मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, सरकार की कई फितूरों में से एक स्त्री-विरोधी योजना है। अव्वल तो कन्यादान राज्य का काम नहीं है। दूसरे, किसी हिन्दू रिवाज के नाम से सभी धर्मों के लिए योजना चलाना अन्य धर्मों के साथ पक्षपात करने की रणनीति लगती है। अप्रैल 2006 से शुरू मध्य प्रदेश सरकार की इस योजना का मकसद राज्य द्वारा निर्धन परिवार की बेटियों की शादी में आर्थिक सहयोग करना बताया जाता है, जबकि लड़कियों और लड़कों के बीच तरक्की की राह में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात होनी चाहिए थी। इस योजना को लागू करके सरकार ने खुले तौर पर यह माना कि लड़कियाँ तो महज दान की एक सामग्री है। ऐसा मानना दरअसल इस सरकार की प्रतिगामी मानसिकता है। स्त्रियों की शिक्षा, व्यवसाय और राजनीति के डगर में सहयोग की आशा पर पानी फेरते हुए सरकार उसे घर की चार-दिवारी में कैद करने की कवायद में लगी है। विकास कार्यक्रमों के बरअक्स लड़कियों की शादी करवाने में सरकार इतनी अधिक वचनबद्ध है कि मार्च 2009 तक 88,460 लड़कियों का मुख्यमंत्री के सौजन्य से दान किया जा चुका था। यह सीधे तौर पर कानूनन शादी भी नहीं है, क्योंकि इस सरकारी प्रक्रिया में अनुदान के लिए जारी आवेदन-प्रपत्र में साफ दिखता है कि आवेदक लड़का या लड़की से अलावा कोई दूसरा व्यक्ति भी हो सकता है। कहना न होगा कि इसमें वर और वधू के बीच सहमति के बिना भी जबरन शादी करवाने की गुंजाइश है। दरअसल यह उस पिछड़े सोच से पनपी साजिश है, जो लड़के-लड़कियों को स्वयं अपने जीवनसाथी चुनने की आजादी से महरूम रखती है। दहेज को जिस देश में कानूनों के मार्फत गुनाह का दर्जा दिया जा चुका था। हैरानी की बात है कि उसी देश में सरकारी हाथों से इस कुरीति को हवा देकर मध्य प्रदेश सरकार ने अपनी सभ्यता को बहुत पीछे ढकेला है। योजना के तहत नये जोड़ों को घर बसाने के लिए दहेज की तर्ज पर उपहार दिये जाते हैं, क्योंकि सरकार का मानना है कि पैसे के अभाव से ही गरीब परिवार की बेटियों की शादी में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं। अगर सरकार के मंसूबे सही होते तो होना यह चाहिए था, कि जन जागृति कार्यक्रमों और शिक्षा के जरिए विवाह को स्त्री-पुरुष की आपसी समझ से जोड़े जाने वाले एक रिश्ते में तब्दील किया जाता। लेकिन सरकार ने अपनी सामंती सोच का परिचय देते हुए सरकारी खर्च से दहेज की इस मनहूस व्यवस्था को बरकरार रखा। हर कन्या के दान में लगभग छ हजार रुपये खर्च किए जाते हैं, जिसमें से एक हजार रुपये "आयोजको" को दिया जाता है। हो सकता है कि शायद इन आयोजकों के साथ सरकारी मशीनरी की कुछ साँठ-गाँठ हो। जनवरी 2009 से लड़के-लड़कियों को दी जाने वाली पाँच हजार की राशि बढ़ाकर साढ़े छ हजार कर दी गयी है। इस गोरखधंधे में सरकार ने जनता के खजाने से 25 करोड़ रुपये तक को फूँकने के लिए आवंटित कर रखा है। पूरे प्रकरण में एक गंभीर मसला यह है कि राज्य सरकार इन कमजर्फ कामों को बेधड़क होकर, महिला सशक्तीकरण, जनजागृति और समाज कल्याण का नाम पर करती है।
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 12 अगस्त 2009
चौहान की स्त्री विरोधी राजनीति
मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, सरकार की कई फितूरों में से एक स्त्री-विरोधी योजना है। अव्वल तो कन्यादान राज्य का काम नहीं है। दूसरे, किसी हिन्दू रिवाज के नाम से सभी धर्मों के लिए योजना चलाना अन्य धर्मों के साथ पक्षपात करने की रणनीति लगती है। अप्रैल 2006 से शुरू मध्य प्रदेश सरकार की इस योजना का मकसद राज्य द्वारा निर्धन परिवार की बेटियों की शादी में आर्थिक सहयोग करना बताया जाता है, जबकि लड़कियों और लड़कों के बीच तरक्की की राह में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात होनी चाहिए थी। इस योजना को लागू करके सरकार ने खुले तौर पर यह माना कि लड़कियाँ तो महज दान की एक सामग्री है। ऐसा मानना दरअसल इस सरकार की प्रतिगामी मानसिकता है। स्त्रियों की शिक्षा, व्यवसाय और राजनीति के डगर में सहयोग की आशा पर पानी फेरते हुए सरकार उसे घर की चार-दिवारी में कैद करने की कवायद में लगी है। विकास कार्यक्रमों के बरअक्स लड़कियों की शादी करवाने