार करना, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की परवरिश, परिवार में ज़रुरतमंदों की देखभाल और मरम्मत आदि के काम। इन कामों की पुरूषों द्वारा उपेक्षा और स्त्रियों द्वारा इसे करने की मज़बूरी पितृसत्तात्मक सत्ता-संबंध की एक परिणिती मात्र है।
3. दोहरे दिन (double day): स्त्रियाँ बतौर समूह पुरूषों से दोगुना काम करती हैं। इसे हम “दोहरे दिन” की अवधारणा से समझ सकते है, जिसके मुताबिक़ स्त्रियाँ प्रति सप्ताह पुरूषों के मुक़ाबिले उनसे बहुत अधिक घंटे प्रति सप्ताह श्रम करती हैं।
उत्पादन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण
मानव समाज में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के बीच की दूरी पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाई एक ऐसी दूरी है, जो स्त्रियों को घर की मर्यादा और उससे जुड़ी पारिवारिक निजता के बंधनों में कैद करके उनका निर्बाध रूप से शोषण करने का जरिया रही है। उत्पादन, पुनरुत्पादन और जीवन से संबंधित तमाम विषयों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में बाँटते हुए निजी क्षेत्र पर व्यक्तिगत होने का लेबल लगाने के पीछे की मंशा, निजी क्षेत्र में जबरन कैद की गई, स्त्रियों पर हो रहे ज़ुल्मों को नज़रंदाज़ करना रहा है। एक तो यह तय करना कि स्त्रियाँ निजी कामों में ही व्यस्त रहे और फिर निजी कामों को व्यक्तिगत मान कर किसी भी प्रकार के सामाजिक या राजनैतिक हस्तक्षेप से उन पर हो रही प्रताड़नाओं को दूर रखना स्त्रियों पर हुकुमत करने के लिए पितृसत्ता का एक जालिम तरिका है।
पारंपरिक मूल्यों के साथ विवाह सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा के शक्ल में स्त्री-पराधीनता का एक तरीका है। इसके जरिए पुरूषकेन्द्रित समाज स्त्री के श्रम का लैंगिक विभाजन आसानी से कर पाते हैं। विवाहोपरांत स्त्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घर-गृहस्थी से संबंधित सारे कामकाज संभाले। और इसी तरह से उनके उत्पादकता पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण हो जाता है। साथ ही, विवाह स्त्री की पुनरुत्पादन की क्षमता पर भी नियंत्रण रखता है।
दरअसल इस तरह की क़वायदें ऐसी साज़िशें हैं, जिसमें स्त्रियाँ चुपचाप शोषित होने के लिए मज़बूर हैं। इसलिए अव्वल तो मौज़ूदा स्थिति में स्त्रियों का घेरा ही निजी क्षेत्र के अंतर्गत है तो अपने बारे में उन्हें बात करने के लिए उन्हें निजता कि नकारना होगा और दूसरे कि अपनी ज़ंज़ीरों को तोड़ने के लिए भी यह जरूरी है कि स्त्रियाँ निजता को व्यक्तिगत नहीं मानते हुए उसे एक व्यापक राजनैतिक विषय समझें। "व्यक्तिगत राजनैतिक है" एक ऐसा नारा है, जो स्त्रियों को अपने अधिकारों के वास्ते बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। और सिर्फ़ बोलने के लिए ही नहीं, उन्हें हासिल करने हेतु लड़ने के लिए भी तैयार करता है।
संघर्ष की रणनीति
औरतों को इंसान समझा जाये, एक पूरा इंसान- यह एक आम इंसानी ज़रूरत है और इससे जुड़ी यह बात कि, औरतों को उसके हक़ से महरूम नहीं किया जाये और उसके श्रम का सम्मान हो। इन लक्ष्यों की चाह में अब तक नारीवादियों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने कई अधिकारों को हासिल भी किया। लेकिन, स्त्री-पुरूष उत्पादन संबंध के मूल स्वरूप में किसी बदलाव के नहीं होने से स्त्री-मुक्ति की पुरानी चाहत अभी तक एक चाहत ही है। स्त्री-आंदोलनों में खर्च किये गये एक लम्बे समय और व्यापक ऊर्जा के बावज़ूद यह अपने मूल लक्ष्य को नहीं पा सका है। क्या हैं इसके कारण?
एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन आंदोलनों ने अक्सर तत्कालिक माँगों के लिए हल्ला बोला और अपने जुझारूपन से उन माँगों को भी हासिल किया है। लेकिन, इन उपक्रमों में कहीं न कहीं स्त्रियों के हक़ में उत्पादन संबंधों के बदलाव का अहम लक्ष्य पीछे छूटता रहा। दरअसल जिन ताक़तों के पास सत्ता है वे खुद यह तय करती है कि जिन पर उनका शासन है, उन लोगों की माँगों की हद कहाँ तक हो। इसका मतलब यह कि सत्ता-प्रतिष्ठान जितना छूट देगा, आपका आंदोलन भी उसी सीमा में रहेगा। और अगर कोई इन सीमाओं को लांघने की जुर्रत करता है तो उसे कुचल दिया जायेगा। सरकारों और सरकार समर्थित संस्थानों के अनुदानों द्वारा वित्त-पोषित ग़ैर-सरकारी संगठन (एन जी ओ) स्त्रियों के हक़ में काम करने वाली ऐसी संस्थाएं हैं जो सत्ता-प्रतिष्ठानों से ही अपने विचार और अपने संघर्षों की सीमा अर्जित करती है। आज स्त्री-अस्मिता और स्त्री-मुक्ति का बीड़ा उठाये ऐसी ही संस्थाएं बहुतायत में दिखती हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिदृश्य में बहुत सारे पैसों की भूमिका भी रहती है। स्त्री-मुक्ति के हक़ में इन संघर्ष के ठेकेदारों से बचने की ज़रूरत है। दूरगामी परिणाम के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-आंदोलन अपने लक्ष्य खुद तय करे और किसी भटकाव के बिना अपने ज़िन्दगी को मुकम्मल इंसानी शक्ल देने के लिए एक जायज़ उत्पादन संबंध का निर्माण हो।
इसके के लिए ज़ेंडर के उन उन मानकों को ध्वस्त करना ज़रूरी है, जो किसी खास बर्ताव को औरतों के लिए मुनासिब नहीं मानता, लेकिन मर्दों के लिए इसे जायज़ समझता है। इस तरह के भेदभाव की संरचना असमान सत्ता-संबंध से प्रेरित होती है। असमान सत्ता-संबंध का विकल्प लोकतांत्रिक संबंध है। समाज में लोकतांत्रिक संबंधों का विकास ही असमान और दमनकारी सत्ता-संबंधों को नष्ट करके सही अर्थ में एक मानवीय जीवन की आकांक्षा को तृप्त कर सकता है। सामाजिक मूल्यों में समता, संवेदनशीलता और दूसरों का ख़याल रखने की इच्छा के जन्म से ही लोकतांत्रिक संबंधों का विकास संभव है।
इन सभी सामाजिक मूल्यों के लिए अगर एक शब्द का इस्तेमाल करना हो तो यह कहा जायेगा कि समाज में प्रेम का होना सत्ता-संबंधों के लोकतांत्रिक होने के लिए ज़रूरी है। हमारा समाज एक प्रेम-विरोधी समाज है और यह हर प्रकार की असमताओं का कारण भी है। सामाजिक मूल्य परिवार और समाज द्वारा दिये जाने वाले संस्कारों और शिक्षा के जरिये लोगों के ज़हन में आता है। समाज ने अपने संस्कारों से प्रेम को एक संकुचित अर्थ में व्याख्यायित किया है। इस बात को अनदेखा किया गया है कि प्रेम ऐसा भाव है जो अपने मूल स्वरूप में पूरे मानवता या प्रकृति के प्रति होता है। कभी भी, किसी व्यक्ति विशेष से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम हो सकता है। लेकिन, यह संभव है कि एक व्यक्ति पूरी मानवता से प्रेम करे और कोई इंसान उसके समग्र प्रेम का प्रतिनिधित्व मात्र करता हो। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति-विशेष प्रेम का लक्ष्य नहीं, अपितु प्रेम का माध्यम होता है। बहरहाल, अपने साथ ही दूसरों के विकास के प्रति निःस्वार्थ समर्पण -- प्रेम का अपने मूल स्वरूप में एक ऐसा स्वभाव है, जो उस लोकतांत्रिक माहौल का नियंता बनता है जो सभी प्रकार के दमनकारी सत्ता-संबंधों को नेस्तोनाबूद कर सकता है। इस तरह से एक न्यायपूर्ण उत्पादन संबंध को क़ायम कर स्त्री-मुक्ति की आकांक्षाओं को हासिल करने की राह पर चला जा सकता है।
