- देवाशीष प्रसून
हमें बताया जाता है और हम यह मानते भी हैं कि १५ अगस्त १९४७ को हमारा देश आज़ाद हुआ और २६ जनवरी १९५० को इसे एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया। हालांकि, फिर बाद में गणतांत्रिक मूल्यों का दायरा बढ़ाते हुए संविधान(४२वें संशोधन)अधिनियम, १९७६ की धारा २ के मुताबिक़ संविधान की प्रस्तावना में सुधार करते हुए ३ जनवरी १९७७ से भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र का भी दर्ज़ा मिल गया था। पूरी सत्ता संरचना और इसका पूरा तंत्र देश की जनता को हर साल इन बातों की याद दिलाते हुए उत्सव मनाता है। हालाँकि, लोकतंत्र कोई एक दिन में हासिल की जाने वाली वस्तु नहीं; एक लम्बी सांस्कृतिक क्रांति से आयी जनचेतना है और इसे पाने के किसी भी प्रयत्न के बिना भी सत्ता तंत्र बड़े ज़ोर के साथ यह कहता भी है कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं।
जिस देश की आबादी के पांचवे हिस्से को पेट भर खाना नसीब नहीं होता हो और ५ साल से कम उम्र के लगभग ४८ प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। जहाँ धार्मिक वैमनस्यता के दंगों में सैकड़ों लोग यूँ ही मारे जाते हैं और जिसमें हमने यह भी देखा है कि सरकारों की इसके प्रति भूमिका संदिग्ध रही है (संदर्भ: दिल्ली के सिख विरोधी और गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगे)। जहाँ की संप्रभु सरकार विकास के नाम पर हज़ारों लोगों को बेघर करने और अगर विरोध हो तो किसी कठोरतम कार्यवाही से हिचकती नहीं, बल्कि इसे सही ठहराती है। संविधान के तमाम आदर्शों को ठेंगा दिखाते हुए जहाँ विकास का एजेंडा करोड़ों आमजन के हितों का सौदा कर मुट्ठी भर पूँजीपतियों का विकास हो। इस तरह की तमाम परिस्थितियों से तबाह, इस देश की भुक्त-भोगी आम जनता से आज़ादी और गणतंत्र के आडंबर पर उत्सव मनाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
इंसानियत के हक़ में कुछ ऐसे ज़मीनी बदलाव जरूरी हैं, जिनके लिए समय-समय पर दुनिया में क्रांतियाँ हुई हैं। भारत में इन्हीं बदलावों के लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन आज़ाद हो जाने के भ्रम के साठ साल बाद भी लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका। यह आज़ादी एक भ्रम इसलिए है, क्योंकि शासक चुनने की प्रक्रिया में आये बदलाव के अलावा सारी शासन व्यवस्था और संरचना जस की तस ही है, बस हुआ इतना कि विदेशी व्यापारियों को हटाकर देशी व्यापारियों ने देश की सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया। जहाँ पहले राजसत्ता अंग्रेज़ी हुक्मरानों की पैरोकार थी, वो अब देश के चंद वर्चस्वशाली लोगों के हित में खड़ी हो गयी और इंतहा यह कि आम जनता अपनी तक़लीफ़ों से निजात पाने के लिए अब तक मुँह ही ताक रही है। दरअसल सन '४७ के इस सत्ता हस्तांतरण को आज़ादी के लिए जागरुक और संघर्षशील एक व्यापक जनता के आंदोलन को देशी पूँजीपतियों के हक़ में डिफ़्यूज़ करने की एक युक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है। और उन ज़मीनी बदलावों, जिसके सपने लोगों ने देखे थे, उनकी कमी आज भी देश की आम, मेहनतकश और ईमानदार जनता के दिल को आज़ाद और गणतंत्र देश के आवाम होने के गर्व से झूमा नहीं पाती, अलबत्ता वे देशभक्त होने के नाते सिर झुका कर राष्ट्रगान जरूर गाते हैं।