में सरकार इतनी अधिक वचनबद्ध है कि मार्च 2009 तक 88,460 लड़कियों का मुख्यमंत्री के सौजन्य से दान किया जा चुका था। यह सीधे तौर पर कानूनन शादी भी नहीं है, क्योंकि इस सरकारी प्रक्रिया में अनुदान के लिए जारी आवेदन-प्रपत्र में साफ दिखता है कि आवेदक लड़का या लड़की से अलावा कोई दूसरा व्यक्ति भी हो सकता है। कहना न होगा कि इसमें वर और वधू के बीच सहमति के बिना भी जबरन शादी करवाने की गुंजाइश है। दरअसल यह उस पिछड़े सोच से पनपी साजिश है, जो लड़के-लड़कियों को स्वयं अपने जीवनसाथी चुनने की आजादी से महरूम रखती है। दहेज को जिस देश में कानूनों के मार्फत गुनाह का दर्जा दिया जा चुका था। हैरानी की बात है कि उसी देश में सरकारी हाथों से इस कुरीति को हवा देकर मध्य प्रदेश सरकार ने अपनी सभ्यता को बहुत पीछे ढकेला है। योजना के तहत नये जोड़ों को घर बसाने के लिए दहेज की तर्ज पर उपहार दिये जाते हैं, क्योंकि सरकार का मानना है कि पैसे के अभाव से ही गरीब परिवार की बेटियों की शादी में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं। अगर सरकार के मंसूबे सही होते तो होना यह चाहिए था, कि जन जागृति कार्यक्रमों और शिक्षा के जरिए विवाह को स्त्री-पुरुष की आपसी समझ से जोड़े जाने वाले एक रिश्ते में तब्दील किया जाता। लेकिन सरकार ने अपनी सामंती सोच का परिचय देते हुए सरकारी खर्च से दहेज की इस मनहूस व्यवस्था को बरकरार रखा। हर कन्या के दान में लगभग छ हजार रुपये खर्च किए जाते हैं, जिसमें से एक हजार रुपये "आयोजको" को दिया जाता है। हो सकता है कि शायद इन आयोजकों के साथ सरकारी मशीनरी की कुछ साँठ-गाँठ हो। जनवरी 2009 से लड़के-लड़कियों को दी जाने वाली पाँच हजार की राशि बढ़ाकर साढ़े छ हजार कर दी गयी है। इस गोरखधंधे में सरकार ने जनता के खजाने से 25 करोड़ रुपये तक को फूँकने के लिए आवंटित कर रखा है। पूरे प्रकरण में एक गंभीर मसला यह है कि राज्य सरकार इन कमजर्फ कामों को बेधड़क होकर, महिला सशक्तीकरण, जनजागृति और समाज कल्याण का नाम पर करती है।
सोमवार, 10 अगस्त 2009
13.81 फीसदी मीडियाकर्मी मधुमेह से पीड़ित: सर्वेक्षण
मीडियाकर्मी यूं तो काम के तनाव के चलते कई तरह की बीमारियों का सामना कर रहे हैं लेकिन मीडिया क्षेत्र में सर्वाधिक रोगी हड्डी एवं रीढ़ तथा मधुमेह से संबंधित समस्याओं के हैं. यदि पत्रकारों को लेकर किए गए एक अध्ययन पर गौर करें तो 14.34 प्रतिशत पत्रकारों को हड्डी एवं रीढ़ में तकलीफ का सामना करना पड़ रहा है जबकि 13.81 फीसदी मीडियाकर्मी मधुमेह से पीड़ित हैं.
मीडिया स्टडीज ग्रुप ने पत्रकारों की कार्य स्थिति तथा जीवन स्तर का पता लगाने के उद्देश्य से 13 जुलाई 2008 से 13 जून 2009 के बीच एक सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण के अनुसार 13.50 प्रतिशत मीडियाकर्मी हृदय एवं रक्तचाप संबंधी रोगों से पीड़ित हैं जबकि दंत रोग से पीड़ित मीडियाकर्मियों की संख्या 11.39 फीसदी है. वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया और शोधार्थी देवाशीष प्रसून की टीम द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है कि 13.08 प्रतिशत मीडियाकर्मी उदर रोगों से पीड़ित हैं. 11.81 फीसदी नेत्र रोग तथा 2.10 प्रतिशत मीडियावाले कमजोरी थकान और सिरदर्द जैसी समस्याओं से परेशान हैं. 48.06 प्रतिशत मीडियाकर्मियों का यह कहना है कि उन्हें उपचार के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है जबकि 51.94 फीसदी मीडियाकर्मियों को इलाज के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता.
सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि 61.27 प्रतिशत मीडियाकर्मियों के खाने पीने का कोई निर्धारित समय नहीं है जबकि 17.61 फीसदी मीडियाकर्मियों ने अपने भोजन का समय निर्धारित कर रखा है. अध्ययन के अनुसार 54.17 प्रतिशत मीडियाकर्मी अपनी नौकरी के मामले में असुरक्षा महसूस करते हैं लेकिन 45.82 प्रतिशत अपनी नौकरी को सुरक्षित मानते हैं. 12.59 फीसदी मीडियाकर्मियों ने अब तक छह या इससे अधिक जगहों पर अपनी सेवाएं दी हैं जबकि 66.43 प्रतिशत मीडियावाले दो से पांच नौकरियां बदल चुके हैं. एक ही संस्थान या संगठन में काम करने वालों का प्रतिशत 28.8 है.