संदर्भ-सूची
सेन, प्रो. इलीना, क्लासरूम नोट्स
पटेल, प्रो. विभूति, क्लासरूम नोट्स
आर्य, साधना, मेनन, निवेदिता, लोकनीता, जिनी(संपादित)(2001) नारीवादी राजनीति संघर्ष एवं मुद्दे, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय: नयी दिल्ली
बोउवार, सीमोन द, स्त्री:उपेक्षिता (The Second Sex), (अनुवाद: डॉ. प्रभा खेतान)(2002), हिन्द पॉकेट बुक्स: दिल्ली
दुनिया में कहीं भी, किसी भी समाज में, किसी भी दो या अधिक इंसानों के बीच जितने भी संबंध हमने देखे हैं, हमने पाया है कि उनमें किसी न किसी स्तर पर एक सत्ता-संबंध (रिलेशन ऑफ़ पॉवर) मौज़ूद है। इस सत्ता-संबंध का निर्धारण इंसानों के आपसी उत्पादन संबंधों पर निर्भर करता है। किसी खास माहौल में उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में लाभांवित होने वाले और उस लाभ का मूल्य अपने श्रम से चुकाने वाले के बीच का संबंध उत्पादन संबंध कहलाता है। अगर कोई उत्पादन संबंध ऐसा हो जिसमें उत्पादन की ज़िम्मेवारियाँ और मिलने वाले लाभ के बीच कोई तारतम्यता नहीं हो तो एक असमान और दमनकारी सत्ता-संबंध का पनपना लाज़िमी है। सत्ता-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक भी हो सकते हैं, बशर्ते उत्पादक को अपने उत्पादन में पूरा हक़ मिले और किसी दूसरे के हक़ पर मुँह मारने वाला कोई नहीं हो।
स्त्रियों और पुरूषों के बीच क़ायम विश्वव्यापी सत्ता-संबंध के मूल में स्त्रियों द्वारा किये गये श्रम पर उनके हक़ को नज़रंदाज़ करना है। स्त्रियों का हक़ मार कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने पुरूषों को लाभांवित करने के कई क्रूर तरीके ईजाद किये हैं।
स्त्री-पुरूष असमानता और ज़ेंडर-भेदभाव की जड़ में मूलतः उत्पादन संबंधों का स्त्री-विरोधी होना है। कुल मिलाकर स्त्री-मुक्ति की सारी आकांक्षाएं उत्पादन संबंधों में एक ईमानदार हक़ पाने की है। वस्तुतः इस हक़ के साथ ही स्त्रियाँ स्वस्थ ज़िन्दगी के लिए जरूरी सभी अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हो पायेंगी। इस तरह से अपने इंसान होने के सुखद एहसास का मज़ा लेते हुये एक सम्पूर्ण ज़िन्दगी जीने का यह सपना हर स्त्री देखती है। लेकिन, अफ़सोस कि अब तक यह सपना हक़ीक़त से दूर है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्त्री-श्रम के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की ज़रूरत है।
लिंग आधारित श्रम विभाजन
(Sexual division of labour)
कारखानों, व्यापारों, खेतीबाड़ी या सेवा-क्षेत्र आदि में भी महिलाएं घर से बाहर निकल कर अपनी मेहनत से घर के लिए रोटी कमाती हैं। साथ ही वे देश के विकास के लिए भी पुरूषों के बराबर दिन-रात अपना खून-पसीना एक करती हैं। हमारा समाज इन कामकाजी महिलाओं के श्रम को ही बस संज्ञान में लेता है। हालाँकि, इस मामले में भी समाज का पुरूष वर्चस्व उनके क़ाबिलियत को पुरूष सहकर्मियों के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही मानता है। और इस तरह घर से बाहर निकल कर भी स्त्रियाँ इस असमान सत्ता-संबंध से मुक्त नहीं हो पाती हैं।