हमारे देश में आज़ादी की एक लम्बी लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन इस लड़ाई का मुद्दा विकास कभी नहीं था। विकास नामक शब्द तो विश्व राजनीति में द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त और संयुक्त राष्ट्र के उदय के साथ प्रकट हुआ। और अंगेज़ी सरकार तो कर ही रही थी वो विकास, जिसके लिए आज़ादी के बाद से ही हमारी सरकारों ने सारे प्रयत्न किए। अंगेज़ों ने सड़के बनवायी, रेलगाड़ियाँ चलवायी, बड़े स्तर पर शहरीकरण किया और कलर्क (उस समय के प्रोफ़ेशनल्स) तैयार करने के लिए कई ज़िला स्कूलों का निर्माण भी किया। लेकिन ये वो लक्ष्य नहीं थे, जिन्हें पाने की तड़प में आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी।
तो आज़ादी के लक्ष्य क्या हैं? और ये जरूरी बदलाव क्या हैं? ये हर एक इंसान के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीने के माहौल बनाने के लिए जरुरी बदलाव हैं। ये लोगों के बीच समतामूलक स्थिति को क़ायम करने के लिए बदलाव हैं। ये सामाजिक-सांस्कॄतिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाये रखने के लिए बदलाव हैं। कुल मिलाकर यह मानव व्यवहार और शासन व्यवस्था में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए वांछित बदलाव हैं। हालांकि, संविधान ने वो सारे आदर्श स्वतंत्र भारत की जनता के सामने प्रस्तुत किये जिसकी कामना में हज़ारों शहीदों ने रक्त से अपने लोगों के लिए आज़ादी का मूल्य चुकाया था। लेकिन, भ्रष्टाचार नामक सामाजिक कोढ़ ने भारतीय आम-जन के सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया। मौज़ूदा व्यवस्था में कोई खास वर्ग भ्रष्ट हो, ऐसा कहना मुश्किल है। अमूमन जो जहाँ है, वहीं भ्रष्ट है। दरअसल ब्रिटिश साम्राज्य से विरासत में मिली यह व्यवस्था ही भ्रष्ट है और हमने बाइज़्ज़त इसे बचाया ही नहीं, बल्कि और अधिक भ्रष्ट बनाया है।
इस भ्रष्ट व्यवस्था में परिवर्तन और एक लोकतांत्रिक मूल्यों से ओतप्रोत व्यवस्था को गढ़ने के लिए वर्तमान व्यवस्था के सामाजिक-सांस्कॄतिक-आर्थिक-राजनीतिक हर एक गह को दुरुस्त करने की जरूरत है। इससे पहले, यह पड़ताल करने की जरूरत है कि लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलाव को हासिल करने में आने वाले चुनौतियाँ क्या हैं और इनसे कैसे निबटा जाए।
विश्व ने अब तक कई तरह की राजनीतिक व्यवस्था देखी है। परंतु आम-जन के एक खुशहाल जीवन की आकांक्षा को इन सभी ने निराश किया है। क्या कारण है कि लोकतंत्र के स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व जैसे महान आदर्शों पर खड़ी हुयी यूरोप और अमरीका की पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था अपनी उदारता को मानव जीवन के समतामूलक उत्थान के उद्देश्यों से भटका कर पूँजी के वैश्विक विस्तार और मुनाफ़ाखोरी के सभी हथकंडों की छूट के रूप में परिभाषित करती है? और इस व्यवस्था ने कई बार सम्पूर्ण मानवता को युद्धों के रूप में अपना क्रूरतम चेहरा दिखाया है। दूसरी ओर, दुनिया ने सोवियत रूस और चीन के जरिये साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था का भी अनुभव किया है। हमें देखना होगा कि क्यों सामाजिक जीवन के विकास की इतनी सटीक, वैज्ञानिक और जनवादी अवधारणा को ध्यान में रखकर मानवीय जीवन के उच्चों आदर्शों को हासिल करने के उपरान्त भी यह व्यवस्था प्रतिक्रांति का प्रतिरोध करने की लाचारी में इंसानियत को दीर्घकालिक लाभ पहुँचाने में विफल रही? इन प्रश्नों के उत्तर किसी राजनीतिक व्यवस्था के दर्शन से इतर उसके व्यवहारों की महत्ता की ओर इशारा करते हैं।