56.25 प्रतिशत मीडियाकर्मी 10 किलोमीटर या इससे अधिक दूरी तय कर अपने कार्यालय पहुंचते हैं जबकि 21.53 फीसदी मीडियाकर्मियों को इसके लिए पांच से दस किलोमीटर तक की दूरी तय करनी पड़ती है. एक से पांच किलोमीटर तक की दूरी तय करने वालों का प्रतिशत 10.06 है जबकि कार्यालय आने के लिए एक से भी कम किलोमीटर की दूरी तय करने वालों का प्रतिशत 4.17 है. 16.32 फीसदी मीडियाकर्मी अपने दफ्तर पहुंचने के लिए सिर्फ मेट्रो का इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि 11.58 फीसदी को मेट्रो के अलावा दूसरे परिवहन साधनों का भी इस्तेमाल करना पड़ता है. कार से दफ्तर पहुंचने वालों का प्रतिशत 13.16 है जबकि 18.42 फीसदी मीडियाकर्मी स्कूटर या मोटरसाइकिल से कार्यालय पहुंचते हैं. 13.68 फीसदी मीडियाकर्मी तिपहिए से दफ्तर पहुंचते हैं जबकि 10 प्रतिशत बस के जरिए कार्यालय पहुंचते हैं.
दिन की पाली में काम करने वाले मीडियाकर्मियों की संख्या 52.35 फीसदी है जबकि 21.76 प्रतिशत शाम के समय काम करते हैं. 14.71 फीसदी मीडियाकर्मियों का काम रात के समय निश्चित होता है और 11.18 फीसदी सुबह की पाली में अपने काम को अंजाम देते हैं. सर्वेक्षण के अनुसार 61.63 फीसदी मीडियाकर्मियों का पसंदीदा क्षेत्र प्रिंट मीडिया है जबकि टेलीविजन 22.09 प्रतिशत की पसंद है. 4.65 प्रतिशत मीडियाकर्मी खुद को किसी समाचार एजेंसी में काम करने का इच्छुक बताते हैं.
54.55 प्रतिशत मीडियाकर्मी अपने काम से संतुष्ट हैं जबकि 45.45 प्रतिशत असंतुष्ट. 65.51 फीसदी मीडियाकर्मियों को प्रतिदिन 8 घंटे से अधिक समय तक काम करना पड़ता है जबकि 23.65 फीसदी ने कहा कि उनसे 8 घंटे ही काम लिया जाता है. 12.84 प्रतिशत मीडियाकर्मियों ने कहा कि उन्हें आठ घंटे से भी कम समय तक काम करना पड़ता है. 71.53 फीसदी मीडियाकर्मियों को एक दिन का साप्ताहिक अवकाश मिलता है और 17.36 प्रतिशत को दो दिन का साप्ताहिक अवकाश मिलता है जबकि 11.11 प्रतिशत मीडियाकर्मी ऐसे हैं जिन्हें कोई अवकाश ही नहीं मिलता. 4.41 प्रतिशत मीडियाकर्मी पिछले पांच साल से अस्वस्थ महसूस कर रहे हैं जबकि 6.62 प्रतिशत की पिछले तीन साल से तबियत अच्छी नहीं है. सर्वेक्षण के लिए पत्रकारों से ई मेल के जरिए सवाल पूछे गए जिन पर प्रतिक्रिया देने वालों में 83.67 प्रतिशत पुरुष तथा 16.33 प्रतिशत महिलाएं हैं.
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
स्त्री-श्रम का राजनीतिक अर्थशास्त्र
दुनिया में कहीं भी, किसी भी समाज में, किसी भी दो या अधिक इंसानों के बीच जितने भी संबंध हमने देखे हैं, हमने पाया है कि उनमें किसी न किसी स्तर पर एक सत्ता-संबंध (रिलेशन ऑफ़ पॉवर) मौज़ूद है। इस सत्ता-संबंध का निर्धारण इंसानों के आपसी उत्पादन संबंधों पर निर्भर करता है। किसी खास माहौल में उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में लाभांवित होने वाले और उस लाभ का मूल्य अपने श्रम से चुकाने वाले के बीच का संबंध उत्पादन संबंध कहलाता है। अगर कोई उत्पादन संबंध ऐसा हो जिसमें उत्पादन की ज़िम्मेवारियाँ और मिलने वाले लाभ के बीच कोई तारतम्यता नहीं हो तो एक असमान और दमनकारी सत्ता-संबंध का पनपना लाज़िमी है। सत्ता-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक भी हो सकते हैं, बशर्ते उत्पादक को अपने उत्पादन में पूरा हक़ मिले और किसी दूसरे के हक़ पर मुँह मारने वाला कोई नहीं हो।
स्त्रियों और पुरूषों के बीच क़ायम विश्वव्यापी सत्ता-संबंध के मूल में स्त्रियों द्वारा किये गये श्रम पर उनके हक़ को नज़रंदाज़ करना है। स्त्रियों का हक़ मार कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने पुरूषों को लाभांवित करने के कई क्रूर तरीके ईजाद किये हैं।
स्त्री-पुरूष असमानता और ज़ेंडर-भेदभाव की जड़ में मूलतः उत्पादन संबंधों का स्त्री-विरोधी होना है। कुल मिलाकर स्त्री-मुक्ति की सारी आकांक्षाएं उत्पादन संबंधों में एक ईमानदार हक़ पाने की है। वस्तुतः इस हक़ के साथ ही स्त्रियाँ स्वस्थ ज़िन्दगी के लिए जरूरी सभी अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हो पायेंगी। इस तरह से अपने इंसान होने के सुखद एहसास का मज़ा लेते हुये एक सम्पूर्ण ज़िन्दगी जीने का यह सपना हर स्त्री देखती है। लेकिन, अफ़सोस कि अब तक यह सपना हक़ीक़त से दूर है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्त्री-श्रम के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की ज़रूरत है।