लेकिन, स्त्री- श्रम का मसला इससे ज़्यादा व्यापक है। वह महिला जो अपना पूरा जीवन घर में चाहर-दीवारी में गुज़ारने को अभिशप्त है और दिन रात अपने परिवार के उत्थान के लिए खटती है, बात उनके श्रम की भी होनी चाहिए। माँ बनने की अद्भूत क्षमता से लैस स्त्रियाँ सिर्फ़ समाज में इंसानों की नयी पौध को ही नहीं जनती, बल्कि उन्हें अपने देखभाल और परवरिश से सींच कर एक सक्षम मनुष्य बनाती हैं। इस सक्षम मनुष्य का निर्माण ही भविष्य की उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का निरंतर स्रोत बना रहता है। इस प्रक्रिया में उत्पादन और पुनरुत्पादन की पूरी जिम्मेवारी स्त्रियों की ही रहती है। एक नौकरीपेशा स्त्री या पुरूष से कहीं ज़्यादा मेहनत करने वाली इन महिलाओं के लिए हमारा अंधा समाज कहता है - अरे ! मेरी माँ, मेरी बीबी या मेरी बहन कुछ भी तो नहीं करती , वह तो घर में ही रहती है। यहाँ तक की हमारी सरकार भी इन स्त्रियों के श्रम को अनुत्पादक मानती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद नहीं बढ़ता।
और तो और, उन महिलाओं का दुःख कौन जाने, जो घर में भी परंपरागत तरीक़े से सामाजिक पुनरुत्पादन के सभी जिम्मेवारियों को निभाने के साथ-साथ बाहर जा कर रोज़ी-रोटी भी कमाती हैं। आज ऐसी औरतों की एक बढ़ती संख्या है। इनकी तो दुगनी पेड़ाई हो जाती है और तब भी, समाज में अधिकारों और सुविधाओं की बात आये तो उन्हें फिर पीछे ही रहना पड़ता है।
उत्पादन, सामाजिक पुनरुत्पादन एवं इसकी राजनीति
स्त्री-श्रम का उत्पादन की प्रक्रिया में होने वाले योगदान का सूत्रीकरण करें, तो पायेंगे कि स्त्री का श्रम उत्पादन की निम्नलिखित शाखाओं में महत्वपूर्ण योगदान करता है:-
1. उत्पादन: महिलाएं घर से बाहर और घर में जीविका कमाने के लिए श्रम करती है। रोजी-रोटी कमाने के लिए समाज के हर वर्ग से महिलाएं उत्पादन के इस क्षेत्र में पुरूषों से ज्यादा परिश्रम करती हैं। स्त्रियों का ज्यादातर काम अकुशल माना जाता है और अपने कामों को पूरा करने के लिए उन्हें पुरूषों की तुलना में बेतहाशा मेहनत करनी पड़ती है। स्त्रियों के काम को अकुशल मानने के पीछे पुरुषकेन्द्रीयता (Andro-centricity) के तर्क सामने आते हैं।
2. पुनरुत्पादन: महिलाएं जीवन के उत्पादन का काम भी करती हैं। गर्भ में होने वाले शिशु को नौ महीनों तक पालती है। फिर उन्हें एक भीषण प्रसव-पीड़ा सहकर जन्म देती है। और जब तक नवजात अपने पैरों पर खड़ा न हो जाये, तब तक उसकी परवरिश करती हुई स्त्रियाँ मानव जीवन के निरंतर चलते पुनरुत्पादन के इस प्रक्रिया में अपना श्रम खर्च करती हैं। गर्भ-धारण और प्रसव जैसे काम प्राकृतिक रूप स्त्रियों के जिम्मे है। हालांकि पुनरुत्पादन के कुछ ऐसे काम भी हैं, जिन्हे ज़बरन उन पर थोपा गया है, जो पुरुष भी कर सकते हैं, परंतु सामान्यतः करते नहीं। यह काम है, जो जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने वाले काम हैं, गोया – भोजन तैयार करना, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की परवरिश, परिवार में ज़रुरतमंदों की देखभाल और मरम्मत आदि के काम। इन कामों की पुरूषों द्वारा उपेक्षा और स्त्रियों द्वारा इसे करने की मज़बूरी पितृसत्तात्मक सत्ता-संबंध की एक परिणिती मात्र है।