डॉ आम्बेडकर के नेतृत्व में भारतीय संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए किया गया। मौलिक अधिकारों की एक फ़ेहरिस्त और लोक कल्याण की ओर उन्मुख नीति निर्देशक तत्व की मौज़ूदगी में यह लाज़िमी लग रहा था देश की व्यवस्था को सही अर्थ में एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र का स्वरूप दिया जा सकेगा। संविधान सभा के तमाम कोशिशों के बावज़ूद जन-सामान्य के लिए संविधान को अमल में लाना उन लोगों की जिम्मेवारी रही जो समय समय पर सत्ता या उसके तंत्र के अंग बनते रहे। अफ़सोस यह कि हम ग्वाह है तमाम राजनीतिक पार्टियों की वायदाख़िलाफ़ी के और हमने महसूस किया है लोकतंत्र का घटता दायरा। विकास के नाम पर वैश्विक पूँजी की साम्राज्यवादी एजेंट बनी सरकारों ने जहाँ एक तरफ़ कोर्पोरेट जगत को प्राकृतिक संसाधनों की अंधी लूट के लिए छुट्टा छोड़ रखा है, वहीं सिंगूर और नंदीग्राम जैसी स्थितियों में अपने ज़मीन और सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले किसानों के प्रति सरकार की असहिष्णुता दंग करने वाली है। सरकारों ने सबसे ज़्यादा ज़्यादती जनता के लोकतांत्रिक हुक़ूक पर की है। पिछले साल हमने देखा किस तरह सरकार ने नाभिकीय ऊर्जा के मामले में लोकतंत्र को सांसदों की संख्या का एक वाहियात खेल बना कर इस संधि के विरूद्ध आवाम की एक बहुत ऊँची आवाज़ को शांत किया। लोकतंत्र को वोट के जरिए सिर्फ़ अपना शासक चुनने की व्यवस्था तक सीमित करने की इस साज़िश का पर्दाफ़ाश हुआ है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियाँ बदलने से भी अब शासन व्यवस्था की आर्थिक और विदेश नीतियों में कोई ज़मीनी बदलाव नहीं दिखता। इस साज़िश ने व्यवस्था में बदलाव के सारे स्कोप को ख़त्म किया है। लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलाव की पुरानी माँग को अब भी नज़रंदाज़ किया जा रहा है। साथ ही, किसी बेहतर वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के सारे बहस को जबरन डिफ़्यूज़ करने का काम भी किया गया है।
इन तमाम चुनौतियों से निबटने के लिए जरूरी है कि वर्तमान व्यवस्था की सर्वोच्च शक्ति संविधान के जरिए जो अधिकार हमें मिले हैं उनके प्रति हम जागरूक रहे। आज अगर कोई नयी व्यवस्था बनानी है तो यह ध्यान रखना होगा कि देश में लोकतांत्रिक स्पेस को किस तरह बरक़्ररार रखा जाये। हमेशा संघर्षशील रहना होगा कि संविधान द्वारा दिये अधिकारों पर अपनी मनमानी व्याख्या से सत्ता-वर्ग लोकतांत्रिक मूल्यों पर कोई चोट न कर पाये। भारत के तमाम नागरिकों को समतामूलक समाज में आस्था बरक़्ररार रखने के लिए अपनी कथनी और करनी में लोकतांत्रिक व्यवहारों का अभ्यास करने कि प्रेरणा मिलनी चाहिए। इन व्यवहारों का पालन आपसी संबंधों से लेकर परिवार, समाज और देश तक हर स्तर पर होना चाहिए।
जन सामान्य की चेतना का सकारात्मक विकास करना ही वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में जरूरी बदलाव लायेगा या एक वैकल्पिक राजनीतिक का बीज बोयेगा। चेतना का ऐसा विकास जो इंसानों के बीच हमेशा बेहतर व्यवस्था के लिए ऐसा स्पेस बनाये रखे, जिसमें सारे सत्ता-संबंध और उत्पादन-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक हो। समाज में जनवादी चेतना के जागरण के लिए जरूरी है एक ऐसी क्रांति जो भारत के जनमानस पर लगातार अपने सांस्कॄतिक असर के जरिए लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलावों को प्रोत्साहित करता रहे। एक सचेत और चिंतनशील समाज, जो वैज्ञानिक व तार्किक कसौटी पर अपने फैसले लेता है और इस मुताबिक़ मानवीय व्यवहार करता है, वो हमेशा अपने राजनीतिक व्यवस्था को प्रगतिशील बनाए रखेगा। अगर जनता की चेतना का इस तरह से लोकतांत्रिक विकास हुआ तो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का विकल्प ख़ुद-ब-ख़ुद तैयार हो जायेगा।