लिंग आधारित श्रम विभाजन
(Sexual division of labour)
कारखानों, व्यापारों, खेतीबाड़ी या सेवा-क्षेत्र आदि में भी महिलाएं घर से बाहर निकल कर अपनी मेहनत से घर के लिए रोटी कमाती हैं। साथ ही वे देश के विकास के लिए भी पुरूषों के बराबर दिन-रात अपना खून-पसीना एक करती हैं। हमारा समाज इन कामकाजी महिलाओं के श्रम को ही बस संज्ञान में लेता है। हालाँकि, इस मामले में भी समाज का पुरूष वर्चस्व उनके क़ाबिलियत को पुरूष सहकर्मियों के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही मानता है। और इस तरह घर से बाहर निकल कर भी स्त्रियाँ इस असमान सत्ता-संबंध से मुक्त नहीं हो पाती हैं।
लेकिन, स्त्री- श्रम का मसला इससे ज़्यादा व्यापक है। वह महिला जो अपना पूरा जीवन घर में चाहर-दीवारी में गुज़ारने को अभिशप्त है और दिन रात अपने परिवार के उत्थान के लिए खटती है, बात उनके श्रम की भी होनी चाहिए। माँ बनने की अद्भूत क्षमता से लैस स्त्रियाँ सिर्फ़ समाज में इंसानों की नयी पौध को ही नहीं जनती, बल्कि उन्हें अपने देखभाल और परवरिश से सींच कर एक सक्षम मनुष्य बनाती हैं। इस सक्षम मनुष्य का निर्माण ही भविष्य की उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का निरंतर स्रोत बना रहता है। इस प्रक्रिया में उत्पादन और पुनरुत्पादन की पूरी जिम्मेवारी स्त्रियों की ही रहती है। एक नौकरीपेशा स्त्री या पुरूष से कहीं ज़्यादा मेहनत करने वाली इन महिलाओं के लिए हमारा अंधा समाज कहता है - अरे ! मेरी माँ, मेरी बीबी या मेरी बहन कुछ भी तो नहीं करती , वह तो घर में ही रहती है। यहाँ तक की हमारी सरकार भी इन स्त्रियों के श्रम को अनुत्पादक मानती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद नहीं बढ़ता।
और तो और, उन महिलाओं का दुःख कौन जाने, जो घर में भी परंपरागत तरीक़े से सामाजिक पुनरुत्पादन के सभी जिम्मेवारियों को निभाने के साथ-साथ बाहर जा कर रोज़ी-रोटी भी कमाती हैं। आज ऐसी औरतों की एक बढ़ती संख्या है। इनकी तो दुगनी पेड़ाई हो जाती है और तब भी, समाज में अधिकारों और सुविधाओं की बात आये तो उन्हें फिर पीछे ही रहना पड़ता है।
उत्पादन, सामाजिक पुनरुत्पादन एवं इसकी राजनीति
स्त्री-श्रम का उत्पादन की प्रक्रिया में होने वाले योगदान का सूत्रीकरण करें, तो पायेंगे कि स्त्री का श्रम उत्पादन की निम्नलिखित शाखाओं में महत्वपूर्ण योगदान करता है:-
1. उत्पादन: महिलाएं घर से बाहर और घर में जीविका कमाने के लिए श्रम करती है। रोजी-रोटी कमाने के लिए समाज के हर वर्ग से महिलाएं उत्पादन के इस क्षेत्र में पुरूषों से ज्यादा परिश्रम करती हैं। स्त्रियों का ज्यादातर काम अकुशल माना जाता है और अपने कामों को पूरा करने के लिए उन्हें पुरूषों की तुलना में बेतहाशा मेहनत करनी पड़ती है। स्त्रियों के काम को अकुशल मानने के पीछे पुरुषकेन्द्रीयता (Andro-centricity) के तर्क सामने आते हैं।
2. पुनरुत्पादन: महिलाएं जीवन के उत्पादन का काम भी करती हैं। गर्भ में होने वाले शिशु को नौ महीनों तक पालती है। फिर उन्हें एक भीषण प्रसव-पीड़ा सहकर जन्म देती है। और जब तक नवजात अपने पैरों पर खड़ा न हो जाये, तब तक उसकी परवरिश करती हुई स्त्रियाँ मानव जीवन के निरंतर चलते पुनरुत्पादन के इस प्रक्रिया में अपना श्रम खर्च करती हैं। गर्भ-धारण और प्रसव जैसे काम प्राकृतिक रूप स्त्रियों के जिम्मे है। हालांकि पुनरुत्पादन के कुछ ऐसे काम भी हैं, जिन्हे ज़बरन उन पर थोपा गया है, जो पुरुष भी कर सकते हैं, परंतु सामान्यतः करते नहीं। यह काम है, जो जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने वाले काम हैं, गोया – भोजन तैयार करना, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की परवरिश, परिवार में ज़रुरतमंदों की देखभाल और मरम्मत आदि के काम। इन कामों की पुरूषों द्वारा उपेक्षा और स्त्रियों द्वारा इसे करने की मज़बूरी पितृसत्तात्मक सत्ता-संबंध की एक परिणिती मात्र है।
3. दोहरे दिन (double day): स्त्रियाँ बतौर समूह पुरूषों से दोगुना काम करती हैं। इसे हम “दोहरे दिन” की अवधारणा से समझ सकते है, जिसके मुताबिक़ स्त्रियाँ प्रति सप्ताह पुरूषों के मुक़ाबिले उनसे बहुत अधिक घंटे प्रति सप्ताह श्रम करती हैं।
उत्पादन पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण
मानव समाज में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के बीच की दूरी पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाई एक ऐसी दूरी है, जो स्त्रियों को घर की मर्यादा और उससे जुड़ी पारिवारिक निजता के बंधनों में कैद करके उनका निर्बाध रूप से शोषण करने का जरिया रही है। उत्पादन, पुनरुत्पादन और जीवन से संबंधित तमाम विषयों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में बाँटते हुए निजी क्षेत्र पर व्यक्तिगत होने का लेबल लगाने के पीछे की मंशा, निजी क्षेत्र में जबरन कैद की गई, स्त्रियों पर हो रहे ज़ुल्मों को नज़रंदाज़ करना रहा है। एक तो यह तय करना कि स्त्रियाँ निजी कामों में ही व्यस्त रहे और फिर निजी कामों को व्यक्तिगत मान कर किसी भी प्रकार के सामाजिक या राजनैतिक हस्तक्षेप से उन पर हो रही प्रताड़नाओं को दूर रखना स्त्रियों पर हुकुमत करने के लिए पितृसत्ता का एक जालिम तरिका है।
पारंपरिक मूल्यों के साथ विवाह सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा के शक्ल में स्त्री-पराधीनता का एक तरीका है। इसके जरिए पुरूषकेन्द्रित समाज स्त्री के श्रम का लैंगिक विभाजन आसानी से कर पाते हैं। विवाहोपरांत स्त्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घर-गृहस्थी से संबंधित सारे कामकाज संभाले। और इसी तरह से उनके उत्पादकता पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण हो जाता है। साथ ही, विवाह स्त्री की पुनरुत्पादन की क्षमता पर भी नियंत्रण रखता है।
दरअसल इस तरह की क़वायदें ऐसी साज़िशें हैं, जिसमें स्त्रियाँ चुपचाप शोषित होने के लिए मज़बूर हैं। इसलिए अव्वल तो मौज़ूदा स्थिति में स्त्रियों का घेरा ही निजी क्षेत्र के अंतर्गत है तो अपने बारे में उन्हें बात करने के लिए उन्हें निजता कि नकारना होगा और दूसरे कि अपनी ज़ंज़ीरों को तोड़ने के लिए भी यह जरूरी है कि स्त्रियाँ निजता को व्यक्तिगत नहीं मानते हुए उसे एक व्यापक राजनैतिक विषय समझें। "व्यक्तिगत राजनैतिक है" एक ऐसा नारा है, जो स्त्रियों को अपने अधिकारों के वास्ते बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। और सिर्फ़ बोलने के लिए ही नहीं, उन्हें हासिल करने हेतु लड़ने के लिए भी तैयार करता है।
संघर्ष की रणनीति
औरतों को इंसान समझा जाये, एक पूरा इंसान- यह एक आम इंसानी ज़रूरत है और इससे जुड़ी यह बात कि, औरतों को उसके हक़ से महरूम नहीं किया जाये और उसके श्रम का सम्मान हो। इन लक्ष्यों की चाह में अब तक नारीवादियों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने कई अधिकारों को हासिल भी किया। लेकिन, स्त्री-पुरूष उत्पादन संबंध के मूल स्वरूप में किसी बदलाव के नहीं होने से स्त्री-मुक्ति की पुरानी चाहत अभी तक एक चाहत ही है। स्त्री-आंदोलनों में खर्च किये गये एक लम्बे समय और व्यापक ऊर्जा के बावज़ूद यह अपने मूल लक्ष्य को नहीं पा सका है। क्या हैं इसके कारण?
एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन आंदोलनों ने अक्सर तत्कालिक माँगों के लिए हल्ला बोला और अपने जुझारूपन से उन माँगों को भी हासिल किया है। लेकिन, इन उपक्रमों में कहीं न कहीं स्त्रियों के हक़ में उत्पादन संबंधों के बदलाव का अहम लक्ष्य पीछे छूटता रहा। दरअसल जिन ताक़तों के पास सत्ता है वे खुद यह तय करती है कि जिन पर उनका शासन है, उन लोगों की माँगों की हद कहाँ तक हो। इसका मतलब यह कि सत्ता-प्रतिष्ठान जितना छूट देगा, आपका आंदोलन भी उसी सीमा में रहेगा। और अगर कोई इन सीमाओं को लांघने की जुर्रत करता है तो उसे कुचल दिया जायेगा। सरकारों और सरकार समर्थित संस्थानों के अनुदानों द्वारा वित्त-पोषित ग़ैर-सरकारी संगठन (एन जी ओ) स्त्रियों के हक़ में काम करने वाली ऐसी संस्थाएं हैं जो सत्ता-प्रतिष्ठानों से ही अपने विचार और अपने संघर्षों की सीमा अर्जित करती है। आज स्त्री-अस्मिता और स्त्री-मुक्ति का बीड़ा उठाये ऐसी ही संस्थाएं बहुतायत में दिखती हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिदृश्य में बहुत सारे पैसों की भूमिका भी रहती है। स्त्री-मुक्ति के हक़ में इन संघर्ष के ठेकेदारों से बचने की ज़रूरत है। दूरगामी परिणाम के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-आंदोलन अपने लक्ष्य खुद तय करे और किसी भटकाव के बिना अपने ज़िन्दगी को मुकम्मल इंसानी शक्ल देने के लिए एक जायज़ उत्पादन संबंध का निर्माण हो।
