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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

वे पुलिस थे, पुलिस हैं और पुलिस ही रहेंगे

- देवाशीष प्रसून
भारत में कई संस्थान उच्च शिक्षा और शोध की दिशा में कार्यरत हैं। उनके बावज़ूद, हिंदी में मौलिक सोच के विकास और शोध की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र में महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की नींव रखी गयी थी। शुरू से ही विभिन्न कारणों से विश्वविद्यालय विवादों में घिरा रहा। आजकल यह विश्वविद्यालय कुलपति विभूतिनारायण राय की तानाशाही को लेकर चर्चा में हैं।
विभूतिनारायण राय भारतीय पुलिस सेवा से संबंद्ध रहे है और यह उनकी कार्य-संस्कृति से भी स्पष्ट दिखता है। हमेशा से वे पुलिस अधिकारी रहे हैं और अब विश्वविद्यालय में भी पुलिसिया संस्कृति के कांटे बो रहे हैं। अपनी किसी असुविधा के लिए एक टार्गेट को चुनना और उसके ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करने में ये माहिर रहे हैं। शोध और अध्यापन के बरअक्स हिंदी-समय, कथा-समय और इस सरीखे हिंदी के साहित्यकारों का मेला लगा कर विभूति तालियाँ सुनने में मज़ा लेते हैं। पर उनके द्वारा लिए गये कुछ अहम फैसले उनकी कार्य-संस्कृति का आईना बनकर सामने आते हैं। गोया, दो बार छात्र-प्रतिनिधियों को बिना विद्यार्थियों की सहमति से विद्या-परिषद के बतौर सदस्य मनोनीत किया गया। हाल में जो व्यक्ति विद्या-परिषद में छात्र-प्रतिनिधि मनोनीत हुआ है, वो एक साथ विश्वविद्यालय से हर माह निश्चित राशि लेकर पब्लिसिटी अधिकारी और पीएच.डी. शोधार्थी है।पीएच डी के लिए भी सरकार हर महीने एक निश्चित राशि शोधवृति के रूप में देती है। विश्वविद्यालय में काम करने वाले को बतौर छात्र-प्रतिनिधि थोपना ही विभूति का विश्वविद्यालय में लोकतंत्रीकरण है।
संतोष बघेल दलित हैं और उन्होंने यहीं से एम.फिल. किया और वह जेआरएफ़ भी है। अपनी इसी योग्यता के साथ उसने पीएच.डी, के लिए आवेदन किया था। खाली सीट के बावज़ूद, बिना लंबी लड़ाई, उन्हें दाखिला नहीं मिल पाया। हाल में एम.फिल. में स्वर्ण पदक प्राप्त लेकिन जाति से दलित छात्र राहुल कांबळे को आखिरकार पीएच.डी. से महरूम रखा गया। प्रवेश परीक्षा में उसका चयन नहीं हो पाया था, पर चयनित एक अभ्यर्थी ने जब दाख़िला नहीं लिया तो तीसरे नंबर पर होने के कारण राहुल ने अपना दावा पेश किया। सीट खाली रह गयी, लेकिन कुलपति राय की दुआ से राहुल को उसके आमरण अनशन के वाबज़ूद भी विश्वविद्यालय से विदाई लेनी पड़ी। बहाना बनाया गया कि उक्त सीट पिछड़े अभ्यर्थी के लिए आरक्षित है तो एक दलित को कैसे मिल सकती है।
कुलपति राय को विरोध के स्वर बर्दाश्त नहीं है, कठपुतली बने कुलानुशासक फट से विद्यार्थियों को नोटिस थमाते फिरते हैं। शोध के एक छात्र अनिल ने बताया कि उसको कई बार अपनी असहमतियों के कारण अनुशासनात्मक कार्रवाई से भरा धमकी-पत्र मिलता रहा है। कारण अलग-अलग रहे हैं। आख़िरकार उसे विश्वविद्यालय ने निष्कासित करने से भी कोई गुरेज़ नहीं किया गया। बहना बनाया गया एक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश। ज्ञात हो कि देश-दुनिया के हर विश्वविद्यालय में किसी भी विभाग में आये दिन संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं और आयोजक अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता के लिए प्रयासरत रहते हैं। लेकिन, खबरदार विभूति के राज में किसी अकादमिक संगोष्ठी में अनाधिकार प्रवेश व सहभागिता पर निष्कासन भी हो सकता है, जैसा कि अनिल के साथ हुआ।
छात्राओं का पुरुष-छात्रावास में प्रवेश वर्जित है। पूछे जाने पर कुलपति कहते है कि लड़कियाँ टॉफी जैसी होती है,जिनका 'इस्तेमाल' लड़के करना चाहते हैं। इसलिए यह कदम एहतियातन उठाया गया। गौरतलब हो कि इस विश्वविद्यालय परिसर में न्यूनतम शिक्षा एम.ए. स्तर की है। याने इस विश्वविद्यालय के सभी छात्र-छात्राएं व्यस्क है। तो फिर इस तरह की नैतिक पुलिसिंग क्यों? क्या कुलपति राय के संप्रदायिकता विरोधी नक़ाब से निकल कर बजरंज दल का कार्यकर्ता झांकने लगा है?