हमें बताया जाता है और हम यह मानते भी हैं कि १५ अगस्त १९४७ को हमारा देश आज़ाद हुआ और २६ जनवरी १९५० को इसे एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया। हालांकि, फिर बाद में गणतांत्रिक मूल्यों का दायरा बढ़ाते हुए संविधान(४२वें संशोधन)अधिनियम, १९७६ की धारा २ के मुताबिक़ संविधान की प्रस्तावना में सुधार करते हुए ३ जनवरी १९७७ से भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र का भी दर्ज़ा मिल गया था। पूरी सत्ता संरचना और इसका पूरा तंत्र देश की जनता को हर साल इन बातों की याद दिलाते हुए उत्सव मनाता है। हालाँकि, लोकतंत्र कोई एक दिन में हासिल की जाने वाली वस्तु नहीं; एक लम्बी सांस्कृतिक क्रांति से आयी जनचेतना है और इसे पाने के किसी भी प्रयत्न के बिना भी सत्ता तंत्र बड़े ज़ोर के साथ यह कहता भी है कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं।
जिस देश की आबादी के पांचवे हिस्से को पेट भर खाना नसीब नहीं होता हो और ५ साल से कम उम्र के लगभग ४८ प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। जहाँ धार्मिक वैमनस्यता के दंगों में सैकड़ों लोग यूँ ही मारे जाते हैं और जिसमें हमने यह भी देखा है कि सरकारों की इसके प्रति भूमिका संदिग्ध रही है (संदर्भ: दिल्ली के सिख विरोधी और गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगे)। जहाँ की संप्रभु सरकार विकास के नाम पर हज़ारों लोगों को बेघर करने और अगर विरोध हो तो किसी कठोरतम कार्यवाही से हिचकती नहीं, बल्कि इसे सही ठहराती है। संविधान के तमाम आदर्शों को ठेंगा दिखाते हुए जहाँ विकास का एजेंडा करोड़ों आमजन के हितों का सौदा कर मुट्ठी भर पूँजीपतियों का विकास हो। इस तरह की तमाम परिस्थितियों से तबाह, इस देश की भुक्त-भोगी आम जनता से आज़ादी और गणतंत्र के आडंबर पर उत्सव मनाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
इंसानियत के हक़ में कुछ ऐसे ज़मीनी बदलाव जरूरी हैं, जिनके लिए समय-समय पर दुनिया में क्रांतियाँ हुई हैं। भारत में इन्हीं बदलावों के लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन आज़ाद हो जाने के भ्रम के साठ साल बाद भी लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका। यह आज़ादी एक भ्रम इसलिए है, क्योंकि शासक चुनने की प्रक्रिया में आये बदलाव के अलावा सारी शासन व्यवस्था और संरचना जस की तस ही है, बस हुआ इतना कि विदेशी व्यापारियों को हटाकर देशी व्यापारियों ने देश की सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया। जहाँ पहले राजसत्ता अंग्रेज़ी हुक्मरानों की पैरोकार थी, वो अब देश के चंद वर्चस्वशाली लोगों के हित में खड़ी हो गयी और इंतहा यह कि आम जनता अपनी तक़लीफ़ों से निजात पाने के लिए अब तक मुँह ही ताक रही है। दरअसल सन '४७ के इस सत्ता हस्तांतरण को आज़ादी के लिए जागरुक और संघर्षशील एक व्यापक जनता के आंदोलन को देशी पूँजीपतियों के हक़ में डिफ़्यूज़ करने की एक युक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है। और उन ज़मीनी बदलावों, जिसके सपने लोगों ने देखे थे, उनकी कमी आज भी देश की आम, मेहनतकश और ईमानदार जनता के दिल को आज़ाद और गणतंत्र देश के आवाम होने के गर्व से झूमा नहीं पाती, अलबत्ता वे देशभक्त होने के नाते सिर झुका कर राष्ट्रगान जरूर गाते हैं।