इसके के लिए ज़ेंडर के उन उन मानकों को ध्वस्त करना ज़रूरी है, जो किसी खास बर्ताव को औरतों के लिए मुनासिब नहीं मानता, लेकिन मर्दों के लिए इसे जायज़ समझता है। इस तरह के भेदभाव की संरचना असमान सत्ता-संबंध से प्रेरित होती है। असमान सत्ता-संबंध का विकल्प लोकतांत्रिक संबंध है। समाज में लोकतांत्रिक संबंधों का विकास ही असमान और दमनकारी सत्ता-संबंधों को नष्ट करके सही अर्थ में एक मानवीय जीवन की आकांक्षा को तृप्त कर सकता है। सामाजिक मूल्यों में समता, संवेदनशीलता और दूसरों का ख़याल रखने की इच्छा के जन्म से ही लोकतांत्रिक संबंधों का विकास संभव है।
इन सभी सामाजिक मूल्यों के लिए अगर एक शब्द का इस्तेमाल करना हो तो यह कहा जायेगा कि समाज में प्रेम का होना सत्ता-संबंधों के लोकतांत्रिक होने के लिए ज़रूरी है। हमारा समाज एक प्रेम-विरोधी समाज है और यह हर प्रकार की असमताओं का कारण भी है। सामाजिक मूल्य परिवार और समाज द्वारा दिये जाने वाले संस्कारों और शिक्षा के जरिये लोगों के ज़हन में आता है। समाज ने अपने संस्कारों से प्रेम को एक संकुचित अर्थ में व्याख्यायित किया है। इस बात को अनदेखा किया गया है कि प्रेम ऐसा भाव है जो अपने मूल स्वरूप में पूरे मानवता या प्रकृति के प्रति होता है। कभी भी, किसी व्यक्ति विशेष से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम हो सकता है। लेकिन, यह संभव है कि एक व्यक्ति पूरी मानवता से प्रेम करे और कोई इंसान उसके समग्र प्रेम का प्रतिनिधित्व मात्र करता हो। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति-विशेष प्रेम का लक्ष्य नहीं, अपितु प्रेम का माध्यम होता है। बहरहाल, अपने साथ ही दूसरों के विकास के प्रति निःस्वार्थ समर्पण -- प्रेम का अपने मूल स्वरूप में एक ऐसा स्वभाव है, जो उस लोकतांत्रिक माहौल का नियंता बनता है जो सभी प्रकार के दमनकारी सत्ता-संबंधों को नेस्तोनाबूद कर सकता है। इस तरह से एक न्यायपूर्ण उत्पादन संबंध को क़ायम कर स्त्री-मुक्ति की आकांक्षाओं को हासिल करने की राह पर चला जा सकता है।
संदर्भ-सूची
सेन, प्रो. इलीना, क्लासरूम नोट्स
पटेल, प्रो. विभूति, क्लासरूम नोट्स
आर्य, साधना, मेनन, निवेदिता, लोकनीता, जिनी(संपादित)(2001) नारीवादी राजनीति संघर्ष एवं मुद्दे, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय: नयी दिल्ली
बोउवार, सीमोन द, स्त्री:उपेक्षिता (The Second Sex), (अनुवाद: डॉ. प्रभा खेतान)(2002), हिन्द पॉकेट बुक्स: दिल्ली
लोकतांत्रिक चेतना वैकल्पिक राजनीति का सूत्र है
हमें बताया जाता है और हम यह मानते भी हैं कि १५ अगस्त १९४७ को हमारा देश आज़ाद हुआ और २६ जनवरी १९५० को इसे एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया। हालांकि, फिर बाद में गणतांत्रिक मूल्यों का दायरा बढ़ाते हुए संविधान(४२वें संशोधन)अधिनियम, १९७६ की धारा २ के मुताबिक़ संविधान की प्रस्तावना में सुधार करते हुए ३ जनवरी १९७७ से भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र का भी दर्ज़ा मिल गया था। पूरी सत्ता संरचना और इसका पूरा तंत्र देश की जनता को हर साल इन बातों की याद दिलाते हुए उत्सव मनाता है। हालाँकि, लोकतंत्र कोई एक दिन में हासिल की जाने वाली वस्तु नहीं; एक लम्बी सांस्कृतिक क्रांति से आयी जनचेतना है और इसे पाने के किसी भी प्रयत्न के बिना भी सत्ता तंत्र बड़े ज़ोर के साथ यह कहता भी है कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं।
जिस देश की आबादी के पांचवे हिस्से को पेट भर खाना नसीब नहीं होता हो और ५ साल से कम उम्र के लगभग ४८ प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। जहाँ धार्मिक वैमनस्यता के दंगों में सैकड़ों लोग यूँ ही मारे जाते हैं और जिसमें हमने यह भी देखा है कि सरकारों की इसके प्रति भूमिका संदिग्ध रही है (संदर्भ: दिल्ली के सिख विरोधी और गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगे)। जहाँ की संप्रभु सरकार विकास के नाम पर हज़ारों लोगों को बेघर करने और अगर विरोध हो तो किसी कठोरतम कार्यवाही से हिचकती नहीं, बल्कि इसे सही ठहराती है। संविधान के तमाम आदर्शों को ठेंगा दिखाते हुए जहाँ विकास का एजेंडा करोड़ों आमजन के हितों का सौदा कर मुट्ठी भर पूँजीपतियों का विकास हो। इस तरह की तमाम परिस्थितियों से तबाह, इस देश की भुक्त-भोगी आम जनता से आज़ादी और गणतंत्र के आडंबर पर उत्सव मनाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