मनमानियों की कड़ी में एक दिन विद्यार्थियों के हितैषी व लोकप्रिय शिक्षक प्रो अनिल चमड़िया की नियुक्ति विश्वविद्यालय प्रशासन ने ख़त्म कर दी। यह पुलिस अधिकारी राय में विश्वविद्यालय में आने के बाद सबसे बड़ा, लेकिन फर्जी, मुठभेड़ बनता दिखाई दे रहा है। कुलपति राय ने जब महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति का पदभार संभाला तब पहली बार की गयी नियमित नियुक्तियों के जरिए अनिल कुमार राय उर्फ़ अंकित और अनिल चमड़िया ने बतौर प्रोफ़ेसर जनसंचार विभाग में अध्यापन की जिम्मेवारी दी गयी। अनिल चमड़िया का बतौर अथिति शिक्षक विद्यार्थियों को मार्गदशन पिछले चार सालों में कई बार मिलता रहा है। चमड़िया देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के क्षेत्र में विशिष्ठ हैसियत रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) नयी दिल्ली में अध्यापन करते रहे थे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे देश के जाने-माने पत्रकार के साथ-साथ वर्धा, दिल्ली समेत देश के कई पत्रकारिता विभागों के विद्यार्थियों के सबसे प्रिय और सक्षम शिक्षक रहे हैं। प्रो. अंकित को एक दिन की सिनियारिटी के चलते विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया, सो वे प्रशासनिक कामों में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। जो भी हो छात्र-छात्राओं का प्रो. राय से अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले साबिका नहीं पड़ा। लेकिन, उनके कारण विभाग में बढ़ते अफ़सरशाही के चलते विद्यार्थियों में आक्रोश ज़रूर बढ़ रहा था। इसी बीच कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों, अख़बारों और पत्रिकाओं ने प्रो. अनिल कुमार राय अंकित द्वारा नक़ल कर पुस्तके छपवाने के मामले को सार्वजिनक कर दिया। प्रो. अंकित न तो पढाते थे और फिर इस तरह के पुख्ता सबूतों के साथ लगाए गए आरोप के कारण विद्यार्थिओं के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा बढ़ने लगी। इस दौरान विद्यार्थियों का मन किसी प्रकार के असुरक्षा से मोड़ कर अपनी पढ़ाई कोई ओर केंद्रित करवाने के लिए प्रो. चमड़िया ने दिन-रात एक कर दिया।
प्रो चमड़िया कहते हैं कि कुलपति शुरू से ही उनके हर प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया करते थे। चमड़िया चाहते थे कि देश भर की सारी पत्र-पत्रिकाएं विभाग में आयें, जिनसे पत्रकारिता के विद्यार्थियों की समझ व्यापक हो सके, जिसे कुलपति ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने विद्यार्थियों को गाँव-गाँव घूमकर रपट लिखने का आदेश दिया। कुलपति ने अपने मौखिक आश्वासन के बावज़ूद विश्वविद्यालय की ओर से इसके लिए कोई इंतेज़ामात नहीं होने दिये गए। एक प्रोफेसर को दिए जाने वाली न्यूनतम सुविधाओं से उन्हें महरूम रखा गया।