हमारे देश में आज़ादी की एक लम्बी लड़ाई लड़ी गयी, लेकिन इस लड़ाई का मुद्दा विकास कभी नहीं था। विकास नामक शब्द तो विश्व राजनीति में द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त और संयुक्त राष्ट्र के उदय के साथ प्रकट हुआ। और अंगेज़ी सरकार तो कर ही रही थी वो विकास, जिसके लिए आज़ादी के बाद से ही हमारी सरकारों ने सारे प्रयत्न किए। अंगेज़ों ने सड़के बनवायी, रेलगाड़ियाँ चलवायी, बड़े स्तर पर शहरीकरण किया और कलर्क (उस समय के प्रोफ़ेशनल्स) तैयार करने के लिए कई ज़िला स्कूलों का निर्माण भी किया। लेकिन ये वो लक्ष्य नहीं थे, जिन्हें पाने की तड़प में आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी।
तो आज़ादी के लक्ष्य क्या हैं? और ये जरूरी बदलाव क्या हैं? ये हर एक इंसान के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीने के माहौल बनाने के लिए जरुरी बदलाव हैं। ये लोगों के बीच समतामूलक स्थिति को क़ायम करने के लिए बदलाव हैं। ये सामाजिक-सांस्कॄतिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाये रखने के लिए बदलाव हैं। कुल मिलाकर यह मानव व्यवहार और शासन व्यवस्था में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए वांछित बदलाव हैं। हालांकि, संविधान ने वो सारे आदर्श स्वतंत्र भारत की जनता के सामने प्रस्तुत किये जिसकी कामना में हज़ारों शहीदों ने रक्त से अपने लोगों के लिए आज़ादी का मूल्य चुकाया था। लेकिन, भ्रष्टाचार नामक सामाजिक कोढ़ ने भारतीय आम-जन के सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया। मौज़ूदा व्यवस्था में कोई खास वर्ग भ्रष्ट हो, ऐसा कहना मुश्किल है। अमूमन जो जहाँ है, वहीं भ्रष्ट है। दरअसल ब्रिटिश साम्राज्य से विरासत में मिली यह व्यवस्था ही भ्रष्ट है और हमने बाइज़्ज़त इसे बचाया ही नहीं, बल्कि और अधिक भ्रष्ट बनाया है।
इस भ्रष्ट व्यवस्था में परिवर्तन और एक लोकतांत्रिक मूल्यों से ओतप्रोत व्यवस्था को गढ़ने के लिए वर्तमान व्यवस्था के सामाजिक-सांस्कॄतिक-आर्थिक-राजनीतिक हर एक गह को दुरुस्त करने की जरूरत है। इससे पहले, यह पड़ताल करने की जरूरत है कि लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलाव को हासिल करने में आने वाले चुनौतियाँ क्या हैं और इनसे कैसे निबटा जाए।
विश्व ने अब तक कई तरह की राजनीतिक व्यवस्था देखी है। परंतु आम-जन के एक खुशहाल जीवन की आकांक्षा को इन सभी ने निराश किया है। क्या कारण है कि लोकतंत्र के स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व जैसे महान आदर्शों पर खड़ी हुयी यूरोप और अमरीका की पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था अपनी उदारता को मानव जीवन के समतामूलक उत्थान के उद्देश्यों से भटका कर पूँजी के वैश्विक विस्तार और मुनाफ़ाखोरी के सभी हथकंडों की छूट के रूप में परिभाषित करती है? और इस व्यवस्था ने कई बार सम्पूर्ण मानवता को युद्धों के रूप में अपना क्रूरतम चेहरा दिखाया है। दूसरी ओर, दुनिया ने सोवियत रूस और चीन के जरिये साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था का भी अनुभव किया है। हमें देखना होगा कि क्यों सामाजिक जीवन के विकास की इतनी सटीक, वैज्ञानिक और जनवादी अवधारणा को ध्यान में रखकर मानवीय जीवन के उच्चों आदर्शों को हासिल करने के उपरान्त भी यह व्यवस्था प्रतिक्रांति का प्रतिरोध करने की लाचारी में इंसानियत को दीर्घकालिक लाभ पहुँचाने में विफल रही? इन प्रश्नों के उत्तर किसी राजनीतिक व्यवस्था के दर्शन से इतर उसके व्यवहारों की महत्ता की ओर इशारा करते हैं।