इंसानियत के हक़ में कुछ ऐसे ज़मीनी बदलाव जरूरी हैं, जिनके लिए समय-समय पर दुनिया में क्रांतियाँ हुई हैं। भारत में इन्हीं बदलावों के लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन आज़ाद हो जाने के भ्रम के साठ साल बाद भी लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका। यह आज़ादी एक भ्रम इसलिए है, क्योंकि शासक चुनने की प्रक्रिया में आये बदलाव के अलावा सारी शासन व्यवस्था और संरचना जस की तस ही है, बस हुआ इतना कि विदेशी व्यापारियों को हटाकर देशी व्यापारियों ने देश की सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया। जहाँ पहले राजसत्ता अंग्रेज़ी हुक्मरानों की पैरोकार थी, वो अब देश के चंद वर्चस्वशाली लोगों के हित में खड़ी हो गयी और इंतहा यह कि आम जनता अपनी तक़लीफ़ों से निजात पाने के लिए अब तक मुँह ही ताक रही है। दरअसल सन '४७ के इस सत्ता हस्तांतरण को आज़ादी के लिए जागरुक और संघर्षशील एक व्यापक जनता के आंदोलन को देशी पूँजीपतियों के हक़ में डिफ़्यूज़ करने की एक युक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है। और उन ज़मीनी बदलावों, जिसके सपने लोगों ने देखे थे, उनकी कमी आज भी देश की आम, मेहनतकश और ईमानदार जनता के दिल को आज़ाद और गणतंत्र देश के आवाम होने के गर्व से झूमा नहीं पाती, अलबत्ता वे देशभक्त होने के नाते सिर झुका कर राष्ट्रगान जरूर गाते हैं।
हमारे देश में आज़ादी की एक लम्बी लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन इस लड़ाई का मुद्दा विकास कभी नहीं था। विकास नामक शब्द तो विश्व राजनीति में द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त और संयुक्त राष्ट्र के उदय के साथ प्रकट हुआ। और अंगेज़ी सरकार तो कर ही रही थी वो विकास, जिसके लिए आज़ादी के बाद से ही हमारी सरकारों ने सारे प्रयत्न किए। अंगेज़ों ने सड़के बनवायी, रेलगाड़ियाँ चलवायी, बड़े स्तर पर शहरीकरण किया और कलर्क (उस समय के प्रोफ़ेशनल्स) तैयार करने के लिए कई ज़िला स्कूलों का निर्माण भी किया। लेकिन ये वो लक्ष्य नहीं थे, जिन्हें पाने की तड़प में आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी।
तो आज़ादी के लक्ष्य क्या हैं? और ये जरूरी बदलाव क्या हैं? ये हर एक इंसान के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीने के माहौल बनाने के लिए जरुरी बदलाव हैं। ये लोगों के बीच समतामूलक स्थिति को क़ायम करने के लिए बदलाव हैं। ये सामाजिक-सांस्कॄतिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाये रखने के लिए बदलाव हैं। कुल मिलाकर यह मानव व्यवहार और शासन व्यवस्था में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए वांछित बदलाव हैं। हालांकि, संविधान ने वो सारे आदर्श स्वतंत्र भारत की जनता के सामने प्रस्तुत किये जिसकी कामना में हज़ारों शहीदों ने रक्त से अपने लोगों के लिए आज़ादी का मूल्य चुकाया था। लेकिन, भ्रष्टाचार नामक सामाजिक कोढ़ ने भारतीय आम-जन के सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया। मौज़ूदा व्यवस्था में कोई खास वर्ग भ्रष्ट हो, ऐसा कहना मुश्किल है। अमूमन जो जहाँ है, वहीं भ्रष्ट है। दरअसल ब्रिटिश साम्राज्य से विरासत में मिली यह व्यवस्था ही भ्रष्ट है और हमने बाइज़्ज़त इसे बचाया ही नहीं, बल्कि और अधिक भ्रष्ट बनाया है।
इस भ्रष्ट व्यवस्था में परिवर्तन और एक लोकतांत्रिक मूल्यों से ओतप्रोत व्यवस्था को गढ़ने के लिए वर्तमान व्यवस्था के सामाजिक-सांस्कॄतिक-आर्थिक-राजनीतिक हर एक गह को दुरुस्त करने की जरूरत है। इससे पहले, यह पड़ताल करने की जरूरत है कि लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलाव को हासिल करने में आने वाले चुनौतियाँ क्या हैं और इनसे कैसे निबटा जाए।
विश्व ने अब तक कई तरह की राजनीतिक व्यवस्था देखी है। परंतु आम-जन के एक खुशहाल जीवन की आकांक्षा को इन सभी ने निराश किया है। क्या कारण है कि लोकतंत्र के स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व जैसे महान आदर्शों पर खड़ी हुयी यूरोप और अमरीका की पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था अपनी उदारता को मानव जीवन के समतामूलक उत्थान के उद्देश्यों से भटका कर पूँजी के वैश्विक विस्तार और मुनाफ़ाखोरी के सभी हथकंडों की छूट के रूप में परिभाषित करती है? और इस व्यवस्था ने कई बार सम्पूर्ण मानवता को युद्धों के रूप में अपना क्रूरतम चेहरा दिखाया है। दूसरी ओर, दुनिया ने सोवियत रूस और चीन के जरिये साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था का भी अनुभव किया है। हमें देखना होगा कि क्यों सामाजिक जीवन के विकास की इतनी सटीक, वैज्ञानिक और जनवादी अवधारणा को ध्यान में रखकर मानवीय जीवन के उच्चों आदर्शों को हासिल करने के उपरान्त भी यह व्यवस्था प्रतिक्रांति का प्रतिरोध करने की लाचारी में इंसानियत को दीर्घकालिक लाभ पहुँचाने में विफल रही? इन प्रश्नों के उत्तर किसी राजनीतिक व्यवस्था के दर्शन से इतर उसके व्यवहारों की महत्ता की ओर इशारा करते हैं।