जनसंचार विभाग में पीएच.डी. प्रवेश की परीक्षा आयोजित की गयी। अभ्यर्थियों को लगा कि प्रवेश-परीक्षा में कुछ छोटाला है।इस बाबत शिक़ायत पत्र कुलपति को सौंपी गयी।माँग थी कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक सार्वजनिक किए जायें।पूरी प्रक्रिया में कई लोग शामिल थे।कई विश्वविद्यालय के शिक्षक थे तो प्रो. राममोहन पाठक जैसे कई बाहरवाले भी। कुलपति ने परीक्षाफल को निरस्त कर दिया और पुनः परीक्षा आयोजित की गयी, लेकिन जो काम आज तक नहीं हुआ वह कि उत्तर-पुस्तिका और साक्षात्कार के अंक को सार्वजनिक किया जाना। जबकि सात महीने बीत चुके हैं। बाद में सारी धांधलियों का दोष प्रो. चमड़िया पर मढ़ा गया। कहा गया कि उन्होंने साक्षात्कार के अंकों के साथ छेड़-छाड़ किया है। अगर ऐसा है भी तो वे सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाने चाहिए थे। सिर्फ़ साक्षात्कार ही नहीं, उत्तर-पुस्तिकाओं के विश्वसनीयता को सबके सामने रखा जाये। दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता। प्रो चमड़िया से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा अंक देते वक्त उनसे एक गलती हो गयी थी, गलत को सही करके उन्होंने अपने सुधार पर अपना हस्ताक्षर किया है। वे कहते हैं कि सुधार करना कोई अपराध नहीं हो सकता है। अगर विश्वविद्यालय इसे गलती मान ही रहा था तो फिर उसने परीक्षा परिणाम ही क्यों प्रकाशित किया।बाद में आयोजित परीक्षा में तो सचमुच योजनाबद्ध तरीके से उच्चाधिकारियों ने धांधली की।पूरी परीक्षा की प्रक्रिया एक व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी रही और परीक्षा परिणाम के वक्त पीएचडी के लिए निर्धारित सीटों की संख्या दस से तेरह कर दी गई।साक्षात्कार के पैनल में अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कोई पर्यवेक्षक नहीं था जोकि नियमत अनिवार्य है।
बहरहाल इससे अधिक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि केवल राष्ट्रपति द्वारा कार्य-परिषद के लिए नियुक्त सदस्यों को ही पूरी कार्य-परिषद करार देने के बाद उनकी आनन-फानन में बैठक बुलायी गई और अनिल चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ तथा उनके साथ किये गये बाकी ग्यारह नियुक्त्तियों को स्वीकृत करवाया गया। इस पर कुलपति ने कहा कि कार्य-परिषद के सभी सदस्य तुले हुए थे कि अनिल चमड़िया की नियुक्ति खारिज़ हो। सदस्यों ने कहा कि यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वे प्रोफ़ेसर के लिए निर्धारित योग्यता पूरी नहीं करते हैं। इस संदर्भ में कार्य-परिषद सदस्या मृणाल पाण्डेय ने बताया कि कुलपति राय ने पहले ही हमें आगाह कर दिया था कि न्यायालय में विश्वविद्यालय प्रशासन ने चमड़िया जी की नियुक्ति को बतौर गलती स्वीकार किया है कानूनी फजीहत से बचने के लिए चमड़िया जी की नियुक्ति खारिज़ की गई। एक और सदस्य प्रो कृष्ण कुमार से पता चला कि कुलपति विभूति जी अनिल चमड़िया की नियुक्ति को निरस्त करने के प्रस्ताव के साथ बैठक में आये थे। कृष्ण कुमार ने बातचीत में कई बार ज़ोर देते हुए कहा कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र लिख कर यह निर्देशित किया है कि जब तक कार्य-परिषद की बैठक के मिनट्स पर उनके संस्तुतियाँ नहीं