3. दोहरे दिन (double day): स्त्रियाँ बतौर समूह पुरूषों से दोगुना काम करती हैं। इसे हम “दोहरे दिन” की अवधारणा से समझ सकते है, जिसके मुताबिक़ स्त्रियाँ प्रति सप्ताह पुरूषों के मुक़ाबिले उनसे बहुत अधिक घंटे प्रति सप्ताह श्रम करती हैं।
उत्पादन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण
मानव समाज में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के बीच की दूरी पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाई एक ऐसी दूरी है, जो स्त्रियों को घर की मर्यादा और उससे जुड़ी पारिवारिक निजता के बंधनों में कैद करके उनका निर्बाध रूप से शोषण करने का जरिया रही है। उत्पादन, पुनरुत्पादन और जीवन से संबंधित तमाम विषयों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में बाँटते हुए निजी क्षेत्र पर व्यक्तिगत होने का लेबल लगाने के पीछे की मंशा, निजी क्षेत्र में जबरन कैद की गई, स्त्रियों पर हो रहे ज़ुल्मों को नज़रंदाज़ करना रहा है। एक तो यह तय करना कि स्त्रियाँ निजी कामों में ही व्यस्त रहे और फिर निजी कामों को व्यक्तिगत मान कर किसी भी प्रकार के सामाजिक या राजनैतिक हस्तक्षेप से उन पर हो रही प्रताड़नाओं को दूर रखना स्त्रियों पर हुकुमत करने के लिए पितृसत्ता का एक जालिम तरिका है।
पारंपरिक मूल्यों के साथ विवाह सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा के शक्ल में स्त्री-पराधीनता का एक तरीका है। इसके जरिए पुरूषकेन्द्रित समाज स्त्री के श्रम का लैंगिक विभाजन आसानी से कर पाते हैं। विवाहोपरांत स्त्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घर-गृहस्थी से संबंधित सारे कामकाज संभाले। और इसी तरह से उनके उत्पादकता पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण हो जाता है। साथ ही, विवाह स्त्री की पुनरुत्पादन की क्षमता पर भी नियंत्रण रखता है।
दरअसल इस तरह की क़वायदें ऐसी साज़िशें हैं, जिसमें स्त्रियाँ चुपचाप शोषित होने के लिए मज़बूर हैं। इसलिए अव्वल तो मौज़ूदा स्थिति में स्त्रियों का घेरा ही निजी क्षेत्र के अंतर्गत है तो अपने बारे में उन्हें बात करने के लिए उन्हें निजता कि नकारना होगा और दूसरे कि अपनी ज़ंज़ीरों को तोड़ने के लिए भी यह जरूरी है कि स्त्रियाँ निजता को व्यक्तिगत नहीं मानते हुए उसे एक व्यापक राजनैतिक विषय समझें। "व्यक्तिगत राजनैतिक है" एक ऐसा नारा है, जो स्त्रियों को अपने अधिकारों के वास्ते बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। और सिर्फ़ बोलने के लिए ही नहीं, उन्हें हासिल करने हेतु लड़ने के लिए भी तैयार करता है।
संघर्ष की रणनीति
औरतों को इंसान समझा जाये, एक पूरा इंसान- यह एक आम इंसानी ज़रूरत है और इससे जुड़ी यह बात कि, औरतों को उसके हक़ से महरूम नहीं किया जाये और उसके श्रम का सम्मान हो। इन लक्ष्यों की चाह में अब तक नारीवादियों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने कई अधिकारों को हासिल भी किया। लेकिन, स्त्री-पुरूष उत्पादन संबंध के मूल स्वरूप में किसी बदलाव के नहीं होने से स्त्री-मुक्ति की पुरानी चाहत अभी तक एक चाहत ही है। स्त्री-आंदोलनों में खर्च किये गये एक लम्बे समय और व्यापक ऊर्जा के बावज़ूद यह अपने मूल लक्ष्य को नहीं पा सका है। क्या हैं इसके कारण?
एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन आंदोलनों ने अक्सर तत्कालिक माँगों के लिए हल्ला बोला और अपने जुझारूपन से उन माँगों को भी हासिल किया है। लेकिन, इन उपक्रमों में कहीं न कहीं स्त्रियों के हक़ में उत्पादन संबंधों के बदलाव का अहम लक्ष्य पीछे छूटता रहा। दरअसल जिन ताक़तों के पास सत्ता है वे खुद यह तय करती है कि जिन पर उनका शासन है, उन लोगों की माँगों की हद कहाँ तक हो। इसका मतलब यह कि सत्ता-प्रतिष्ठान जितना छूट देगा, आपका आंदोलन भी उसी सीमा में रहेगा। और अगर कोई इन सीमाओं को लांघने की जुर्रत करता है तो उसे कुचल दिया जायेगा। सरकारों और सरकार समर्थित संस्थानों के अनुदानों द्वारा वित्त-पोषित ग़ैर-सरकारी संगठन (एन जी ओ) स्त्रियों के हक़ में काम करने वाली ऐसी संस्थाएं हैं जो सत्ता-प्रतिष्ठानों से ही अपने विचार और अपने संघर्षों की सीमा अर्जित करती है। आज स्त्री-अस्मिता और स्त्री-मुक्ति का बीड़ा उठाये ऐसी ही संस्थाएं बहुतायत में दिखती हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिदृश्य में बहुत सारे पैसों की भूमिका भी रहती है। स्त्री-मुक्ति के हक़ में इन संघर्ष के ठेकेदारों से बचने की ज़रूरत है। दूरगामी परिणाम के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-आंदोलन अपने लक्ष्य खुद तय करे और किसी भटकाव के बिना अपने ज़िन्दगी को मुकम्मल इंसानी शक्ल देने के लिए एक जायज़ उत्पादन संबंध का निर्माण हो।
इसके के लिए ज़ेंडर के उन उन मानकों को ध्वस्त करना ज़रूरी है, जो किसी खास बर्ताव को औरतों के लिए मुनासिब नहीं मानता, लेकिन मर्दों के लिए इसे जायज़ समझता है। इस तरह के भेदभाव की संरचना असमान सत्ता-संबंध से प्रेरित होती है। असमान सत्ता-संबंध का विकल्प लोकतांत्रिक संबंध है। समाज में लोकतांत्रिक संबंधों का विकास ही असमान और दमनकारी सत्ता-संबंधों को नष्ट करके सही अर्थ में एक मानवीय जीवन की आकांक्षा को तृप्त कर सकता है। सामाजिक मूल्यों में समता, संवेदनशीलता और दूसरों का ख़याल रखने की इच्छा के जन्म से ही लोकतांत्रिक संबंधों का विकास संभव है।
इन सभी सामाजिक मूल्यों के लिए अगर एक शब्द का इस्तेमाल करना हो तो यह कहा जायेगा कि समाज में प्रेम का होना सत्ता-संबंधों के लोकतांत्रिक होने के लिए ज़रूरी है। हमारा समाज एक प्रेम-विरोधी समाज है और यह हर प्रकार की असमताओं का कारण भी है। सामाजिक मूल्य परिवार और समाज द्वारा दिये जाने वाले संस्कारों और शिक्षा के जरिये लोगों के ज़हन में आता है। समाज ने अपने संस्कारों से प्रेम को एक संकुचित अर्थ में व्याख्यायित किया है। इस बात को अनदेखा किया गया है कि प्रेम ऐसा भाव है जो अपने मूल स्वरूप में पूरे मानवता या प्रकृति के प्रति होता है। कभी भी, किसी व्यक्ति विशेष से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम हो सकता है। लेकिन, यह संभव है कि एक व्यक्ति पूरी मानवता से प्रेम करे और कोई इंसान उसके समग्र प्रेम का प्रतिनिधित्व मात्र करता हो। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति-विशेष प्रेम का लक्ष्य नहीं, अपितु प्रेम का माध्यम होता है। बहरहाल, अपने साथ ही दूसरों के विकास के प्रति निःस्वार्थ समर्पण -- प्रेम का अपने मूल स्वरूप में एक ऐसा स्वभाव है, जो उस लोकतांत्रिक माहौल का नियंता बनता है जो सभी प्रकार के दमनकारी सत्ता-संबंधों को नेस्तोनाबूद कर सकता है। इस तरह से एक न्यायपूर्ण उत्पादन संबंध को क़ायम कर स्त्री-मुक्ति की आकांक्षाओं को हासिल करने की राह पर चला जा सकता है।
संदर्भ-सूची
सेन, प्रो. इलीना, क्लासरूम नोट्स
पटेल, प्रो. विभूति, क्लासरूम नोट्स
आर्य, साधना, मेनन, निवेदिता, लोकनीता, जिनी(संपादित)(2001) नारीवादी राजनीति संघर्ष एवं मुद्दे, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय: नयी दिल्ली
बोउवार, सीमोन द, स्त्री:उपेक्षिता (The Second Sex), (अनुवाद: डॉ. प्रभा खेतान)(2002), हिन्द पॉकेट बुक्स: दिल्ली
1 टिप्पणी:
उत्पादन-संबंधों की सामाजिक व्यवस्था ही सभी तरह के भेदों को खत्म करने की दिशा में कदम बढाती है।
बहुत ही उत्तम आलेख। स्त्री-श्रम पर अच्छी पडताल करते हुए।
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