डॉ आम्बेडकर के नेतृत्व में भारतीय संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए किया गया। मौलिक अधिकारों की एक फ़ेहरिस्त और लोक कल्याण की ओर उन्मुख नीति निर्देशक तत्व की मौज़ूदगी में यह लाज़िमी लग रहा था देश की व्यवस्था को सही अर्थ में एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र का स्वरूप दिया जा सकेगा। संविधान सभा के तमाम कोशिशों के बावज़ूद जन-सामान्य के लिए संविधान को अमल में लाना उन लोगों की जिम्मेवारी रही जो समय समय पर सत्ता या उसके तंत्र के अंग बनते रहे। अफ़सोस यह कि हम ग्वाह है तमाम राजनीतिक पार्टियों की वायदाख़िलाफ़ी के और हमने महसूस किया है लोकतंत्र का घटता दायरा। विकास के नाम पर वैश्विक पूँजी की साम्राज्यवादी एजेंट बनी सरकारों ने जहाँ एक तरफ़ कोर्पोरेट जगत को प्राकृतिक संसाधनों की अंधी लूट के लिए छुट्टा छोड़ रखा है, वहीं सिंगूर और नंदीग्राम जैसी स्थितियों में अपने ज़मीन और सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले किसानों के प्रति सरकार की असहिष्णुता दंग करने वाली है। सरकारों ने सबसे ज़्यादा ज़्यादती जनता के लोकतांत्रिक हुक़ूक पर की है। पिछले साल हमने देखा किस तरह सरकार ने नाभिकीय ऊर्जा के मामले में लोकतंत्र को सांसदों की संख्या का एक वाहियात खेल बना कर इस संधि के विरूद्ध आवाम की एक बहुत ऊँची आवाज़ को शांत किया। लोकतंत्र को वोट के जरिए सिर्फ़ अपना शासक चुनने की व्यवस्था तक सीमित करने की इस साज़िश का पर्दाफ़ाश हुआ है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियाँ बदलने से भी अब शासन व्यवस्था की आर्थिक और विदेश नीतियों में कोई ज़मीनी बदलाव नहीं दिखता। इस साज़िश ने व्यवस्था में बदलाव के सारे स्कोप को ख़त्म किया है। लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलाव की पुरानी माँग को अब भी नज़रंदाज़ किया जा रहा है। साथ ही, किसी बेहतर वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के सारे बहस को जबरन डिफ़्यूज़ करने का काम भी किया गया है।
इन तमाम चुनौतियों से निबटने के लिए जरूरी है कि वर्तमान व्यवस्था की सर्वोच्च शक्ति संविधान के जरिए जो अधिकार हमें मिले हैं उनके प्रति हम जागरूक रहे। आज अगर कोई नयी व्यवस्था बनानी है तो यह ध्यान रखना होगा कि देश में लोकतांत्रिक स्पेस को किस तरह बरक़्ररार रखा जाये। हमेशा संघर्षशील रहना होगा कि संविधान द्वारा दिये अधिकारों पर अपनी मनमानी व्याख्या से सत्ता-वर्ग लोकतांत्रिक मूल्यों पर कोई चोट न कर पाये। भारत के तमाम नागरिकों को समतामूलक समाज में आस्था बरक़्ररार रखने के लिए अपनी कथनी और करनी में लोकतांत्रिक व्यवहारों का अभ्यास करने कि प्रेरणा मिलनी चाहिए। इन व्यवहारों का पालन आपसी संबंधों से लेकर परिवार, समाज और देश तक हर स्तर पर होना चाहिए।
जन सामान्य की चेतना का सकारात्मक विकास करना ही वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में जरूरी बदलाव लायेगा या एक वैकल्पिक राजनीतिक का बीज बोयेगा। चेतना का ऐसा विकास जो इंसानों के बीच हमेशा बेहतर व्यवस्था के लिए ऐसा स्पेस बनाये रखे, जिसमें सारे सत्ता-संबंध और उत्पादन-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक हो। समाज में जनवादी चेतना के जागरण के लिए जरूरी है एक ऐसी क्रांति जो भारत के जनमानस पर लगातार अपने सांस्कॄतिक असर के जरिए लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलावों को प्रोत्साहित करता रहे। एक सचेत और चिंतनशील समाज, जो वैज्ञानिक व तार्किक कसौटी पर अपने फैसले लेता है और इस मुताबिक़ मानवीय व्यवहार करता है, वो हमेशा अपने राजनीतिक व्यवस्था को प्रगतिशील बनाए रखेगा। अगर जनता की चेतना का इस तरह से लोकतांत्रिक विकास हुआ तो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का विकल्प ख़ुद-ब-ख़ुद तैयार हो जायेगा।