जाती, प्रशासन कोई भी निर्णय लागू नहीं कर सकता है। और यह कि अब तक संस्तुतियाँ भेजी नहीं गयी हैं। लेकिन ज्ञात हो कि २७ जनवरी के शाम साढ़े सात बजे अनिल चमड़िया को २५ जनवरी को निर्गत उनकी नौकरी छीने जाने का पत्र आवास पर भेजा गया था। यानी कुलपति महोदय ने कार्य-परिषद के सदस्यों के बारे में दुष्प्रचार किया, उनके शैक्षणिक साख पर बट्टा लगाने की कोशिश की और उनकी आधिकारिक संस्तुतियों के बिना निर्णयों को लागू किया, जिनमें अंकित समेत ११ शिक्षकों नियुक्ति को पक्का करना और अनिल चमड़िया को बाहर का रास्ता दिखाना शामिल था। एक और गंभीर मामला भी ध्यान देने योग्य है। कुलपति जी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि अनिल चमड़िया प्रोफ़ेसर पद के लिए निर्धारित योग्यता नहीं रखते हैं। स्क्रूट्नी के वक्त कुलपति से यह गलती हुयी कि उन्हें साक्षात्कर के लिए बुलाया गया। जबकि, विश्वविद्यालय के वेबसाइट और रोज़गार समाचार में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा १९९८ में जारी शैक्षणिक पात्रता के न्यूनतम ज़रूरतों के दिशानिर्देशों के आधार पर कई पदों के लिए आवेदन मँगवाये गये। कालांतर में इन्हीं विज्ञापित पदों पर १२ शिक्षकों की नियुक्ति हुई। आज कुलपति अपनी गलती स्वीकार रहे हैं तो सारी नियुक्तियाँ खारिज होनी चाहिए।
वर्धा परिसर में विभूति की मनमानियों के प्रतिरोध का स्वर मुखर हो गया है। अनिल चमडिया के इस मामले से पूर्व लगभग एक महीने तक परिसर में दलित विद्यार्थियों का आंदोलन चला था। दलित विद्यार्थी अब भी प्रशासन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का बहिष्कार कर रहे हैं। छात्र-छात्राएं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए अपना विरोध कर रहे हैं। ब्लॉग पर विद्यार्थी अनिल चमड़िया के समर्थन और कुलपति के विरोध में टिप्पणियाँ लिखने लगे हैं। नाटक खेले जाने लगे हैं। कविताएं लिखी जाने लगी है। २२ छात्र-छात्राओं ने लिखित तौर पर विभाग छोड़ने की बात कही हैं। प्रो. चमड़िया की नियुक्ति को खारिज़ करने का विरोध लगभग दो सौ विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में ८४ विद्यार्थियों ने अपने दस्तख़त के साथ किया है। यही नहीं, राजेंद्र यादव व अरूंधति राय सरीखे देश के कई बुद्धिजीवियों ने अपने हस्ताक्षर के साथ कुलपति राय के इस कदम की भर्त्सना की है। विश्वविद्यालय में राय का सिंहासन डोलने लगा है।
राय किस्से-कहानियाँ लिखते रहे हैं और प्रकाशक भी उन्हें छापते भी रहे। अब छापने की वज़ह इनके साहित्य की गुणवत्ता थी या प्रकाशकों को मिला सरकारी ख़रीद का आश्वासन, यह तहक़ीकात का विषय हो सकता है। इनका जनसंपर्क हमेशा से ही अचूक रहा, जिसके कारण लोगों के मन में इनकी छवि एक प्रगतिशील व्यक्ति की रही। लेकिन आज विश्वविद्यालय में जिस कार्य-संस्कृति और अकादमिक माहौल के ये जनक हैं, उसके मद्देनज़र विभूतिनारायण राय ने जो जीवन भर प्रशंसाएं अर्जित की हैं, उन पर शक होना स्वभाविक है।

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