डॉ आम्बेडकर के नेतृत्व में भारतीय संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए किया गया। मौलिक अधिकारों की एक फ़ेहरिस्त और लोक कल्याण की ओर उन्मुख नीति निर्देशक तत्व की मौज़ूदगी में यह लाज़िमी लग रहा था देश की व्यवस्था को सही अर्थ में एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र का स्वरूप दिया जा सकेगा। संविधान सभा के तमाम कोशिशों के बावज़ूद जन-सामान्य के लिए संविधान को अमल में लाना उन लोगों की जिम्मेवारी रही जो समय समय पर सत्ता या उसके तंत्र के अंग बनते रहे। अफ़सोस यह कि हम ग्वाह है तमाम राजनीतिक पार्टियों की वायदाख़िलाफ़ी के और हमने महसूस किया है लोकतंत्र का घटता दायरा। विकास के नाम पर वैश्विक पूँजी की साम्राज्यवादी एजेंट बनी सरकारों ने जहाँ एक तरफ़ कोर्पोरेट जगत को प्राकृतिक संसाधनों की अंधी लूट के लिए छुट्टा छोड़ रखा है, वहीं सिंगूर और नंदीग्राम जैसी स्थितियों में अपने ज़मीन और सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले किसानों के प्रति सरकार की असहिष्णुता दंग करने वाली है। सरकारों ने सबसे ज़्यादा ज़्यादती जनता के लोकतांत्रिक हुक़ूक पर की है। पिछले साल हमने देखा किस तरह सरकार ने नाभिकीय ऊर्जा के मामले में लोकतंत्र को सांसदों की संख्या का एक वाहियात खेल बना कर इस संधि के विरूद्ध आवाम की एक बहुत ऊँची आवाज़ को शांत किया। लोकतंत्र को वोट के जरिए सिर्फ़ अपना शासक चुनने की व्यवस्था तक सीमित करने की इस साज़िश का पर्दाफ़ाश हुआ है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियाँ बदलने से भी अब शासन व्यवस्था की आर्थिक और विदेश नीतियों में कोई ज़मीनी बदलाव नहीं दिखता। इस साज़िश ने व्यवस्था में बदलाव के सारे स्कोप को ख़त्म किया है। लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलाव की पुरानी माँग को अब भी नज़रंदाज़ किया जा रहा है। साथ ही, किसी बेहतर वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के सारे बहस को जबरन डिफ़्यूज़ करने का काम भी किया गया है।
इन तमाम चुनौतियों से निबटने के लिए जरूरी है कि वर्तमान व्यवस्था की सर्वोच्च शक्ति संविधान के जरिए जो अधिकार हमें मिले हैं उनके प्रति हम जागरूक रहे। आज अगर कोई नयी व्यवस्था बनानी है तो यह ध्यान रखना होगा कि देश में लोकतांत्रिक स्पेस को किस तरह बरक़्ररार रखा जाये। हमेशा संघर्षशील रहना होगा कि संविधान द्वारा दिये अधिकारों पर अपनी मनमानी व्याख्या से सत्ता-वर्ग लोकतांत्रिक मूल्यों पर कोई चोट न कर पाये। भारत के तमाम नागरिकों को समतामूलक समाज में आस्था बरक़्ररार रखने के लिए अपनी कथनी और करनी में लोकतांत्रिक व्यवहारों का अभ्यास करने कि प्रेरणा मिलनी चाहिए। इन व्यवहारों का पालन आपसी संबंधों से लेकर परिवार, समाज और देश तक हर स्तर पर होना चाहिए।
जन सामान्य की चेतना का सकारात्मक विकास करना ही वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में जरूरी बदलाव लायेगा या एक वैकल्पिक राजनीतिक का बीज बोयेगा। चेतना का ऐसा विकास जो इंसानों के बीच हमेशा बेहतर व्यवस्था के लिए ऐसा स्पेस बनाये रखे, जिसमें सारे सत्ता-संबंध और उत्पादन-संबंध समतामूलक और लोकतांत्रिक हो। समाज में जनवादी चेतना के जागरण के लिए जरूरी है एक ऐसी क्रांति जो भारत के जनमानस पर लगातार अपने सांस्कॄतिक असर के जरिए लोकतंत्र के लिए जरूरी बदलावों को प्रोत्साहित करता रहे। एक सचेत और चिंतनशील समाज, जो वैज्ञानिक व तार्किक कसौटी पर अपने फैसले लेता है और इस मुताबिक़ मानवीय व्यवहार करता है, वो हमेशा अपने राजनीतिक व्यवस्था को प्रगतिशील बनाए रखेगा। अगर जनता की चेतना का इस तरह से लोकतांत्रिक विकास हुआ तो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का विकल्प ख़ुद-ब-ख़ुद तैयार हो जायेगा।
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